और जेब कट गयी
ये त्यौहार भी खूब आते हैं। और जब आते हैं तो अपने साथ लाते हैं नई-नई रंगत। जिसका साल भर इन्तज़ार करने का अपना मज़ा है। लेकिन इसका बुख़ार दिल-ओ-दिमाग़ पर इस क़दर हावी हो जाता है कि जो लोग कल तक मँहगाई का मर्सिया पढ़ते नहीं थक रहे थे, वो पूरे शहर की पार्किंग और सडकों को चोक किये घूम रहे हैं। धनतेरस बाद अख़बार की हेड लाइन कोई आज भी बता सकता है। कानपुर ने धनतेरस के दिन स्वर्ण आभूषण खरीद का नया कीर्तिमान बनाया। करोड़ों रुपये जुए-पटाखों में फूँक कर, परीवा के दिन से फिर साल भर के लिये राग-दरिद्दर शुरू हो जायेगा।
जब से साल भर नये कपड़े खरीदे जाने लगे, तब से त्योहारों पर खरीददारी बस एक शगुन सा बन गया है। त्यौहार है तो उल्लास दिखना चाहिये। लेकिन अब दिखने से ज़्यादा दिखाने का चलन है। इसलिये त्यौहार दिखाने की प्रवृत्ति में हुयी बढ़ोत्तरी दिन-दूनी रात-चौगुनी प्रगति कर रही है। लोग तो बहाने खोज रहे हैं। होली एक ऐसा त्यौहार है जो अमीर-गरीब के फासले को कम कर देता है। अमीर विदेशी लेगा तो गरीब देसी। और लेने के बाद क्या राजा क्या रंक। पूरा साम्यवाद। इसलिये दीपावली को लक्ष्मी जी को सुपुर्द कर दिया गया है। अब जो चूके तो दिखाने का मौका साल भर बाद मिलेगा। कौन दिवाली रोज़-रोज़ आती है। अब जेब कटे तो कटे।
परिवार से विमर्श किया गया कि जब साल के तीन सौ पैंसठ दिन नवधनाढ्य लोग अपनी इम्पोर्टेड गाड़ियों से सडकों को जाम किये रहते हैं, (आप इसे लेखक का काम्प्लेक्स भी मान सकते हैं।), तो धनतेरस के शुभ अवसर पर और बुरा हाल हो सकता है। त्यौहार पर, जनसँख्या विस्फोट के कारण यदि एक चौथाई प्राणी भी घर से निकल आये, तो जाम की स्थिति तो बन ही जायेगी। हाँ, जाम की स्थिति में ये बड़ी-बड़ी गाड़ी वाले लोग हॉर्न और डिपर ऐसे मारते हैं जैसे टीलीली...ली करके चिढ़ा रहे हों। शहर में हाई बीम पर चलने और बेवज़ह हौंक करने वालों का तो चालान होना चाहिये। लेकिन भ्रष्टाचार के विरुद्ध सरकारें ऐसा कोई कदम उठाना नहीं चाहतीं, जिससे सरकारी नुमाइंदों को भ्रष्टाचार करने का और मौका मिले। घर वालों से मशविरा किया तो समझ आया कि समझदारी इसी में है कि मंडे को धनतेरस की शॉपिंग शनिवार को ही निपटा दी जाये। संडे साफ़-सफ़ाई और बिजली की झालर लगाने को मिल जायेगा। शादी के पच्चीस साल होते-होते पति वैसे भी ट्रांसपोर्टर (फिल्म वाला ) बन कर ही रह गया है।
इसमें किसी को शक़ नहीं होना चाहिये कि इस देश में समझदारों की कभी कोई कमी नहीं रही है। यदि बेवकूफ होते तो दो दिन में देश आज़ाद हो गया होता। तीस करोड़ हिन्दुस्तानियों के आगे एक-दो लाख फ़िरंगी दो दिन न टिकते। लेकिन यहाँ तो विपक्षी टीम को पदा-पदा के थकाने में मज़ा आता है। इसलिये मैच को जितना स्पोर्टिंग स्पिरिट से हम लेते हैं, दुनिया के और देश ले ही नहीं सकते। जीतने से ज़्यादा हम खेलने के लिये खेलते हैं। अगर मैच ख़त्म हो गया तो टाइम काटने की दिक्कत होगी। इसीलिये क्रिकेट के सारे फॉर्मैट हमने जिला के रखे हैं। टी-टवेंटी के ज़माने में यदि समय है तो टेस्ट मैच का भी आनन्द उठाइये। ससुर अंग्रेजवन को इतना झेलाया भाई, कि ख़ुद ही बाय-बाय कह कर भाग गये।
स्मार्ट सिटी बनाने का काम भी इसीलिये नहीं हो पा रहा है। या तो लोग स्मार्ट होंगे या सिटी। स्मार्ट लोग खलनायक अजित की मोना डार्लिंग की तरह हुआ करते हैं। अपने फ़ायदे के लिये नियम-क़ानून को ताक पर रखने वाले। और स्मार्ट सिटी के लिये आवश्यक हैं नियम-क़ानून का पालन करने वाले लोग। अब ऐसे में विपक्ष सरकार की नियत पर शक़ करें तो शक़ होना लाज़मी है कि कुछ तो गड़बड़ है...दया। ये सीआईडी वालों ने इतना पका रखा है कि कहीं गड़बड़ हो, दया की याद तो आनी ही है।
इतनी रामायण का आशय ये सिर्फ इतना समझाने के लिये था कि सिर्फ़ हम ही समझदार नहीं हैं। पूरा का पूरा कानपुर ही स्मार्ट है। सड़क पर जाम की शुरुआत देख कर अपनी छोटी सी तथाकथित गाड़ी को थोड़े लम्बे रूट की ओर मोड़ दिया। लेकिन चाहे पतंगा कितना बड़ा-बड़ा चक्कर काट ले गति तो शम्मा के पास जाने से ही मिलेगी। आउटर रूट से होते हुये जब लगा कि गंतव्य पास आ गया है तो भीतर की ओर घुसना आरम्भ कर दिया। जल्द समझ आ गया कि मैच लम्बा होने वाला है।
हिन्दुस्तान में निकम्मे से निकम्मे आदमी के लिये बीवियाँ भड़ास निकालने का सबसे उचित और सुरक्षित माध्यम हैं। कहीं और भड़ास निकलने की गुंजाईश ही नहीं है। बॉस है कि बस बोलता रहता है और सबऑर्डिनेट है कि सुनता ही नहीं। यारी-दोस्ती तो देखने-दिखाने के चक्कर में खत्म हो गयी। अकेले हम-अकेले तुम में ग़नीमत ये रही कि हम में पति-पत्नी और कुछ दूर तक बच्चे रह गये। यदि दोनों में से एक भी कम सहिष्णु रहा तो, भगवान दूसरे के फटे में टांग न अड़वाये, लालू के सुपुत्तर वाला हाल होता। "लिस्ट बना के दे देती तो मै स्कूटर से सब सामान ले आता। अब जाम में फँसवा दिया। झेलो"।
पत्नियों के सिक्स्थ सेन्स की दाद देनी चाहिये ये अच्छी तरह से जानती हैं कि कब, कहाँ और कैसे बदला लेना है। जानतीं हैं कि जाम में फँसे ड्राइवर को उकसाना ठीक नहीं। कार पर एक खरोंच और बढ़ जायेगी। मौका आया है तो बिन माँगी सलाह भी देता चलूँ। जीएसटी और नोटबंदी के बाद से किसी व्यापारी से भी बहस न करें। वो कैश माँगे तो कैश दें। वो रसीद देने से मना करे तो मान जायें। उन्हें जूते के बदले समोसा बेचने की सलाह तो कतई न दें। उन्हें पता होता कि बिना टैक्स के समोसे में कितना मुनाफ़ा है तो यक़ीन मानिये सारे उद्योगपति आज पकौड़ा तल रहे होते।
कुर्सी पर बैठने के लिये लड़के ने अपनी स्किन टाइट जींस से खींच-खाँच के, आड़े-तिरछे हो कर, साढ़े सात इंच का 'किसका बजा' वाला मोबाइल निकाल के मेज़ पर रख दिया। बेफ़िक्री से इधर-उधर देख के मेरे पास आया और बड़ी बेअदबी से कहा "अंकल ज़रा पेन देना"। सब्र की भी हद होती है। "ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई बैंक आये और पेन न लाये। इतना बड़ा मोबाईल ला सकते हो और पेन के लिये जगह नहीं है। बैंक आ रहे हो और पेन माँग रहे हो"। कुछ सुबह से कोई मिला नहीं था और कुछ अपने बच्चे के भी दोनों कान खुले रहने के कारण दूसरों को समझाने में आवाज़ ऊँची हो जाती है। अब लड़के अपने संस्कार और अपनी तमीज़ का परिचय दिया। "सॉरी अंकल अगली बार ले कर आऊँगा"। बच्चे ने सॉरी कह कर मेरे प्रवचन पिलाने के इरादे पर पानी फेर दिया। मैंने ग़ौर किया उसकी टी-शर्ट्स में जेब नहीं थी। बच्चे तो बच्चे हैं क्या अपने क्या पराये। मै मुस्कराया क्योंकि मेरा बेटा भी इसी दौर का है। दरअसल आजकल पता नहीं कौन सा ट्रेंड चल गया है कम्पनियों ने टी-शर्ट्स में जेब लगाना बंद कर दिया है। मेरी चिन्ता बस यही रहती है कि पेन और मोबाईल आख़िर कहाँ रखें। इस वज़ह से मै नयी टी-शर्ट्स नहीं ले पा रहा हूँ।
महिलाओं की वेशभूषा में यही कमी खटकती है। साड़ी हो या सलवार-सूट, जेब नहीं होती। इसीलिये पैसा और मोबाइल रखने के लिये उन्हें पर्स या बैग के रूप में अतिरिक्त एक्सेसरी ढ़ोनी पड़ती है। चाहे-अनचाहे ये उनके फ़ैशन या ड्रेसिंग सेन्स का हिस्सा बन चुका है। और शायद इसीलिये अपनी ख्वाइशों की ज़िन्दगी जीने को बेताब मोटरसाइकिल सवार उचक्कों के लिये वो सॉफ्ट टारगेट बन जातीं हैं। बैग में कुछ नहीं तो मोबाइल और पैसा तो मिलेगा। गहने तो बस अब लॉकर की ही शोभा बढ़ा रहे हैं। शायद इसीलिये नयी लड़कियों में जींस का प्रचलन बढ़ा है। आदमी का दिमाग भी क्या चीज़ हैं कहीं भी, कुछ भी सोच सकता है। बाहर लगे जाम और चिल्ल-पों का मेरे मस्तिष्क में उठ रहे विचारों से कोई सरोकार नहीं था।
सरकते-सरकते एकाएक मेरी निगाह बायीं तरफ़ बने एक मॉल पर पड़ी। टारगेट गंतव्य तक जाने की बात सोच कर मेरे त्यौहार का जोश कम हो चला था। मैंने गाड़ी घुमा दी। मेरी तरह फँसे समझदार लोगों ने भी यही किया होगा। ऐसा ठसाठस भरी पार्किंग देख कर प्रतीत हो रहा था। दैवयोग से मेरी छोटी सी कार के लिये पार्किंग के दिल में जगह निकल आयी। ऐज़ अ ड्राइवर, मुझे ऐसी ख़ुशी मिली जिसने शॉपिंग के बाद मुझे लौटते समय जाम की चिन्ता से मुक्त कर दिया।
पहले बच्चे पिता जी से आग्रह किया करते थे अलां चाहिये या फ़लां। पिता जी त्यौहार का हवाला देते, होली में नहीं तो दिवाली में ज़रूर दिला देंगे। भला हो अंतर्राष्ट्रीय स्तर की राष्ट्रिय गरीबी का, कि बच्चों की इच्छायें माता-पिता बिन माँगे ही पूरी कर देते हैं। सिर्फ़ हम दो- हमारे दो तक सीमित जीवन व्यवस्था ने समाज और परिवार के दूसरे सदस्यों के प्रति हमें अपनी ज़िम्मेदारियों से असंवेदनशील कर दिया है।
बहुत दिनों बाद हम सबने दिवाली पर ट्रेडिशनल परिधान पहनने का निश्चय किया था। माँ-बेटी ने सलवार सूट लिया तो बाप-बेटे ने कुर्ता-पायजामा। भीड़ और भीड़ के कारण मची हबड़-तबड़ में, दीपावली की शॉपिंग निपटाई गयी। ट्रायल की गुंजाइश नहीं थी। चीन से हमें कुछ और सीखने को मिला हो या न मिला हो लेकिन एक बात तो है कि हमने प्यार-मोहब्बत को भी चाइना का माल बना दिया है। चले तो चाँद तक नहीं तो शाम तक। एक ज़माना था जब पिता जी दो साल बड़े भाई साहब को बाटा का लोहा-लाट स्कूल शू दो नंबर बड़ा खरीदते थे। दो साल भाई पहनते फिर मेरा नम्बर आ जाता। एक नॉर्थस्टार जूते से पूरे चार साल का बी.टेक. कर डाला, जूते का बाल भी बाँका न हुआ। वो तो नौकरी के चक्कर में दिल्ली में चटक गया नहीं तो घर के म्यूज़ियम में पड़ा होता। रंग और डिज़ाइन देख कर सब कपड़े खरीद कर, जाम में फँसते-फँसाते किसी तरह घर में दाखिल हो गये।
मै टीवी के सामने नि:स्पृह भाव से चॅनेल्स बदलने में जुट गया। अन्दर ट्रायल शुरू हो चुका था। थोड़ी देर में बेटे ने पूछा "पापा कैसा लग रहा है, कुर्ता"। अपने बच्चे किसे अच्छे नहीं लगते। वो भी नये-नए कुर्ते में। "वेरी नाइस बेटा। लुकिंग ग्रेट"। अब तो अपना स्टैण्डर्ड भी फेसबुक टाइप के कमेंट्स देने का ही रह गया है। उसने मुस्कुराते हुये बताया "पापा इसमें जेब नहीं है"। "और मेरे वाले में"। "नहीं, उसमें भी नहीं है"। जाम के ख़ौफ़ से लौटाने-बदलने का साहस नहीं बच रहा था। दुकान में लिखा एक स्लोगन मुझे टीलीली... ली कर के चिढ़ा रहा था "फ़ैशन के दौर में गारंटी की अपेक्षा न करें"। चीन से हमने यही तो सीखा है।
दीपावली सर पर है। लक्ष्मी के आगमन के लिये घर की सफ़ाई भी ज़रूरी है। शॉपिंग में अपना सन्डे खराब नहीं करना चाहता। त्यौहार हैं तो जेब तो कटनी ही है। ऐसे नहीं तो वैसे।
- वाणभट्ट
पुनश्च : यह ब्लॉग एक सत्य घटना पर आधारित है। पात्र काल्पनिक हो सकते हैं। इसका जीवित लोगों से लेना-देना है। मरों की परवाह आज के युग में कौन करता है। त्यौहार के मौसम में कुर्ते में साइड जेब न लगा कर कम्पनी ने कितना श्रम, समय और पैसा बचा लिया इसका आँकलन प्रबुद्ध पाठकों पर छोड़ता हूँ। यदि आप मेरी तरह जेब प्रेमी हैं तो ट्रायल ज़रूर करके देख लें। मॉल है बड़का बाज़ार।
अति उत्तम।
जवाब देंहटाएंये हम सबकी कहानी है,प्रासंगिक एवं समसामयिक लेख।
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