शनिवार, 11 मई 2013

बीज

बीज


कृषि के क्षेत्र में काम करने वाले हर व्यक्ति को भली-भांति पता है बीज का महत्त्व। किसान के लिए संभवतः जमीन के बाद ये सबसे मंहगा और सार्थक निवेश है। जमीन की कीमत और उस पर लगने वाले ब्याज को अगर शामिल कर लिया जाये तो किसान भी पूंजीपति या उद्योगपति हो  जाये। पर शायद पूरी व्यवस्था ये नहीं चाहती। जब कोई सॉफ्टवेयर कंपनी कोई सॉफ्टवेयर बनती है तो अपने सारे ओवरहेड और मुनाफा जोड़ने के बाद उसका मूल्य निर्धारित करती है। यही प्रक्रिया कमोबेश सभी उद्योगों में लागू होती है। पर कृषि कोई उद्योग तो है नहीं। भारतीय कृषक ने तो निरंतर बढ़ रही आबादी को भूख से बचाने के लिए परोपकार करने का ठेका ले रक्खा है। भारत में तो वैसे भी परोपकार की परंपरा है। ये परोपकार गरीब जनता से विश्वासघात करके कमाए गए पैसे से भी हो सकता है।  रातों-रात जो अरब-खरबपतियों की जो फ़ौज तैयार हो गयी है उसकी खोज-खबर लेने की न किसी को चिंता है न समय। पर आम जनता से उम्मीद की जाती है कि वो पूर्ण देशभक्ति, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ भारतवंशियों के हित में तन-मन-धन समर्पित कर देगी।    

इस देश का पेट महान उक्तियों से ही भर जाता है। और ये सब उक्तियाँ शक्ति-साधन विहीन आम आदमी के लिए हैं। महान लोगों ने तो इस देश की अज्ञानी, अकर्मण्य, अशिक्षित जनता को सुधारने के लिए ही इस पावन धरा पर अवतरित होने का निश्चय लिया। अगर ये न होते तो देश कैसे चलता। न उद्योग होते, न नेता, न प्रवचन, न प्रगति। तो आम आदमी की क्या गति होती। बेचारा इह लोक से भी जाता उह लोक से भी। उसे तो उच्च आदर्श स्थापित करने हैं तभी देश आगे जायेगा दुनिया में देश का नाम होगा। सारी कबड्डी आम आदमी की हड्डी पर। अमरुद आदमी तो बस देश को लूट खाने के लिए ही पैदा हुआ है। देश का पैसा या तो गद्दों में भरा है या स्विस बैंकों में। किसान के जन्म की सार्थकता तभी है जब वो देश के लिए सबकुछ अर्पण कर दे और कुछ हद तक ये हो भी रहा है -     


वृक्ष कबहु नहीं फल भखें
नदी न संचय नीर 
परमारथ के कारने 
साधून धरा शरीर 

भारतीय किसान ने भी शक्ति-साधन सम्पन्नों से लेकर भूखे-नंगों का पेट पालन करने का जिम्मा ले रक्खा है। इस देश में सभी उद्योग फल फूल रहे हैं। कार से लेकर मोबाईल तक। फटफटिया से लेकर हवाई जहाज तक। सॉफ्टवेयर से लेकर सेवा तक। हर तरफ तरक्की की बयार है नए नए उद्योग खुल रहे हैं और बाजार में पैसा ही पैसा बहा पड़ रहा है। अमीर और अमीर होता जा रहा है और गरीब और गरीब। दस लाख को ग्यारह लाख करना आसन है पर दस रुपये को ग्यारह रुपया करना नामुमकिन। मोटे और सरसरी तौर पर ये कहा जा सकता है कि भारत में पूंजीवाद की जो लहर आई है उसने देश को विश्व के अग्रिम देशों की कतार में खड़ा कर दिया है। महानगरों की संस्कृति ने कस्बों तक घुसपैठ बना ली है। बेतहाशा बढ़ाते टी वी चैनलों को इसका श्रेय देना चाहिए या नहीं वाद-विवाद का विषय हो सकता है। पर इसमें कोई शक नहीं की अब दूरस्थ गावों में भी आपका स्वागत ब्रैंडेड चिप्स और कोक से हो सकता है। 

आज देश में प्रगति का माहौल है। उद्यमिता और उद्योग के इस युग में जो पीछे रह गया वो बहुत पीछे रह जायेगा। उद्योग का सीधा तात्पर्य है मुनाफा, लागत निकालने के बाद। क्या ये बात कृषि पर लागू होती है? फसल चाहे शहर के पास उगे जाये या शहर से दूर सब धान एक ही पसेरी। शहर के पास वाली जमीन की कीमत न तो उत्पादन मूल्य में जोड़ी जाती है न ही दूर-दराज़ गाँव से फसल को मंडियों तक लाने का परिवहन शुल्क। पर किसान के ऊपर देश को भोजन करने की सम्पूर्ण जिम्मेदारी है। सॉफ्टवेयर वाले और मोबाइल वाले और लैपटॉप वाले और कम्प्यूटर वाले और कार वाले और हवाई जहाज वाले और न जाने कौन-कौन इस अपराधबोध से मुक्त हैं। इसलिए उद्योग बन गए और मुनाफे पर ही सौदा करते है। वैसे भी उन्होंने परोपकार के लिए धंधा नहीं शुरू किया है। जब मुनाफा हद से बढ़ जायेगा और जब उन्हें लगेगा की देश से उन्होंने कुछ ज्यादा ही निचोड़ लिया है तो कुछ मंदिर, अनाथालय या स्कूल बना कर देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो लिया जायेगा।   

कुछ दिन पूर्व बीज उत्पादन समूह की एक बैठक में भाग लेने का मौका मिला। एक ही फसल की अनेकों प्रजातियाँ हैं। सब एक से एक उन्नत एक से बढ़ कर एक। इतनी प्रजातियों का बीज उत्पादन भी एक वृहद् कार्य है। और एक बहुत बड़ा समूह इस काम में संलग्न है। चूँकि बीज खेती का सबसे मूल और प्रमुख निवेश है। कृषक को उचित बीज उपलब्ध कराना  एक बड़ा ही पावन और पुनीत कार्य है। इस कार्य में बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थाएं एवं कंपनिया लगीं हुईं हैं। बीज उत्पादन अपने आप में एक बिलियन डालर इंडस्ट्री बन चुकी है और ये दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती जा रही है। ताकि किसान को उच्च गुणवत्ता का बीज मिल सके। इस पुनीत कार्य की महानता को देख कृषि से सम्बंधित किसी भी व्यक्ति का हृदय नत-मस्तक हुए बिना नहीं रह सकता। सभी बीज उत्पादकों का लक्ष्य भारतीय कृषक ही है।

हाल ही में एक बहुराष्ट्रीय चिप्स बनाने वाली कम्पनी  में जाना हुआ। उनका पूरा का पूरा प्लान्ट ऑटोमेटेड है। एक तरफ से आलू डालो और दूसरी तरफ से चिप्स निकालो। काफी लम्बी और वृहद् प्लांट संरचना थी। विभिन्न यूनिट ऑपरेशंस से गुजरता हुआ आलू उस अवस्था में पहुँचता है की पूरे देश में हम कहीं भी उस कंपनी का पैकेट खोलें तो वही चिर-परिचित स्वाद मिलेगा। यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि वे लोग कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग के माध्यम से कुछ चुनिन्दा प्रजातियों का ही उत्पादन करवाते हैं जिससे उनको एक सुनिश्चित गुणवत्ता का कच्चा माल मिल सके। और उनके अंतिम उत्पाद यानि चिप्स की गुणवत्ता भी सुनिश्चित रहती है। बिना किसी मशीन मापदण्ड में परिवर्तन किये मशीनें पूरे साल (365x24x7) काम करतीं रहतीं हैं।  किसान, दाल मिलर्स और वैज्ञानिकों की एक मीटिंग में भी मिलर्स ने एक सामान कच्चे माल की आपूर्ति के लिए किसानों और वैज्ञानिकों का आह्वान किया। वे एक ही क्वालिटी के खड़े दानों के लिए समर्थन मूल्य से अधिक पैसे भी देने को तैयार हैं। क्योंकि इससे वो अपने प्रसंस्करण मूल्य को कम कर सकने में समर्थ थे। 

यहाँ ये समझना आवश्यक है कि बीजों का अंतिम उपभोक्ता, जिसे अमूमन किसान समझ लिया जाता है, नहीं है। बीज का अंतिम उपभोक्ता प्रसंस्करण कर्ता है या खुद उपभोग करने वाला व्यक्ति है। जिसे प्रजातियाँ विकसित करते समय हम कभी ध्यान में नहीं रखते हैं। प्रसंस्करण उद्योग चाहता है एक सा कच्चा माल और एक सा उत्पादित पदार्थ। पूरे देश में अगर सोहन पपड़ी खायी जाये तो उसका स्वाद एक सा हो। पिज़्ज़ा चाहे कानपुर में खाएं या नागपुर में हमारी पसंद में अंतर नहीं आना चाहिए। अमृतसर की एक गली में लोग सिर्फ इसलिए खाना खाने जाते हैं कि वैसा खाना दुनिया के किसी कोने में नहीं मिला। उसका कोई भी दूसरा आउटलेट नहीं है जबकि फ्रेंचाईज़ी लेने को बहुतेरे तैयार बैठे हैं। एक सामान इनपुट रॉ मटेरियल निश्चय ही प्रसंस्कृत उत्पाद की गुणवत्ता को भी बनाये रखता है। 

इसलिए बीज को डिज़ाइन के समय से ही अंतिम यूजर प्रोस्सेसर/उपभोक्ता को ध्यान में रक्खा जाना चाहिए। क्रासिंग के प्रथम चरण से अंतिम चरण तक बीज की फ़ूड वैल्यू और प्रसंस्करण गुणवत्ता का समावेश अत्यंत आवश्यक है। तब शायद हमें इतनी अधिक प्रजातियों की आवश्यकता भी न पड़े। इससे न सिर्फ हमें सामान गुणवत्ता की फसल मिलेगी बल्कि गुणवत्तापरक बीज उत्पादन भी सहज हो जायेगा। जितनी कम प्रजातियाँ होंगी उतनी ही बीज की उपलब्धता बढ़ेगी। किसानों की बीजों  के लिए बीज उत्पादक संस्थाओं पर निर्भरता भी घटेगी। एक प्रजाति की फसल लेने से न सिर्फ मशीनीकरण आसान हो जायेगा बल्कि उत्पादन मूल्य में भी काफी कमी आ जाएगी। 

एक भाई ने चिंता जाहिर की कि यदि सिर्फ एक प्रजाति उगे गयी और कोई बीमारी या कीड़ा लग गया तो। प्रतिरोधक क्षमता टूट गयी तो। देश क्या खायेगा? विद्वानों का डर वाजिब हो सकता है। पर जिस देश में 15 विभिन्न कृषि जलवायु वाले क्षेत्र हों वहां ये डर जायज़ नहीं लगता। पचास साल की उम्र में प्लेग, डेंगू, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू को देश भर में दस्तक देते देखा है। पर सबकी प्रतिरोधक क्षमता जवाब दे गयी हो ऐसा नहीं सुना।बीजों की प्रजातियाँ जितनी कम होंगी उतना ही अधिक बीज आसानी से उपलब्ध होगा। क्रॉस पोलिनेशन का भय भी कम होगा और हर साल बीज का रिप्लेसमेंट भी होता रहेगा। एक नहीं तो दो या तीन प्रजातियाँ शायद काफी हों एक ज़ोन के लिए। नयी प्रजातियाँ तभी चिन्हित की जानी चाहिए जब न सिर्फ उनका उत्पादन, उत्पादकता, प्रतिरोधक क्षमता अधिक हो बल्कि उनकी खाद्य और प्रसंस्करण गुणवत्ता भी उन्नत हो।         

अफ़सोस होता है जब देखता हूँ बीज उद्योग बन गया, कीटनाशक उद्योग बन गया, खरपतवार नाशक उद्योग बन गया, मशीन उद्योग हो गया, सिंचाई उद्योग बन गयी। यहाँ तक कि भण्डारण और प्रसंस्करण भी उद्योग बन गया, पर खेती, खेती ही रह गयी। कृषि सम्बन्धी सभी उद्योगों का लक्ष्य उपभोक्ता (Target User) तो किसान ही है। सारे उद्योग मुनाफा प्रधान हो गए जबकि किसान अपने उत्पाद को अभी भी समर्थन मूल्य पर बेचने को विवश है। जब मिलिअन्स हेक्टेयर पर एक ही प्रजाति की खेती होगी। खेती की भूमि का किराया/ब्याज जब उत्पाद मुल्य में जुड़ेगा। किसान के पास समुचित भण्डारण और प्रसंस्करण की सुविधा होगी। तब खेती भी एक उद्योग से कम नहीं रहेगी। तब शायद हम गर्व से कह सकें - उत्तम खेती, माध्यम बान...

जिस तरह भारतेंदु जी ने कहा था निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कै मूल, बिनु निज भाषा ज्ञान कै मिटै न हिय को शूल। उसी तर्ज पर भारत जैसे कृषि प्रधान देश को ये भी कहना चाहिए - 


औद्योगिक कृषि है सब उद्योगन कै मूल, 

कम्प्यूटर, मोबाइल, कार सब, है हाथे की धूल,
इक दिन खाली पेट हो, तो सब कुछ जईहौ भूल। 


जय किसान!


- वाणभट्ट    

           

10 टिप्‍पणियां:

  1. भारतीय कृषक ने तो निरंतर बढ़ रही आबादी को भूख से बचाने के लिए परोपकार करने का ठेका ले रक्खा है..........आपका यह अविस्‍मरणीय और अत्‍यन्‍त विचारणीय लेख बहुत अच्‍छा लगा। यह पूर्णरुपेण मेरी भावना के अनुकूल भी है। उत्‍तम रचना।

    औद्योगिक कृषि है सब उद्योगन कै मूल,
    कम्प्यूटर, मोबाइल, कार सब, है हाथे की धूल,
    इक दिन खाली पेट हो, तो सब कुछ जईहौ भूल।........सटीक छन्‍द बनाया। कब समझेंगे कर्ताधर्ता की जरा भूखे रह कर करो आधुनिकता का झण्‍डा बुलन्‍द, तब हम देखें। कृषकों की इतनी उपेक्षा का दण्‍ड ही तो भुगत रहा है यह कलिकाल।

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  2. Fully agree with your views but differ for some points. As you mentioned that in your 50 years of existence, you have never seen everyone succumbing to diseases. This is mainly because each one of us has different genetic makeup. Had it been same for all of us, then you can imagine. Quite possible, that our existence would have been in question. The same holds true for crop varieties and that is why a bunch of varieties with different genetic make up are preferred. In addition, consumers of different regions have different preference. For example, basmati rice is a preferred product for north India but the same is not preferred in Kerala. Secondly, you mentioned that our country have 15 agro-ecological zones. Different varieties are required to be grown successfully in different zones to suit their agro-ecological conditions.
    My friend, diversity is always preferred for dynamic growth. there is no problem in developing thousand and thousand genetically different varieties with same quality traits to meet the preference of processers and consumers.

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    1. Thanks Dr. Shiv for your critical inputs. I do have very high regards for genetic diversity but creating more and more genetic variability without considering end users (farmer & consumer) boggles me. Tailor made designer crops to suit requirement of individuals is luxury. Main concern is to make farming a profitable business.

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  3. विषय विशेज्ञता न होने के चलते फ़ायदे नुकसान नहीं नाप पा रहा हूँ, लेकिन इस बात से कोई दोराय नहीं कि कृषक को इस कार्य के लिये उचित पारिश्रमिक और सम्मान मिलना ही चाहिये। प्रसून जी, मैंने जो अनुभव किया है वो ये कि समर्थ किसी भी क्षेत्र में हो, लाभ लेने की स्थिति में है ही। एक बैंकर होने के नाते देखा है कि सस्ते सरकारी कर्ज का लाभ भी जरूरतमंद कृषक से ज्यादा समर्थ कृषक ही उठाता है। कुछ विशेष न करके भी छह या सात र्प्रतिशत की दर से ऋण और उसी पैसे को नौ से दस प्रतिशत पर उसी बैंक में फ़िक्स डिपोज़िट, जमती है बात? लेकिन, इट हैपंस ओनली इन इंडिया।

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    1. समरथ को नहीं दोष गोसाईं...समर्थ लोग जिनसे उम्मीद थी कि देश का भला करेंगे...वो अपने ही भले में लिप्त हो गए...

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  4. औद्योगिक कृषि है सब उद्योगन कै मूल,
    कम्प्यूटर, मोबाइल, कार सब, है हाथे की धूल,
    इक दिन खाली पेट हो, तो सब कुछ जईहौ भूल।..

    जब कुछ नहीं था ... मुझे लगता है कृषक तब भी था ... पेट पालने के लिए ...
    उसका महत्त्व तो कम हो ही नहीं सकता कभी जीवन में ...

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  5. डॉक्टर शिव की बातों से कुछ मेरा भी सरोकार है | डाइवर्सिटी तो भाई जरूरी है | विकास के लिये डाइवर्सिटी की ऑट ली जाती है | यह डाइवर्सिटी आज लग्गार्ड्स (निचले तबके) या किसान के पास ही बची है अतः उसे ही एक्सप्लाय्ट/ चूस कर हम उपर तबके के लोग विकास के भवर जाल मे फंसते जा रहे हैं| शिव जी कैलाश मे कैसे रहते थे घर तक नहीं बनवाया डाइवर्सिटी को कन्सर्व करने के कारण और हम क्या कर रहे है ? हमे तो ह्यूमन डाइवर्सिटी की फिक्र अधिक है पोधे की तो कम| अतः प्रसून भाई अपनी डाइवर्सिटी को बरकरार रखनी है | सकल अलग अलग तो विचार तो होगे ही|

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  6. Bilkul Thek Kaha. Kisanon ka Bhala tabhi Hoga jab agriculture ka commercialization hoga. Alu-Chips ki tarah.

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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