रविवार, 31 मार्च 2013

अपनी-अपनी होली

अपनी-अपनी होली 

होली सर पर थी। पडोस के एक बच्चे की सालगिरह भी आन पड़ी थी। बच्चों ने मोबाईल करके बोल दिया पापा पिचकारी और गिफ्ट लेते आइयेगा। आजकल के बच्चों को तो बस सब चीज़ हाँथ में चाहिए। वो वर्चुअल दुनिया में इतने मशगूल हैं कि किसी तीज-त्यौहार के प्रति उत्साह दिखाई नहीं देता। होली हो या दिवाली फेसबुक पर ही बधाइयाँ ली-दीं  जातीं हैं। एक हम लोग थे दिवाली से दो दिन पहले पटाखे धूप में सुखाने लग जाते थे। झालरें खुद बनाई जातीं थी और अगली दिवाली के पहले जब वो जलने से मना कर देतीं तो एक-एक बल्ब को टेस्टर से टेस्ट किया जाता। होली में पीतल की पिचकारियों के वॉशर को कडुए तेल में डुबो कर रख दिया जाता था। किसको किस तरह और कहाँ-कहाँ रंग लगाना है इसकी स्ट्रेटेजी बच्चा पार्टी बनाने लगती थी। हर कोई उत्साह से अपने रंग को एकदम पक्का बताने में लगा रहता था। बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर बस त्यौहार का ज़िक्र होता। और त्यौहार की तैयारी करने की सारी जिम्मेदारी बच्चों पर होती थी। बड़ों का हस्तक्षेप सिर्फ हड्काने और मुद्रा उपलब्ध करने तक ही सीमित था। हमने भी तो बच्चों को बच्चा बना कर रख छोड़ा है। सारे गैजेट्स मोहैया करा दिए। बस्तों के बोझ के नीचे दबे बच्चों को माँ-बाप भी कुछ बोल नहीं पाते। कुरकुरे, टकाटक, चिप्स और चॉकलेट तो इन्सेन्टिव की तरह हैं कि बच्चे दफ्तर से लौटे माँ-बाप से ज्यादा मगजमारी न कर पाएं। एक हमारे ज़माने के माँ-बाप थे उन्हें बच्चों से मगजमारी की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।

ट्रेडिशनल पुरखे तो अगली पीढ़ी को हमेशा अपने से कमतर बताने में लगे रहते हैं पर जब मै देश की वर्तमान अवस्था और व्यवस्था पर नज़र डालता हूँ तो हर जगह तरक्की झलकती नज़र आती है। अगर आने वाली नस्लें अपने पुरखों से ख़राब होतीं तो शायद दृश्य कुछ अलग होता। मै अपने को ट्रेडिशनल बापों की श्रेणी से अलग रखता हूँ इसलिए मुझे अगली पीढ़ी में संभावनाएं दिखाई देतीं हैं। मुझे विश्वास है कि भारत ही नहीं विश्व के सभी देशों का वर्तमान भूत से बेहतर है और आगे भी बेहतर ही होगा। ऑफिस में अपने तथाकथित मैनेजरों की तुलना में नयी पौध ज्यादा अच्छा मैनेज करती है और ज्यादा विश्वसनीय है। ये बात अलग है कि  उनकी सत्यनिष्ठा ऐसे व्यक्ति लिखते हैं जिनकी सत्यनिष्ठा देश-समाज के प्रति न हो कर आत्म-केन्द्रित रहती है। गत वर्षों में युवाओं ने जिस शिद्दत से भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ी वो हमारी और हमारी पिछली पीढ़ियों ने कभी न देखा था न सुना। वो अभी भी भ्रष्ट व्यवस्था को संरक्षित-संवर्धित करने को प्रतिबद्ध दिखाई पड़ते हैं। ये हम कहाँ आ गए। बात तो बात है। निकलती है तो कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है। मै तो खिलौनों की दुकान में पिचकारी और गिफ्ट के इरादे से घुस चुका था।

रंग-बिरंगी पिचकारियों और खिलौनों से अटा पड़ा था वो शो-रुम। ये बात अलग है कि सभी सामान चीन से आयातित ही दिखाई दे रहा था। मैंने बताया कि अपने बच्चों के लिए मुझे प्रेशर वाली पिचकारियाँ चाहिए और एक बर्थडे गिफ्ट भी। शो-रूम की हैसियत के हिसाब से हमारी क्रय शक्ति भी बढ़ जाती है। कहीं दुकानदार हमें ऐरा-गैरा न समझ ले इस लिए नौकरी-पेशा आदमी जल्दी दाम नहीं पूछता। लेबल पर दाम पढ़ने की कोशिश ही करता रहता है। पर खिलौनों के मामले में ऐसा नहीं है। प्रिंट प्राइस अगर चार सौ लिखा है तो दो-ढाई सौ तक मोल-भाव हो सकता है। ये शो-रूम भी इस बात से अलग नहीं था। रसीद तो देनी नहीं है न ही कोई टैक्स।

सेल्समैन ने मेरे बजट का एक अनुमान पूछा। जैसे टोह लेना चाहता हो कि बन्दे ने सिर्फ ढंग के कपडे पहन रक्खे हैं या जेब में पैसा भी है। मेरी पुरानी मारुती दूर खड़ी थी वर्ना आदमी की औकात बताने के लिए कार और कार का मॉडल काफी है। ये बात अलग है कि कार भाड़े की हो सकती है या कर्जे की। सेल्समैन ने मेरे मतलब के सामान दिखाने शुरू कर दिए थे जब उसने प्रवेश किया। 

उसके चहरे पर कुछ वैसे ही भाव थे जैसा पढ़ते समय कभी बिन पैसे रेमंड्स के शो-रूम में घुसते हुए मेरे हुआ करते थे। लगता था सेल्स मैन ने नज़रों से मेरी पॉकेट अपनी आँखों से स्कैन कर लिया हो। और उसे पता हो फटीचर सिर्फ कपड़ों को हाथ लगा लगा के गन्दा करेगा और खरीदेगा फुटपाथ से। एक बार जब आदमी को पढ़ने की आदत लग जाये तो उसके हाव-भाव, वेश-भूषा, चाल-चलन सब बता देता है कि बन्दे की वकत कितनी, कुछ खरीदेगा या नहीं। और सेल्समैन के सामने से तो रोज़ सैकड़ों लोग निकलते रहते हैं। पर उसने बड़े लोगों की तरह अपनी असलियत छुपाने का कोई प्रयास भी नहीं किया था।

कपड़ों से देख कर कोई भी ये निष्कर्ष निकाल सकता था कि वो मेहनत-मजदूरी कर के अपना जीवन-यापन करता होगा। मेहनतकश बलिष्ठ शरीर उसके कई दिनों से साफ़ न किये गए कपड़ों से साफ़ झलकता था। आँखों की चमक बताती थी कि उसे अपने और अपने काम पर भरोसा था। आत्मविश्वास से लबरेज लगीं थीं उसकी आँखें। वर्ना ऐसे कपडे पहन कर कोई उस शो-रूम में घुसने से पहले कई बार सोचता। उसके साथ उसका ६-८ साल का खूबसूरत प्यारा सा बेटा भी था। बच्चे ने देखते ही हाई -प्रेशर वाली पिचकारी पकड़ ली। पापा यही वाली चाहिए। सेल्समैन ने बच्चे के बाप को ऐसे देखा जैसे कोई धन्नासेठ की औलाद बनाने की कोशिश कर रहा हो। बाप मुस्कराया। बेटा चला के तो देख लो। देखो कितनी दूर तक फ़ेंक सकती है ये रंग। कहीं फुस्फुसिया पटाखे सी फुस्स न हो जाये। फिर वो सेल्समैन से बोल भाई जरा इसको चला के तो दिखाओ।

सेल्समैन सुबह से कितनी ही पिचकारियाँ बेच चुका था। पर ये पहला ग्राहक था जिसने चला के पिचकारी देखने का आग्रह किया होगा। थोडा हिकारत से बोला ३०० की है। अरे मैंने दाम तो नहीं पूछा बस चला के दिखाने को कहा है। मुझे उसकी दिल्लगी और सेल्समैन की बेरुखी में मज़ा आने लगा था। इसलिए बोला पहले आप इसे ही निपटा लो तब तक मै खिलौने देख लेता हूँ। सेल्समैन ने पानी भर कर उस पिचकारी को दुकान के बाहर चलाया। अब बाप ने उसे हिकारत से देखा। ये कोई प्रेशर पिचकारी है? हमारी प्लास्टिक की पिचकारी भी १५ मीटर से ज्यादा दूर फ़ेंक सकती है। ये तो बस १० मीटर ही तक गयी। लड़का बोला पापा मुझे ये पिचकारी पसंद है। पर बाप था कि अड़ गया। नहीं बेटा ये बड़ी दुकान वाले घटिया सामान रखते हैं। दाम की तो पूछो नहीं। सेल्समैन और मै  दोनों उसकी मंशा ताड़ने की कोशिश कर रहे थे। सेल्समैन ने मुस्करा के देखा बोला भाई पिचकारी पसंद नहीं आई या दाम। 

वो मुस्करा कर बोला बेटा चल ये पिचकारी अच्छी नहीं है। अपने मोहल्ले के पंसारी के यहाँ बहुत नयी-नयी पिचकारियाँ आयीं हैं वहीँ से ले लेंगे।  बच्चा इतना प्यारा था कि मन में आया एक पिचकारी उसे गिफ्ट कर दूँ। पर हीरो की तरह जीने वाले उस बाप से बेटे के सामने कुछ कहने की इच्छा नहीं हुयी। बच्चे का हाथ पकड़ वो झट से बाहर निकल गया। 

- वाणभट्ट       










          

10 टिप्‍पणियां:

  1. आजकल त्यौहार की भी सिर्फ़ खानापूर्ति भर रह गयी है।

    जवाब देंहटाएं

  2. गहन अर्थों से व्यक्त बात कही है आपने
    सुंदर प्रस्तुति

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों ख़ुशी होगी

    जवाब देंहटाएं
  3. कितना कुछ इस एक बिंदु पर आकर ही रुक जाता है.....

    जवाब देंहटाएं
  4. सेल्समैन सुबह से कितनी ही पिचकारियाँ बेच चुका था। पर ये पहला ग्राहक था जिसने चला के पिचकारी देखने का आग्रह किया होगा। थोडा हिकारत से बोला ३०० की है। अरे मैंने दाम तो नहीं पूछा बस चला के दिखाने को कहा है.....jindgi ke ik rang ye bhi hain....

    जवाब देंहटाएं
  5. चीज़ को तोल मोल के देखना जरूरी है ओर फिर उसका प्रतिकार भी जरूरी है ...
    अच्छा संस्मरण ...

    जवाब देंहटाएं
  6. अच्छी झलक दिखाया है आपने ..होली का.

    जवाब देंहटाएं

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...