देशभक्ति
देशभक्ति की ऐसी मिसालें अपने इतिहास में मिलतीं हैं कि हम खुद को महान समझने से रोक नहीं पाते। भाव कुछ ऐसा की हमारे बाप-दादा ने घी खाया था, हमारा हाँथ सूंघो। अपने अगल-बगल का हाल ये है की देशभक्त और देशभक्ति की बात परिहास का विषय बन गया है। और कुछ इच्छाधारी लोग जब चाहें इसे अपने शरीर पर ओढ़ लें और जब चाहे आत्मा में घुसेड लें। ये नेता टाइप के जीव होते हैं और जो देश को हरवक्त ये एहसास दिलाते की वो न होते तो देश पता नहीं किस गर्त में डूब गया होता। साठ सालों में अन्य देश कहाँ से कहाँ पहुँच गए और हम घोटालों की पर्त खोलने में लगे हैं। भला हो प्रिंट और चित्र मीडिया का, इसने इस देश में भगवान् का काम किया है। यानि ये मीडिया ही है जो सर्वत्र विद्यमान है, सब कुछ देख-सुन रहा है। कुछ भी देख सकता है, सुन सकता है।
गीता प्रेस की चोखी कहानियों में एक कहानी पढ़ी थी, कि भगवान् सब जगह है सब कुछ देख रहा है। ऐसा एक पिता ने अपने बालक को बताया। कभी ऐसी स्थिति आई की घर में फांके की नौबत आ गयी। पिता पड़ोस के खेत में घुस कर कुछ अन्न का जुगाड़ करने लगा। अपने बच्चे को बाहर खड़ा कर दिया कि कोई देखे तो बता देना। थोड़ी देर बाद उसने पूछा बेटा कोई देख तो नहीं रहा है। बच्चे के जवाब से हम सब वाकिफ हैं। पिता ने चोरी करने का इरादा छोड़ दिया। बच्चे ने उसकी आँखे खोल दीं। सिर्फ महान बातें करने से कोई महान नहीं हो जाता। और किसी देश को महान बनाने के लिए उसके लोगों का आचरण और चरित्र की अहम् भूमिका है।
कुछ दिन पहले एक वक्ता को सुनने का सौभाग्य मिला। बात देशभक्ति की थी। 1948 में स्थापित होने के पहले इजरायल का अत्यंत संघर्षपूर्ण इतिहास रहा है। सैकड़ों साल के संघर्ष में यहूदी पूरी दुनिया में बिखर गए थे। उन्हें दरकार थी इस धरती पर जमीन के कुछ हिस्से की। कोई और देश उनकी इस इच्छा को कैसे मान लेता। लिहाज़ा उनके सामने एक दुश्वार जंग थी। वो दुनिया के विभिन्न कोनों में छिप के रहते। जब मिलते तो विदा के समय एक-दूसरे से कहते - फिर मिलेंगे दोस्त अपने इजरायल में। इस तरह पुश्तों तक उन्होंने उस इजरायल को जिंदा रक्खा जो धरती पर कहीं था ही नहीं।
एक यहूदी मित्र के बाबा की मृत्यु हो गयी थी। उसमें शरीक होने पहुंचे लोगों ने देखा कि जब अंतिम यात्रा के लिए शव को निकला जा रहा था। मित्र की दादी ने सोने की डिबिया से चांदी का पाउडर निकाल कर शव के नीचे बिछा दिया। कुछ अजीब सी रस्म थी ये किसी हिन्दुस्तानी के लिए। बाद में जब मित्र से पूछा कि दादी ने शरीर के नीचे क्या बिछाया था। सुन कर इजरायली दोस्त की आँखें नम हो गयीं। बोला हम यहूदियों की ये तमन्ना होती है कि हमारी मृत्य हमारी ज़मीं पर हो। वहां से विस्थापित होते समय हमारे पुरखे वहां की मिटटी अपने साथ ले आये थे। ये हमारे वतन की मिटटी है जो किसी इजरायली के शरीर के नीचे डाली जाती है, मृत्य के समय।
वतन के प्रति इस प्रेम के बारे में सुन कर सभागार में उपस्थित हम भारतीयों ने खूब तालियाँ बजायीं, जोश में। बाहर निकलते समय मै सोच रहा था कि हम अपने देश से भागते हुए क्या ले जाते, अपने साथ।
- वाणभट्ट
देशभक्ति की ऐसी मिसालें अपने इतिहास में मिलतीं हैं कि हम खुद को महान समझने से रोक नहीं पाते। भाव कुछ ऐसा की हमारे बाप-दादा ने घी खाया था, हमारा हाँथ सूंघो। अपने अगल-बगल का हाल ये है की देशभक्त और देशभक्ति की बात परिहास का विषय बन गया है। और कुछ इच्छाधारी लोग जब चाहें इसे अपने शरीर पर ओढ़ लें और जब चाहे आत्मा में घुसेड लें। ये नेता टाइप के जीव होते हैं और जो देश को हरवक्त ये एहसास दिलाते की वो न होते तो देश पता नहीं किस गर्त में डूब गया होता। साठ सालों में अन्य देश कहाँ से कहाँ पहुँच गए और हम घोटालों की पर्त खोलने में लगे हैं। भला हो प्रिंट और चित्र मीडिया का, इसने इस देश में भगवान् का काम किया है। यानि ये मीडिया ही है जो सर्वत्र विद्यमान है, सब कुछ देख-सुन रहा है। कुछ भी देख सकता है, सुन सकता है।
गीता प्रेस की चोखी कहानियों में एक कहानी पढ़ी थी, कि भगवान् सब जगह है सब कुछ देख रहा है। ऐसा एक पिता ने अपने बालक को बताया। कभी ऐसी स्थिति आई की घर में फांके की नौबत आ गयी। पिता पड़ोस के खेत में घुस कर कुछ अन्न का जुगाड़ करने लगा। अपने बच्चे को बाहर खड़ा कर दिया कि कोई देखे तो बता देना। थोड़ी देर बाद उसने पूछा बेटा कोई देख तो नहीं रहा है। बच्चे के जवाब से हम सब वाकिफ हैं। पिता ने चोरी करने का इरादा छोड़ दिया। बच्चे ने उसकी आँखे खोल दीं। सिर्फ महान बातें करने से कोई महान नहीं हो जाता। और किसी देश को महान बनाने के लिए उसके लोगों का आचरण और चरित्र की अहम् भूमिका है।
कुछ दिन पहले एक वक्ता को सुनने का सौभाग्य मिला। बात देशभक्ति की थी। 1948 में स्थापित होने के पहले इजरायल का अत्यंत संघर्षपूर्ण इतिहास रहा है। सैकड़ों साल के संघर्ष में यहूदी पूरी दुनिया में बिखर गए थे। उन्हें दरकार थी इस धरती पर जमीन के कुछ हिस्से की। कोई और देश उनकी इस इच्छा को कैसे मान लेता। लिहाज़ा उनके सामने एक दुश्वार जंग थी। वो दुनिया के विभिन्न कोनों में छिप के रहते। जब मिलते तो विदा के समय एक-दूसरे से कहते - फिर मिलेंगे दोस्त अपने इजरायल में। इस तरह पुश्तों तक उन्होंने उस इजरायल को जिंदा रक्खा जो धरती पर कहीं था ही नहीं।
एक यहूदी मित्र के बाबा की मृत्यु हो गयी थी। उसमें शरीक होने पहुंचे लोगों ने देखा कि जब अंतिम यात्रा के लिए शव को निकला जा रहा था। मित्र की दादी ने सोने की डिबिया से चांदी का पाउडर निकाल कर शव के नीचे बिछा दिया। कुछ अजीब सी रस्म थी ये किसी हिन्दुस्तानी के लिए। बाद में जब मित्र से पूछा कि दादी ने शरीर के नीचे क्या बिछाया था। सुन कर इजरायली दोस्त की आँखें नम हो गयीं। बोला हम यहूदियों की ये तमन्ना होती है कि हमारी मृत्य हमारी ज़मीं पर हो। वहां से विस्थापित होते समय हमारे पुरखे वहां की मिटटी अपने साथ ले आये थे। ये हमारे वतन की मिटटी है जो किसी इजरायली के शरीर के नीचे डाली जाती है, मृत्य के समय।
वतन के प्रति इस प्रेम के बारे में सुन कर सभागार में उपस्थित हम भारतीयों ने खूब तालियाँ बजायीं, जोश में। बाहर निकलते समय मै सोच रहा था कि हम अपने देश से भागते हुए क्या ले जाते, अपने साथ।
- वाणभट्ट
"किसी देश को महान बनाने के लिए उसके लोगों का आचरण और चरित्र की अहम् भूमिका है ... "हम अपने देश से भागते हुए क्या ले जाते, अपने साथ?"
जवाब देंहटाएंप्रासंगिक आलेख - आभार
जवाब देंहटाएंइजराईल जैसा जज्बा अगर भारतीयों में आ जाये तो फ़िर किसकी औकात जो हमें आँख दिखाये।
जवाब देंहटाएंrakesh sir ne sach kaha...:)
जवाब देंहटाएंek saargarbhit aalekh...
aabhar...
सरजी, अंत में बहुत टेढ़ा सवाल पूछ लिया आपने।
जवाब देंहटाएंबहुत नाजुक समय पर पोस्ट आई है ये, संयुक्त राष्ट्र का ताजातरीन घटनाक्रम बहुत साफ़ संदेश देता है कि रेत में सिर गड़ाने से तूफ़ान नहीं रुकते और सिरों की गिनती के आधार पर होने वाले फ़ैसले दिलों और दिमागों को दरकिनार करते हुये भी हो सकते हैं।
अपने वतन से इतना प्रेम करने वाले उन अनदेखे\अपरिचित दोस्तों के लिये ढेर सारी तालियां।
अद्भुत पोस्ट देश प्रेम कोई इनसे सीखे |बधाई भाई वाणभट्ट जी |
जवाब देंहटाएंDada, deshbhakti to kaafi baad mein aati hai, yahan samasya ye hai hame choti choti cheezon ki parwaah nahi hai. anushasan naam ki cheez nahi hai. hum log kahin bhi paan kha ke thook dete hain. chalti car se kachra fenk dete hain aur fir bolte hain ki videsho mein dekho kitni safai hai. hum log jab videsh jaate hain to wahan ke saare niyam follow karte hain par ye kehne se nahi chookte ki bharat mein kitni gandgi hai. Asal baat to ye hai ki hame koi dictator chahiye jo apni khatiya khadi kar sake....
जवाब देंहटाएंसुभाष चन्द्र बोस ने अपनी किसी पुस्तक में कहा है की वर्षों से मुगलों और अंग्रेजों की गुलामी झेल कर भारत में आत्म स्वाभिमान मर सा गया है इसलिए स्वराज के बाद भारत को पांच साल की लिमिटेड डिक्टेटरशिप में रखना चाहिए। संभवतः उनका अभिप्राय अनुशासन और देशप्रेम विकसित करने के लिए रहा हो। कलाम साहब का एक मेल नेट पर काफी सर्कुलेट हुआ था कि हिन्दुस्तानी जैसा सिंगापूर में बिहेव करता है वैसा भारत में बिहेव करे तो भारत को सिंगापूर बनने में देर नहीं लगेगी। तुम्हारे कन्सर्न्स से मैं भी इत्तेफाक रखता हूँ।
हटाएंप्रेरक प्रसंगों को साझा किया है आपने ... सच है की देश उसके लोगों से बनता है ... उनकी भावनाओं से बनता है ...
जवाब देंहटाएंकई प्रसंग मन को छू गये खासतौर अंतिम पैरा ...
जवाब देंहटाएंइस सशक्त लेखन एवं प्रस्तुति के लिये आभार
सादर
गंगा जल लेके जाते।
जवाब देंहटाएंभाई,बाकी टिप्पणियों में 2012 क्यों अंकित है?ये ब्लॉग काफी पहले लिखा था क्या?
जवाब देंहटाएंमित्र अतिआवश्यक विषय व प्रश्न उठाया आपने, हार्दिक आभार। मैं स्वआदतन इसके मूल आधार, पोषण व प्रवाह पर कुछ अपने अनुभव रखना चाहूँगा। आशा है कि यदि किसी को मेरे किसी शब्द से कुछ आहत हो तो क्षमा करेंगे। धर्म की तरह ही देशभक्ति व मात्र भूमि-प्रेम एक निजी भाव है जो पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होती है, पर प्रचारित करने का विषय नहीं जैसा कि आजकल के नेतागण कर रहें हैं और इसको हमारे हृदय निहित भाव का दोहन कर अपने राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध कर रहें हैं। ये एक स्वपरिवार प्रबल प्रेम व हित की रक्षा के जज़्बे का बृहत् रूप है। इसके पोषण में एक अलग ख़ुशी होती है जो किसी और वस्तु ब भाव में नहीं होती परंतु जीव भाव और ज़िंदगी जीने की ख़ुशी से ही आगे पोषित है, पर यदि इसके नागरिकों को कई जाति उपजाति धर्म रंग के आधार पर विभाजित कर दिया जाये और उसी आधार पर एक दूसरे को ऊँच नींच परिभाषित करें लड़ें शोषण हो तो और नेतागण व सरकार इसी आधार अपनी जनता को छलें व कपट करे तो क्षमा करिएगा मित्र जो कुछ भी जितना भी देशभक्ति भाव बचा है वो धीरे धीरे वो भी विलुप्त हो जाएगा भारतीयों के ह्रदय से मन से और हम फिर ढपली बजाएँगे।
जवाब देंहटाएंकिसी देश की जनता (प्रजा) में देशप्रेम का बीजारोपण व प्रवाह में राजा (सरकार) व समाज के अग्रणी लोगों का बहुत बड़ा दायित्व व अहम भूमिका होती है और ये भाव कृत्य अन्य कृत्यों (शोषण घूसखोरी आदि) भावों (प्रेम घृणा)
यदि भारत में मूलतः जाति नहीं होती जनता का शोषण नहीं होता सबके साथ एक जैसा बर्ताव होता सब समान होते तो बात ही कुछ और होती और कभी भी अंग्रेज व मुग़ल हम पर शासन ना कर पाते यही सत्य है चाहे कोई अपने आडम्बर में माने या ना माने। आज सामाजिक व राजनैतिक शक्तियाँ इसका छद्म, विकृत व भयानक रूप प्रस्तुत कर रहीं हैं केवल व केवल निजी सत्तास्वार्थ के लिए और इसी को मुख्य धारा के लोग अपने सत्ता की भागीदारी को क़ायम रखने के लिए ये चोला ओढ़े हुए प्रचारित कर रहें हैं। जब तक ये सभी विभाजन और सर्व साक्षरता (मात्र एक राजनीतिक हथकंडा) नहीं सही मूल्यों में मानसिक विकास हेतु सभी को उच्च मूल्यांकित सर्वशिक्षा नहीं मिलेगी और ये सामाजिक विभाजन समाप्त नहीं होगा जिसका दायित्व केवल उच्च लोगों पर है, तब तक सच्चे देशप्रेम का अंकुरण व पोषण असम्भव। इसी संदर्भ में कहूँ कि यदि भारतीयों में स्वार्थ राजसुख का लोभ ना होता और सच्चा देशभक्ति होती तो कभी भारत परतंत्र ना होता ... आज भी यही सच्चाई है सिवाय स्वर्थलिप्त छद्म देशप्रेम के। भारत अंदर निकट भूत में कभी भी देशप्रेम रहा ही नहीं और स्वतंत्रता के उद्धत देशप्रेम भी केवल अंग्रेजों के सानिध्य से भारतीयों में प्रवाहित हुआ और उसी की दलाली से स्वतन्त्र हुए और फिर वहीं लोगों ने राज किया और आज भ बस छद्म देशप्रेम से राज कर रहे है जो कभी नतमस्तक थे परतंत्रता के सामने ... सत्य यही इसको शीघ्र ही स्वीकार करने में भलाई अन्यथा बड़ी कठिन है डगर पनघट की
भाई मै आदर्शों की बात करता हूँ...आदर्श के लिये प्रयास कर सकते हैं...आदर्श तक पहुँचना कठिन है...मेरी उम्मीद व्यक्तिगत है...और देश व्यक्तियों से बनता है...बबूल बो कर आम की आशा करना सही नहीं है...नियम बन चुके हैं...उनका अनुपालन ठीक से होने लगे तो भारत भी विकसित देशों में शुमार हो जाये...नेताओं और अधिकारियों का दोष इतना है कि वो भी सिस्टम में फिट होने का प्रयास करते हैं...देश को आगे ले जाने की जिम्मेदारी सबकी है...
जवाब देंहटाएंप्रिय वाणभट्ट, सप्रेम वंदेमातरम��
जवाब देंहटाएंलेख के उद्देश्य को मैं स्पष्ट नहीं समझ सका, पर इतना अवश्य समझ पाया हूँ कि आप हमारे नेताओं के खोखले (शायद) देशभक्ति नारों, दिखावों से आहत हैं और एक मुल्क-विहीन पुरातन कौम के द्वारा वर्तमान में अपने स्वप्निल कौमी वतन को रेगिस्तानी एवं दुष्कर जमीनं पर अवतरित कर देने के असम्भव से कार्य के पीछे पैठी हुई अप्रतिम देशभक्ति की भावना से आप अभिभूत हैं।
फिर भी मैं एक मित्र की प्रतिक्रिया के कारण अपने विचार प्रस्तुत करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ-
हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं, वहाँ मूलतः दो ही समुदाय है- सभ्य समुदाय जो साहचर्य में विश्वास रखते हैं, और दूसरा जंगल समुदाय जहां self survival at any cost ही एकमात्र नियम है।
सभ्य समुदाय सतत विकास के पथ पर चलता आ रहा है जिसके कारण उसने जंगल समुदाय पर सदैव ही विजय पाई है। किन्तु सत्य ये भी है कि जंगल समुदाय को समूल नष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ये सभ्य समुदाय के भीतर रचा बसा है। इन दोनों समुदायों के बीच द्वंद सदैव चलता रहेगा।
सभ्य समुदाय ने अपने संरक्षण एवं विकास हेतु बहुत सारे सामाजिक संरचनाओं या इंस्टीट्यूशन्स को विकसित किया है और लगातार इनमें संवर्धन एवं परिवर्तन होते जा रहे हैं। इन्हें क़बीले, राज, देश, राष्ट्र आदि के रूप में पहचाना जा सकता है। आगे कोई नया इंस्टिट्यूशन उभर कर आ सकता है जो कि वैश्विक एकल सभ्य समाज के सर्वांगीण विकास के लिये बेहतर हो।
देशभक्ति एक शब्द है जिसके परिभाषित-भाव सीमित होते हैं और इनको समय और स्थान एवं स्तर के अनुरूप परिभाषित किया जाता रहा है। किन्तु देशभक्ति का जो मूल भाव है वो तो सिर्फ एक है-हम सभ्य समुदाय का साहचर्य-विकास। इसमें दो बातें स्पष्ट रूप में अन्तर्निहित हैं-दूसरों की सहायता , किन्तु स्वयं को संरक्षित करते हुए। इसको सरलतम रूप में ऐसे समझा जा सकता हैं कि एक मोहल्ले में कई परिवार अपनी निजता को कायम रखते हुए बहुत स्नेह से रह सकते हैं, जबकि किसी एक परिवार के दो-तीन सदस्य भी स्नेहपूर्वक साथ नहीं रह सकते हैं।
मेरी समझ में देशभक्ति का मतलब ये है कि स्वयं में और यथासंभव प्रभाव-क्षेत्र में जंगल-समुदाय की प्रवृत्तियों को जन्मने एवं पनपने से रोकें।
विवेक शील बने एवं स्वार्थी-चित्त पर सदैव विवेक-लगाम को कसते रहें।
वंदेमातरम��������