प्रिय मित्रों, एक पुरानी रचना साझा कर रहा हूँ...
अयोध्या
अयोध्या पर लिखना ज़रूरी हो जाता है.
जब देश का ये कोना मज़हब हो जाता है.
किसी ने पूछा,
प्रयाग में माघ मेला कब से लगता है
इलाहाबाद बनने के पहले या बाद में
जवाब तो नहीं, पर एक जिद ज़रूर है.
इतिहास के पहले शायद कुछ भी नहीं था.
माघ का मेला सदियों से लगता है,
जब आस्था का समुंदर हिलोरें लेता है,
संगम पर ये विहंगम दृश्य हर साल सजता है.
शायद मानव अस्तित्व के पहले से,
भाषा के भी पहले से, कुछ तो रहा होगा,
जिसने प्रयाग को प्रयाग और कोणार्क को कोणार्क बनाया होगा.
लेकिन अब समय पीछे जाने का नहीं है
ये विद्वानों का मत है.
इन्टरनेट और फेसबुक कि दुनिया में,
अमेरिका बन जाना इनके लिए
अंतिम वक्तव्य है
जडें तो अपनी हैं,
कहाँ तक काटियेगा
कब तक झूठलाइयेगा इस बात को
कि
तमाम परतों के नीचे एक ही है यहाँ,
आदमी का वजूद.
ज़मीन के इस घेरे के अन्दर.
मज़हब को मानिये ज़रूर,
पर खुद को भी तो पहचानिए हुज़ूर.
- वाणभट्ट
प्रभावी ओर शशक्त रचना है ...
जवाब देंहटाएंवाह वाह वाह!
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरती से सटीक बात कही है..
prabhavi rachna..
जवाब देंहटाएंसार्थकता लिये सशक्त प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंMazhab aajkal madhyam ho gaya hai kuch logon ki kamai ka. ye sab thekedaar hain, inhe sab maloom hai. par maan lenge to dhanda band nahi ho jayega. hum apne astitva ki ladai lad rahe hain. apna wo chehra dekh rahe hain jo dusro ko dikhana chahte hai na ki woh chehra jo sach hai...
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