बुधवार, 15 अगस्त 2012

इन्साफ की डगर पर...

इन्साफ की डगर पर... 

इस गीत को सुन-सुन के हम बड़े हुए हैं. 1961 में गंगा-जमुना आई थी. और 1965 में मै अवतरित हुआ. बचपन से ये गाना कुछ जेहन में अन्दर तक घुस गया है. और हर पंद्रह अगस्त-छब्बीस जनवरी को ये मेरे रोम-रोम से फूटता है. अब लगभग पचास का होने को आ गया हूँ. और पता नहीं क्यों मुझे लगता है ये गीत हमारे हम-उम्र लोगों के लिए ही लिखा गया होगा. तब गीतकार शकील बदायूंनी साहब ने उस समय के हम जैसे बच्चों से ये उम्मीद लगाईं रही होगी कि ये बड़े होकर नेता बनेंगे उनके सपनों के भारत की. 

अब हम बच्चे तो रहे नहीं. पर अब हमारी उम्र के ही लोग अब नेताओं के जगह पर आ गए हैं. खींच-तान कर कोई किसी विभाग का हेड हो गया कोई निदेशक. कोई उससे भी उपर बैठा है प्राइवेट कंपनी में मैनेजर बन कर. हमारी संस्कारों में कहीं तो कमी ज़रूर रही होगी जो हमने आदर्श बच्चों के लिए छोड़ दिए और समाज की सारी विकृतियों के अपने में ज़ज्ब कर लिया. हमारे तथाकथित मैनेजर आज उसी बीमारी से पीड़ित हैं जिससे भूत के राजा-महाराजा, दूसरों पर राज करने की. जिसके पास पैसा-पावर-पद है, वो इतिहास में अपना नाम दर्ज करने को लालायित है. वो ये भूल गया है उसको पद या पावर यूज़ करने के लिए मिला है, मिसयूज़ करने के लिए नहीं. पर वो पावर भी किस काम की जिसे मिसयूज़ न किया जा सके. 

सत्ता की हनक क्या सरकार क्या अधिकारी सभी के पोर-पोर में समा गयी है. और उनकी आत्मा में अंग्रेजों की रूह. भई हमने इतनी मेहनत सिर्फ समाज सेवा करने के लिए तो की नहीं. शुरू से ही अपने अफसरों की चाकरी इसलिए की कि  भविष्य में हमें भी ऐसे ही चाकर मिलें. उनके हर-सही गलत काम को सर आँखों पर लिया तभी आज यहाँ तक पहुंचें हैं. कितनी गलत बातों में सहमति दी, कितना घूस कमा-कमा कर ऊपर पहुँचाया, कितने सिस्टम में अनफिट लोगों को फिट किया, कितने अनफिट को आगे बढ़ने नहीं दिया, ऊपर वाले के आगे कभी सर नहीं उठाया, कभी उनके निर्णय को मना नहीं किया, भले ही उससे देश का कितना भी बड़ा नुक्सान हो गया हो. आउटस्टैंडइंग पाने के लिए "बॉस इज अल्वेज़ राइट" को मूल मन्त्र बनाया. इतने जतन के बाद जब कुर्सी मिली है तो अब देश-समाज हमसे इमानदारी-भाईचारे-उत्थान-भारत निर्माण की उम्मीद कर रहा है. इम्पोसिबल. कतई नहीं.

अब तो हम इस स्तर पर आये हैं कि राज कर सकें. किसी की जिंदगी बना और बिगाड़ सकें. अब हम बच्चे नहीं रहे. ये आदर्श, कोरे-आदर्श या तो समाजसेवियों के लिए हैं या साधू-संतों के लिए. मै तो आम आदमी हूँ, जैसी दुनिया देखी है वैसे ही चलूँगा. इस भूखे-नंगे देश में अगर आप अपनी आने वाली नस्ल के लिए एक समृद्ध विरासत नहीं छोड़ पाए, वो भी उच्च पद पर रहते हुए, तो क्या किया.सो मै अपनी सात पुश्तों को तारने के लिए हर संभव कोशिश करूँगा. जंग और प्यार में सब जायज़ है. जहाँ 125 करोड़ लोग आपसी प्यार की निशानी हैं, वहां खाने के लिए चुपड़ी रोटी का इंतजाम एक जंग से कम नहीं है. मैंने तो अपनी जंग जीत  ली है. अब चिंता निक्कमे पप्पू, ऐय्याश चुन्नू, बदनाम मुन्नी की है. हराम का पैसा इनकी रग-रग में बह रहा है. इनके सुखमय जीवन के लिए मै नहीं कुछ करूँगा तो और कौन करेगा.          

किसी बच्चे को हमने अन्याय करते या दादागिरी करते तो देखा नहीं. यहाँ सब आदर्श बच्चों के लिए मान लिए जाते हैं. कोई मुझ सा अधेड़ अगर उस की बात भी करे तो ये उसकी अपरिपक्वता की निशानी है. कहाँ चुप रहना है, कहाँ बोलना है, कहाँ आँखें मींच लेनी है. अब ये सब कोर्स में होना चाहिए. आदर्श की किताबों को आग लगा दो और जमीन के नीचे दफ़न कर दो. कम से कम बच्चों को कन्फ्यूज़ न करो इमानदारी और आदर्श के चक्कर में. करना है तो बड़ों के लिए आचारसंहिता बनाओ. उनसे आदर्श के पालन करवाओ और न करने पर सजा दिलवाओ. 

सो मुझे लगता है ज़रूरत है इस गीत को नए सिरे से लिखे जाने, हम बड़ों के लिए. बदायूंनी साहब से माफ़ी के साथ मै इस गीत को इस देश के हम-उम्र लोगों के लिए समर्पित कर रहा हूँ, जिन पर वाकई देश की व्यवस्था है, और जिनका एक-एक निर्णय देश को आगे या पीछे ले जा सकता है. इन्हें न बच्चों की कैटेगरी में रखा जा सकता है न युवाओं की. बुड्ढे  तो ये अभी हुए नहीं हैं. अधेड़ शब्द मुझे अजीब लगता है इसलिए इन्हें क्या कहा जाए मुझे नहीं मालूम. पर देश के लिए कुछ करने का ज़ज्बा इन लोगों में जागृत करने की ज्यादा आवश्यकता है.  

इन्साफ की डगर  पे ______ दिखाओ चल के... 
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो अब के ...

दुनिया के रंज सहना और कुछ न मुंह से कहना 
सच्चाइयों के बल पे आगे को बढ़ते रहना 
रख दोगे एक दिन तुम संसार को बदल के...


इन्साफ की डगर  पे ______ दिखाओ चल के... 
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो अब के ...


अपने हों या पराये सबके लिए हो न्याय 
देखो कदम तुम्हारा हरगिज़ न डगमगाये 
रस्ते बड़े कठिन हैं चलना सम्हल-सम्हल के...


इन्साफ की डगर पे ______ दिखाओ चल के... 
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो अब के ...


इंसानियत के सर पर इज्ज़त का ताज रखना 
तन मन की भेंट दे कर भारत की लाज रखना 
जीवन नया मिलेगा अंतिम चिता में जल के...


इन्साफ की डगर  पे  ______ दिखाओ चल के... 
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो अब के ...


इस गीत को अपने बच्चों के सामने जोर से गाइए, देखिएगा आपको अपना बचपन याद आ जायेगा. कितने जोश से हम इसे अपने स्कूलों में सुबह की प्रार्थनाओं में गाया करते थे. हम बिगड़े नहीं थे, हम बिगड़ नहीं सकते और हम बिगड़े नहीं हैं. जीवन की चूहा-दौड़ में हम अपना वजूद भूल गए हैं बस.

जय हिंद, जय भारत, वन्दे मातरम !!!

- वाणभट्ट 


10 टिप्‍पणियां:

  1. बात तो सही है आपकी पर अब ये गीत गाने का मन नहीं करता खास के जब इन नेताओं को देखो जो आए दिन देश को बेच रहे हैं ... अपने आप को राजा समझ रहे हैं ...

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  3. ट्रांसफर्स के दौरान बार बार बच्चों के स्कूल बदलवाते कब उनके पाठ्यक्रमों से 'नैतिक शिक्षा' गायब हो गई, पता ही नहीं चला| इस 'लापता चिड़िया' के लिए बच्चे तो जिम्मेदार नहीं ही हैं, जिम्मेदार हमें लोग हैं, वही 60-70 के दौरान के प्रोडक्ट्स| कुछ किस्से, कहानियां, गीत खुद को याद दिलाता रहता हूँ, सो इसे भी अपनाने में कोई दिक्कत नहीं होगे|
    जय हिंद, जय भारत, वन्दे मातरम|

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  4. सार्थक लेखन के साथ ये सुन्दर गीत...
    वैसे किसी गीत को गा कर या सुन कर कोई बदलने वाला नहीं....आजकल ह्रदय परिवर्तन वाला सीन कहाँ देखने को मिलता है...???
    आपको आज़ादी के पर्व की शुभकामनाएं.
    अनु

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  5. सार्थक विचार ..... हार्दिक शुभकामनायें

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  6. मुझे भी ये गीत बहुत पसंद है.पर आजकल की राजनीति देखते हुए बच्चों को नेता बनाना उचित नहीं लगता.
    आपने अपनी टिप्पणी स्पैम में जाने की बात मुझे बताई,आभार.अब वो publish हो गई है.

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  7. अब तो बच्चे बेतुके गानों में लिप्त हैं

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  8. आज के हालात पर सार्थक लेख .... बच्चों की शिक्षा से नैतिक शिक्षा तो गायब ही हो गयी है ....

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  9. अभी भी गाते हैं क्या बच्चे यह गीत....

    विचारणीय आलेख!! सटीक!

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  10. जीवन की चूहा-दौड़ में हम अपना वजूद भूल गए हैं बस.यह निष्कर्ष उत्तम है सवाल यह है कि कैसे इससे बचकर आगे बड़ा जाये गीत को हम भी गाँधी जयंती पर गाँधी आश्रम की प्रदर्शनी पर सुन सुन कर भनभना जाते थे लगता है क्या वह समय अपने प्रवाह में खींचकर हमें एकबार पुनः निर्मल कर देगा

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