शनिवार, 12 मई 2012

अन्नदाता

अन्नदाता 

इतनी हरियाली के बावजूद किसान को ये नहीं मालूम कि 
उसके गाल  की हड्डी क्यों उभर आई है ?
उसके बाल सफ़ेद क्यों हो गए हैं ?
लोहे की छोटी दुकान पर बैठा आदमी सोना 
और इतने बड़े खेत में खड़ा आदमी मिटटी क्यों हो गया है 

धूमिल की ये पंक्तियाँ किसी भी सहृदय व्यक्ति को उद्वेलित करने में सक्षम हैं. जिधर देखो बाज़ार सजा पड़ा है. भांति-भांति के गैजेट्स आ गए हैं. आदमी उन्हीं को पाने की होड़ में सबसे अहम चीज़ भूल गया है. रोटी और रोटी की कीमत. 

लोगों को बाज़ार में आई नयी कार का दाम पता हैं, लैपटॉप का लेटेस्ट वर्ज़न कौन सा आया है, कौन सा मोबाईल ले के चलने में शान बढ़ती है, फ़्रांस-अमेरिका में कौन सा फैशन चल रहा है, कौन सी मॉडल मिस यूनिवर्स की दौड़ में आगे चल रही है, टी. वी. पर किस सीरियल की क्या टी आर पी है, आई.पी.एल. में पोलार्ड कितने में बिका, कन्याकुमारी और गोवा तो अब मिडिल क्लास लोग भी एल.टी.सी. पर जा रहे हैं, मलेशिया और सिंगापुर का चार दिन - तीन रात का होलीडे पॅकेज कितने का पड़ेगा, आल वेदर ए.सी. के क्या फायदे हैं, आकाश टैब से अच्छे कितने टैबलेट उपलब्ध हैं, रे-बैन का चश्मा लगाने वाला सभ्य और सुसंस्कृत ही माना जाता है, कार की कीमत आदमी की औकात तय करती है. हर तरफ आदमी पर बाज़ार हावी है. 

और खासियत ये है कि हर कोई उस चीज़ के लिए दुखी है जिसका वास्तविक जीवन से कोई लेना-देना नहीं है. जीवन वस्तुतः है क्या? बहुत ही साधारण सी अवधारणा है, पैदा होने से मरने के बीच कुछ करना, और निरंतर करते रहना. कर्म से अर्जन और अर्जन से कर्म कर सकने योग्य शरीर हेतु भोजन. शायद ऐसी जिंदगी आदमी ने जानवरों के लिए छोड़ रक्खी है. उसे तो अर्जन को बस भोग में व्यय करना ही अच्छा लगता है. तभी तो वो सारी उम्र एक सुख से दुसरे सुख की चाह में भटकता रहता है. और भौतिक सुखों की आयु कितनी होती है. तभी तक जब तक वो वस्तु आपके पास नहीं है. 

दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है,
मिल जाए तो मिटटी है, खो जाए तो सोना है.

इस बहिर्मुखी सम्पन्नता के दौर में आदमी ने आदमी की ही कीमत लगा दी है. संपन्न वो है जो दूसरों का समय और श्रम खरीद सकता है. शहर का आदमी अपनी शाब्दिक और मानसिक योग्यता के बल पर नयी नयी ऊँचाईयां छू रहा है. एक करोड़ का पे-पैकेज मिल जाना अब अजूबा नहीं लगता. पता नहीं ये आदमी की पे-बैक वैल्यू भी है या नहीं. वो  देश को वो इसका कम से कम कितना हिस्सा लौटा पायेगा इसमें संशय ज़रूर है. जहाँ सौ करोड़ लोग सिर्फ जीने के लिए जद्दोज़हद कर रहे हों वहां कुछ को दस लाख की आय और कुछ को गुज़ारा भत्ता भी नहीं, बड़ी बेइंसाफी है. एक आदमी को दस लाख तो दिया जा सकता है दे सकती है पर दस आदमी को एक लाख नहीं. और गरीबी की रेखा तो गरीबों का मजाक बन कर रह गयी है. एक आदमी को अपने पुराने ए.सी. और कार पर इन्फेरीयारीटी काम्प्लेक्स हो रहा है जब कि एक दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है. 

भवानी प्रसाद मिश्र जी की ये पंक्तियाँ जेहन में कौंध रहीं हैं -

ऐसी सुविधा मत करो 
कि कोई सिर्फ दस्तखत करते रह कर  
महल-अटारी-मोटर-तांगे-वायुयान में चढ़ कर डोले 
न ऐसी सुविधा रहे कि केवल पढ़-लिख कर 
कोई किसान, कर्मकर, बुनकर से बढ़ कर बोले.

दुर्योग से जिस भौतिकवादी संस्कृति का उदय हो चुका है, उसमें आदमी को अपने सिवा कुछ दिखाई देना लगभग बंद हो गया है. महानगर में आधे करोड़ के पॅकेज प्राप्त एक मैनेजर महोदय के सामने मैंने बढ़ती मंहगाई का जिक्र कर दिया. उन्होंने सारा दोष मेरी अकर्मण्यता पर धर दिया। व्यर्थ की बातें सोचने में जितना समय बर्बाद करते हो उतना किसी प्रोडक्टिव काम में लगाते तो पैसों का रोना नहीं रोते. तुम जानते हो एम.बी.ए. की पढाई कोई हंसी खेल तो है नहीं. कितना रगडा है खुद को तराशने के लिये. पर अब मंहगाई चाहे कितनी भी बढ़ जाए मेरी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता. दाल चाहे सौ रुपये किलो हो या दो सौ  रुपये मै खरीद सकता हूँ. इसे मै उनकी गर्वोक्ति नहीं मानता. वो वाकई पढाई में बहुत योग्य था और मेहनती भी. उसके मुकाम पर मुझे फक्र भी है. पर कभी-कभी लगता है कि क्या लक्ष्मी सिर्फ बुद्धि, बलशाली और योग्य लोगों के लिये ही हैं. बाकि को ठीक से जीने का भी अधिकार नहीं है. और पैसे का इतना नग्न प्रदर्शन विचलित करने वाला है. 

अमूमन किसी भी व्यवसाय में व्यापारी उत्पादन के पूरे मूल्य पर मुनाफा जोड़ कर उसका दाम नियत करता है. पर किसान की खेती का मूल्य सरकार तय करती है. पर इसमें कृषि भूमि का व्यावसायिक मूल्य नहीं होता, न ही किसान और उसके परिवार के श्रम का ही मूल्य होता है. बीज बोने से फसल तैयार होने तक कृषक के श्रम को वो हो समझ सकता है जिसने कृषि जीवन को निकट से देखा हो. इसके बाद आढ़तियों के दुश्चक्र में किसान को समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता. भण्डारण की सुविधा न होने के कारण वो अपनी उपज को औने-पौने दाम पर बेचने को विवश हो जाता है. और वहीं व्यापारी और मुनाफाखोर किसान के श्रम का अधिकतम लाभ ले जाते हैं. पढ़-लिख कर मिले रोजगार, जिन्हें सफ़ेद कॉलर जॉब कहा जाता है, को लोग समाज में बहुत सम्मान से देखते हैं पर क्या कभी हम अपने किसानों का, जिन्हें अन्नदाता भी कहते हैं, उचित सम्मान कर पाएंगे. पढ़े-लिखे लोगों लोगों का शारीरिक श्रम के प्रति अनादर एक भयावह सच बन चुका है. स्कूलों में हर छात्र को शारीरिक श्रम कर के एक रोटी बनाना अवश्य सिखाया जाना चाहिये ताकि वो मानव श्रम का महत्त्व समझ सके. एक अज्ञात भोजपुरी कवि की कविता साझा कर रहा हूँ : 

पिचक जईहैं पेटवा, चुचुक जईहैं गाल 
जिस दिन करिहैं भैया किसान हड़ताल.

- वाणभट्ट

27 टिप्‍पणियां:

  1. इस लेख के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया है, सच में आज का हाल ऐसा ही हो गया है, सब पैसे की माया है,चाहे धुप हो या छाया

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  2. इस भौतिकता भरी सोच में मनुष्यता का मान करने का स्थान ही नहीं बचा .....प्रभावी पोस्ट

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  3. हूबहू ऐसा ही मैं भी सोचता हूँ| एकाध प्रतिशत blue-blooded population को छोड़कर ब्रांडेड उत्पाद और महंगे गजेट्स का भौंडा प्रदर्शन करते लोग असल में तो अपनी किन्हीं मौलिक कमियों से ध्यान हटाने को ही इनका प्रयोग करते हैं|
    भूख रोटी से ही मिटती है, सुलभ है तो इसका कोई मोल नहीं और न मिले तो अनमोल है|

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  4. दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है,
    मिल जाए तो मिटटी है, खो जाए तो सोना है....यही क्रम हमेशा होना है

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  5. पिचक जईहैं पेटवा, चुचुक जईहैं गाल
    जिस दिन करिहैं भैया किसान हड़ताल....

    ऐसिनौबत न आए ... पार्टियों का वोट बेंक न खिसक जाय इसीलिए तो किसानों कों हाशिए पे डाल रखा है सरकार ने ... पहले तो बस प्राकृति पे निर्भर थी खेती अब उसके साथ सरकार पे भी निर्भर है ... जब तक पेट भरे रहते हैं सब की किसानों की चिंता कोई नहीं करेगा ...

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  6. दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है,
    मिल जाए तो मिटटी है, खो जाए तो सोना है.

    एकदम सच बयानी-सब जानते हैं..कहते नहीं.

    पिचक जईहैं पेटवा, चुचुक जईहैं गाल
    जिस दिन करिहैं भैया किसान हड़ताल.

    हम्म!!

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  7. आपने किसानों की बात को सटीक रूप में लिखा है .... उनकी समस्याओं पर सरकार भी पक्षपात कर देती है .... विचारणीय लेख .... आभार

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  8. बाज़ार की संस्कृति ने हम से वह सब कुछ छीन लिया है जो नेचुरल था। अब तो हंसी-ख़ुशी भी कृत्रिम लगती है।

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  9. एक-एक पंक्ति सोचने को बाध्य करती है। सचमुच किसान के उत्पाद में पूरी लागत की गणना नहीं होती। लेकिन दूसरा पहलू यह है कि यदि आनाज भी महंगा हो जायेगा तो भूमिहीन मज़दूरों का क्या होगा जिनकी आमदनी का सबसे बड़ा भाग आज भी भोजन के मद में ही खर्च होता है। अनाज की बहुतायत है, ज़रूरतमन्द को उसका भाग मिलना ही चाहिये और यह सुधार हमारे-आपके सोचने भर से नहीं होने वाला। कैसे न कैसे सामर्थ्यवान नीति निर्माताओं और प्रशासकों के भेजे में न्याय की भावना ठोकनी ही पड़ेगी।

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  10. सुविधाएँ हमारा काम आसान करती हैं , फिर हमें गुलाम बनाती है ! बाजार और पूंजीवाद का सिद्धांत यही है!
    सार्थक आलेख !

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  11. ऐसी सुविधा मत करो
    की कोई सिर्फ दस्तखत करते रह कर
    महल-अटारी-मोटर-तांगे-वायुयान में चढ़ कर डोले
    न ऐसी सुविधा रहे की केवल पढ़-लिख कर
    कोई किसान, कमकर, बुनकर से बढ़ कर बोले....

    GREAT LINES...

    .

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  12. @ उन्होंने सारा दोष मेरी अकर्मण्यता पे धर दिया। ब्लॉग लिखने में जितना समय बर्बाद करते हो उतना किसी प्रोडक्टिव काम में लगाते तो पैसों का रोना नहीं रोते...

    अच्छा हुआ कि आपकी जगह पर मैं नहीं था, नहीं तो १० दिन तक, एक भी पोस्ट लिख नहीं पाता :(
    एक बढ़िया लेख के लिए बधाई तथा आभार !

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  13. भौतिकवाद जीवन में हम अपनत्व तो भूल ही गए हैं..
    किसान के अथक प्रयासों से ही आज हमारी ज़िंदगी चल रही है पर इस बात का ख्याल एक क्षण भी नहीं आता है.. बड़ा ही दुर्भाग्य है..
    और फिर एक कार्टून पर हमारे नेता बखेडा खड़ा कर देते हैं और हजारों किसानों के आत्महत्याओं पर एक चूं तक नहीं! विडम्बना!

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  14. बेहद सार्थकता लिये हुए यह आलेख ... आभार ।

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  15. आपका लेख अच्छा है बहुत अच्छा, पर मेहनत करने वाले बुध्दिमान लोग क्यूं यशस्वी ना हों खास कर उनके मुकाबले जो अपने आप को उठाने के लिये कुछ करना ही नही चाहते ?
    क्या लक्ष्मी सिर्फ बुद्धि, बलशाली और योग्य लोगों के लिये ही हैं. बाकि को ठीक से जीने का भी अधिकार नहीं है...............................
    किसान लुहार कुम्हार सुनार सबको अपनी मेहनत का फल मिलना चाहिये यह मै मानती हूँ ।

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  16. bahut bahut hi prashanshniy prastuti
    itna sundar lekh pura padhe bina raha nahi gaya
    bahut bahut badhai
    poonam

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  17. कहाँ है आप ...???
    काफी समय से कुछ नहीं लिखा ?
    शुभकामनायें आपको !

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  18. भौतिकता में खो चुका है इंसान। सोचने-समझने की बुद्धि पर दिखावे का मकडजाल छा चुका है। उद्दार असंभव सा दीखता है। अंधी दौड़ जारी रहेगी। संवेदनशील लोगों को व्यथित करती रहेगी।

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  19. बाणभट्ट जी बहुत दिन हुए,
    अब लिखे हुए ।
    नई पोस्ट की प्रतीक्षा में ।

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  20. इतनी हरियाली के बावजूद किसान को ये नहीं मालूम कि
    उसके गाल की हड्डी क्यों उभर आई है ?
    उसके बाल सफ़ेद क्यों हो गए हैं ?
    लोहे की छोटी दुकान पर बैठा आदमी सोना
    और इतने बड़े खेत में खड़ा आदमी मिटटी क्यों हो गया है ....



    और खासियत ये है कि हर कोई उस चीज़ के लिए दुखी है जिसका वास्तविक जीवन से कोई लेना-देना नहीं है...मार्मिक कटाक्ष

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  21. असमानता की खाई पाटने की जगह और चौड़ी करते जा रहें हैं हम..प्रभावित करता आलेख..

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  22. समझ में नहीं आता कि आपके लेख कि कैसे तारीफ़ करू ,इतना ही पता है कि आज सच्चाई ,इमानदारी और मेहनत का उचित मोल नहीं मिलता.

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...