रविवार, 31 जुलाई 2011

जिंदा हूँ अभी...

जिंदा हूँ अभी...


कुछ हवाएं सांसें बन
भूख को
जिन्दा रखती हैं

ये भूख ही  है
जो रुकने नहीं देती
चलाये रखती है

सारा सारा दिन
कभी रातों को भी
जगाये रखती है

हर शख्स की भूख अलग है

अंतर है
भूख के लिए जीने और
जीने भर की भूख
में

कुछ सदियों की भूख
पल में मिटाना चाहते हैं
कुछ अपनी भूख बाँट कर खुश हैं

जरुरी है अपने हिस्से की भूख
और जरुरी है उसका हर दिन पूरा होना
यही तो एहसास दिलाती है
जिन्दा होने का.

- वाणभट्ट

शनिवार, 23 जुलाई 2011

एक गुज़ारिश

एक गुज़ारिश है,
छोटी सी.

जब इन शब्दों को पढना,
इन्हें,
गुलज़ार की आवाज़ में सुनने की कोशिश करना.

चमकते वर्क के नीचे से,
कई मायने निकल आयेंगे.
कई आयामों में,
शब्दों की गहराइयाँ,
महसूस करोगे.

ये करिश्मा है शब्दों का
या
आवाज़ का जादू,
कि
गरमागरम
अल्फाज़  दिल से निकलते हैं,
धड़कन की तरह,
और बर्फ कि तरह जम जाते हैं
अन्दर, सीने के भीतर.

गर तुम कर सको तो ऐसा ज़रूर करना.
वर्ना,
हज़ारों ख्वाहिशों में,
एक ख्वाहिश,
ये भी सही.

- वाणभट्ट


गुरुवार, 7 जुलाई 2011

कवि की बेबसी

कवि की बेबसी 

शब्द जब कागज़ पर आकार लेते हैं
सच कहता हूँ
सृजन का गहन दर्द देते हैं



ऐ कवि तू अभिशप्त है
अपना स्वर्ग छोड़ कर
दूसरों का नर्क भोगने को

और वो जीवन जीने को
जो तेरा अपना नहीं 


देश-काल की चिंता में 
हर कोई घुलता नहीं
गरीबों का देश है
मसीहा मिलता नहीं 

कलम कुछ कर सकेगी
ये वहम मत पाल
बहरे कानों को ऊंची आवाज़ की आदत है
सब खुश हैं तू कुछ मुस्करा
गाते हैं सब तू गुनगुना

अफसाने बुनना छोड़
अपने स्वर्ग से नाता जोड़
और देख
दुनिया जगमगाती है
बेबसी सिर्फ़ तेरी ही नहीं इनकी भी है

खुश रहना इनकी बेबसी है
क्योंकि 
और भी गम हैं ज़माने में

अब जब तू शब्दों को आकार दे
उसमें बेबसी नहीं
अपना प्यार दे

वाणभट्ट 

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...