मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

सिस्टम के अन्दर : अन्ना हजारे

सिस्टम के अन्दर : अन्ना हजारे

मिश्र जी ने बड़े बुझे मन से स्टाफ रूम के अन्दर कदम रखा ही था, कि एक फुसफुसाती आवाज ने उनका स्वागत किया "आ गए अन्ना हजारे". आवाज इतनी तेज थी कि उन्हें सुनाई दे जाये. और इतनी धीरे भी थी कि उन्हें लगे उनसे किसी ने कुछ नहीं कहा. कुछ लोगों के फीं-फीं कर के हँसने की आवाज भी उनके कानों तक पहुँच ही गई. ये अन्ना हजारे अनशन पर क्या बैठे. इमानदारों को चिढाने के लिए एक नया पर्यायवाची मिल गया. मिश्र जी का दम ऐसे माहौल से घबराने लगा था. मन हुआ इस रोज रोज की चिक-चिक से तो अच्छा था कि इस सरकारी नौकरी को लात मार के वाकई अन्ना के साथ हो लिया जाये. ये सिस्टम तो सुधरने से रहा, कहीं खुद को ही ब्रेन हम्रेज न हो जाये और पूरी जिंदगी बिस्तर पर घुट-घुट के काटनी पड़ जाए.

मिश्र जी ने जब नौकरी शुरू की, तो माता-पिता के अनुमान से इससे अच्छी नौकरी हो ही नहीं सकती थी. शिक्षा और शोध का पुनीत काम था. बेटे के टेम्परामेंट के अनुसार. इस नौकरी में किसी की न तो चाकरी बजानी थी न ही कोई ऊपरी कमाई थी. बस अपने काम से काम और तनख्वाह इतनी बुरी भी नहीं थी की कहीं हाथ फैलाना पड़े. बेटा इमानदारी पर प्रवचन देता था, सो उसके लिए इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता था. मिश्र जी ने भी यही सोच कर इस नौकरी के लिए नेट/जेआरऍफ़ क्वालीफाई किया. जब उसके बाकी साथी नीली बत्ती के चक्कर में दिन-रात एक कर रहे थे, मिश्र जी ने अध्धयन-अध्ध्यापन-शोध  को अपना व्यवसाय बनाने का निश्चय किया.

सोचा एक-आध बच्चे भी अपनी तरह इमानदार और देश भक्त बन गए तो जीवन सफल हो जायेगा. बच्चों को आजकाल जो शिक्षा स्कूलों में नहीं मिलती, वो मिश्र जी की क्लास में बिना मांगे मिल जाती. केमिस्ट्री के साथ-साथ आदर्श, उसूल और देश भक्ति की घुट्टी फ्री मिला करती थी. बच्चे भी अभी तक पूरी तरह बड़े नहीं हुए थे सो मिश्र जी के विचारों से उद्वेलित हो जाते. मिश्र जी कहते बताओ भारत से अंग्रेजों को भगाने में इतने साल क्यों लग गए. पता नहीं कितने वर्षों से विदेशी लुटेरे भारत को ही लूटने में क्यों लगे रहे. आज भी चारों तरफ भूरे अंग्रेजों का बोलबाला है. अब ये देश को लूट रहे हैं और पूरा देश इस तमाशे को देख रहा है. कारण सिर्फ एक है, देश में देशभक्ति की कमी. भ्रष्टाचार एक महामारी की तरह फ़ैल गया है. हर कोई इससे परेशान है पर जब अपना मौका आता है इसे रोकने और इससे लड़ने का तो लोग शोर्टकट ही अपनाते हैं. बहरहाल कुछ भी हो मिश्र जी ने अपने देशप्रेम और इमानदार छवि के कारण एक अलग इमेज बना रखी थी. अधिकतर लोग उनको सनकी या झक्की समझते और उनके खैरख्वाह उन्हें बेवक़ूफ़. पर बच्चों में वो काफी लोकप्रिय थे.  

बच्चे भी देखते थे कि मिश्र जी वाकई गाँधीवादी कि तरह रहते थे. सादा जीवन. कर्त्तव्य के प्रति समर्पण. जब बाकि टीचर पान-मसाला खा-खा कर कॉलेज कि दीवारों को लाल करने में लगे रहते. मौका मिलते ही बच्चों को कुंजी या गाइड रेकमेंड कर देते. पढ़ाना न पड़े इसलिए बच्चों को बताते कि बड़े-बड़े एक्जाम के लिए सिर्फ एक अदद डिग्री कि आवश्यकता है. इसलिए विद्यार्थी को डिग्री से ज्यादा कम्पटीशन कि तैयारी में ध्यान देना चाहिए. जब वो सारा दिन कालेज में क्लास करने में समय व्यर्थ करेगा तब तैयारी कब करेगा. जब वो पास कराने की तो गारेंटी ले ही रहे हैं तो बच्चों को भी क्या कुत्ते ने काटा है कि उनसे क्लास लेने कि बात करें. जब पढ़ाने कि जरुरत नहीं तो उनके पास समय ही समय था. जिसे कुछ पोलिटिक्स करने में  बिताते कुछ कुछ कोचिंग के माध्यम से पैसा कमाने में. कुछ प्रिंसिपल के चारों ओर गणेश परिक्रमा में समय जाया करना पसंद करते. मिश्र जी से बदमाश बच्चे भी दुखी थे. एक तो अटेंडेंस कम होने पर एक्जाम में बैठने न देते और ऊपर से पास होने के लिए पढाई भी करनी पड़ती.

प्रिंसिपल भी उनकी खरी-खरी बातों से आजिज था. सो उनसे दूर ही रहना पसंद करता था. कुछ लग्गू-भग्गू भी थे जो प्रिंसिपल और मिश्र जी कि इस दूरी का फायदा उठा कर प्रिंसिपल का कान भरा करते थे. प्रिंसिपल भी दूध के धुले तो थे नहीं, इसलिए जो भी पैसा कालेज के उत्थान के लिए, शोध के लिए, लिब्रेरी के लिए, कंप्यूटर के लिए, फ़र्निचर के लिए, केमिकल के लिए, उपकरणों के लिए, बच्चों के लिए, आता उस पर अपनी कृपा-दृष्टि बनाये रखते. लग्गू-भग्गू भी उनके साथ शेर और सियार के भाव से जुटे रहते. शेर कि जूठन से ही कितनों के पेट भर जाते. शेर भी दलेर मेंहदी कि तर्ज पर एलान करता कि साडे नाल रहोगे तो ऐश करोगे...

मिश्र जी अपनी दुनिया में मगन थे और दुनिया अपने में. हर केमिकल के लिए प्रिंसिपल कि चिरौरी, ऑफिस में बाबुओं के चक्कर काटना मिश्र जी के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाता था. बच्चों को प्रेक्टिकल तो करने ही थे. कुछ एम्एससी और पीएचडी के भी छात्र थे. सो मिश्र जी ने धीरे-धीरे अपनी तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा शोध कार्यों को समर्पित करना शुरू कर दिया. वैसे भी संतोषी आदमी के लिए पैसा कि आवश्यकता उतनी ही है जितनी उसकी आवश्यकतायें. मिश्र जी भी सादा जीवन जीने में भरोसा रखते थे. और लोगों को ये घर फूँक तमाशा लगता. शोध के लिय अपना पैसा बर्बाद करना कहाँ कि समझदारी है. शोध पत्र छापने के लिए पेपर का प्रोपर चैनल से जाना अनिवार्य है. प्रिंसिपल जो खुद भी केमिस्ट्री के क्षेत्र से था, अपना नाम घुसेडने के लिय मिश्र जी पर जोर आजमाने की कोशिश की पर मिश्र जी ने एक न सुनी. और कभी उसका नाम अपने पत्रों में शामिल नहीं किया. जंगल के शेर को ये नागवार लगता पर हाथी की सवारी करने की हिम्मत भी न पड़ती. बस वो घात का इंतज़ार करता रहता. 

उसी समय एक नेटवर्क प्रोजेक्ट सेंकशन हो गया, पूरे एक करोड़ का. मिश्र जी उसके मुख्य इन्वेस्टिगेटर बने. प्रिंसिपल ने लखनऊ तक पूरा जोर लगा लिया कि एक करोड़ रुपया किसी सनकी के हाथ में देना उचित नहीं है. क्या कमाएगा और क्या लौटाएगा. पर ये पैसा दिल्ली से आया था, और दिल्ली भी किसी अंतर्राष्ट्रीय फंड से आया था, जिसने खुद मिश्र जी को मनोनीत किया था, इसलिए ये पैसा तो मिश्र जी कि ही कलम से खर्च होना था. मिश्र जी कि कार्य करने कि अपनी ही शैली थी. फर्म वाले आते तो पूछते सर कितना कमीशन चलेगा. मिश्र जी कहते कितना कमीशन दोगे. सर १० परसेंट का दस्तूर है. तो मिश्र जी कहते, १० परसेंट में मेरे बच्चों के लिए  कम्प्यूटर गिफ्ट कर दो, या एक्स्ट्रा केमिकल्स ही दे दो. क्लास के लिए कुछ फर्नीचर बनवा दो. प्रिंसिपल और ऑफिस असहाय सा इस पैसे को लुटते हुए देख रहा था. उनके हिस्से इसकी एक पाई भी नहीं आ पा रही थी. 

वो मौके की तलाश में थे और औडिट ने उनको ये मौका भी दे दिया. परचेज प्रोसीजर में निगोशिएशन की गुंजाईश नहीं होती. मिश्र जी ने हर चीज में ये गलत काम किया है. मिश्र जी जानते थे की अगर उन्होंने निगोशिएट न किया होता तो यही पैसा प्रिसिपल और ऑफिस की जेब में जाता. औडिट भी ये मान कर चलता है कि पैसा खर्च हुआ है तो कमीशन कहीं न कहीं तो गया ही होगा. कम से कम हिन्दुस्तान में तो ऐसा ही हो रहा है. लिहाजा हर परचेज पर मिश्र जी को एक मेमो मिला और उसकी रिप्लाई से औडिट को न संतुष्ट होना था न वो संतुष्ट हुए. लखनऊ से भी जवाब तलब हो गया सो अलग से. हसीन मौका देख प्रिंसिपल ने सस्पेंशन का लेटर भी थमा दिया. मिश्र जी पर पूरा जांच आयोग बैठा दिया गया. उसमें सारे लग्गुओं और भग्गुओं को शामिल कर लिया गया. मिश्र जी सही लोगों से जांच के लिए लखनऊ - दिल्ली लिख रहे हैं. ऊपर सब अपने-अपने कामों में मसरूफ हैं. किसी के ये गुमान भी नहीं है कि कोई ऐसा आदमी भी इस देश में हो सकता है जो अपने से पहले देश कि सोचता हो. और आज के युग में भी गाँधी की नक़ल करने की गलत कोशिश करता हो. 

मिश्र जी की लिखा-पढ़ी ज़ारी है. नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सुनाई नहीं देती. मिश्र जी ने विश्व बैंक को भी अपनी सफाई भेजी है जो प्रोपर चैनल से जानी है. मिश्र जी का विश्वास रोज डोल जाता है. पर गाँधी की फोटो जिसकी वो रोज पूजा करते हैं उन्हीं एक संबल देती है, कि जब वो अकेले फिरंगियों से लड़ सकता है तो ये तो अपनी चमड़ी के हैं. अंग्रेजों के अपने नियम और क़ानून थे इसलिए शायद उनसे लड़ना आसान था. वो गाँधी को मरवा भी सकते थे. पर सत्याग्रह कोई गुनाह तो नहीं, इसलिए बेचारे मजबूर हो जाते. भूरे अंग्रेजों का न कोई नियम है न क़ानून, न ईमान है न धरम. ये तो सप्लायर से कह कर किसी को भी ठिकाने लगा दें. जिन्दा रहेगा तो सबको परेशान करेगा. इस पर मिश्र जी ने लगता है गौर नहीं किया. वर्ना उन्हें लगता वो एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं. 

मेरे हिसाब से अब उनके पास दो ही विकल्प हैं - १. सिस्टम में रह कर हारी लड़ाई को जारी रक्खें (जिसमें उनका टर्मिनेशन पक्का दिख रहा है) या २. सिस्टम को लात मार कर अन्ना के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में जुड़ जायें. पर ये तय तो मिश्र जी को ही करना है. 

- वाणभट्ट                

9 टिप्‍पणियां:

  1. वर्तमान हालातों पर सटीक रचना| धन्यवाद|

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  2. आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ ..आपकी रचनात्मकता में विविधता है और आपको पढना अच्छा लगा ..आशा है आप अपना प्रयास जारी रखेंगे और ब्लॉग जगत को अपने सृजन से समृद्ध करेंगे ...वर्तमान व्यवस्था और हालातों को अभिव्यक्त करती रचना ...आपका आभार

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  3. जाट देवता की राम-राम,
    काश हमारे यहाँ ५०% जनता भी अन्ना ह्जारे जैसी होती, नेता तो मुश्किल से एक भी नहीं होगा।

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  4. इमानदारी की डगर कठिन है । हिम्मत हारने से बात नहीं बनेगी । संघर्ष ही जीवन है।

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  5. bahut hi vicharotejak aalekh .sarthak lekhan ke liye hardik shubhkamnayen .likhte rahiye aise hi ...

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  6. बहुत ही सही और सटीक लिखा है आपने
    एक सार्थक आलेख...

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  7. संघर्ष की राह
    सफलता की मंजिल तक
    ले ही जाती है ...

    सटीक आलेख .

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  8. सच है ईमानदारी का रास्ता आज के भ्रष्टाचारी समाज में बहुत कठिन है ...

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