शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

ईमानदार का भूत

ईमानदार का भूत

* ये कहानी पूरी तरह काल्पनिक है और इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है.

ऐसा तो होना ही था उसका हश्र. भरे चौराहे पर ठिचआँ...ठिचआँ... की आवाज़ हुई. एक चलते-फिरते आदमी को लाश में तब्दील होते भला देर लगती है क्या? हमेशा की तरह किसी ने कुछ भी नहीं देखा-सुना. कुछ देर बाद कौतूहल जागा. सोये शहर को मसाला मिला था कुछ देर के लिए ही सही. "बेचारा यंग ही तो था", "बदमाशों का दुस्साहस तो देखो", "देखने में तो शरीफ लगता था", "शहर तो शरीफों के रहने लायक ही नहीं रहा", "आजकल लोगों के लफड़ों का भी तो पता नहीं रहता", "भाई ऐसा काम ही क्यों करो की ये नौबत आये", आदि - आदि. कोई किसी का मुंह तो बंद कर नहीं सकता, लिहाज़ा जितने मुंह उतनी बातें. कल यही घटना अख़बार में भी छप सकती है. जाहिर है जब तक अगला मसाला ना तैयार कर ले ये शहर, इस खबर का फैलना ज़रूरी है. नहीं तो लोगों को बातों का टोटा पड़ सकता है. बड़े-बड़े शहरों में ऐसा  होता ही रहता है.

पुलिस को आना था, सो पुलिस आई भी. लाश कहीं खुद-बखुद चल ना दे इस आशय से कुछ लोग उसे घेरे खड़े थे. जिन्हें जल्दी थी वो अपनी साइकिल, स्कूटर, या कार पर चढ़े-चढ़े  पूरा विवरण पाने को लालायित थे. पर अब तक खाकी वर्दी में क़ानून आ चुका था. " सालों कभी मर्डर नहीं देखा, खामखाह मजमा लगा रखा है. जाओ अपना-अपना काम करो". जिन लोगों में जिज्ञासु प्रवृत्ति की जरा भी कमी थी, उन्हें यकायक जरूरी काम याद आ गए. कुछ लोग पुलिस की मदद करने को तत्पर थे, सो उन्हें तुरंत नहीं हांका जा सकता था. आखिर प्रजातंत्र भी कोई चीज़ है. पुलिसियों से ज्यादा अच्छी तरह ये बात भला कौन समझ सकता है. रोज़ ऐरे-गैरे नेताओं को झेलते रहते हैं. घंटे भर में सब सरक लेंगे फिर इत्मीनान से काम किया जायेगा. दरोगा सजीवन पांडे ने सोचा. ये तो अच्छा हुआ की दो ठुल्लों को लेते आये, वर्ना भीड़ को भागने में ही लगा रहना पड़ता. दरोगा जी तो अपनी विलक्छ्न चतुर बुद्धि पर बड़ा अभिमान था. और हो भी क्यों नहीं. उसके कई मेधावी साथी दुनियादारी में उससे कहीं पीछे थे. वो जिस काम में हाथ लगाता, लक्ष्मी जी से रहा ना जाता. पीछे-पीछे चलीं आतीं. तभी तो पैंतीस साल की कम उम्र में उसके पास वो सब कुछ था जिसे पाने में बहुतों की उम्र बीत जाती है.

दरोगा जी मोटर-साइकिल को कुर्सी बना कर उस पर विराजमान हो गए. लाश की शिनाख्त का काम जोरों पर था. एक ठुल्ला घडी और कपड़ों से उस मरे आदमी की हैसियत तौल रहा था. तो दूसरे को उसका पर्स वज़नदार लग रहा था. पर्स में पैसे कम थे और फ़ालतू के कागज़ ज्यादा. उनमें बन्दे का आई-कार्ड भी पड़ा था. कार्ड देखते ही ठुल्ला 'युरेका' अंदाज़ मैं चिल्लाया " जी जनाब! मिल गया" एक पल तो तो दरोगा को लगा कि कातिल का कोई पुख्ता सुबूत हाथ लग गया. कार्ड देखते ही उसके होंठों पर मुस्कान फैल गयी. लक्ष्मी के आने कि आहट उसे स्पष्ट सुनाई दे रही थी.

आई - कार्ड क्या था, पूरा बायोडाटा था. मरने वाले का नाम मानस हंस था. दरोगा मन ही मन हँस रहा था, कि जात छिपाने को आजकल लोग क्या-क्या सरनेम लगा लेते हैं. पर जात भी कहीं छिपती है? लोग सब पता कर लेते हैं और अपनी बिरादरी को तो सूंघ कर पहचान लेते हैं. नहीं तो भला हिंदुस्तान में शादियाँ कैसे होतीं? साला विकास प्राधिकरण में इंजिनीयर था. जरूर कमीशन के चक्कर में ठेकेदार को रगड़ रहा होगा. तभी ये गति हुई है. पता नहीं लोग कितना लालच करते हैं. संतोषम परम सुखं. अपने राम तो न आते को रोकें न जाते को टोकें. इंजिनीयर की लाश है तो कुछ दे कर ही जाएगी. वर्ना लावारिस में निपटा देते. अब तहकीकात तो करनी पड़ेगी.

सरकार मोबाइल ड्यूटी तो देती है पर मोबाइल नहीं. अपने मोबाइल से ही प्राधिकरण फ़ोन करना पड़ेगा. अपनी ज़मीन के चक्कर में प्राधिकरण के एस इ साहब का नंबर फीड है. चलो उन्हीं को फ़ोन लगता हूं. 

"एस इ साहब...!"
"हाँ, बोल रहा हूँ."
" मै सजीवन पांडे, दरोगा. आप से मिला था. साहब हमारे प्लोट्वा का क्या हुआ? कोने वाले प्लाट के लिए आपसे विनती की थी."

एस इ साहब के पास ऐसे फ़ोन आये दिन आते रहते थे. कोने का तो क्या, कोई भी प्लाट वो बिना फायदे के अपने बाप को न दिलाएं. ऐसा नहीं कि उन्हें अपने बाप से प्यार नहीं था, पर सिस्टम में और लोगों का हक मारा जाता. और ये उनके उसूल के खिलाफ था. इस लिए सिस्टम को पारदर्शी बनाते हुए अपने कार्यकाल में नीति बनाई ना बाप बड़ा न भैया. और इस नीति पर अब तक अक्षरश: पालन भी किया. कोने कि ज़मीन पर बीस प्रतिशत एक्स्ट्रा. दरोगा अपने आप को ज्यादा होशियार समझ रहा है. 

प्रत्यक्ष रूप में बोले " सजीवन जी मै अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगा. पर आजकल आप तो जानते ही हैं पूरी प्रक्रिया कंप्यूटर द्वारा की जाती है इसलिए दिक्कत है. आप तो अपने ही आदमी हैं, कोई न कोई प्लाट अवश्य दिलवाऊंगा". एस इ साहब ने मजे हुए नेता सा जवाब दिया. ऐसे ही थोड़ी न इस पद पर पहुंचे थे. बड़ों-बड़ों को चरा कर ये मुकाम हासिल किया है. फिर ये मामूली दरोगा क्या चीज़ है?

मगर सजीवन पांडे ने भी इतने साल कच्ची गोलियां तो खेली नहीं थी. ऐसे थोड़ी नहीं चरा सकते एस ई  साहब. ट्रमप पांडे के पास था ही. पांडे ने संयत आवाज़ में कहना शुरू किया "साहब आपके यहाँ कोई मानस हंस नाम का  इनजिनीयर है क्या?"

अब चौंकने की बारी एस इ साहब की थी. कहीं मानस ने विभागीय भ्रष्टाचार की एफ आई आर तो नहीं लिखा दी. हर ठेकेदार से काम की गुणवत्ता को लेकर चक-चक. जब से आया है ठेकेदार कतराने लगे हैं. कहते हैं या तो क्वालिटी ले लो या कमीशन. साला बड़ा ईमानदार बनता है. हेडक्वाटर को भी यही नमूना मिला था.

" हाँ हाँ है तो. बड़ा ही अनसोशल और इम्प्रक्टिकल आदमी है. कोई ख़ास बात?"

"साहब उसे किसी ने चौराहे पर निपटा दिया. ज्यादा खाऊ था क्या? लगता है ठेकेदारों ने काम लगा दिया."

ये वाकई बड़ी खबर थी. एस ई साहब सिहर से गए. मर्डर तक बात पहुँच जाएगी ऐसा उन्हें आभास न था. कोई हार्डकोर क्रिमिनल तो वो थे नहीं. सिर्फ वाईट कॉलर क्राइम उनकी स्पेसिअलिटी थी. पर अब जो हो गया सो हो गया. मामले को निपटाना होगा. माया में बड़ी ताक़त है, ऐसा उनका अगाध विश्वास था. वो रिहर्सल करने लगे, मानस की शोक सभा का. बड़े ही कर्मठ और ईमानदार अधिकारी थे मानस जी. कर्तव्यपरायणता तो कोई उनसे सीखे. प्राधिकरण के लाभ के लिए उन्होंने बड़े-बड़े बिल्डरों से लेकर राजनेताओं तक को नहीं छोड़ा. वो एक महान कर्मयोगी थे. पर अफ़सोस इस भ्रष्ट सिस्टम में वो फिट न हो सके और बाध्य होकर उन्हें आत्महत्या जैसा गलत निर्णय लेना पड़ गया. भ्रष्टाचार से लड़ना आत्महत्या करना ही तो है, इस देश में. अगर इस हत्या को आत्महत्या सिद्ध कर दिया जाए तो कोई बवाल नहीं होगा. ये सोच कर वो मुस्कराए. ये दरोगा साला किस दिन काम आएगा. वो और सोचते पर दरोगा को जल्दी थी. आखिर मोबाइल तो उसी ने किया था, खामखाह बिल बढ रहा है.

दरोगा ने पूछा "क्या साहब कोई ख़ास बात है?"

" नहीं ऐसा कुछ नहीं पर क्या तुम इसे आत्महत्या दिखा सकते हो. तुम्हारे काम का मै खुद ख्याल रखूंगा. साले के न आगे कोई है न पीछे. हमीं लोगों को फूंकना-तापना पड़ेगा. हत्या दिखाओगे तो खामखाह हमहीं लोगों को परेशान करोगे. फिर कोई सीआईडी की डिमांड करेगा कोई सीबीआई की."

" साहब वो कोने वाला प्लाट".

"क्या सजीवन, की ना छोटी बात. तुम हमारा ख्याल रहो मै तुम्हारा. रिपोर्ट में  सुसाइड ही आना चाहिए".

दरोगा के नथुनों में लक्ष्मी की गंध बढ़ती जा रही थी. " साहब मेरा तो ठीक है पर आजकल बलेस्टिक और पोस्टमार्टम वाले बहुत हावी हो गए हैं. जरा सी कलम हिलाने का अनाप-शनाप मांग लेते है."

" देखो पण्डे, दाम जो तुम चाहो पर काम होना चाहिए.". एस ई साहब चांदी के जूते की अहमियत से भली-भांति वाकिफ थे. ऐसे ही जूते खा-खा के वो इस ऊँचे ओहदे पर पहुंचे थे. इंजिनियर हो कर जब वो बिक सकते हैं तो इस दरोगा की क्या बिसात.

"पंद्रह लाख"

" ठीक है. दफ़न करो इस लफड़े को". सौदा पक्का हो गया था. बेफजूल बातों की अब गुंजाईश नहीं थी. एस ई साहब ने खुद ही फ़ोन काट दिया.

एस ई राम विलास वर्मा ने अपने पचीस साल की प्राधिकरण की नौकरी में मानस हंस सा इमानदार और काबिल आदमी दूसरा नहीं देखा था. लगता था अभी भी कोलेज में पढ़ रहा है. हर समय ऊँची-ऊँची आदर्शवादी बातें. मच्योरिटी नाम की तो चीज़ ही नहीं थी. जरा भी मच्योर होता तो क्या अपना अच्छा-बुरा न समझता. गाँधी का चेला बनता था, साला. न किसी को अपनी जात बताता था न किसी की पूछता था. कहता था  मेरा धर्म भारतीय है. इस देश को अच्छे लोगों की जरूरत तो है. पर इतना अच्छा नहीं चलता. पूरा का पूरा सिस्टम ही चौपट कर के रख दिया था. क्या हम विकास नहीं चाहते, सरकार ने इतना ऊँचा पद ऐसे ही तो नहीं दे दिया. जब से नौकरी शुरू की तभी से ऊपर वालों को खुश रखने के लिए क्या-क्या पापड़ नहीं बेले. कभी बॉस के सामने सर नहीं उठाया. वफादारी से काम करने का ही ये परिणाम है जो आज एस ई के पद पर बैठा हूँ. खुद सिस्टम फ़ॉलो करो और नए लड़कों को सिस्टम सिखाओ. यही तो अपनी सफलता का मंत्र रहा है. ज्यादातर लड़के समझदार होते हैं. दो-चार साल में फिट हो जाते हैं. पर मानस तो जैसे न सुधरने की कसम खा के आया था. साम-दाम-दंड किसी से भी काबू में नहीं आ पाया. शायद उसकी मिटटी को यही बदा था. हर कोई अपनी किस्मत लिखा के आता है, वर्ना प्राधिकरण की नौकरी में तो बाबू से लेकर अफसर तक सबकी मौज है. एस ई साहब की मोटी चमड़ी अभी भी खुद को जस्टिफाई करने में लगी थी.

हम सब तो सिस्टम के मोहरे हैं. उपरवाला प्यादा चलता है. प्यादे की क्या औकात की अपनी मर्जी से चले. ऊपर वाले ने मेरे लिए ये ही रोल रखा है तो मै क्या कर सकता हूँ. ठेकेदार से लेकर मंत्री तक पूरी श्रृंखला है. सबका ख्याल रखना पड़ता है. दो-चार मानस हो जायें तो विकास का जो थोडा बहुत काम हो रहा है सब ठप्प हो जाये. अब तो सभी ने इस भ्रष्ट तंत्र को स्वीकार कर लिया है. पर ठाकुर ठेकेदार भी साला पूरी उलटी खोपड़ी है. रात पार्टी के नशे में जो मजाक कर रहा था उसे कर डाला. अब झेलो भैया राम विलास. ये तो अच्छा हुआ की दरोगा की गुट्टी मेरे पास फँसी है नहीं तो मामला सुलटाने में पता नहीं कितना लग जाता है. ये पंद्रह लाख भी ठाकुर भरेगा. मेरी तो सिर्फ डील है.      


भीड़ छंट चुकी थी. सवेरे वाले चेहरे बदल चुके थे. पुलिस हरकत में आ चुकी थी. एक ठुल्ले ने बचे-खुचे तमाशबीनों को हांक दिया. दूसरे ने आनन्-फानन मैं देसी कट्टे का जुगाड़ कर दिया. सजीवन पांडे की ट्रेनिंग जारी थी. लाश के हाथ मैं कट्टा पकड़ा कर हर एंगल से फोटो उतारी जाने लगी. बलेस्टिक रिपोर्ट फ़ोन पर दी गयी पैसों की गारेंटी के हिसाब से लिखी जा चुकी थी. पोस्टमार्टम हॉउस का डॉक्टर सेट किया जा चुका था. ये मोबाईल भी कमाल की चीज़ आई है अपने देश में. साहब से लेकर चपरासी सब को सेट कर लो, वो भी डायरेक्ट. हर किसी का नंबर फीड कर लो क्या पता कब कौन काम आ जाये. पंचनामा करके लाश जितनी जल्दी से सील हो जाये उतना अच्छा. लक्ष्मी को रूठने में भला कितनी देर लगती है. अब दरोगा को सब जल्द ही निपटाना होगा. डॉक्टर की तैयारी पूरी है. चूक की कोई गुंजाईश नहीं है.

रिपोर्ट तो डॉक्टर को ही लिखनी थी. सहायकों को चीर-फाड़ के लिए बोलने से पहले डॉक्टर के मन में लाश देखने की इच्छा जोर पकड़ने लगी. उससे रहा नहीं गया. मृतक के चेहरे पर एकदम शांति थी. किसी डर या दर्द का निशान तक न था. शायद उसे समझाने का मौका ही नहीं मिला कि उसके साथ क्या होने जा रहा है. मारने वाला भी अपने फन का माहिर जान पड़ता था. मृतक कि अध्-खुली आँखें डॉक्टर को घूरती सी लगीं. डॉक्टर ने अपने हाथों से उसकी पलकें गिरा दीं. और सहायकों को पोस्ट मार्टम का आदेश देकर वो अपने कक्ष में आ गया. 

रिपोर्ट तैयार हो चुकी थी. दरोगा उसकी अंग्रेजी समझने कि कोशिश कर रहा था. पढ़ते-पढ़ते उसका रंग बदलने लगा. चेहरा तमतमा उठा. "अबे डॉक्टर तेरे को दो लाख कम पड़ रहे हैं. पैसे आत्महत्या दिखने के दे रहा हूँ, हत्या के नहीं.

डॉक्टर कि आँखें दरोगा को अन्दर तक बेध रहीं थी. डॉक्टर ने दृढ शब्दों में कहा "सॉरी, आई कांट हेल्प". मानस का भूत उस पर पूरी तरह हावी था और अभी भी वो शरीर के अंजाम से पूरी तरह बेख़ौफ़ था.

- वाणभट्ट   
  



  
   
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8 टिप्‍पणियां:

  1. "सॉरी, आई कांट हेल्प"

    तो फिर २ लाख किस बात के ले लिए- जरा गड़बड़ा रहा है मामला..या तो ऑफर एक्सेप्ट नहीं करना था वरना काम करता...ऐसे तो पूरा सिस्टम डैमेज हो जायेगा भाई?

    वैसे पूरी कहानी में सिस्टम की सही बखिया उधेड़ी है.

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  2. एक निवेदन:

    कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लीजिये

    वर्ड वेरीफिकेशन हटाने के लिए:

    डैशबोर्ड>सेटिंग्स>कमेन्टस>Show word verification for comments?>
    इसमें ’नो’ का विकल्प चुन लें..बस हो गया..जितना सरल है इसे हटाना, उतना ही मुश्किल-इसे भरना!! यकीन मानिये.

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  3. आदि से अन्त तक पाठक में जिज्ञासा जगाती हुई रोचक कहानी।

    कृपया मेरे ब्लॉग
    http://samkalinkathayatra.blogspot.com/
    एवं
    http://amirrorofindianhistory.blogspot.com/
    पर भी आपका स्वागत है !

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  4. sameer ji, manas ka bhoot doctor per chadhha tha is liye vo palat gaya...

    dr shrad, thanks for finding time fo the lengthy text and kind words...

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  5. बहुत अच्छी कहानी। भाषा में ताज़गी बनाए रखने का अच्छा प्रयास है।

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  6. प्रभावशाली ! शुभकामनायें आपको !

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  7. जिज्ञासा जगाती हुई रोचक कहानी। शुभकामनायें

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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