रविवार, 27 अक्तूबर 2024

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म योग सिखाता हो, वहाँ यम-नियम के नाम से ही बड़े-बड़ों की हवा निकल जाती है. इसलिये वो कर्म काण्ड को लक्ष्य करके मूल धर्म पर आघात करने से नहीं चूकते. समाज में सदियों से व्याप्त जड़ता, अंधविश्वास और कुप्रथाओं को हिन्दू धर्म से जोड़ कर शिक्षित लोग-बाग स्वयं को नास्तिक कहलाना अधिक पसन्द करते हैं. कर्म के आधार पर बनी गतिशील जातिगत व्यवस्था को नवशिक्षित लोगों ने जड़ मान कर धर्म परिवर्तन का आधार बना लिया. विश्व में हिन्दू ही ऐसा एक मात्र धर्म है, जिसमें कर्म के अनुसार अपनी जाति बदलने की व्यवस्था है. लेकिन कर्म करना कठिन, श्रमसाध्य और दुष्कर है. इसकी अपेक्षा व्यवस्था को दोष देकर धर्म बदलना बहुत आसान है. उसके पीछे कहीं न कहीं मानव जीवन को भोग-विलास के लिये उपयोग करना मूल कारण दिखायी देता है. बड़े भाग्य से मानव जीवन मिला है तो क्यों न थोड़ा भोग-विलास कर लिया जाये. स्वर्ग में जा कर तो हवन-पूजन करना ही है. बाकि सबके लिये इस और उस जीवन में ऐश की सम्भावना है. मूल रूप से भारत में विकसित सभी धर्म त्याग पर आधारित हैं. वैसे संप्रदायों को धर्म मनाना भी एक हिसाब से गलत ही है. धर्म शाश्वत, सार्वभौमिक और अपरिवर्तनीय है. 

ज्ञान की प्राप्ति के लिये भारत वर्ष में ब्रह्मचर्य और अनुशासन पर बहुत बल दिया गया है. तभी हमारे पूर्वज, ऋषि-मुनि, गणित या ग्रह-नक्षत्रों की गणना में विश्व में अग्रणी रहे. ये बात अलग है कि हमारे ही अँग्रेजी में साइंस पढ़े लोग उन्हें वैज्ञानिक मनाने को तैयार नहीं हैं. विज्ञान की किसी भी आधुनिक विधा का आप नाम लीजिये, उसका वर्णन वेद और पुराणों में मिल जाता है. हमारा भू, हमेशा से गोल रहा है. किसी प्रकार का कोई संशय नहीं कि धरती गोल है या चपटी. 'यथा पिण्डे, तथा ब्रह्मंडे'. उनका ज्ञान परमाणु की संरचना से लेकर ब्रह्मांडीय गतिविधियों से अनभिज्ञ न था. शायद इसलिये पश्चिमी देशों में हुयी अधिकांश खोजें अंग्रेजों के भारत में पदार्पण के बाद हुयी. लुटेरे मुग़ल का ध्यान बस ख़जाना लूटने तक सीमित रहा. अंग्रेज़ों ने बौद्धिक सम्पदा पर डाका डाला. उन्होंने ही पेपर पब्लिश करने और पेटेंट-कॉपीराइट जैसी लफ्फाज़ी में हमें उलझा दिया. वरना हमारे देश में विज्ञान तो जनकल्याण के लिये था. जब से मार्केट में मुनाफ़ा कमाने का चलन बढ़ा है, तब से सब अपना-अपना शोध सीने से चिपकाये घूम रहे हैं, कि पेटेंट कराएंगे और लाभ कमाएंगे. आजकल तो किसी को राय भी देनी हो तो आईडिया स्टैम्प पेपर पर लिखवा कर साइन करवा लीजिये. वरना आप का आईडिया वो अपने नाम पर पेटेंट करवा सकता है. अब न पुरातन काल का सतयुग बचा, न वर्तमान काल की एथिक्स बची है. 

सारी बातों का लब्बोलुआब ये है कि ज्ञानीजन का ज्ञान बहते झरने की तरह सबको सहज उपलब्ध है, और विज्ञानीजन अपने लाभ और प्रमोशन तक सीमित हो गये हैं. उसमें भी दो तरह का विज्ञान है. एक सरकारी और एक असरकारी यानि प्राइवेट. प्राइवेट का विज्ञान लाभ को प्रोत्साहित करता है. जहाँ ब्रैंड, पैकेजिंग और मार्केटिंग स्ट्रेटीज़ के दम पर हर माल मुनाफ़े पर निकाल दिया जाता है. सरकारी का हाल भी कुछ अजीब है. पीएचडी-डीएससी करते-करते यदि आईएएस/पीसीएस/तहसीलदार नहीं बन पाये, तो इज़्ज़त से जीवन-यापन करने की एक सरकारी स्कीम है, अध्यापन और शोध. इसमें भी अमूमन वो ही आगे जा पाता है, जिसमें एक अच्छे प्रशासक या प्रबंधक के गुण हों. यही गुण तब और मुखरित हो कर निखरते हैं, जब उन्हें कोई प्रशासनिक पद मिल जाता है. सुयोग से यदि किसी कमेटी के चेयरमैन भी बन गये, तब इनकी प्रतिभा के नये रंग सामने आते हैं. वरना ये निरीह प्राणी की तरह कुंडली मारे पड़े रहते हैं. 

अब चूँकि ये नौकरी है, तो नौकरी की तरह ही करनी होगी. एग्जाम होगा, प्रमोशन होगा और प्रमोशन के लिये एक आदर्श पथ होगा. जिस पथ पर चल के आपके विभाग के लोग उच्च पदों पर आसीन हुये. उन्हें ये अच्छी तरह मालूम होता है कि उन्हें क्या करना चाहिये था, लेकिन उन्होंने नहीं किया. अब वही काम दूसरों से करवाना है. सबसे बड़ा काम तो मातहतों से टाइम का पालन करवाना है. बिना सीएल/ईएल के पूरा मकान बनवा लेने वाले जानते हैं कि उनका मकान बन चुका है और जूनीयर्स को बनवाना है. उनके बच्चे पढ़ चुके हैं, जूनीयर्स को पेरेंट मीटिंग में जाना है. आठ घंटे कोई लैब में रहेगा तो कब तक यूरेका नहीं कहेगा. लिखायी-पढ़ायी करेगा तो पेपर छपेंगे, पेपर छपेंगे तो मार्गदर्शन का श्रेय उन्हें भी मिलेगा. जो रिटायमेंट के बाद एक्स्टेंशन में काम आयेगा. सेवा विस्तार नहीं भी मिला तो विद्वतजनों के लिये बहुत सी कमेटियाँ हैं. जहाँ वो यथा योग्यता, यथा कांटैक्ट पना योगदान दे सकते हैं. 

श्लोक 'न ब्रूयात सत्यम अप्रियं' सत्यवादी हरिश्चन्द्र और सत्य के प्रयोग करने वाले गाँधी के देश में कुछ अटपटा सा लगता है. हमारे पूर्वज 'सत्यमेव जयते' के अनुपालक थे, और हम असत्य को महिमामंडित करने में लगे हैं. जिसने भी इस विचार का प्रतिपादन किया होगा, वो या तो राज पुरोहित रहा होगा या भविष्यवक्ता, जो बुरी से बुरी बातों पर मुलम्मा चढ़ा कर उन्हें कर्णप्रिय बनाने का हुनर रखते थे. कतिपय सम्भव है वो राजा-महाराजा के दरबार में चारण या भाट रहा हो. जबकि उन्हें भली-भाँति मालूम था कि इस देश में शाश्वत सत्य तो राम नाम ही है. 

-वाणभट्ट

रविवार, 13 अक्तूबर 2024

पंख

एक्सलरेटर को हल्का सा ऐंठा ही था कि स्कूटर हवा से बातें करने लगा. फोर स्ट्रोक वाली हीरो-होण्डा चलाने वाले को पिकअप से संतोष करना ही पड़ता है. लेकिन होण्डा एक्टिवा की बात कुछ और है. हेलमेट लगा हो तो कब ये साठ पार कर जाती है, पता ही नहीं लगता. जब तक मैंने स्वयं एक्टिवा नहीं चलायी थी, मुझे लगता था कि लोग-बाग़ ख़ामख्वाह उड़े जा रहे हैं. आज की पीढ़ी या तो स्पीड चाहती है या टशन. बुलेट अगर डिमांड में है और धुआँधार बिक रही है तो उसके पीछे टेक्नोलॉजी से ज़्यादा स्टाइल स्टेटमेंट वाली बात है. 

पंख होते तो उड़ आती रे या पंछी बनूँ उड़ती फिरूँ मस्त गगन में आदि-इत्यादि गीतों की भावनायें इंसान की मूल रूप से स्वतंत्र रहने की प्रवृत्ति को दर्शाती है. पैदल जाने में आस-पड़ोस, घर-परिवार के द्वारा गंतव्य तक पहुँचने से पहले पकड़े जाने की सम्भावना अधिक रहती है. उड़ने में समय भी कम लगता है. फुर्र से उड़े और पहुँच गये. जिससे मिलना है मिले, और उसी तरह फुर्र से किसी को हवा लगने से पहले वापस हो लिये. 

जब पहली बार सन् सत्तासी में हीरो-होण्डा भारत में इंट्रोड्यूस हुयी थी, तो मार्केट में स्कूटर 'हमारा बजाज' का बोलबाला था. बजाज को स्टार्ट करने से पहले उसकी आरती उतारने का एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर था. स्कूटर को तीन बार इंजन की ओर झुकाओ, तभी पेट्रोल कार्बोरेटर तक पहुँचता था. बजाज स्कूटर के मालिक को छोटा-मोटा मेकैनिक होना पड़ता था. कभी भी आपको स्पार्क प्लग साफ़ करना पड़ सकता था. एक-दो क्लच वायर तो स्कूटर की डिक्की में पड़े ही रहते थे, जिसे बदलना, कोई भी ओनर जल्दी ही सीख जाता था. संतोष धन से समृद्ध हम लोग एक लीटर में अस्सी किलोमीटर चलने वाली हीरो-होण्डा के उपर तीस किलोमीटर चलने वाले बजाज से मात्र इसलिये संतुष्ट थे कि उसकी रिसेल वैल्यू थी, और तब तक किसी को हीरो-होण्डा के रीसेल की नौबत नहीं आयी थी. दोनों के दाम में भी दुगने का अंतर था. जड़त्व के मामले में हम लोगों का कोई सानी नहीं है. काफी समय तक बजाज सिर्फ़ अपने स्थापित नाम और विज्ञापनों पर ही चलता रहा. 'यू जस्ट कांट बीट अ बजाज'. आज भी बहुत सी ऑब्सलीट हो चुकी पॉलिटिकल पार्टीज़ और एजेंडों को बस इसलिये ढोये जा रहे हैं क्योंकि वो पुरानी पार्टीयाँ और पुराने मुद्दे हैं. कुछ पुराने लीडर्स के प्रति हम स्वयं को प्रतिबद्ध समझते हैं. 

उसी समय सबसे पहली ऑटोमेटिक गियर वाली स्कूटर काईनेटिक होण्डा ने भी इंडियन मार्केट में एंट्री मारी. टेक्नोलॉजिकली सुपीरियर इन गाड़ियों ने भारत के टू-व्हीलर सेगमेंट को अभूतपूर्व रूप से प्रभावित किया. नतीजन मार्केट में जापानी तकनीक वाली कावासाकी-बजाज और इंड-सुज़ुकी जैसी गाडीयाँ भी लॉन्च हुयीं. लेकिन मार्केट में हीरो होण्डा और काईनेटिक होण्डा का वर्चस्व बना रहा. इन भारतीय कंपनियों के माध्यम से होण्डा ने भारत के मार्केट पोटेंशियल का अध्ययन कर लिया. सन् सत्तासी में ही मैंने आँकलन कर लिया था कि जिस दिन होण्डा ने डायरेक्ट अपना प्रोडक्ट लॉन्च कर दिया, इन भारतीय कम्पनियों के लिये समस्या आ सकती है. कभी लूना और स्पार्क जैसी गाडियाँ देने वाली मार्केट लीडर रही काईनेटिक गायब हो गयी. हीरो और बजाज भी मार्केट में बने रहने के लिये निरंतर नये-नये मॉडल्स निकाल रहे हैं. 

निसंदेह एक्टिवा के नये-नये मॉडल्स ने युवाओं को पंख दे दिये हैं. कल्पना तो कल्पना होती है. लेकिन किसी भी कल्पना का आधार कहीं से ली गयी प्रेरणा होती है. जब होंडा वालों ने अपने टू-व्हीलर सेगमेंट के लिये पंख का सिम्बल चुना तब मुझे शक़ नहीं हुआ कि इनका इरादा क्या है. इनका टू-व्हीलर आपको गति प्रदान करेगा और वो भी ऐसी वैसी नहीं. उड़ने के माफ़िक. आपको लगेगा कि पंख निकल आये हों. जिसे देखो भड़भड़ाया उड़ा जा रहा है. स्पीड इतनी की स्पीड ब्रेकर भी हैरान हो जाता है कि हम ख़ामख्वाह लेटे पड़े हैं. आज गति ही विकास है. विकास और परिवर्तन हमेशा आगे ही जाता है, लेकिन 'पाथ ऑफ़ नो रिटर्न' पर. 

स्पीड की खोज में जुटे युवाओं के लिये इस गाड़ी में मुझे व्यक्तिगत तौर पर बस दो कमियाँ लगीं. १. चौड़े इंजन को कवर करने के लिये इन्होंने उतनी ही चौड़ी सीट लगा रखी है. इससे पिलीयन सीट पर बैठने वाले को हमेशा ये डर बना रहता है कि चढ़ते-उतरते कहीं उसकी तशरीफ़ का टोकरा पब्लिक दर्शन के लिये खुल न जाये. २. इसका फुटरेस्ट स्कूटर की बॉडी से बाहर काफ़ी निकला सा लगता है. बाक़ी हवा में उड़ने वालों के लिये इससे मुफ़ीद टू-व्हीलर फ़िलहाल तो मार्केट में नहीं दिखता. 

अमूमन मोहल्ला मार्केटिंग के लिये कंधे का झोला मेरे ड्रेस कोड में शामिल है. उस दिन शाम को टहल के लौट रहा था, जब घर से फ़रमाइश आयी कि लौटते हुये माज़ा की दो लीटर की बोतल लिये आना. लिहाज़ा मुझे पॉलीथीन बैग लेना पड़ गया. जब से मार्केट का विस्तार हुआ है, तब से लगता है दुकानों ने पूरा फुटपाथ निगल लिया है. पैदल चलने वालों के लिये सड़क पर चलने की विवशता है. ख़रामा- ख़रामा मै सड़क पर अपनी बायीं साइड लिये घर की ओर चल दिया. तभी एक मोहतरमा सनसनाती हुयी मेरे बगल से एक्टिवा से गुजरीं. हेलमेट पहनने के बाद अधिकांश लोगों को लगता है उनकी गर्दन सामने की ओर फ़िक्स हो गयी है. ग़लती से कोई अगर मोड़ पर सर दायें-बाँयें घुमा लें, तो समझिये ड्राइविंग टेस्ट दे कर ही लाइसेंस बना है. 

उनके पंख खुले हुये थे. पंख से एक सॉफ्ट फीलिंग आती है. एक्टिवा के फुटरेस्ट को डैने की संज्ञा देना अधिक उचित होगा. सशक्त पक्षियों जैसे गिद्ध, चील और बाज के डैनों को पंख कहना सही नहीं है. नयी पीढ़ी इतनी जल्दी में होती है कि इनको फुटरेस्ट खोलने का समय भले मिल जाये, लेकिन इसे बन्द करने की किसके पास फुरसत है. ये उसे बन्द इसलिये भी नहीं करते कि बार-बार क्या खोलना-बन्द करना. जापान में विकसित होण्डा एक्टिवा के निर्माताओं ने ये सोच कर की ड्राइविंग के बेसिक्स तो लोगों को पता होंगे, फुट रेस्ट बंद रखने का क्लाज मैनुअल में नहीं डाला. ना ही किसी ने इन्हें बताया कि जब फुटरेस्ट उपयोग में न हो तो बन्द कर देना चाहिये. सारे एक्टिवा वाले शार्प चाकू जैसा फुटरेस्ट लिये खुले-आम घूम रहे हैं. बाकी गाड़ियों के यूज़र्स का भी यही हाल है. लेकिन उनके फुटरेस्ट संभवतः हैंडल की चौड़ाई के भीतर आ जाते हों. 

उनका फुटरेस्ट मेरे पैर पर भी लग सकता था, यदि मेरे दाहिने हाथ के पॉलीथीन में माज़ा की बोतल न लटक रही होती. पॉलीथीन का लिफ़ाफ़ा फट चुका था और माज़ा की बोतल सड़क पर रोल होते हुये पीछे से आती कार के ठीक सामने थी. कार वाला शाम को मार्केट में बढ़ती चहल-पहल के चलते नियन्त्रित स्पीड पर चल रहा था. उसने ब्रेक मार कर माज़ा को शहीद होने से बचा लिया. 

बोतल की जगह यदि मेरा पैर चपेट में आ जाता तो स्थिति का अंदाज़ आसानी से लगाया जा सकता है. उधर उन मोहतरमा को पता भी नहीं लगा कि उनकी पीठ के पीछे मेरा काम लगते-लगते रह गया. यहाँ ये बताना भी ज़रूरी है कि अधिकांश लोग स्कूटर का बैक मिरर अपने चेहरे पर फ़ोकस रखते हैं ताकि हैंड्स फ़्री पर बात करते हुये अपनी भाव-भंगिमा निहार सकें. पब्लिक की सेफ़्टी के मद्देनज़र कम्पनी को मेरा सुझाव है कि भाई जब इतनी अच्छी और मॉडर्न स्कूटर बना ही दी है तो एक बटन ऐसा भी लगा दो कि जिसे दबाते ही फुटरेस्ट खुल और बन्द हो सकें. मेन स्टैंड का उपयोग न जानने वाली और हमेशा साइड स्टैंड पर टू-व्हीलर खड़ा करने वाली युवा पीढ़ी के पास समय का सर्वथा अभाव है और रहेगा.  

-वाणभट्ट

रविवार, 15 सितंबर 2024

इंजिनियर्स डे

साल में आने वाले अनेक दिवसों की तरह ही अभियन्ता दिवस मनाये जाने का रिवाज़ बन गया है. और रिवाज़ों का निर्वहन करना हमारी परम्परा से अधिक आदत सा बन चुका है.  साल में एक बार पितृ-मातृ-शिक्षक-मित्र-चिकित्सक-किसान-मजदूर ऐसे अनेकानेक दिवस आते हैं और चले जाते हैं. जब से सोशल मिडिया का अविर्भाव हुआ है, तब से और भी पता नहीं कौन-कौन से दिन जुड़ते चले गये. और ये अच्छा भी है कि इसी बहाने कम से कम एक बार तो समाज उनके प्रति कृताज्ञता व्यक्त कर लेता है, जिनका उन सभी के जीवन में कोई न कोई योगदान रहा है. 

वैसे तो ये जीवन उन सब लोगों और अनुभवों का सम-टोटल है, जिनसे हमारा सबाका पड़ा है. हमें तो उन सभी लोगों के प्रति प्रतिदिन कृतज्ञ महसूस करना चाहिये, जिन्होंने हमारे जीवन को वर्तमान स्वरुप दिया है. हमारे  सक्षम बनने में उनका अमूल्य योगदान रहा है. उन्हें व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद देने के चक्कर में लिस्ट के बहुत लम्बा हो जाने की सम्भावना है. जिस उन्नत समाज में आज हम रह रहे हैं, जहाँ जब सभी अपने को सेल्फमेड मैन सिद्ध करने में लगे हों, तो कोई कैसे किसी इंडिविजुअल या कुछ व्यक्ति विशेषों के प्रति अपना आभार व्यक्त कर दे. बकौल दुष्यंत कुमार-

हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही

ऐसे में सब के लिये एक-एक दिन मुकर्रर करके एक जनरल कृतज्ञता ज्ञापन कर देने का प्रचलन स्वागत योग्य है. व्यक्तिगत कृतज्ञता ज्ञापित करना तो हमने कब का छोड़ दिया है. नहीं तो लोगों को ये गुमान होना लाज़मी है कि आज हम जो कुछ भी हैं, उन्हीं की अनुकम्पा और वजह से हैं. फिर डर ये भी रहता है कि कहीं कोई अपने योगदान का मूल्य ना माँग ले. ज़माना इतना आगे बढ़ चुका है कि लोग अपने माँ-बाप से भी ये पूछने में गुरेज नहीं करते कि आपने मेरे लिये किया क्या है. और माँ-बाप को भी ज्यादा इमोशनल होने की ज़रूरत नहीं है. जो उन्होंने अपने माँ-बाप से लिया, वही बच्चों को लौटते हैं. सारा लेन-देन बराबर. इसीलिये बच्चों के लिये भी दुनिया की सारी माताओं और सारे पिताओं को धन्यवाद देना कतिपय आसान है, बनिसप्त अपने इकलौते माँ-बाप को. 

परसाई जी ने कहीं अपने लेखों में लिखा है कि दिवस हमेशा कमज़ोर लोगों का मनाया जाता है. कभी आपने प्रशासक दिवस या नेता दिवस या बॉस दिवस का ज़िक्र सुना है. बल्कि गौर करें तो ये ताकतवर लोग ही निर्णय लेते हैं कि किसका-किसका दिवस मनाया जाये. अमूमन उनका दिवस मानना जरूरी है जो हमसे कमज़ोर हैं क्योंकि हमें उनसे काम भी कराना है. दीन-हीन लोगों की कमी होती है कि कोई उन्हें थोड़ी इज्ज़त दे-दे तो वो अपना काम दिल-औ-जान से करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. जबकि समझदार मैनेजर टाईप के लोग निष्काम भाव से डिटैच रूप से आत्मउत्थान और व्यक्तिगत लाभ के लिये कार्य करते हैं. मैनेजमेन्ट का शायद यही तरीका बन गया है. काम निकालना हो तो थोडा चढ़ा दो, थोड़ी पीठ थपथपा दो. और कोई ज्यादा चढ़ जाये तो उसे उसकी औकात दिखा दो. देख भाई तू नौकरी कर रहा है, जिसकी तनख्वाह भी लेता है. प्रशासन के लिये सबसे बड़ी चुनौती होते हैं हाइली क्वालीलिफाईड लोगों से डील करना. लेकिन तुर्रा ये है कि भले ही तू ज्ञान-विज्ञान में हमसे आगे है लेकिन ये मत भूलना कि रहना हमारे अंडर ही है. यही सब देखते हुये बहुत से इंजीनियर्स और डॉक्टर्स अब प्रशासनिक सेवाओं की ओर रुख़ कर रहे हैं. 

इतने ज़्यादा दिवस मनाये जाने लगे हैं कि हर दिवस एक फॉर्मेलिटी सा बन के रह गया है. अभी कल ही हिन्दी दिवस हो के बीता है. आजकल इसका पखवाड़ा मनाया जाता है. हिन्दी पखवाड़ा और स्वच्छता पखवाड़ा लगभग साथ-साथ ही मनाया जाता है. अगर दोनों के पोस्टर भी कहीं साथ लग जायें तो लोग-बाग कन्फ्यूज हो जायें कि किसकी सफाई की बात हो रही है. ग्लोबल विलेज़ के युग में हिन्दी की बात करना आत्म गौरव की बात है. लेकिन यही आत्म गौरव सभी प्रादेशिक और आँचलिक भाषायें भी महसूस करना चाहती हैं. हमारे देश में चूँकि प्रजातंत्र हमेशा से अपने चरम उत्कर्ष पर रहा है इसलिये हम लोगों को जात-पात-सम्प्रदाय के आधार पर विभाजित करना आसान रहा है. भाषा को लेकर भी ऐसा ही विभाजन हमेशा से रहा है. सम्भवतः विश्व पटल पर ये बात सबको पता थी कि धरती पर भारत भूमि एक ऐसी जगह है जहाँ के लोगों में फूट डाल कर आसानी से राज किया जा सकता है. ऐसे ही नहीं हर कोई ऐरा-गैरा सर उठाये यहीं आक्रमण करने चला आया. 

वर्तमान परिपेक्ष्य में भी ये साफ़ परिलक्षित होता है कि आज भी सत्ता के लिये पक्ष और विपक्ष देश को दाँव पर लगाने से बाज नहीं आते. जब सबके अपने-अपने व्यक्तिगत लाभ के एजेंडे और महत्वआकांक्षायें हों तो क्या देश, क्या दफ़्तर, क्या समाज, सब को तोडना आसान है. यदि समाज किसी भी सर्वमान्य कारण से संगठित हो गया, तो सत्ता में भागीदारी माँगता है. जो कोई भी शासक नहीं चाहेगा. क्षेत्र, भाषा और जाति, सबसे ज्वलनशील मुद्दे रहे हैं. आज़ादी के सत्तर साल बाद भी ये जंग छिड़ी हुयी है कि कौन ज्यादा पिछड़ा है. हम या तुम. गोया देश-दुनिया में सभी इंसान बराबर करने के बाद ही हमारे जातिगत नेता दम लेंगे. हर जाति-सम्प्रदाय में नेताओं ने बराबरी के अधिकार दिलाने के लिये जन्म ले लिया है. और जल्द ही ये व्यवस्था न सिर्फ भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर लागू कराना, इनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य है. लेकिन इनकी पूँजी जिस दर से बढ़ती है, उस का कोई हिसाब नहीं है और इन सब के पीछे इनका व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध होता ही दिखता है. इनका मूल उद्देश्य अपनी जाति के लोगों को विकसित या उन्नत बनाना नहीं रहा. जातिगत भावनाओं को उभार कर अपनी नेतागिरी चमकाना और जिसकी परिणति अन्ततः किसी शक्तिशाली सम्मानजनक पद सुरक्षित करने के रूप में होती है.  

ऐसे माहौल में इंजीनियरिंग ही एक ऐसा प्रोफेशन है जो देश के विकास के लिये आरम्भ से प्रतिबद्ध रहा है. हर युग में मानव जीवन को सुगम बनाने के प्रयास होते रहे हैं. तब भले अभियांत्रिकी में डिग्री न मिलती रही हो लेकिन दिनों-दिन ऐसी खोजें और अविष्कार होते रहे जिसने धरती पर मनुष्य के जीवन को आरामदायक और आसन बनाने में अपना योगदान दिया है. यदि आपको विश्वास न हो तो अपनी गर्दन 360 डिग्री घुमा कर देख लीजिये. जो भी मानव निर्मित चीजें आप देख पा रहे हैं, उसके पीछे किसी तकनीकी व्यक्ति का हाथ अवश्य होगा. इन चीजों के हम इतने अभ्यस्त हो चले हैं कि इनका होना हम सहज मान लेते हैं. आखिर इन सुविधाओं (कार-टीवी-फ्रिज़-एसी आदि) के पीछे वर्षों का शोध और सुधार के पश्चात् ही हम दिन प्रतिदिन उन्नत हुए मॉडल्स का प्रयोग कर पा रहे हैं. इंजीनियर्स के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का दिन निश्चय ही सराहनीय है. भारत के महानतम अभियन्ताओं में श्री मोक्षगुंडम विश्वेसरैया जी की जयन्ती के कारण इंजीनियर्स डे के लिये सितम्बर 15 का चयन बहुत आसान हो गया. देश और समाज की अधिकान्श वृहद् समस्याओं का वृहद् स्तर पर समाधान आज भी इंजीनियरिंग के माध्यम से सम्भव है.

आज ही सवेरे अख़बार में भ्रष्टाचार की एक कलंक कथा छपी है. जिसमें तकरीबन दस अभियंताओं को भ्रष्टाचार के आरोप में निलम्बित कर दिया गया. कुछ आश्चर्यजनक नहीं लगता? पूरे प्रकरण में वित्त और प्रशासन के किसी भी व्यक्ति का कहीं कोई नाम नहीं है. हो सकता है विभागीय कार्यवाही उन्हीं के द्वारा की गयी हो. जिसे भी सरकारी कार्य पद्यति की थोड़ी भी जानकारी हो उसे पता होगा कि गलत काम कितनी पारदर्शिता से होता है. वातानुकूलित कमरों में बैठ कर फाइल-फाइल खेलने वाले अधिकतर प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार से दूर ही रहते हैं और ठीकरा किसी काम करने वाले पर ही फोडा जाता है. हर बिल के निस्तारण पर मलाई काटने वाला प्रशासन अभियन्ताओं को भ्रष्ट बताने में किसी प्रकार की हीला-हवाली नहीं करता. हर सफल काम के आगे प्रशासन का नाम होता है जबकि हर बिगड़े काम के पीछे जिम्मेदार कोई न कोई तकनीकी व्यक्ति या अभियन्ता ही निकलेगा. निर्णय करते समय प्रशासन आगे होता है और अभियन्ता को निर्देशित करता है. जब बजट आता है तो प्लानिंग पर विचार-विमर्श को अधिक समय देना चाहिये, लेकिन प्रशासन के पास योजनाओं के कार्यन्वयन के लिये सदैव समय का अभाव होता है. जब प्लानिंग किसी और को और एग्जीक्यूट किसी और को करना ही तो एडमिनिस्ट्रेटर को तो बस जादू की छड़ी ही घुमानी है. अमूमन प्रशासन का लक्ष्य जल्दी से जल्दी बजट युटिलाइज़ (कंज्यूम) करना होता है. और सभी को पता है कि जल्दी का काम किसका होता है. 

-वाणभट्ट 

शनिवार, 31 अगस्त 2024

महसूस तो करते हो ना...

रिश्तों का तकाज़ा है कि निभाये जायें
इक तरफ़ा कब तक ये भी तो बतायें

बहुत आसान है दूसरे को दोष दे देना 
अपनी गलती हो तो कभी मान जायें 

अब बहस की भी गुंजाईश नहीं रहती 
जब कोई बोले तो हम भी कुछ सुनायें 

आसमाँ में उड़ने का चलन छूट चुका है 
पिंजरे में आज़ादी का चलो जश्न मनायें 

कोई किसी से कोई उम्मीद नहीं रखता 
है कोई शुबहा तो दोस्तों को आजमायें 

'वाणभट्ट' रखना राब्ता दिल का दिल से 
दानिशमंद जमाने में जायें तो कहाँ जायें  

-वाणभट्ट

बुधवार, 14 अगस्त 2024

सुख

सबको तलाश है

सुख की

सब खोज रहे हैं 

अपना-अपना सुख 


या ये कहें कि 

सबको मिल ही जाता है 

अपना-अपना सुख

लेकिन दूसरे के सुख से 

हमेशा कुछ कम 

दूसरे के सुख की बराबरी में 

कुछ और सुख इकठ्ठा करने में 

लग जाते हैं हम 


इस प्रयास में 

ना जाने कितने सुख

हमने इकठ्ठा किये

लेकिन हर बार दूसरे का पड़ला भारी रहा 

पड़ले के दूसरे सिरे पर जो बैठा है न 

उसको भी ऐसा ही लगता है

फिर शुरू होती है 

एक अंतहीन दौड़ 

एक-दूसरे से आगे निकल जाने की


सुख जितना इकठ्ठा होता है 

दुःख उतना बढ़ता जाता है 

तेरा एक नया सुख

देता है जन्म मेरे एक नये दुःख को 

एक दिन बुद्ध चेतना से 

चलता है पता 

मेरे दुःख का मूल है 

दूसरे का सुख 


अब जब भी करता हूँ सचेत प्रयास

सुख दूसरे को देने का 

घटता नहीं 

बढ़ जाता है मेरा सुख 

शायद मनुष्य ही वह प्राणी है 

जो अपने आस पास ख़ुशी बिखेर के 

सुखी होता है 


अपनी नाव जब डूबने लगे 

अपने ही सुख के बोझ से 

तो 

आते हैं याद कबीर


'जो जल बाडै नाव में 

घर में बाढ़े दाम

दोउ हाथ उलीचिये

यही सज्जन को काम'


-वाणभट्ट

शनिवार, 13 जुलाई 2024

नई वाली हिन्दी

मोटरसायकिल को साइड स्टैंड पर खड़ा करके वो न जाने कहां लपक लिया. पता नहीं क्या जल्दी पड़ी थी. वो स्टेशन तो था नहीं कि लगे उसे कोई ट्रेन पकडनी है.

लेकिन आजकल लोग हर कोई अमूमन इस बीमारी का शिकार है. जिसे देखो जल्दी में है. पता नहीं कहां जाना है और क्या करना है. इस इकलौते जीवन में बहुत कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश रखने वालों के लिए एक-एक मिनट कीमती है. ये बात अलग है कि वो एक-एक मिनट बचा कर अपने शौक पर घन्टों ख़र्च कर दे. जैसे पूंजी आपकी है, वैसे ही समय भी आपका है. चाहे सोच समझ के ख़र्च करो, चाहे उड़ा दो. जब हर चीज़ पर आप की निगाह बारीक़ हो जाए तो इसके दो मतलब हैं - या तो आपका तजुर्बा औरों से अधिक है, या आपको मान लेना चाहिए कि आप की उम्र बढ़ चली है. तजुर्बे और ज्ञान में यही फ़र्क है. ज्ञान कोई किसी भी उम्र में अर्जित कर सकता है. जबसे सूचना को ही ज्ञान मान लेने का चलन बढ़ा है, लोगों ने पोथियाँ रट मारीं हैं. बोलते हैं तो उनके श्री मुख से डाटा झड़ते हैं. परसेंटेज ही ज्ञान का आधार बन गया है. तजुर्बा तो उम्र के साथ ही आता है, वो भी धक्के खा-खा कर. लेकिन जब समय ही नहीं है, तो तजुर्बा लेने का रिस्क नहीं लिया जा सकता. इसलिए तरक्की का सबसे सीधा-सरल मार्ग है, अपने रोल मॉडल्स का अनुसरण करना. 

वेद-पुराणों में भी ये वर्णन है कि - महाजनो येन गतः स पन्था, अर्थात महान लोग जिस रास्ते पर चलते हैं, वही रास्ता है. पुराने ज़माने के महापुरुष भी महान टाइप के हुआ करते थे. सत्य, समर्पण और त्याग की प्रतिमूर्ति. उन्होने अपना जीवन, समाज और देश के लिए होम कर दिया. लेकिन यदि आपको नौकरी ही करनी है, और नौकरी में प्रमोशन ही आपका अन्तिम लक्ष्य है, तो इस तरह का आदर्शवाद आपका कैरियर ख़राब कर सकता है. इसके लिए आपको अपने विभाग के ही किसी मॉडल को पकड़ना होगा. जिस रास्ते पर वो चला हो बस उसी का अनुकरण करते चलिए. आपके सफल होने में किसी प्रकार का कोई संशय नहीं है. ये भी बहुत आसान नहीं है. इसके लिए बस बॉस और बॉस के बॉस को साधना है. लेकिन ये उतना कठिन भी नहीं है कि आपको ईश्वर चन्द्र 'विद्यासागर' की तरह दुश्वारियों का सामना करना पड़े. गलती से आप किसी पुराने ज़माने के महापुरुष को आदर्श मान कर ईमानदार और सत्यनिष्ठ बनने के प्रयास में लग गए तो आपके कैरियर का भगवान-अल्ला-वाहेगुरु-जीसस ही मालिक है. आदर्शों को फ़ॉलो करने का सिर्फ़ प्रयास ही हो सकता है. जब विभाग के महापुरुषों ने एक फ़रमा बना रखा है, तो आप के लिए कुछ सोचने-समझने की गुंजाईश कहां बचती है. आपको बस खांचे में फिट ही तो होना है. एक तो ज़िन्दगी में वैसे ही समय का टोटा है, उस पर तजुर्बा लेने में समय वेस्ट करना कहां की समझदारी है.    

वो तो मोटरसायकिल साइड स्टैण्ड पर लगा कर निकल गया. अब मेरा तजुर्बा बता रहा था कि बगल की चाय की दुकान पर कुछ लड़के आएंगे. वो इसकी मोटर सायकिल पर टिक के खड़े हो जाएंगे. हो सकता है कोई चढ़ कर बैठ भी जाए. इस प्रकार तो कुछ सालों में इसका स्टैण्ड ख़राब हो सकता है. युवा लड़का है, ये स्टैण्ड ही बदलवा देगा. मै होता तो वेल्डिंग करवा के काम चला लेता. कौन सा इसका पैसा लगा है. बाप ने ख़रीद के दी होगी या दहेज़ में मिली हो. तभी इसे कदर नहीं है. लेकिन आजकल दहेज़ में कार मिलती है. मोटरसायकिल की डिमांड तो हमारे ज़माने में हुआ करती थी. चाहे कुछ भी हो इसे साइड स्टैण्ड पर मोटरसायकिल नहीं खड़ी करनी चाहिए थी. फुटपाथ पर ज्यादा जगह घिर जाती है. यही लोग जब ऑफिस में स्टैण्ड पर स्कूटर या मोटरसायकिल खड़ी करते हैं तो एक अफ़रातफ़री सी दिखती है. जहां बीस दोपहिया खड़े हो जाएं, वहां बमुश्किल 12-15 ही लग पाते हैं. मेन स्टैण्ड पर दोपहिया खड़े करने का संस्कार ही समाप्त हो चला है. इतना सब कुछ सोच चुकने के बाद मुझे एहसास हुआ कि तजुर्बा और उम्र दोनों बढ़ चलें हैं. ऐसा तजुर्बा भी किस काम का जो किसी और के काम न आए. मुझे लगा कि अगले को इसके बारे में बताना चाहिए. ये सोच के मैंने एक चाय ली और उसकी मोटरसायकिल पर टिक के खड़ा हो गया.

उपरोक्त उद्धरण में आपको यदि कुछ अजीब नहीं लगा, तो आप नई पीढ़ी का प्रधिनिधित्व करते हैं. जिसने सम्भवतः अंग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण की है. या हिन्दी का अपभ्रंश रूप ही देखा है. हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ या तो प्रकाशित होना बंद हो गईं या उनकी जगह कम्प्यूटर और मोबाईल ने ले ली. हमारे घर में अंग्रेजी का एक अख़बार पिता जी सिर्फ़ इसलिए मंगवाते थे कि बच्चों की अंग्रेजी इम्प्रूव हो जाए. यही काम आज मुझे हिन्दी अखबार के लिए करना पड़ता है. ताकि इंग्लिश मीडियम में पढ़े बच्चों को ये एहसास रहे कि वो हिन्दी भाषी क्षेत्र में पैदा हुए हैं. लेकिन जब आज का अख़बार या हिन्दी समाचार के नीचे जो कैप्शंस चलते रहते हैं, उन्हें देख कर लगता है कि अंग्रेजी में सोचने और यूनिकोड से हिंदी लिखने और सॉफ्टवेयर की सहायता से अनुवाद करने वाली जेनरेशन ने हिन्दी सीखने-समझने के बजाय हिन्दी से समझौता कर लिया है, और उसे नई वाली हिन्दी का नाम दे दिया है. 

अब लेख के बोल्ड शब्दों पर गौर कीजिये. जहाँ-जहाँ 'बिन्दु' की मात्रा है, वहाँ-वहाँ 'चन्द्रबिन्दु' लगाइये. जहाँ-जहाँ 'ए' है वहाँ 'ये' लगाइये. जहाँ-जहाँ 'इ/ई' है वहाँ 'यि/यी' लगाइये. हो गयी पुरानी वाली हिन्दी.

भले मां और माँ के उच्चारण में अन्तर न हो, किन्तु मेरे लिये बिना चन्द्रबिंदु के माँ शब्द अधूरा है. हिन्दी भाषी क्षेत्र से होने के नाते मुझे डर है कि इस नयी हिन्दी के चक्कर में हिन्दी भाषा से 'चन्द्रबिन्दु' कहीं विलुप्त न हो जाये.

-वाणभट्ट  

रविवार, 30 जून 2024

सही है

यदि उनको आना होता तो उनके आने का समय नियत था. बस ये निश्चित नहीं था कि उनका पदार्पण किस दिन होगा. भले ही महीने में उनका आना एक या दो बार हो, लेकिन ये महज संयोग ही हो सकता है कि उनके आने का समय अक्सर मेरे लंच से कोइन्साइड करता था. दरअसल मुझे जानने वाले हर आदमी को पता है कि ऑफिस में लंच के समय मेरे कमरे में मिलने की सम्भावना प्रबल रहती है. क्योंकि उस समय मीटिंग्स नहीं होती. मेरे एक मित्र मीटिंग्स को इस तरह डीफ़ाईन करते थे - मीटिंग इज़ अ प्लेस वेयर मिनट्स आर केप्ट एंड आवर्स आर लॉस्ट. मीटिंग का ज़िक्र आया तो सोचा चटका दूँ. 

जब से लोगों की आय में उनकी अपेक्षा से अधिक वृद्धि हुयी है, उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि इस बढे हुये पैसे का करें तो करें क्या. बड़ी सी कार/एसयूवी खरीद ली. इनकम टैक्स बचाने की गरज से एक एमआईजी या फ़्लैट भी लोन पर ले लिया. जब तक बच्चों के बस्ता नहीं टंगा था, दुनिया-जहान भी घूम डाला. हफ़्ते में चार दिन बाहर जा कर या बाहर का मंगा कर खाने के बाद जल्द ही ये आभास हो गया कि रोज-रोज बाहर का खाना, खाना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो सकता है. प्रोस्परिटी भी शरीर के चारों ओर से छलकने लग पड़ी थी. बेल्ट की सहायता से किसी तरह इस बढ़ती हुयी प्रॉस्परिटी/प्रॉपर्टी को सम्हाल रहे हैं. सेविंग्स और बचत को परम सत्य मानने वाले देश में सरकार और प्राइवेट कम्पनियाँ चाहती हैं कि लोग पैसा मार्किट में लगायें ताकि देश की अर्थ व्यवस्था सुदृढ़ हो. सरकार ने लोगों का पैसा मार्केट में निकलवाने के लिये ऐसे ऐसे नियम बना दिये कि जीपीएफ़-पीपीएफ़ जैसे सुरक्षित बचत की विधियों में लोग सीमित धन ही डाल सकें. नयी टैक्स पॉलिसी भी ऐसी है जो बचत से ज्यादा खर्चा करने को प्रोत्साहित करती है. लोग खुल के कमायेंगे और दिल खोल के खर्च करेंगे तभी तो देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे पायेंगे.

नतीजा ये हुआ कि मेरे जैसे वित्तीय मामलों के लिख लोढ़ा-पढ़ पत्थर टाइप के व्यक्ति को भी समझ आ गया कि धन, मात्र अर्जन और व्यय के लिये नहीं है. इसके सम्वर्धन के लिये बड़े-बड़े लोग समुचित इन्वेस्टमेंट मैनेजमेन्ट कर रहे हैं. हम मिडल क्लास लोगों की ये मानसिकता होती है कि अपने से ऊपर वालों की नक़ल करें. बहुत ही व्यवस्थित तरीके से समझाया गया कि जिस दर से मुद्रास्फीति बढ़ रही है, उस दर से बचत खातों में आपकी आय नहीं बढ़ रही है. जब आप साठ साल के होंगे तब तक एक लाख का मूल्य मात्र साठ हज़ार रह जायेगा. इसलिये सुरक्षित आठ परसेंट का ब्याज आपके लिये नाकाफ़ी सिद्ध होगा. इन्फ्लेशन के साथ या उससे अधिक दर से अपनी सेविंग्स को बढाने के लिये आपको मैदान में आना होगा, वो भी वैधानिक चेतावनी के साथ कि - फंड्स आर सब्जेक्टेड टू मार्किट रिस्क. ताकि बाद में आप ये न कह सकें कि बताया नहीं था. 

तब आज का सेंसेंक्स, जो पचहत्तर हज़ार पर नाच रहा है, पाँच हज़ार के अल्ले-पल्ले था. मुझे शेयर के बारे में तो हर्षद मेहता की दया से कुछ-कुछ पता चल गया था, और ये शपथ भी ले ली थी कि टैक्स फ्री इंटरेस्ट वाली बचत जीपीएफ़ के अलावा कहीं भी इधर-उधर इन्वेस्ट करना ही नहीं है. लेकिन जब से सरकार में वित्त के जानकर लोगों की दखलन्दाजी बढ़ी है, इन्होने मिडिल क्लास के अमीर बनने की राह में हर तरह के रोड़े अटकाने शुरू कर दिये हैं. लोगों के पास मार्केट में कूदने के अलावा बस छत से कूदने का ही विकल्प बचा है. फाइनेंशियल इन्वेस्टमेंट आजकल लोगों का सबसे पसंदीदा शगल बन गया है. अब चूँकि हर कोई इकोनोमिक टाइम्स तो न पढ़ सकता है, न समझ (ये बात अलग है कि बिल उसी का क्लेम करता है), इसलिये सेवा का एक ऐसा धंधा फल-फूल रहा है, जिसमें फाईनेन्शियल एडवाइज़र आपको ये बताते हैं कि कहाँ आप पैसा लगाइए और कैसे अपना पैसा बढाइये. सेवा से बड़ा कोई धंधा नहीं है, ये हमारे पुरखे भी जानते थे. सेवा करो सो मेवा खाओ. जिसकी सेवा करोगे उसको आपकी मेवा से कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिये. भले मेवा उसी की जेब से जा रही हो. 

तो जब सेंसेक्स पाँच हज़ारी था तब मुझे म्युचुअल फन्ड्स के बारे में उन्हीं से पता चला जिनका मै ज़िक्र कर रहा था. तब ये 'सही है' बताने के लिये तेंदुलकर और धोनी नहीं थे. उन्होंने ही बताया किस तरह जीपीएफ़ में पैसा लगा कर हम अपना भविष्य ख़राब कर रहे हैं. वैसे भी जैसे-जैसे हमको समझ आता है कि पैसा बर्बाद करने के लिए नहीं है. और सारी लग्ज़री कहीं न कहीं हेल्दी लाइफ़ स्टाइल को प्रभावित कर रही है, इन्वेस्टमेंट पैसे के सदुपयोग का सबसे अच्छा माध्यम बचता है. पूरे देश में जिस कदर सर्विस सेक्टर का विकास हुआ है, उतनी प्रगति किसी और क्षेत्र में देखने को नहीं मिलती. हर्र भी आपकी, फिटकरी भी आपकी और रंग उनका चोखा. आपने इन्वेस्टमेंट की सोची नहीं कि इन्वेस्टमेंट कब-कहाँ और कैसे करना है ये बताने के लिये इन्वेस्टमेंट एडवाईज़र्स की पूरी एक फ़ौज खड़ी है. और इनकी संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी जारी है. आपको आपका पैसा कहाँ लगाना चाहिये, ये बताना इनका काम है. इनकी सदिच्छा ये है कि आपकी बचत का पैसा कहीं बैंक-जीपीएफ़ में सड़ता न पड़ा रहे. इसके लिये हमें इन्वेस्टमेंट के पुराने तरीकों से बाहर निकलना होगा. सेविंग, रेकरिंग, एफ़डी, जीपीएफ़, पीपीएफ़ आदि में इन्वेस्ट करने से आप को एक सुनिश्चित वृद्धि भले ही मिल जाती हो. लेकिन यदि आपको इन्फ्लेशन से जीतना है, तो मार्केट में आना ही पड़ेगा. किनारे बैठ कर दरिया की धार का पता नहीं चलता. अख़बार में सेंसेक्स को चढ़ता-गिरता देखने से काम नहीं बनने वाला. उसके रोमांच को महसूस करने के लिये आय का एक समुचित भाग शेयर बाज़ार में लगाना पड़ेगा. डायरेक्ट शेयर में घुसना, हम जैसे नौसिखियों के लिये घाटे का सौदा हो सकता है, इसलिये म्युचुअल फण्ड का माध्यम अधिक सुरक्षित है. इसमें बड़ी-बड़ी कंपनियों के बड़े-बड़े फण्ड मैनेजर्स बैठे हैं, जिनका काम ही है ये कि आपके पैसे को कहाँ इन्वेस्ट करें कि आपको अधिक से अधिक लाभ हो. इसके लिये आपको इकोनोमिक टाइम्स और सीएनबीसी आवाज़ पर मगज़मारी नहीं करनी पड़ेगी. जितने रिटर्न्स उस समय उन्होंने दिखाये मुझे बिना धोनी के समझ आ गया कि म्युचुअल फण्ड 'सही है'. तब से ये मेरे मित्र-कम-एडवाइजर बन गये. बाद में पता चला कमोबेश ये पूरे ऑफिस के मित्र-कम-एडवाइजर हो चुके हैं. अब चूँकि इन्हें मालूम है कि मै लंच कमरे में ही करता हूँ, इन्होने अपने आने का टाइम इसी हिसाब से सेट कर रखा है. 

कोई भी आदमी दमड़ी तब निकालता है जब उसकी चमड़ी पर मामला आ जाये. बिना डराये न तो कोई लाइफ़ इन्श्योरेंस कराये, न मेडिकल इंश्योरेंस. इनकी यूएसपी थी कि आपका पैसा बैंक के पास सुरक्षित तो रह सकता है लेकिन इन्फ्लेशन को देखते हुये आपके बुढ़ापे की आवश्यकताओं के लिए शायद नाकाफ़ी हो. जिसने भी बुढ़ापे को करीब से देखा होगा, उसे पता है कि यदि कोई बुढ़ापे में बुढ़ापे का इलाज कराने में न लग जाये, तो बुढ़ापे में पैसे की उतनी ही आवश्यकता होती है, जितनी बचपन में थी. दूसरों पर निर्भर रहना है, वो जैसे रखना चाहें रखें. हाँ, यदि आपके खीस (खाते) में पैसा है तो सम्भव है रख-रखाव थोड़ा बेहतर हो जाये. वैसे भी यदि आप कुछ अच्छी जमा-पूँजी छोड़ के जायेंगे तो आपकी अगली पीढियाँ आपका नाम थोड़ी इज्जत से लेंगी. इसलिये मार्केट में इन्वेस्टमेंट जरूरी है. अब चूँकि आप को मार्केट का ए-बी-सी नहीं पता है, उसके लिये  एडवाईज़र्स और उनकी सेवायें हैं. बड़ी-बड़ी फाइनेंस कम्पनियाँ सिर्फ़ इसलिये खुल रही हैं कि हमारा पैसा बैंक में न रहे और उनकी कम्पनी के साथ-साथ लगातार बढ़ता रहे. आप भले ही एक अमीर ज़िन्दगी न जी पाये हों, लेकिन इनके रहते यदि आप बिना अमीर हुये धरती से कूच कर गये, तो धरती पर आपका आना और इनका रहना व्यर्थ चला गया. बहुत से सीए-एमबीए-इकोनोमिस्ट सिर्फ़ आपके कल्याण के लिये फण्ड मैनेजर बने बैठे हैं ताकि आपके मुनाफ़े में किसी प्रकार की कोई कमी न रहे. मैंने भी उनके कहने पर एक छोटे अमाउंट की एसआईपी शुरू कर दी. लेकिन जब भी वो आते एक न एक नयी स्कीम के साथ आते. चूँकि सरकार ने भी जीपीएफ़ की सीमा निर्धारित कर दी थी, तो म्युचुअल फंड में निवेश बढ़ना ही था. मेरा भी बढ़ा. सेंसेक्स के पाँच से पचहत्तर हज़ार के सफ़र का मै थोड़ा डॉर्मेंट साक्षी भी रहा. निष्क्रिय इसलिये कि मिडल क्लास मानसिकता के चलते जो भी एसआईपी चल रही थीं, उनमें पैसा डालता ही रहा, घटने-बढ़ने पर ख़रीदा-बेचा नहीं. 

लेकिन मेरे मन में हमेशा एक प्रश्न रहा. सुबह से शाम तक हम जिन भी वस्तुओं का उपयोग कर रहे हैं या तो वो मेड इन चाइना, कोरिया, अमेरिका, जर्मनी, फिनलैंड आदि हैं या मेक इन इण्डिया हैं. अधिकांशतः मल्टीनेशनल कम्पनियों के प्रोडक्ट्स जो वैश्विक मानदंडों पर खरे हैं, वो ही भारत के मार्केट में भी प्रचलित हैं. तब लगता है कि घर की तो बस मूँछें ही मुँछे हैं. अल्टीमेटली इनका ओवरऑल मुनाफ़ा तो किसी और देश में ही जाता होगा. पहले एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी थी, अब मल्टीनेशनल कंपनियों की बाढ़ है. इस दौरान पता नहीं कितनी बार सेंसेक्स में बुल और बिअर फेज़ आते रहे. अख़बार में कभी पढता कि निवेशकों को सेंसेक्स में उछाल से भारी फ़ायदा हुआ या गिरावट से भारी नुक्सान का सामना करना पड़ा. लेकिन मुझे इससे क्या. जिस दिन पैसा निकालना होगा उसी दिन पता चलेगा कि घाटा हुआ या मुनाफ़ा. चूँकि मै स्वयं को म्युचुअल फण्ड इन्वेस्टर की तरह देखता था, इसलिये सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव से बिना विचलित हुये एसआईपी चलाता रहा. इस अप-डाउन से किसे फ़ायदा हुआ, किसे नुक्सान इससे हमें क्या लेना-देना. हमें तो कहीं न कहीं इन्वेस्ट करना ही था. बाद में अंदाज़ लगा कि मार्केट में ही तो लगा है मेरा और हम जैसों सबका पैसा. सारी कबड्डी स्माल इन्वेस्टर्स की हड्डी पर ही तो खेली जा रही है. बड़े प्लेयर्स तो रोज ख़रीद-बेच रहे हैं. मार्केट के उतार-चढ़ाव का असली मज़ा एक्टिव इन्वेस्टर्स ले रहे हैं. हम-आप तो बस इन्वेस्ट कर रहे हैं. वो मार्केट के हिसाब से इन्वेस्ट और डिसइन्वेस्ट करते रहते हैं. उनका काम इन्वेस्टमेंट नहीं है, शेयर मार्केट से लाभ कमाना उनका फुल टाइम जॉब है. वारेन बफेट ने एक चिप्स नहीं बनायी, लेकिन दूसरों की कंपनियों में पैसा लगा-लगा के दुनिया के जाने-माने धनपशुओं में शुमार हैं. लेकिन चूँकि कुल मिला कर इस इन्वेस्टमेंट से मेरी पूँजी बढ़ी ही है, इसलिये ये कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है कि म्युचुअल फण्ड सही है. 

वैसे भी आम आदमी भले ही चाय की दुकानों से लेकर ड्राइंग रूम तक दुनिया बदलने के लिये कितनी ही डिबेट कर ले. लेकिन होना-जाना कुछ नहीं है. देश कि अर्थव्यवस्था का सारा दारोमदार उसी पर है. उसी के ऊपर देश की इकोनॉमी टिकी हुयी है. जब विश्व के अधिकांश विकासशील देश, विकसित राष्ट्र बनने के लिये लालायित हैं, वहाँ हमारे देश का एक बड़ा तबका ये सिद्ध करने में लगे हैं कि हमसे ज्यादा जाहिल कोई नहीं है. हम बैकवर्ड थे, हैं और हमेशा बने रहेंगे. कहने को तो डिग्रीधारक पढ़े-लिखे लोगों की फ़ौज है लेकिन न देसी संस्कार बचे हैं, न अंग्रेजी. मैनर्स के लक्षण, सॉरी-थैंक्यू कहना इनकी शान के खिलाफ़ है. होड़ लगी है कि कौन कितना बदतमीज़ है, क्योंकि स्मार्टनेस की यही नयी परिभाषा है. हर व्यक्ति इतना चगड़ हो गया है कि अपने लाभ को सर्वोपरि रख कर ही काम करता है. जबकि सभी को पता है कि देश और समाज का उत्थान त्याग पर आधारित होता है, न की स्वार्थ पर. नियम-कानून को ताक़ पर रख कर चलने वाले स्वयं को चालाक और समझदार होने का वहम पाले घूम रहे हैं. जब बड़े-बड़े अपराधी जेल से चुनाव लड़ें और जीत जायें, तो लगता है दुनिया में गलत क्या है और सही क्या. जिन्हें कूड़ा फेंकने की तमीज़ नहीं है, वो नेता चुन रहे हैं. इससे बड़ी विडम्बना भला क्या हो सकती है. अतिवादी विचारधारा को मानने वाले अपने कुतर्क से पूरी दुनिया को गलत सिद्ध कर सकते हैं. नियम-क़ानून से वही डरे जो इन्हें जानता हो. जब हमें सही-गलत सिखाया ही नहीं, तो हमें क्या पता कि हेलमेट कम्पलसरी है या उल्टी दिशा में चलने से एक्सीडेंट की सम्भावना होती है. सीट बेल्ट का अनुपालन करवाना दरोगा का काम है. जिनके पास शिक्षा नहीं है, उनके पास एक्सक्यूज़ है कि हम नियम-क़ानून नहीं जानते. लेकिन जिनके पास शिक्षा और साथ में पैसा भी है, वो क़ानून अपनी जेब में रखते है. हत्या और रेप के आरोपी दसियों साल मुक़दमा लड़ रहे हैं. शक़ होता है वकील और मियाँ लार्ड न्याय के पक्ष में खड़े हैं या विपक्ष में. जो जितना गलत है, उतना ही मुखर है. इस माहौल में सही व्यक्ति स्वयं को समाज से अलग-थलग पाता है. उसे हमेशा गलतफ़हमी बनी रहती है कि कभी तो लोग मानेंगे कि बन्दा सही था. गौर कीजियेगा, है नहीं था. ऐसे में कभी-कभी असहाय सा सब कुछ होते हुये देखने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं होता. क्योंकि सही-गलत को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है. अब तो ये भी लगने लगा है कि जब सब सही हैं तो हम क्यों अपने को गलत मान लें. इसलिये दोस्तों में दोस्ती कम और दुश्मनी बढ़ती जा रही है. और ये बात सही है कि स्वार्थ परायणता के युग में ख़ुद को खुश रखना ज़्यादा महत्वपूर्ण बन गया है. इसलिये आते को रोको मत और जाते को टोको मत. दूसरे को भी खुश रहने का पूरा अधिकार है.

जब सब अपनी-अपनी जगह सही है तो लड़ाई सही और सही के बीच में है. ऐसी लड़ाई का अन्त युद्ध से ही होता रहा है और होता रहेगा. जैसा महाभारत में हुआ था और रूस और युक्रेन, इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच चल रहा है. यद्ध की विभीषिका में दोनों पक्ष अपने को सही सिद्ध करने में लगे हुये है. जबकि सबको मालूम है गलत क्या है और सही क्या. ऐसी स्थिति में जब कुछ नहीं कर सकते, तो ये मानना ज़रूरी हो जाता है कि जो भी हो रहा है और जो भी होगा, सब अच्छा है, सही है. ऐसा गीता में लिखा भी गया है. साठ साल में गीता पढने से कम, अनुभव से ज्यादा समझ आयी है. गलत कुछ नहीं है. सब सही है. सापेक्षता के सिद्धांत में व्यक्ति का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है. जो हर व्यक्ति के अनुसार बदल जाता है. ऊपर से अब तो ये ज्ञान भी हो चला है कि कर्ता हम या आप नहीं, कोई और है. ऊपर वाले पर विश्वास करने का सबसे बड़ा लाभ ये है कि हम किसी प्रकार के अपराधबोध से पूर्णतः मुक्त रहते हैं.

तेन्दुलकर और धोनी जब कह रहे है कि म्यूचुअल फण्ड सही है तो मान भी लीजिये. आपका निर्णय सही था या गलत ये तो तब पता चलेगा जब आपको पैसों कि आवश्यकता होगी. तब आपका ध्यान बारीकी से कही बात पर जायेगा - “Mutual Fund investments are subject to market risks, read all scheme related documents carefully”.

तब तक सब के लिये - म्यूचुअल फण्ड सही है, ये मानना ही श्रेयस्कर है.

-वाणभट्ट 

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म य...