शनिवार, 16 अगस्त 2025

कुत्ता प्रेम

कुछ लोगों को लेख के टाइटल से शिकायत होनी लाज़मी है. दरअसल सभ्यता का तकाज़ है कि कुत्ते को कुत्ता न कहा जाये. भले ही कुत्ता कितना बड़ा कमीना हो. आख़िर कुत्तों के भी कुछ मानवाधिकार हैं. उन्हें व्यक्तिवाचक सम्बोधन से बुलाना श्रेयस्कर है, जातिवाचक उद्बोधन उनके सम्मान को ठेस पहुँचा सकता है. इन परिस्थितियों में यदि उसने आपके दुर्व्यवहार से कुपित हो कर काट लिया तो आपको बुरा मानने का अधिकार नहीं है. 

आजकल जिस चैनेल पर देखो, डिबेट छिड़ी हुयी है, कुत्तों के पक्ष और विपक्ष में. धरती जब से क़ायम है, तब से द्वैत भी स्थापित है. इलेक्ट्रॉन है तो प्रोटॉन भी है. ज़मीन है तो आसमान भी है. स्थिर है तो चालयमान भी है. जीवन है तो मरण भी है. वाद-विवाद भी तभी होगा जब एक पक्ष सही को सही कहेगा और दूसरा उसी सही को गलत. दोनों ही सही को सही या ग़लत को गलत कहेंगे तो वाद-विवाद की गुंजाइश ही नहीं बचेगी. ऐसे में और कोई समस्या हो या न हो लेकिन लोग अपना बहुमूल्य समय कैसे काटेंगे, ये एक राष्ट्रीय चुनौती बन जायेगा. जिस देश में हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान भी सरकार द्वारा किये जाने की उम्मीद पाले बैठा हो, वहाँ सरकार को लोगों का समय कैसे कटे इसके लिये अध्यादेश लाना पड़ेगा. फिर उसके समर्थन और विरोध में चैनलों पर डिबेट होगी, पार्लियामेंट में गतिरोध होगा, सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी, अखबार में सुर्खियाँ बनेंगी और लोगों का समय कट जायेगा. जिनको भगवान ने दूरदृष्टि से नहीं नवाज़ा है, उनका आज कट जाये तो फिर कल की कल देखी जायेगी वाले एटीट्युड में उनका पूरा जीवन ही कट जाता है. 

कुछ लोगों का तो काम ही है विरोध करना. यदि आप खेत कहेंगे तो वो खलिहान की बात करेंगे. ऐसे लोग ही हैं जिनके कारण समाज में निरंतर कोई न कोई बहस चलती रहती है. उन्हें बहस खत्म करने की गरज नहीं है, बल्कि बहस-मुबाहिसा जारी रहे, बिना किसी स्वार्थ के उनकी बस इतनी सी ख्वाहिश रहती है. बहस खत्म हो गयी तो वो करेंगे क्या. क्या विधानसभा क्या लोक सभा. क्या कोर्ट क्या कचहरी. यदि बहस नहीं होगी तो बहुतों की नौबत फ़ाक़ाकशी की आ जायेगी. कुल मिला के ये कहा जा सकता है कि बहसबाजी का मुख्य उद्देश्य कंफ्यूजन क्रियेट करना है ताकि सही और गलत का निर्णय ना हो पाये. और सही इतना कन्फ्यूज हो जाये कि गलत के आगे आत्मसमर्पण कर दे. 

नौकरी के शुरूआती दिन थे. तनख्वाह कम थी और मकान किराये का. मकानमालिक रात नौ बजे गेट पर ताला लगा देता था. और विजय का मार्केटिंग का जॉब था. लौटने का कोई समय न था. मकानमालिक था भला आदमी. उसका व्यवहार पितृवत था. कभी भी उन्होंने गेट खोलने में कोई हुज्जत नहीं की. रात-बिरात जब भी उस घर का कोई सदस्य लौटे तो उनको पता होना चाहिये कि कौन कब लौटा और क्यों देर से लौटा. उस नियम के लपेटे में किरायेदारों को भी आना ही था. विजय बाबू की समस्या ये थी कि वो शहर में नये थे और गली के कुत्तों लिये बिलकुल अनजान. जब तक मकानमालिक गेट न खोल दे, गली के कुत्ते भौंक-भौंक के उसका जीना मुहाल कर देते. मार्केटिंग के बन्दों की यही खासियत उन्हें आरएनडी और प्रोडक्शन के लोगों से अलग करती है कि उन्हें दुनिया देखनी और झेलनी पड़ती है. जबकि बाकी सब अपनी कम्फर्ट ज़ोन में भी कम्फर्ट महसूस नहीं कर पाते. दिनभर की भागा-दौड़ी में विजय बाबू को रात में ही सॉलिड डिनर करने का मौका मिलता था. नॉनवेज के शौक़ीन थे. उन्होंने भोजन के अवशेष प्लेट में छोड़ने के बजाय पॉलीथीन में पैक कराना शुरू कर दिया. अब वही गली के कुत्ते देर रात तक दुम हिलाते हुये विजय के लौटने की बाट जोहते. ये कुत्तों की खासियत है, बोटी फेंको तो उनकी दुम में ब्राउनियन मोशन शुरू हो जाता है. 

जब से लोगों को पता चला कि श्वान को साधने से खतरनाक ग्रह सध जाता है तबसे लोगों का कुत्तों के प्रति अगाध स्नेह उमड़ पड़ा है. घर में श्वान पालना एक जिम्मेदारी वाला काम है. घर के मेम्बर की तरह उसका भी ख्याल रखो. खाना-पीना, दवा-दारु. इसमें खर्चा तो है ही लेकिन सबसे बड़ी समस्या सुबह-शाम टहलाने की है. नहीं टहलायेंगे तो डर रहता है कि जिन गद्दों और एसी कमरों में वो रहता है, वहीं गन्दगी न कर दे. बाहर टहलाने के चक्कर में दूर-दूर तक के मोहल्लों में दुश्मनी हो जाती है, सो अलग से. अपने मोहल्ले में टहलाओ तो पड़ोसियों से दुश्मनी होने की सम्भावना रहती है. और अच्छे-बुरे दिनों में पडोसी ही साथ देते हैं, इसलिये मोहल्ले में टहलाने का प्रश्न नहीं उठता. दूसरे मोहल्ले में जाओ तो उस मोहल्ले के लोग और कुत्ते वस्तुतः कुत्ता बना देते हैं. कुत्ता पालक अपने अन्दर के जानवर (कुत्ते) को न जगाये तो दूसरे मोहल्ले में टहल या टहला पाना कोई हँसी-मज़ाक नहीं है. 

जब गली में ढेर सारे लावारिस कुत्ते घूम रहे हों तो ग्रह शान्ति के लिये कुत्ते पालना कहाँ की समझदारी है. जब से लॉकर में घर की बहुमूल्य वस्तुयें रखी जाने लगीं हैं, चोरों को भी मालूम है कि घरों में कुछ नहीं मिलना. तो उन्होंने भी एटीएम उड़ाने और ऑनलाइन हैकिंग को अपना लिया है. ऐसे में सुरक्षा के दृष्टिकोण से कुत्ते पालना कतई उचित नहीं है. सड़क के कुत्तों का क्या है बस दिन में एक रोटी के चार टुकड़े कर के फेंक दो, उसी में दुम हिलाते रहते हैं. कुत्ते भले दस हों या बीस, रोटी एक ही निकलती है. हमने अपनी भूमिका निभा दी बाकी मोहल्लावासी भी तो अपना योगदान दें. आख़िर ये सुरक्षा तो सभी की करते हैं. भोजन कम मिलने के कारण सड़क के कुत्ते मालनरिश्ड हो गये हैं. दिन भर इधर-उधर पड़े गहन निद्रा में डूबे रहते हैं. निंद्रा इतनी गहन होती है कि जब तक स्कूटर-कार इनके सर पर न पहुँच जाये, ये हिलते नहीं हैं. दिन भर में हॉर्न की इतनी हॉन्किंग सुन लेते हैं कि आपके हॉर्न बजाने का इन पर कोई असर नहीं होता. लेकिन पालतू कुत्तों की तुलना में सड़क के कुत्तों में एक अच्छाई है. ये कभी घर के सामने या आस-पास गन्दगी नहीं फैलाते. पालतू कुत्ते सफ़ाई  पसन्द होते हैं और साफ़-सुथरी जगह पर ही निवृत होना पसन्द करते हैं. उनके मालिक भी जब साथ चलते हैं तो ये अन्दाज़ा लगाना मुश्किल हो जाता है कि कौन किसको टहला रहा है. कुत्ता चलता है तो ये चलते हैं, कुत्ता रुक जाये तो इनका सारा ध्यान उसके फ़ारिग होने की प्रक्रिया पर ही रहता है. भले ही वो ठीक आपके गेट के सामने हो. इसी चक्कर में मुझे पचीस हज़ार ख़र्च कर के सीसीटीवी लगवाना पड़ा ताकि कम से कम ये तो पता चल सके कि ये किस कुत्ते का काम है. 

मिश्र जी नहाने के लिये तौलिया लपेटे तैयार थे. एकाएक उन्हें याद आया कि गेट पर थोड़ी झाड़ू-बुहारू कर ली जाये. उसी अवस्था में वो झाड़ू ले कर गेट पर आ गये. गेट पर एक कुत्ता उनके ऊपर लपका, जिसकी तीव्रता को उन्होंने झाड़ू दिखा कर शान्त कर दिया. झाड़ू लगा कर वो नहाने घुस गये. नहा कर निकले ही थे कि कॉलबेल बज गयी. बाहर निकले तो पुलिस की गाड़ी खड़ी थी, जो उन्हें बैठा कर थाने ले गयी. किसी कुत्ता प्रेमी ने उनकी झाड़ू से कुत्ते को मारते हुये फ़ोटो खींच कर पुलिस में शिकायत कर दी थी. किसी तरह मामला निपटा कर मिश्र जी घर लौट तो आये पर रात भर दहशत में रहे कि कहीं कल के अख़बार में उनकी तौलिया पहने फोटो न आ जाये.

जब स्मार्ट वाच खरीद ही ली तो दस हज़ार स्टेप्स चलने की तमन्ना भी जागृत हो गयी. वाच पर पैसा ख़र्च किया था, तो घर से निकलना ज़रूरी हो गया. उन दिनों वाच नयी थी और उसका पैसा वसूलने के इरादे से जब भी मौका मिलता, मै सड़क पर होता. एक रात दस बजे मौका मिला. रूट थोडा लम्बा पकड़ लिया. ये एहसास जब हुआ तो विचार बना कि शॉर्टकट से निकल लिया जाये. रास्ता आधा हो जाता. गली में सन्नाटा पसरा था. स्ट्रीट लाईट्स जल रहीं थी. किसी प्रकार की कोई गतिविधि नहीं दिख रही थी. जल्दी वापस लौटने के इरादे से गली में 20-30 कदम ही बढ़ा होऊँगा कि एक मिट्टी का ढेर कुत्ते में तब्दील हो कर भौंकता हुआ मेरी ओर लपका. और देखते ही देखते और भी मिट्टी के ढेरों में जीवन आ गया. सर पर पाँव रख कर भागना क्या होता है, उस दिन मेरी समझ में आ गया. लम्बे रूट से भी जब तक घर नहीं पहुँच गया, दिल की धड़कन पर मेरा नियन्त्रण नहीं था. वो दिन है और आज का दिन, सुबह-दोपहर-शाम-रात जब भी टहलने निकलता हूँ, तो ढाई फ़िट की एक चमचमाती हुयी सुनहरे रंग की परदे की रॉड बैटन के रूप में मेरे हाथ में शोभायमान होती है. कुत्ता प्रेमी चमकती बैटन का उद्देश्य कुत्तों पर प्रहार के लिये कतई न समझें. ये इसलिये है कि कुत्तों को दूर से दिख जाये कि मेरे हाथ में कुछ है. पास आने पर कुत्ते ये न सोचें कि वर्मा जी भी कुत्तई कर गये. 

ये दुर्भाग्य ही है कि अल्पमत मुखर है और बहुमत शान्त. एक या दो प्रतिशत कुत्ता प्रेमियों की तुलना में कुत्ता पीड़ितों की संख्या बहुत ज्यादा है. लेकिन ये दो प्रतिशत लोग पूरे समाज को कुत्तों के प्रति दया का सन्देश दे रहे हैं. इनमें से अधिकांश माँसभक्षीयों का अन्य जीवों के प्रति पशु प्रेम नहीं उमड़ता. कुत्ता प्रेमियों से निवेदन है कि कुत्तों के मानवाधिकार के लिये बेशक नैशनल और इंटरनैशनल लेवल तक अवश्य लडें लेकिन उनके कल्याण के लिये कुछ करें. सिर्फ़ दिन में दो बार रोटी डाल कर कुत्ता प्रेम से मुक्त न हो जायें. उनके लिये शेल्टर होम बनायें. उनके भोजन, रहन-सहन, दवा-दारू का सम्पूर्ण ख्याल रखें. कुत्ता पीड़ित इस पुनीत कार्य के लिये, किसी प्रकार का धनावरोध नहीं आने देंगे. फिलहाल ये काम आप अपने घर के एक कमरे से आरम्भ कर सकते हैं. आपका प्रेम और हमारा जीवन दोनों सुरक्षित रहेंगे.

-वाणभट्ट

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

ब्रेन स्टॉर्मिंग

जब पुराने विचार चुक जायें

तो ज़रूरी है, ब्रेन स्टॉर्मिंग करायें


आउट ऑफ़ बॉक्स विचार न आ जायें

इसलिये घिसे-पिटे टाइम टेस्टेड

विचारकों को ही बुलायें

उनको मंच और माइक थमायें

मुशायरे की तर्ज़ पर 

मरहबा और मुकरर्र फरमायें


जब लोग वही पुराने होंगे

तो क्या ख़ाक नये फ़साने होंगे

वैसे भी समस्यायें जब वही हैं

लोग वही हैं, वही सोच है,

तो समाधान भी पुराने होंगे


उन्हीं को मथेगें, गढ़ेंगे कुछ नये शब्द

बनेंगे चैटजीपीटी पर पैराफ़्रेज़िन्ग से 

कुछ नये वाक्य

विचारों की आँधी में उड़ेंगे शब्दों के ग़ुबार 


चार दिन मन्थन के बाद

आँधियाँ बवंडर मचा कर

वापस लौट जायेंगी अपने दड़बों में


जब ग़र्द बैठेगी

तो काग़ज़ की चादरों पर 

करीने से शब्द बैठा दिये जायेंगे

जो दो-एक साल बाद फ़िर झाड़े जायेंगे


फ़िर होगी ब्रेन स्टॉर्मिंग इक अंतराल के बाद


- वाणभट्ट


रविवार, 27 जुलाई 2025

डीबीटी - 45

बात सन पचहत्तर-अस्सी के आस-पास की है. उन्नीस सौ सुधी पाठकों ने अपने आप जोड़ ही लिया होगा. क्योंकि अट्ठारह सौ या उससे पहले की बात होती तो बात लेखक सहित इतिहास में दफ़न हो चुकी होती. 

ये वो दौर था जब पिता जी मकान बनवा रहे थे, तो उनकी तमन्ना थी कि गेट कम से कम पाँच फिट चौड़ा होना चाहिये ताकि स्कूटर आसानी से अन्दर आ सके. और जैसे ठन्डे का मतलब कोकाकोला होता है, उस समय स्कूटर का मतलब 'हमारा बजाज' होता था. जिसका पेट एक तरफ़ इसलिये फूला होता था कि उधर इंजन होता था. दूसरी तरफ़ सिमिट्री देने के इरादे से एक डिक्की बना दी गयी थी, जिसमें गाडी के दस्तावेज़ और कुछ एक्स्ट्रा क्लच और ब्रेक वायर रखे होते थे. उस स्कूटर के मालिक को थोडा बहुत मेकैनिक वाला ज्ञान होना भी आवश्यक था, ताकि इमरजेंसी में वो कम से कम क्लच-ब्रेक वायर तो बदल सके, जो प्राय: महीने-दो-महीने में टूट जाते थे. रोज सुबह जब स्कूटर को स्टार्ट करना होता था तो उसकी आरती उतारने की एक पारंपरिक विधि हुआ करती थी. स्कूटर को कम से कम पाँच से छ: बार इन्जन की तरफ झुकाना पड़ता था. उसके बाद भगवान का नाम लेकर किक मारिये, तो स्कूटर एक बार में स्टार्ट हो जाता था. लोगों की आदत तो ऐसी पड़ गयी थी कि जब बीच में माउन्ट इंजन वाली लेम्ब्रेटा स्कूटर आयी, तो लोगों को उसे भी एक तरफ़ झुकाये बिना चैन नहीं पड़ता था. जब एग्रीकल्चरल इन्जीनियरिंग में टू-स्ट्रोक पेट्रोल इंजन के बारे में पढ़ा तब समझ आया कि 'बजाज' के इंजन में बिना एक तरफ़ झुकाये कार्बोरेटर तक तेल (पेट्रोल) नहीं पहुँचता था. बाद में भले बजाज ने अपने मॉडल इम्प्रूव कर लिये हों लेकिन स्कूटर को एक तरफ़ झुकाने की आदत हिंदुस्तान के डीएनए तक घुस गयी. आज भी किसी ऑफिस में फ़ाइल चलाना हो तो, जिसकी गरज़ हो, उसे झुकने-झुकाने से कोई परहेज नहीं रहता.

शाम को पार्क में खेल रहे बच्चों को इस आवाज़ का बेसब्री से इंतज़ार हुआ करता था. कुछ खाली बच्चे तो सुबह से ही इस आवाज़ का इंतज़ार करते थे. आवाज कुछ ऐसी थी मानो कोई कोलतार के खाली ड्रम को लुढ़काता हुआ चला आ रहा हो. भड़-भड़, खड़-खड़, भड़-भड़. बीच-बीच में घर्र-घर्र की आवाज़ कभी-कभी डॉमिनेट कर जाती. अगर घर्र घर्र की आवाज़ रुक गयी तो खड़-खड़, भड़-भड़ की आवाज़ भी बन्द हो जाती थी. बच्चे और खुश हो जाते कि आज मौका मिलना तय है. 

हिन्दुस्तान में सभी सरकारी विभागों और कुछ गैरसरकारी विभागों में ये सुविधा है कि यदि आप उस विभाग के कर्मचारी-अधिकारी हैं, तो उस विभाग की सेवायें या तो मुफ़्त मिलेंगी या सब्सिडाइज्ड रेट पर. टेलीफोन डिपार्टमेंट में जब आम आदमी के लिये फ़ोन पर ट्रंककॉल लगा कर बात करना मँहगा ऑप्शन था, उसी विभाग के सीनियर अधिकारी के पुत्र, और हमारे मित्र, अपने घर में उपलब्ध इस सुविधा का उपयोग हमारे हॉस्टल के मित्रों को निस्वार्थ भाव से मुहैया कराया करते थे. अलबत्ता तो उस समय के हमारे लोवर मिडल क्लास और आज के अपर-लोअर मिडल क्लास के खानदान में किसी के पास फोन था ही नहीं जो उस फ़्री सेवा का लाभ उठा पाता. रेलवे वालों को ट्रेन फ़्री, हवाई जहाज वालों के लिये हवाई जहाज फ़्री. उसी तरह पेट्रोलियम कम्पनियाँ अपने अधिकारियों को कार के लिये पेट्रोल/डीज़ल के लिये अलाउंस देती थीं. लेकिन उसके लिये जरूरी था, एक अदद कार का होना. 

पड़ोसियों का माथा तब ठनका जब मेहरोत्रा जी ने अपना गेट चौड़ा कराना शुरू कर दिया. मेहरोत्रा जी एक सरकारी अंडरटेकिंग पेट्रोलियम कम्पनी में अधिकारी थे. कंपनी प्रदत्त इस सुविधा यानि पेट्रोल अलाउंस के लिये मेहरोत्रा जी दिल्ली से एक पुरानी एम्बेसडर ख़रीद लाये क्योंकि कार का होना ज़रूरी था. उसका फ़र्स्ट-सेकेण्ड या थर्ड हैण्ड होना ज़रूरी नहीं था. जिस मोहल्ले में सब मिडिल क्लास हों, वहाँ अंडरटेकिंग कंपनी का आदमी अपने आप अपर मिडल क्लास हो जाता था. उनका गेट चौड़ा होना भी चाहिये था. मोहल्ले वालों का तो ये हाल था कि किसी की नयी स्कूटर या मोटर सायकिल आ जाये तो जब तक मिठाई न खा लें, जी हलकान किये रहते थे. लेकिन किसी का मन पुरानी कार के लिये मिठाई माँगने का न हुआ और न ही मेहरोत्रा जी ने कोई ऐसी पेशकश की. डीबीटी-45 उसी एम्बेसडर का नम्बर था. जो चलती कम थी भड़भड़ाती अधिक थी. 

अब चूँकि उसे अलाउंस वसूलने के इरादे से ही लिया गया था, इसलिये उसे रोज चलाने का प्रश्न नहीं उठता था. मेहरोत्रा जी ऑफिस स्कूटर से ही जाते और कार घर पर खड़ी-खड़ी मिडल क्लास मोहल्ले में उनका स्टेटस बढ़ाती रहती. कभी-कभी जब उन्हें सपरिवार कहीं निकलना हो, तो गाड़ी निकाली जाती थी. एक-आध महीने में एक-आध बार. आधी बार इसलिये लिखा है कि कई बार मेहरोत्रा जी स्टार्ट करके उसे गरगरा देते ताकि बैटरी चार्ज रहे. लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं था. कई बार बैटरी गरगराने से पहले ही डिस्चार्ज हो जाती. सो मोहल्ले में पार्क में खेल रहे बच्चों की सेवाओं की आवश्यकता होती थी. और बच्चे भी अपनी सेवायें देने को तत्पर रहते. ऐसा नहीं था कि मेहरोत्रा जी अपने एलाउंस का कुछ हिस्सा उनसे साझा करते हों. इसका कारण हम जैसे असामाजिक बच्चों को बहुत बाद में पता चला.  दरअसल उनकी दो लडकियाँ थीं, जिनकी झलक पाने के चक्कर में बच्चे शाम को पार्क में खेलते हुये, डीबीटी-45 के आने या जाने का इंतज़ार करते. यदि स्कूल न जाना हो तो कुछ बच्चे सुबह से ही पार्क की रौनक बढ़ाने में लग जाते, क्या पता कब बुलावा आ जाये. उन्हें मालूम था कि गाड़ी पूरी तरह धक्का परेड है. 

लेकिन ऊपर वाले ने भी पता नहीं क्या विधान बनाया है. किसी को ज्यादा देर तक खुश नहीं देख सकता. एक रात कुछ चोर आये और उस कार की सबसे नयी चीज़, टायरों को निकालने में देर लगती, इसलिये चारों पहिये ही खोल के चल दिये. चोर भी अपने फ़न में माहिर थे. किसी तरह का शोर न हो इसलिये पहले उन्होंने ईंटों का जैक बनाया, चारों पहियों के लिये और सारे पहिये खोल के चलते बने. अगले दिन सब लोगों ने देखा कि कार ईंटों पर खड़ी है. अड़ोसी-पड़ोसी भला अपना धर्म कहाँ छोड़ने वाले, चाहे उन्हें इस कार की मिठाई मिली हो या न मिली हो. सब एक-एक करके आये और सम्वेदना व्यक्त कर के गये कि चोर भी कितने गिर गये हैं. मेहरोत्रा जी ने भी कसम खायी कि पुरानी कार में नया पहिया और नया टायर नहीं लगवायेंगे. अलाउंस कार होने का मिलता है, कार चलने-चलाने का नहीं.

चोरों को उन अबोध बच्चों की हाय ज़रूर लगी होगी जो कार को धक्का दे कर ही खुश हो लेते थे.

-वाणभट्ट

वैधानिक चेतावनी: इस संस्मरण का किसी घटना-दुर्घटना से मिलना महज संयोग माना जाये.

रविवार, 22 जून 2025

विलेन

प्रिंसिपल साहब जब भी उसके सामने पड़ जाते, उसकी आदत थी कि पूरी विनम्रता और आदर के साथ हाथ जोड़ कर अभिवादन करना. वैसे वो सत्ता और शक्ति से दूर रहना पसन्द करता था. 

भाषा कोई भी हो, किस्सागोई का मज़ा जाता रहता, यदि कहानियों में विलेन न होते. किस्से-कहानियाँ हमेशा से मानव साहित्य का अभिन्न अंग रहे हैं. जब मनोरंजन के साधनों की कमी थी, तब भी कवियों-लेखकों का टोटा रहा हो, ऐसा नहीं लगता. लोगों में साहित्यिक सृजनशीलता और रचनात्मकता न होती तो, भारत में शायद वेद-पुराण-उपनिषद-धर्मग्रंथ न लिखे गये होते. अधिकतर भाष्य तो इसीलिये लिखे गये कि बड़े भाग्य से यदि मानव जीवन मिल ही गया है तो उसे जीना कैसे है. सही और सन्तुलित जीवनचर्या का पालन कर मानव स्वयं कैसे भगवानतुल्य जीवन जी सकता है. और विपरीत आचार-विचार पर चलने से वही मानव अमानुषिक व्यवहार कर दानव भी बन सकता है. किस्से-कहानियों में मानव और दानव के स्पष्ट अन्तर को दर्शाने के लिये, मानव को सद्गुणों, तो दानव को अवगुणों की प्रतिमूर्ति बना दिया जाता है. ताकि लोग बुराई के मार्ग पर चलने वाले का दुख:द अंत देख कर भलाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा लें. रामायण हो या महाभारत, एक तरफ़ महामानव था तो दूसरी तरफ़ महादानव. दोनों बराबर के शक्तिशाली, लेकिन एक सत्य और न्याय के पक्ष में तो दूसरा असत्य और अन्याय के. ये स्पष्ट विरोधाभास इसलिये भी किया जाता था कि लोग समझ सकें कि दुर्जन व्यक्ति दुर्जन ही रहता है और सज्जन अपनी सज्जनता का त्याग नहीं करते. अंत में चाहे कुछ भी हो जाये, विजय सदा सत्य और न्याय की होती है. 

जब से फिल्मों ने मानव जीवन में प्रवेश किया, किस्सा पढ़ने-सुनने-सुनाने वालों को एक नयी विधा मिल गयी. मुंशी प्रेमचन्द हों या शरत चन्द्र, उनके पात्रों को जीवन्त स्वरूप मिल गये. जिनके लिये पठन-पाठन थोडा दुष्कर कार्य था, उनके लिये 'बूढी काकी' को विज़ुअलाइज़ करना कठिन भी हुआ करता था. 'ईदगाह' पढ़ कर हामिद और उसकी दादी के दर्द का एहसास कराने के लिये चाहे लेखक ने कितना भी कलम तोड़ विस्तृत वर्णन किया हो, पाठक बिना कनेक्ट हुये उसका अनुभव नहीं कर सकता था. कहानी के मर्म को महसूस करने के लिये पात्रों की साइकोलॉजी में गहरे घुसना पड़ता था. तब जा कर कोई टैगोर-प्रेमचन्द-शरत-दोस्तवोस्की-टालस्टाय-गोर्की का मूल्याङ्कन कर पाता था. तब चलचित्र का प्रचलन कम था. किताबें ही आमोद-प्रमोद का साधन थीं. मूवी पिक्चर्स के आने के बाद पुस्तकों का उपयोग घटता गया. और आज ओटीटी और रील्स के आ जाने के बाद तो किताबों की ओर कोई देखना भी पसन्द नहीं कर रहा. लेकिन लिखने वाले हैं कि लिखने से बाज नहीं आ रहे. यदि कुछ नहीं बदला तो वो है, कहानियों के पात्रों का चरित्र. बिना हीरो, हिरोइन और विलेन के कहानी की कल्पना करना कठिन है. चाहे क्राइम थ्रिलर हो या लव स्टोरी, हीरो-हिरोइन के बाद सबसे मुख्य किरदार विलेन का ही होता है. बाकि सब को कैरेक्टर आर्टिस्ट और कॉमेडियन की श्रेणी में बाँट दिया जाता है. जो फिलर की तरह बीच बीच में अपना रोल निभाने आ जाते हैं. लेकिन वो मुख्य कहानी को प्रभावित नहीं करते. 

किस्सों और कहानियों के विलेन घोषित दुष्ट होते थे. कंस-दुर्योधन-रावण, सबको पता था कि वो गलत हैं, लेकिन यदि लेखक उन्हें बीच स्टोरी आत्मज्ञान से रियलाइज़ करा देता और वो सुधर जाते, तो ग्रन्थ लिखने का कोई औचित्य न रह जाता. इसलिये ये ऐसे पात्र थे, जो हारी हुयी बाज़ी को अंत तक निभाते गये क्योंकि कहानी में उनका किरदार ही ऐसा था. 

कमोबेश फिल्मों ने भी कहानियों के इस क्रम को बनाये रखा. प्राण-अजित-प्रेम चोपड़ा को फुल टाइम विलेन बना दिया गया. लोग हीरो-हिरोइन के नाम के साथ विलेन का नाम भी पता करके फिल्में देखने जाते. इन फिल्मों में सस्पेंस की कोई गुंजाइश न थी. कहानी भी दर्शकों को पहले से मालूम होती थी. जब सब कुछ सही चल रहा होगा, तभी विलेन की एंट्री होगी और वो सब कुछ तहस-नहस कर डालेगा, लेकिन कहानी का अन्त हीरो की विजय के साथ ही होगा. जब तक अंत सुखान्त न हो जाये, फ़िल्म ख़त्म नहीं होती थी. इसी चक्कर में कई बार फिल्में तीन घन्टे के ऊपर निकल जाया करती थीं. पब्लिक भी क्या करती, वास्तविक जीवन में सत्य, अहिन्सा और न्याय की विजय देख रही होती, तो निश्चय ही फिल्मों में अपना समय बर्बाद नहीं करती. उसकी कल्पनाओं को साकार कर-कर के देश में कितने स्टार-सुपरस्टार और मेगास्टार बन गये. अकेला आदमी जब दुष्टों के गिरोह को ख़त्म कर देता है, तो शोषित और असहाय लोगों को लगता है कि हीरो ने उनका बदला ले लिया. सीटी और तालियों से हॉल गूँज जाता. तीन घन्टे के लिये ही सही दर्शक अपने दुःख-दर्द भूल जाता. फ़िल्मों का एक निश्चित फॉर्मेट था. कुछ सीरियस, कुछ हास्य, कुछ करुणा, कुछ हिंसा के बीच आठ से दस गाने. उनमें वो अश्लील वाले गाने भी होते थे, जिन्हें कैबरे कहा जाता था. जिन फिल्मों में वैसे गाने नहीं होते थे, उन्हें पारिवारिक फिल्म बता कर प्रचार किया जाता था. जिस तरह वर्तमान में गानों का पिक्चराइज़ेशन होता है, उन्हें देख के लगता है कि अतीत के कैबरे भी बहुत शालीन हुआ करते थे.      

मसाला फिल्में देखते-देखते भी आदमी जल्दी ही बोर हो गया. उसको लगने लगा कि ये यथार्थ से कोसों दूर हैं. दर्शकों के इस ज्ञान के बाद, एक-एक कर के सभी स्टार फ्लॉप होते चले गये. साथ ही फिल्मों के कथानक और कलाकार अधिक वास्तविक होने लगे. एक दौर ऐसा आया जब ऐसी फ़िल्मों को आर्ट फ़िल्म या पैरलल सिनेमा तक घोषित कर दिया. इस युग ने बॉलीवुड में ऐसे-ऐसे हीरो-हिरोइन दिये, जिन्हें देख के लगता था कि ये हमारे पास-पड़ोस के चरित्र हैं. सब आम आदमी. रोल की अधिकता के हिसाब से किसी को हीरो मान लिया जाये तो मान लिया जाये, वरना उनका प्रयास होता था कि आम आदमी की जद्दो-जहद को उभारा जाये. आदमी कभी एक्सट्रीम का जीवन नहीं जीता. उसमें हीरो भी होता है और विलेन भी. गुण और अवगुण से मिल के बना है, आम आदमी. जो पुण्य भी करता है और पाप भी कर सकता है. क्योंकि वो आदमी है, कोई अवतार नहीं. आर्ट फ़िल्में अधिक रियलिस्टिक थीं. जिस आदमी को आप देवता की तरह मानते थे, वो ही कुछ ऐसा कर देता है कि आपको विलेन लगने लगता है. जबकि वो विलेन नहीं है, बस उसने अपने उद्देश्य या दृष्टिकोण की पूर्ति के लिये जो किया, वो आपके लाभ और लक्ष्य के विरुद्ध था. सिर्फ़ इसलिये उसे विलेन मान लेना भी उचित नहीं है. दूसरे के जूते में पैर रख कर देखेंगे तो विलेन भी इंसान लगेगा, जिसका विशेष परिस्थितियों में आपके लाभ की ओर ध्यान नहीं गया.   

इन फ़िल्मों के बदले भी बदले जैसे नहीं लगते थे. पुरानी फिल्में होतीं तो बन्दा जब तक विलेन को ठोंक-पीट के अपना प्रतिशोध पूरा न कर ले, दर्शकों को आनन्द नहीं आता था. अब के हीरो को मालूम है कि विलेन के पास पद है, शक्ति है, सत्ता है. जिसका दुरूपयोग करना उसका अधिकार इसलिये है कि वही उसका सत्य है. वो उसी सत्य को देख कर और उसी सत्य के लिये आगे बढ़ा है. सबके सच उनके अपने हैं. हमारा और दूसरे का दृष्टिकोण अलग इसलिये है कि हम एक ही तस्वीर को अलग-अलग कोण से देख रहे हैं. न कोई सही है, न गलत. सब सही हैं, अपनी-अपनी जगह. किसी के लिये हीरो, विलेन है तो किसी के लिये विलेन, हीरो. एक बॉस जब तक कुर्सी पर काबिज थे, रावण और दुर्योधन को जस्टिफ़ाई करते फिरते थे कि उसकी बहन और पिता के साथ अन्याय हुआ था. लेकिन जब कुर्सी से उतरे, तो रातों-रात गाँधी उनके आदर्श बन चुके थे. हमारा देश और धर्म, सभी को सुधरने के पर्याप्त मौके देता है. जब भी जग जाओ, आपका सवेरा आरम्भ. आपका दूसरे के जागने या सोने से कोई प्रयोजन नहीं है. सारा का सारा ज्ञान आपके स्वयं को जगाने के लिये है.

पद प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करने में प्रधानाचार्य की विवशता ये थी कि उन्हें, उन्हें लाभान्वित करना होता था, जो निरन्तर उनकी सेवा-टहल में लगे रहते थे. उसने उस प्रोजेक्ट को बनाने में बहुत मेहनत की थी. लेकिन प्रोजेक्ट आने के बाद प्रधानाचार्य महोदय ने उसे अपने एक विश्वासपात्र को पकड़ाना उचित समझा. ईश्वरीय न्याय का उन्हें भय होता तो वे ऐसा कदापि न करते. उसे भी यदि ईश्वरीय न्याय पर भरोसा होता तो वो इस बात का बुरा न मानता. अब जब प्रधानाचार्य महोदय कभी सामने पड़ जाते तो वैसे ही हाथ जोड़ कर अभिवादन करता, बस उसमें विनम्रता और आदर का भाव नदारद होता. 

आज की रियल लाइफ़ में विलेन और हीरो शायद ऐसे ही होते हैं. हर व्यक्ति किसी की कहानी में हीरो है, तो किसी और की कहानी में विलेन. 

-वाणभट्ट

पुनश्च: यदि मौका लगे तो नसीरुद्दीन शाह अभिनीत 'आधारशिला' देखने का प्रयास कीजियेगा. 

रविवार, 1 जून 2025

विकसित भारत - एक संकल्पना

गाँव अगर मैंने देखा है तो वो है, हमारे फूफा जी का गाँव-गोधना, मीरजापुर में. गर्मी की छुट्टियों में आम के पेड़ों की छाँव में पानी भरी बाल्टी में डूबे देसी 'चुसना' आम को बिना गिने चूसना, ठण्ड में गरम ताजा गुड़, पम्प पर नहाना, पुआल पर सोना और सुबह-सुबह खेतों में तीतर-बटेर लडाना, गाँव के नाम पर बस इतनी सी यादें थीं, मेरे जीवन में.

बाबा की असमय मृत्यु के बाद पिता जी आगे की पढाई के लिये बनारस और फिर इलाहाबाद पढने आ गये. हाईस्कूल से ही उन्होंने शहर के बंगलों के आउट हॉउसों में रह कर और बंगलों के बच्चों को पढ़ा कर, अपनी पढाई जारी रखी. इलाहाबाद विश्विद्यालय से बी.एससी. करने के बाद, पहले रेलवे में गुड्स क्लर्क और बाद में एजी यूपी में बाबू बनने का सफ़र आसान तो नहीं रहा होगा. दुश्वारियों पहले के लोगों के जीवन का हिस्सा थीं, जिसे वे निरपेक्ष भाव से जीते चले जाते थे. तब सम्भवतः दूसरों के सुख से तुलना करने का प्रचलन उतना न रहा हो जितना अब है. पर शायद ही उन्होंने कभी हम लोगों से अपने कठिन दौर ज़िक्र किया हो. मुझे याद नहीं कि कभी उन्होंने उस काल को कठिन दौर की तरह देखा या हमें दिखाया हो. बल्कि उस पर उन्हें गर्व था. हमें दिखाते - 'देखो, मैं लाउदर रोड के इस बंगले और लिडल रोड के उस बंगले के पीछे के सर्वेंट क्वाटर में रह कर पढता था. उनके पुराने शिष्य रास्ते में मिल जाते तो मास्साब को दण्डवत हो जाते.  

नौकरी लगने के बाद पापा, अपने सभी भाई और बहनों को पढ़ने-पढ़ाने के उद्देश्य से इलाहाबाद ले आये. थोडा सा सपोर्ट और अपनी  मेहनत से सभी अपने पैरों पर खड़े हो गये. पापा ने कभी इस बात का क्रेडिट भी नहीं लिया. क्योंकि तब कोई अपनी-अपनी नहीं सोचता था. परिवार का अर्थ समावेशी परिवार होता था. बाबा के बाद छ: बेटे और दो बेटियों का सम्मिलित परिवार, दादी की सबसे बड़ी पूँजी और ताक़त था. 

सबके सेटल होने के बाद दादी भी इलाहाबाद आ गयीं. और हम लोगों का जौनपुर के केराकत तहसील के डोभी ब्लाक के बोदरी गाँव से नाता ख़त्म सा हो गया. हम लोगों का जन्म प्रयागराज, तत्कालीन इलाहाबाद में हुआ जरुर था, लेकिन जौनपुर के नाम पर कुछ अपनापन अभी भी जरुर लगता है. पापा को कभी अपने संघर्ष के दिनों से कोई शिकायत रही हो, ऐसा मुझे कभी नहीं लगा. अलबत्ता जब कभी मै किशोर का - कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन - गाने का प्रयास करता तो हँसते हुये टोक देते - कोई न लौटाये मेरे बीते हुये दिन. उनका मूल सिद्धान्त था - न रो ऐ दिल, कहीं रोने से तकदीरें बदलती हैं. 

दादी के बाद तो हम लोगों का गाँव से सम्पर्क धीरे-धीरे ख़त्म होता गया. खेती की जो थोड़ी बहुत जमीन थी उसे बेचने का सभी भाइयों ने निर्णय लिया. जमीन बिकने के बाद हम लोग भी शहरी लैंडलेस लेबर में शुमार हो चुके थे. दुलारी फुआ और गाँव की कुछ महिलायें माघ मेले में संगम नहाने आती रहीं. धीरे-धीरे उनका आना कम होता गया. उनकी उम्र भी दादी के आस-पास ही रही होगी. अभी भी याद है माघ के भयंकर जाड़े में फुआ और गाँव की महिलायें बिना ब्लाउज के, सूती साड़ी में बोरसी के पास बैठ कर दादी से गाँव की पंचायत बतियाती थीं. उस समय न हमें उनके पिछड़ेपन का एहसास होता था, न ही उन्हें किसी प्रकार का संकोच. फुआ अपना खाना खुद बनाती थीं, आँगन के कोने में. ठसक उनकी भी दादी की तरह सास वाली रहती और मम्मी को उनके सारे इंतजाम करने होते. शहर में रह रहे हम और हमारे पड़ोसियों के बच्चे हर साल गुड में पगे बाजरे, जोंधरी और लइया के लड्डुओं के लिये फुआ के आने की बात जोहते. 

हमारी पूरी शिक्षा-दीक्षा शहर में हुयी. दैव योग से मेरा ग्रेजुएशन कृषि अभियान्त्रिकी में हुआ. खेती-बाड़ी में अभियान्त्रिकी का उपयोग की इस ब्रांच का मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य है - खेती की लागत को कम करना, उत्पादन-उत्पादकता को बढ़ाना और कृषि कार्यों की समयबद्धता. आईआईटी और मोतीलाल में इंजीनियरिंग पढने की तमन्ना पाले बच्चों के लिये कृषि अभियान्त्रिकी में प्रवेश किसी दु:स्वप्न से कम नहीं था. कमोबेश यही स्थिति कृषि स्नातकों की होती है, जो मेडिकल की पढायी कर डॉक्टर बनने के प्रयास करते थे. कृषि अभियान्त्रिकी में बेसिक कृषि के साथ अभियान्त्रिकी के सभी मुख्य विषयों, जैसे सिविल, इलेक्ट्रिकल, मेंकैनिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि से अवगत कराया जाता है. सॉइल-वाटर, इरिगेशन, ड्रेनेज, फार्म मशीनरी, पावर और प्रसंस्करण के विषय में विस्तार से पढाया जाता है. एग्रीकल्चर इंजिनियर एक ऐसा इंजिनियर है, जिसे इंजीनियरिंग की सभी ब्रान्चेज़ की कुछ न कुछ जानकारी है. ताकि ये गाँव के स्तर पर होने वाली अभियान्त्रिकी समस्या को समझ सके, अपने स्तर पर उसे सुलझाने का प्रयास करे और न कर पाये तो विषय विशेषज्ञ को समस्या से अवगत करा उसका निराकरण करा सके. किसी को मोटे तौर पर समझाना हो तो समझ लीजिये ये ब्रांच, अभियान्त्रिकी की सभी विधाओं का सम्मिश्रण है या यूँ कह लीजिये कि इंजीनियरिंग का एमबीबीएस है. 

लगभग चालीस साल कृषि अभियान्त्रिकी में व्यतीत करने के बाद मुझे आपने प्रोफेशन पर गर्व अनुभव होता है, शायद कृषि अभियन्ता ही कृषि समस्याओं को अधिक समग्रता से देख सकता है और उनके सहज समाधान की योग्यता भी रखता है. कृषि विशेषज्ञ और कृषि अभियंता यदि साथ मिल कर काम करें तो वर्षों से पोषित समस्याओं का निराकरण और प्रबन्धन आसानी से हो सकता है. परास्नातक खाद्य प्रसन्स्करण में करने के बाद मेरी नौकरी की शुरुआत एक प्राईवेट लिमिटेड फ़ूड प्रोसेसिंग कंपनी से हुयी. कालान्तर में यही मेरे शोध का मुख्य विषय बना. कटाई-मड़ाई के बाद ही फसल से सामना होता. बोआई-कटाई से मेरा साबका बस फर्स्ट इयर में पड़ा था. हालाँकि प्रसंस्करण के लिये फसल की एकरूपता और गुणवत्ता की अहम भूमिका होती है. मेरा काम प्रसंस्करण लैब और मिल तक ही सीमित रहा. मुझ जैसे लैंडलेस शहरी लेबर के लिये खेती और किसानी एक दिवास्वप्न सा है. लहलहाती फसलों के बीच खड़ा खुशहाल किसान. जो अपने उत्पादित अनाज का प्रसंस्करण कर अधिक लाभ उठा रहा है. जो कृषक महिला और पुरुष हमारी लैब तक आते थे, सम्भवतः वो अपने सबसे सम्भ्रांत रूप में आते हों. जो मेरे मन मस्तिष्क में कहीं एक सम्पन्न ग्राम्य जीवन की परिकल्पना को साकार करते प्रतीत होते थे. 

जब भी सरकारें बदलती हैं तो कुछ नये नारे और स्लोगन देती हैं. पिछले साल जब विकसित भारत 2047 की बात उठी तो मुझे लगा ये भी एक स्लोगन बन कर न रह जाये. कानपुर 2047 जैसी मीटिंग्स हर शहर में प्रबुद्ध और गण्यमान जनों व विभिन्न संस्थाओं से सुझाव माँगे गये. तब पहली बार लगा है कि सरकार नारों को मूर्तरूप देने के लिये कृतसंकल्प लग रही है. इसके लिये शायद सरकार जनता की साझेदारी की अपेक्षा भी रखती है. सरकार से ज़्यादा ज़िम्मेदारी जनता की है कि उसे निर्णय करना है कि आज से पच्चीस साल बाद वो स्वयं को, अपने शहर को और अपने देश को कहाँ देखना चाहती है.  

मेरे एक मित्र ऑस्ट्रेलिया में रह रहे हैं. वो कुछ दिन पूर्व अपने दस वर्षीय पुत्र के साथ आये. मुझे बाज़ार जाना था, सोचा चलो बच्चे के भी घुमा लायें. मेरी मारुती 800 की बायीं सीट पर बैठते ही बच्चे ने सबसे पहले सीट बेल्ट लगा ली. मैंने मजाक में कहा पास ही जा रहे हैं बेल्ट की क्या ज़रूरत. बच्चे का जवाब मुझे शर्मसार करने वाला था - अंकल इट्स टेन इयर्स ओल्ड हैबिट. मजबूरन मुझे भी बेल्ट लगानी पड़ गयी. जब घर से चला तो वो बच्चा च्युइंग गम चबा रहा था. बाज़ार से लौटते हुये हमें दो घन्टे हो चुके थे. मुझे लगा ये लड़का अब तो कहीं न कहीं च्युइंग गम का निस्तारण करेगा. लेकिन बच्चे ने जेब से उसका रैपर निकाला और उसी में गम निकाल कर हाथ में रखे रहा. घर पहुँचने के बाद भाई साहब ने उसे डस्ट बिन में फेंक कर ही दम लिया. मैंने थोडा अभिभूत होते हुये उसके पापा और अपने मित्र से बच्चे की महानता का बखान किया तो उसने बताया भाई इन बच्चों से बच कर रहना. जब ये ढाई साल के थे तो इनके चक्कर में पिता जी का चालान कट गया था. हार्बर ब्रिज पर खड़े होकर पिता जी ने पैटीज़ का कागज़ बाक़ायदा गोली बना कर समुंदर में फेंक दिया, तो इन महाशय ने चीख़ चीख़ कर तूफ़ान उठा दिया - पापा, बाबा हैज़ लिटर्ड, पापा, बाबा हैज़ लिटर्ड. बाबा का तो क्या होता मेरा चालान कट गया. पता नहीं मुझे क्यों लगा कि बच्चों को सिखाने का सही समय है ढाई से पाँच साल. छोटे बच्चों को तो सही गलत बताया जा सकता है, पचीस साल के युवा को समझा पाना सरल न होगा. 

जब ये आदेश आया कि विकसित भारत का लक्ष्य ले कर सभी सरकारी कर्मचारियों को गाँव-गाँव जा कर सरकारी नीतियों के बारे में ग्रामीण भाइयों और बहनों को बताना होगा. एसी में रहने वाले और पीसी पर काम करने वाले अपने अन्य सहयोगियों की तरह मुझे भी लगा कि ये क्या बला है. गर्मी अपने चरम पर है, कुछ दिन रुक जाते तो अच्छा होता. लेकिन आदेश में इफ़ बट की गुंजाईश तो होती नहीं. सो हफ्ते भर तक रोज गाँव-गाँव जाना पड़ा. ये तो समझ आ गया कि इसके पीछे मन्शा क्या है. ये यात्रा शहर के साधन सम्पन्न लोगों को ग्रामीण वस्तुस्थिति से अवगत करने के लिये है. कुछ ऐसी ही कहानी में नासा में काम करने वाले मोहन भार्गव की है, जो अपनी बूढी आया, कावेरी अम्मा की खोज में चरनपुर गाँव पहुँच जाता है. जहाँ वो गाँव की परिस्थितियों से दो-चार होता है और गाँव वालों को मिल-जुल कर उन्हें खुशहाल और समृद्ध बनने के लिये प्रेरित करता है.   

हाइवे-सुपरफास्ट ट्रेन-स्काई स्क्रेपर-हाई स्पीड इन्टरनेट ये सब भले ही लोगों के लिये विकसित भारत की पहचान हैं, लेकिन ये सब संरचनात्मक प्रगति तब तक अधूरी हैं जब तक देश के अन्नदाता और देश की पचास प्रतिशत ग्रामीण जनसँख्या की प्रगति सुनिश्चित नहीं होती. आज़ादी के पचहत्तर साल बाद भी गाँवों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव साफ़ दिखता है. शायद आर्थिक तरक्की की होड़ में हमारे नागरिक देश-समाज के प्रति अपने दायित्वों पर खरे नहीं उतर सके. इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश शार्ट टर्म गेन हैं. लॉन्ग टर्म गेन के लिये ज़रूरी है, निवेश ढाई साल के बच्चे पर ताकि पच्चीस साल बाद वो एक बेहतर नागरिक बन सके.

-वाणभट्ट 

गुरुवार, 15 मई 2025

आई नाइन जेन चौदह

उसने सब्जी वाला झोला ला कर मेज पर रख दिया और ऑफ़िस की सफाई में लग गया. ऑफ़िस दस बजे शुरू होता था. लेकिन उसे आधे-एक घण्टे पहले आना पड़ता था. ऐसी ही उसकी ड्यूटी थी. सबसे पहले आना और सबसे बाद में जाना. सतवीर का काम ही था, सुबह-सुबह ऑफ़िस खोलना, सभी अफसरों की मेज साफ़ करना, और उनके आने से पहले स्वीपर से झाड़ू लगवाना. सुबह के एक घण्टे वो काफी व्यस्त रहता. शाम को ऑफ़िस बन्द करके जब लौटेगा तो इसी झोले में सब्जी लेता जायेगा. ये उसकी सीधी-साधी नियमित दिनचर्या थी. 

साहब का आते ही आते पारा चढ़ गया. ये झोला यहाँ क्यों रखा है. साफ़ सफ़ाई के चक्कर में वो आज झोला उस मेज से उठाना भूल गया था जिस पर हफ्ते भर पहले एक पर्सनल कम्प्यूटर इंस्टाल हुआ था. विभाग का पहला कम्प्यूटर था इसलिये बॉस के कमरे में उसे पूरे विधि-विधान के साथ स्थापित किया गया था. सतिया लगा कर पूजा अर्चना भी की गयी. तब राफ़ेल का ज़माना नहीं था, नहीं तो नीबू-मिर्ची भी लटका देते ताकि बुरी नज़र से हमारा कम्प्यूटर बचा रहे. 

बात सन् चौरानबे की है. बॉस अपने अट्ठावन्वे वसंत में चल रहे थे. रिटायरमेंट बस दो साल दूर था. उन्हें कम्प्यूटर का क-ख-ग नहीं पता था, लेकिन ये पता था कि कम्प्यूटर एक मँहगी मशीन है, जो बहुत उन्नत है और कुछ भी कर सकती है. इसलिये उसे बॉस के कमरे में ही एक अलग मेज पर इंस्टाल किया गया था. उसी मेज पर सतवीर झोला रख के भूल गया था. बॉस का गुस्सा सही था, इतने मँहगे कम्प्यूटर के पास मैला-कुचैला झोला रखना सही नहीं था. लेकिन उनका कनसर्न उससे भी आगे था. उन्हें डर था कि कहीं सब्जी का वायरस उनके कम्प्यूटर में घुस कर उसे खराब न कर दे. सतवीर ने अपनी गलती मानते हुये दोबारा ऐसा न होने का आश्वासन दे दिया.

तब पीसी यानि पर्सनल कम्प्यूटर का चलन अपने शुरुआती दौर में था. डॉस प्रोम्पट पर जा कर विन लिखना पड़ता था, तब विण्डोज़ आरम्भ होता था. एमएस-ऑफ़िस में तब भी वही प्रोग्राम्स हुआ करते थे, जो आज हैं - वर्ड, पावरपॉइंट, एक्सेल, एक्सेस आदि. हर प्रोग्राम के लिये ऑफ़िस के मोटे-मोटे प्रिंटेड मैनुअल्स भी आते थे, यदि आपने जेन्यूइन सॉफ्टवेयर खरीदा हो. इनमें से शुरू के तीन प्रोग्राम्स से अधिकांश कम्प्यूटर उपयोगकर्ता के काम चल जाते थे. कम्प्यूटर का दाम जितना ज़्यादा था, उतना ही लोगों को उसका फोबिया भी था. किसी ने ज़्यादा यूज़ तो किया नहीं था. डर लगा रहता था कि कहीं ख़राब न हो जाये. इसी समय ग्राफिक यूज़र इंटरफ़ेस से लोगों का सामना हुआ था. हम लोगों ने मास्टर प्रोग्राम में कंप्यूटर के नाम पर फोर्ट्रान में कुछ प्रोग्रामिंग और कुछ स्टैटिस्टिकल एनालिसिस की थी, वो भी मेन फ़्रेम कम्प्यूटर के टर्मिनल पर बैठ कर. 

विंडोज़-95 जब मार्केट में आया, तब पहली बार कम्प्यूटर को सीधे विंडोज़ पर खुलते देखा. विंडोज़ 95, 1.44 एमबी की 3.5 इंच की अट्ठारह फ्लॉपीज़ में आता था. लोड करने के लिये एक के बाद एक फ्लॉपी को लगाना पड़ता था. विंडोज़ इंस्टाल करना भी एक काम हो जाता था. फिर तो एक परिवर्तन सा आ गया. डेस्कटॉप पर्सनल कंप्यूटर्स हर किसी की मेज की शोभा बढ़ाने लगे. जब प्रोग्राम्स सीडी और डीवीडी पर आने लगे तो 1.44 एमबी की फ्लॉपीज़ का सबसे मुफ़ीद उपयोग चाय के कोस्टर्स की जगह होने लगा. अब तो सीधे इंटरनेट से प्रोग्राम्स डाउनलोड होते हैं. 

कम्प्यूटर ख़रीदना एक बात है, उसका बँटना या मिलना दूसरी. बँटवारे का तरीका वही पुराना वाला था. बन्दर बाँट वाला. अन्धे की रेवड़ी वाला. उपर से बँटना शुरू होता, नीचे हम लोगों का नम्बर आते-आते खत्म हो जाता. अब चूँकि उपर वालों के हाथ कम्प्यूटर में तंग थे, सो उसे ऑपरेट नये लोग ही करते, लेकिन वो लगता था उपर वालों के चेम्बर में ही. उपर वाले भी खुश और नीचे वाले भी.

सरकार ने मानवश्रम को और प्रॉडक्टिव बनाने के लिये धीरे धीरे सभी को पीसी मोहय्या करा दिया. ऑफिस के बाबू से लेकर विभागाध्यक्ष तक सबको व्यक्तिगत कम्प्यूटर उपलब्ध हो गये. विंडोज़ और एमएस ऑफिस सुविधा से लैस पीसी चलाना हर वो व्यक्ति सीख गया, जिसने सिंगल और डबल क्लिक करना सीख लिया. जल्द ही टाइप राइटर पुराने जमाने की बात हो गये. प्रेसेंटेशन्स के लिये ट्रांस्पेरेंसी का उपयोग लोग भूल लगे. सबको पीसी मिला, सबके दिन फिर गये. तब इंटरनेट भी अपने विकास के दौर में था, इसलिये कम्प्यूटर पर सिर्फ़ काम ही कर सकते थे. मल्टीमीडिया पीसी आने के बाद आप गाने सुनते हुये काम कर सकते थे. ऑफ़िस के खाली समय में गेम खेल सकते थे, सीडी ड्राइव में मूवी लगा कर पिक्चर्स देख सकते थे. ऑफ़िस में मल्टीमीडिया पीसी एक स्टेटस सिम्बल बन गया. लेकिन बन्दर बाँट में पर्चेज़ ऑफिस के बाबुओं ने स्वयं को और हेड को तो मल्टीमीडिया पीसी दिला दिया और बाकी लोगों को बिना मल्टीमीडिया का पीसी. इसका उद्देश्य ये था कि लोग समझ सकें कि ऑफिस-ऑफिस के खेल में कौन कितना दमदार है. अब पावर ये थी कि किसके कम्प्यूटर का कनफिगरेशन लेटेस्ट है. 

इंटरनेट आने के बाद तो कम्प्यूटर के पंख लग गये. सूचना क्रांति आ गयी. शीघ्र ही इंफॉर्मेशन रिवोल्युशन कब इंफॉर्मेशन एक्सप्लोज़न में बदल गया, पता ही नहीं चला. सूचना का ओवरफ्लो जो शुरू हुआ तो ये समझना मुश्किल हो गया कि कौन सी सूचना सही और विश्वसनीय है. यहीं से हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर कम्पनियों ने अपना खेला शुरू कर दिया. एक से एक सॉफ्टवेयर विकसित होने लगे और उन्हें चलाने के लिये कम्प्यूटर का हार्डवेयर उन्नत करना मजबूरी बनता गया. जब तक आप एक सॉफ्टवेयर में पूरी तरह पारंगत हो पाते, तब तक उसका अगला वर्ज़न आ जाता. अब चूँकि मामला स्टेटस से जुड़ गया था तो हर किसी की ख्वाहिश होती की मेरी मेज पर लेटेस्ट मॉडल हो. लेकिन बँटने का सिलसिला वही रहा, पहले बाबू फिर कोई और. बड़े-बड़े अफ़सर टापते रह जाते और उनके इंडेंट पर आया लेटेस्ट कंफिग्रेशन का कम्प्यूटर बाबू की मेज की शोभा बढ़ाता. पीसी का असली मज़ा तो एसी आने के बाद मिला. किसी ने टर्म ही गढ़ दिया एसीपीसी. ऑफ़िस आइये, एसी और पीसी (विथ इंटरनेट) ऑन कीजिये और दीन-दुनिया भूल कर लग जाइये काम पर. 

अब चूँकि हम लोग न कम्प्यूटर फील्ड के थे ना ही आईटी के, तो हम लोगों का काम तो सिम्पल कम्प्यूटर से भी चल जाता था. लेकिन हर नये प्रोसेसर के साथ कम्प्यूटर बदलना, एक फ़ैशन सा बन गया. उसके पीछे लॉजिक यही था कि टेक्नोलॉजी को हमेशा अपग्रेड करते रहना चाहिये. सभी के काम ऑफिस के पुराने वर्ज़न्स से चल जाते थे लेकिन बिल बाबा को तो चुल्ल लगी थी, मार्केट में रोज रोज नया ऑफिस झेल देते. उसके चक्कर में किसी को कम्प्यूटर बदलना पड़े तो उनकी बला से. सन् चौरानबे से लेकर अब तक मेरा तजुर्बा यही रहा है कि कम्प्यूटर की स्पीड मेरे लिये कभी कोई बाधा नहीं रही. सीमा तो सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरी स्वयं की स्पीड की थी. चाहे वो वर्ड पर काम करना रहा हो या एक्सेल या पीपीटी पर. चुनांचे थ्रीडी गेम्स खेलने के लिये आपको सिस्टम अपग्रेड करना मजबूरी हो सकता है. लेकिन ऑफ़िस में गेम्स का कोई ज्यादा तुक बनता नहीं. 

ख़ुदा गवाह है कि बिल बाबू का बिजनेस बढ़ाने के लिये मैंने कभी हार्डवेयर अपग्रेड नहीं किया. और कोई भी कम्प्यूटर दस साल से पहले नहीं बदला. मुझे अपनी सीमाओं का भली-भाँति ज्ञान था. कोई भी आसानी से पुरतनपंथी का तमगा दे सकता है लेकिन टेक्नोलॉजी के लिये प्रोडक्ट बदलने से मेरा परहेज अभी भी बना हुआ है. पुराने प्रोडक्ट को मेंटेन रखना मेरी हॉबी है. वो भी तब तक ही जब तक मैंटेनेंस की कीमत नये प्रोडक्ट से कम रहे. प्रोसेसर की स्पीड, रैम और हार्डडिस्क बढ़ती गयी और जनता हर नये अपग्रेड को हाथों हाथ लेती रही. इसका मुनाफ़ा हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर कंपनियाँ कमाती रहीं और हम स्टेटस के चक्कर में वही पुराने काम नये प्लैटफॉर्मस् पर करते रहे. 

हाल ही में एक बाबू ने अपना ऑफ़िस कम्प्यूटर बदल दिया. क्योंकि हाल ही में आई सेवन के उपर आई नाइन जेन चौदह प्रोसेसर आया था. मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया कि भाई आई थ्री से जब तुम्हारे ऑफ़िस के सब काम हो जाते हैं तो आई नाइन ले कर क्या फ़ायदा. उसने एक राज से परदा उठाते हुये बताया कि काम तो चल ही जाता था, लेकिन शाम को जब घर जाने की जल्दी होती है, तो आई थ्री बन्द होने में बहुत टाइम लेता था. नये मॉडल जो हैं ना वो फ़टाक से बन्द हो जाते हैं. मुझे लगा बात तो इसकी भी जायज़ ही है. 

 -वाणभट्ट

रविवार, 27 अप्रैल 2025

पीएनपीसी-टीएम

पीएनपीसीटीएम, ये जो टीएम नीचे लिखा दिख रहा है, दरअसल उसे ऊपर होना चाहिये था, सुपरस्क्रिप्ट की तरह. लेकिन ब्लॉगपोस्ट का सॉफ्टवेयर शायद सपोर्ट नहीं करता. इसलिये लोवर फॉण्ट में नीचे लिख दिया है. कृपया इसे सुपरस्क्रिप्ट समझ कर पढ़ें. ये टीएम कुछ और नहीं ट्रेडमार्क का द्योतक है. यानि कि ये जो पीएनपीसी है, इस पर किसी और का कॉपीराईट होना चाहिये, लेकिन मुझे  किससे परमिशन लेनी चाहिये ये पता नहीं चल रहा है. 

आजकल जमाना बहुत ख़राब हो गया है, जैसा कि सब बुजुर्ग कहते चले आ रहे हैं, तो अब जब हमने भी बुजुर्गियत के पायदान पर कदम रख दिया है तो हमारा भी हक़ बनता है कि हम भी ये कह सकें कि जमाना वाकई ख़राब हो गया है. नवजवान अभी हमसे इत्तेफ़ाक न रखना चाहें तो न रखें, लेकिन अपने बुजुर्ग होने तक ये इंतज़ार कर सकते हैं. अब चूँकि वाणभट्ट, अपने गुरु बाणभट्ट के आदर्शों पर चलते हुये, सत्यवादिता और अचौर्य के सिद्धांत का पालन करने को विवश है, तो टीएम (ट्रेडमार्क) या गोले में आर (रजिस्टर्ड) या सी (कॉपीराइट), लगा कर, धड़ल्ले से उनका प्रयोग कर लेता है. अब कोई चाहे भी तो उस पर बौद्धिक सम्पदा की चोरी का इल्ज़ाम नहीं लगा सकता.

जमाना तो इतना ख़राब है कि यदि आप किसी से कहते हैं कि मै झूठ नहीं बोलता, चोरी नहीं करता, और ईमानदार हूँ, तो वो बुरा मान जाता है. पूछता है कि तुम कहना क्या चाहते हो. तो वैधानिक चेतावनी देनी पड़ती है कि भाई मै अपनी बात कर रहा हूँ. इसका तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है. लेकिन भाई इतनी सी बात पर नाराज़ हो जाता है और सारी दुनिया में बोलता घूमता है कि वाणभट्ट बड़ा हरिश्चन्द्र की औलाद बना फिरता है. अब उसे कोई क्या समझाये कि चरित्र और संस्कार पिछले जन्मों के कर्मों से मिलते हैं. हाँ, यदि कोई चाहे तो अगले जन्म में अच्छे चरित्र और संस्कार के लिये इसी जन्म में अभी से प्रयास शुरू कर सकता है. लेकिन दुनिया में चरित्रवान-संस्कारवान लोगों के जीवन का हश्र देख कर शायद ही कोई इस दिशा में प्रयास करना चाहे. जिसे सच बोलने की बीमारी लग गयी घर-परिवार, देश-दुनिया को उसका दुश्मन बनने में देर नहीं लगती. सबको लगता है कि ये मिसफिट आदमी है, पहले समाज से इसे बाहर करो. ये तो वर्षों बाद पता चलता है कि ये तो सुकरात, अरस्तु और प्लूटो हो सकता था. ये जमाना ही था, जिसने तब उनका जीना मुहाल किया हुआ था. और इतने साल बाद अगर ये फिर धरा पर अवतरित हो जायें तो क्या जमाना इनकी पूजा करेगा, नहीं, वो फिर इन्हें जहर देगा, सूली पर चढ़ायेगा. और वे मुस्कुरा कर कहेंगे - प्रभु इन्हें क्षमा करना, ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं.

जालिम ज़माने से पिटने-पिटाने के बाद, जब आदमी को ये एहसास होने लगता है कि इस दुनिया-महफ़िल का मजा लेने के लिये भगवान ने अलग प्रकृति के लोग बनाये हैं, तो उसकी खोज शुरू होती है कि भगवान ने उसे किस लिये बनाया है. जैसे आज आपको अन्जाने देश-दुनिया में घूमने के लिये जीपीएस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) की आवश्यकता होती है, उसी तरह भव-सागर में बिना डूबे, उसे पार करने के लिये भी आपको जीपीएस (गुरु पोजिशनिंग सिस्टमटीएम) की आवश्यकता होगी. ये सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी का ट्रेडमार्क कोटेशन है. वैसे भी मेरा एक मुफ्त का मशविरा है कि जिस देश में कानून-व्यवस्था-परिवार-समाज में विश्वास की कमी हो जाये, वहाँ सबको किसी न किसी भगवान-बाबा-गुरु को पकड़ के रखना चाहिये. क्योंकि यहाँ जीते जी किसी को कन्धा देने का रिवाज नहीं है. कानून-व्यवस्था पर पैसे और ताकत वालों का कब्ज़ा है. इसलिये आम आदमी के लिये बाबा से बढ़िया कोई विकल्प नहीं है. और किसी विकसित या विकासशील देश में इतने सूफी-सन्त-पीर-फ़क़ीर-पैगम्बर हुये हों तो बताओ. इसी खोज में किसी ने मुझे ओशो के चेले के चेले के ग्रूप में जोड़ दिया. ओशो स्वयं अरस्तु-सुकरात से कहीं ज्यादा पहुँचे हुये सिद्ध थे, लेकिन उनके जीते जी कोई उनको नहीं पहचान सका. वो तो भला हो कि वो अमरीका चले गये, वर्ना अपने हीरों को तो हम कोयला बना के मानते हैं. मुझे ये तब पता चला कि जब उनके चेले के चेले को सुना. जब चेला इतना सिद्ध है, तो गुरु की थाह कहाँ होगी. ये पीएनपीसी उन्हीं का ट्रेडमार्क है. अब मुझे ये नहीं पता कि ये उनकी ओरिजिनल खोज है या उन्होंने अपने गुरु उद्घृत किया है. अब आप कहेंगे कि ट्रेडमार्क क्यों, कॉपीराइट क्यों नहीं, तो बाबागिरी से प्रॉफिटेबल कोई और ट्रेड या बिजनेस हो तो बताइये. हर्र न फिटकरी, रंग एकदमै चोखा. 

यदि आप सन्त टाइप के हैं, तो माया-मोह छोड़ के दुनिया से निकल लीजिये और सन्त हो जाइये. अगर दुनिया में रहते हुये दुनिया को समझ आ गया कि ये सन्त टाइप का व्यक्ति है तो यही दुनिया आपका जीना हराम कर देगी. दुनिया एक फरमा बना के चलती है, जो उसमें फिट बस वो ही फिट. दुनिया में रहीम दास जी को गलती से लगने लगा था कि-

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग,

चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग.

अर्थात्, यदि व्यक्ति उत्तम प्रकृति का है तो उस पर कुसंगति का प्रभाव नहीं पड़ता. जैसे चंदन पर विष का प्रभाव नहीं पड़ता जबकि उसके ऊपर कितने काले नाग लिपटे रहते हैं. 

जल्द ही रहीम दास जी को अपनी गलती का एहसास हो गया होगा, कि आदमी अपनी मूल प्रकृति से बाज नहीं आने वाला. उन्होंने भूल सुधार करते हुये फिर लिखा- 

कह रहीम कैसे निभे, बेर केर को संग,

वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग.

अर्थात्, कंटीले बेर और मुलायम केले का संग भला कैसे निभ सकता है. जब बेर का पेड़ मस्ती में झूमता है, तो बगल के केले के पेड़ को झलनी कर देता है. 

अब भी यदि आपको ये लगता है कि दुर्जनता का अन्त सज्जनता से हो सकता है तो आप अपने को ईसा और गाँधी की श्रेणी में रख सकते हैं.   

अधिकांश सज्जनों की दुविधा का कारण भी यही है, वो सज्जनता त्यागना नहीं चाहते और दुनिया के हिसाब से वो अपने को फिट नहीं कर पाते. दुनिया उन्हें सुधारने पर आमादा रहती है. इस पूरी प्रक्रिया में सबसे बुरी बात ये है कि आप तो जानते हैं कि आप सज्जन हो, आपके दुश्मन भी जानते हैं कि आप सज्जन हैं. वो आपकी बेल्ट के नीचे भी वार कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने किसी प्रकार की नैतिकता-संस्कार की कसम तो खायी नहीं है. वो देश-समाज के फिट लोग हैं और सबने मान भी रखा है कि 'समरथ को नहीं दोष गोसाईं'. जब भी उन्हें काम पड़ता है, वो मुँह उठाये आपके पास पहुँच जाते हैं. और खुदा न खास्ता आपका कोई काम पड़ गया तो वो अपनी औकात बताने से नहीं चूकते. आप सज्जन बने रहिये, वहाँ तक तो ठीक है, लेकिन इसका ढिंढोरा कभी न पीटिये.  

जब वो कमरे में आ कर गिरा तो, सज्जन, हाँ यही नाम था उसका, को मालूम था कि आज बॉस ने इसकी थ्रैशिंग की होगी और इसे कोई कन्धा नहीं मिल रहा होगा, इसलिये यहाँ बियाबान में मिलने चला आया है. आने वाले को मालूम था कि सज्जन उसको रुमाल भी देगा और कन्धा भी. उसकी भड़ास भी निकल जाएगी और ये किसी को कुछ बतायेगा भी नहीं. इतना विश्वास बनाने में लोगों का जीवन निकल जाता है. लोग मान लेते हैं कि सज्जन ने कहा होगा तो सच ही कहा होगा और सज्जन को भी इस प्रतिष्ठा को जीना पड़ता. एक भी असत्य उसके जीवन भर के अर्जित पुण्य को मटियामेट कर सकता है. उसने आते ही अपनी व्यथा-कथा शुरू कर दी. सज्जन ने पानी दिया, तो बॉस को पानी पी-पी कर कोसने लगा, और जब चाय दी, तो चाय पी-पी कर. किसी की बुराई बतियाने में जो रस है, उसका कोई सानी नहीं है. वैसे इस रस की महिमा का बखान परसाई जी बहुत पहले कर गये थे - रस का नाम था - निन्दारस. सज्जन तो, सज्जन था लेकिन इस रस का मौका हाथ से जाने न देता. इसके माध्यम से उसे बहुत सी वो बातें पता चल जाती थीं, जो अक्सर सज्जनता के कारण किसी से पूछने में वो सन्कोच करता था. 

ये सीसीटीवी कैमरे क्या लगे, कौन-कब-कहाँ गया या जा रहा है, ये कोई छिपा नहीं सकता. बॉस की बुराई-बुराई खेलते, अभी कुछ ही देर हुयी थी कि सज्जन के इण्टरकॉम पर बॉस का फोन आ गया - तुरन्त इधर आइये. सज्जन को लगा हो न हो कोई अर्जेंट काम आ पड़ा हो. रुमाल पकड़ा कर, उसने जल्दी से बॉस का रुख किया. बॉस अपने तख़्त-ए-ताउस पर विद्यमान था. उसका रुख देख के लग गया कि आज बॉस का रुख ठीक नहीं है. उसने घुसते ही पूछा - आपके पास कौन बैठा था. उसे मालूम था कि सज्जन झूठ नहीं बोलेगा. सज्जन भी इतनी सी बात के लिये भला क्यों झूठ बोलता. बता दिया. बॉस को होना ही था, आपे से बाहर. आप लोग क्या बातें करते हैं, मुझे सब पता है. आप लोग बैठ कर मेरी बुराई करते हैं. बताइये करते हैं ना. अब सज्जन झूठ तो बोलेगा नहीं. बता दिया. बॉस फट गया. मै देख लूँगा तुमको भी. डिपार्टमेंट का माहौल ख़राब कर रखा है. सबको यहाँ मै सुधारने में लगा हूँ और तुम उन्हें सपोर्ट करने में लगे हो. सज्जन ने कहा - सर मानवता की बात है. आदमी परेशान होगा तो कहीं तो उदगार निकालेगा. आप बॉस हैं और हमेशा रहेंगे. अगले का कुछ बोझ कम हो जायेगा, फिर से मन लगा के काम करेगा. हम लोगों की चर्चा सिर्फ विभाग तक सीमित नहीं रहती हम तो पॉलिसीज़ के लिये प्रधानमंत्री और मंत्री को भी नहीं छोड़ते. धोनी और तेंदुलकर को खेलना आता है या नहीं आता, ये भी हम बतियाते हैं. दरअसल हम लोग जिस विभाग में हैं वहाँ बोने और काटने के बीच में पर्याप्त समय है, तो हम पंचायत-पॉलिटिक्स नहीं करेंगे तो और कौन करेगा. आप बताइये कि आप लोगों को जब समय काटना होता है, तो क्या और कैसी बातें करते हैं. आपका स्टैण्डर्ड कोई हमसे छुपा है क्या. बुराई बतियाना कोई बुरी बात नहीं है. ये बात आप समझ लीजिये. बुराई भी उसी की होती है जो हमसे आगे होता है. आप हमसे आगे हैं. वैसे भी परसाई जी के अनुसार दुनिया के सारे रस एक तरफ और निन्दारस एक तरफ. निन्दारस बुराई नहीं, टॉनिक है. भड़ास निकालिये और पुन: रिचार्ज हो कर काम पर लग जाइये. आपको भी कभी अपनी भड़ास निकालनी हो तो मेरे पास आ जाया कीजिये. गारेंटी है कमरे की बात बाहर तक नहीं जायेगी.  

गुरू जी के चेले के चेले ने ये ही बताया है कि व्यक्ति को बचना चाहिये - पीएनपीसी यानि परनिन्दा-परचर्चा से. लेकिन सज्जन से सज्जन व्यक्ति सज्जनता तो छोड़ सकता है लेकिन पीएनपीसी नहीं. यदि सज्जन ने ये भी छोड़ दिया तो उसे डर है कि वो आदमी ही नहीं रह जायेगा. देवता उसे सशरीर स्वर्ग चलने के लिये लेने ना आ जायें.

-वाणभट्ट 

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