रविवार, 9 नवंबर 2025

वैदिक संस्कृति में मानवधर्म - एक समीक्षा

मुझे हमेशा से लगता था कि जीवन जीने की भी कोई कुन्जी (मेड ईज़ी या गाइड) पुस्तक होनी चाहिये थी. हर आदमी पैदा होता है, और अन्त तक बस दुविधा और संशय में जीता रहता है कि जो मै कर रहा हूँ वो सही है या गलत. जिन्हें इस बात का संशय होता है, वो निसन्देह, गलत तो नहीं ही कर पाते. लेकिन जिन्हें संशय नहीं होता, वो सदैव अपने को सही ही मानते हैं. इसलिये भले ही वे अपने हिसाब से गलत न हों, किन्तु कई बार देश और समाज के लिये ऐसे लोग बहुत घातक सिद्ध होते हैं. 

ऐसी ही उहापोह में जीवन के साठ वसन्त बीत गये, जब 'वैदिक संस्कृति में मानवधर्म' पुस्तक मेरे हाथ आयी. ये तो मुझे भी पता था कि जीवन सार की बहुत सी बातें हमारे वेद-उपनिषदों में लिखीं हैं, लेकिन मन में कहीं संस्कृत भाषा के अत्यन्त जटिल होने के डर से, कभी उन्हें पढ़ने का साहस नहीं जुटा सका. आधुनिक शिक्षा का एक ये भी दुष्प्रभाव है कि हम किसी भी उस कार्य से बचते हैं, जिससे किसी प्रकार की आर्थिक या वैयक्तिक लाभ मिलने की सम्भावना न हो. मनोरंजन के साधनों पर तो हम बिना झिझक व्यय कर देते हैं, लेकिन ज्ञान के सागर में गोते लगाने में सदैव संकोच करते हैं. वो भी अपने ही धर्म ग्रन्थों के पठन-पाठन से. बचपन से हमें शिक्षित हो कर एक श्रेष्ठ जीवन जीने का पाठ तो पढाया गया किन्तु वास्तविक जीवन में मानव का क्या धर्म होना चाहिये, ऐसा कोई विषय हमारे पाठ्यक्रम में नहीं रखा गया. जो कुछ, सही या गलत, हम सीख पाते हैं, वो अपने अभिभावकों, वरिष्ठों और गुरुजनों के आचरण से.    

ऐसी स्थिति में ऊपर वाले ने मुझे एक अवसर दिया, जब कुछ दिन पूर्व मित्र डॉ. अनिल कुमार सिन्हा जी, जो डीएवी कॉलेज में संस्कृत के सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष रहे हैं, ने मुझे अपनी लिखी एक पुस्तक "वैदिक संस्कृति में मानवधर्म" की समीक्षा लिखने के लिये दी. किताबें, विशेषकर कार्यक्षेत्र से इतर, यदि मेरे सामने आ जायें तो उन्हें पलट डालना मेरा पुराना शगल है. फिर विषय चाहे कुछ भी हो. आरम्भ में मुझे लगा सिन्हा साहब ने मुझे कहाँ फँसा दिया, इससे क्या मिलना. किस्सा-कहानी-कथायें पढना एक रुचिकर बात है, लेकिन वेदों का सार जैसी ज्ञानवान बातों को पढ़ने और समझने के ख्याल ने ही कुछ बोरियत का भाव उत्पन्न कर दिया. संस्कृत में लिखे श्लोकों की विशुद्ध हिन्दी में व्याख्या का अध्ययन एक बोरिंग काम हो सकता है, ये सोच कर काफ़ी दिनों तक ये पुस्तक मेरे सिरहाने ही रखी रही. उसे खोल के पढ़ने की हिम्मत मै नहीं कर पा रहा था. ब्लॉग-व्लॉग लिखना कोई बड़ी बात नहीं है. अपने विचार हैं, अपने तर्क, जैसे चाहो वैसे तोड़ो-मरोड़ो. लेकिन वैदिक संस्कृति पर लिखी पुस्तक की समीक्षा मेरे लिये आसन नहीं होने वाली थी. कारण ये है कि हमने ज्ञान को धर्म और कर्मकाण्ड से जोड़ कर रख दिया और उसे पण्डितों के भरोसे छोड़ दिया. हम बिना किसी कारण के ये अवधारणा बना बैठे कि संस्कृत तो पण्डितों-ज्ञानियों की भाषा है, इससे हम लोगों का, आम लोगों का भला क्या सरोकार. 

किन्तु जब पुस्तक को पढना आरम्भ किया तो 80 पृष्ठों में वेदों के सार वाली ये पुस्तक बिना किसी व्यवधान के एक बार में समाप्त कर के ही दम लिया. मुझे लगा अब तक सेल्फ हेल्प या इम्प्रूवमेंट के लिये पढ़ीं सारी बेस्ट सेलर किताबें बेकार हो जातीं, यदि हमारे वेदों में वर्णित जीवन जीने की कला को हमें प्री-प्राइमरी कक्षा से बच्चों को सिखाया गया होता. या बाद में भी वेदों में सन्चित ज्ञान को आज की जन सामान्य की भाषा - प्रचलित हिन्दी या स्कूली अंग्रेज़ी - में उपलब्ध कराया गया होता. आधुनिक शिक्षा पद्यति का कोई लाभ मिला हो या न मिला हो, इतना तो अवश्य हुआ है कि हम अपने धर्म और धर्म ग्रन्थों को चुनौती देने और देते रहने का कोई मौका नहीं चूकते. जबकि क्या विकसित और क्या अविकसित, सभी देश अपने-अपने देश के धर्म को जैसा है वैसा ही मानने का प्रयास करते हैं. उसके विरुद्ध न कुछ सुन सकते हैं, न उसमें किसी प्रकार के सुधार की गुंजाईश मानते हैं. तमाम जड़ताओं के बाद भी सुधार की बात वे भूल से भी नहीं करते. सहिष्णुता का पाठ केवल हिन्दू धर्म में ही मान्य है. इसीलिये उसे सुधारने के बयान कोई भी, कभी भी दे सकता है. बाकि सम्प्रदायों के लोगों की मज़बूरी भी है, जब बात जान-माल की हो तो उनका जीवन फ़िरकापरस्तों की रहनुमायी में ही कटना तय है. भलाई इसी में है कि जो जहाँ जैसा लिखा है वैसा ही मान लो.

वेदों और संस्कृत के नाम से अपने देश में ही एक ऐसा तबका तैयार कर दिया गया है, जो बिना पढ़े-समझे ही उन्हें ख़ारिज कर देता है. हिन्दी या अंग्रेज़ी माध्यम में पढाई करने के कारण वेदों को लेकर मेरे मन में भी वर्जनायें थीं. हजारों साल पुराने ग्रन्थ आज के सन्दर्भ में किस प्रकार उपयोगी हो सकते हैं. सिन्हा जी को भला इस किताब को लिखने की क्या आवश्यकता थी. अंग्रेज़ी के युग में हिन्दी की किताब कोई क्यूँ पढ़ेगा. मुझे नहीं मालूम था कि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद वेदों को लेकर मेरे कई विश्वास और मिथक टूटने वाले हैं. पढ़ कर मुझे लगा कि जीवन के सार के लिये हम लोग खामख्वाह इधर-उधर भटकते रहते हैं. आज जब शिक्षा का उद्देश्य महज एक रोजगार और जीविकोपार्जन तक सीमित हो कर रह गया है, वेद हमें जीवन जीने का दर्शन और दिशा दिखाते हैं. इसका किसी धर्म-सम्प्रदाय से लेना-देना नहीं है किन्तु इसका सीधा और गहरा सम्बन्ध मानव धर्म से है. जिसे मानव धर्म का ज्ञान हो गया, वो चाहे किसी भी सम्प्रदाय का अनुयायी बन जाये, निश्चित रूप से धर्म का साथ कभी नहीं छोड़ पायेगा. 

वेद-पुराण-उपनिषद हिन्दू धर्म के मूल ग्रन्थ हैं. इनमें वर्णित प्रत्येक वाक्य मानव और मानवता को समर्पित है. इसमें द्वेष और दुर्भावना का कोई स्थान नहीं है. ये तो देश की राजनीति है, जिसने सदैव सत्ता के सोपान चढ़ने के लिये देश की भोली-भाली मासूम जनता को धर्म के आधार पर बर्गलाने का कुत्सित प्रयास किया है, जो आज भी जारी है. किसी ने अपने धर्म ग्रन्थों को पढने-पढ़ाने का काम तो नहीं किया, लेकिन धर्म ग्रन्थों को एक जाति विशेष की बपौती बता कर अधिसंख्य जनता को इस सहज उपलब्ध ज्ञान से वंचित रखा. आज आवश्यकता है कि प्रत्येक व्यक्ति जात-पात-धर्म के चश्मे को हटा कर इन पुस्तकों को पठन-पाठन करे. सामाजिक समरसता वाले समाज में मानव का क्या धर्म होना चाहिये, वेदों में वर्णित ये ज्ञान हमारे पुरखों की विरासत है, और हम हैं कि अपने ही इस ज्ञान का तिरस्कार करने में लिप्त हैं. ये पुस्तक ऐसे जिज्ञासु लोगों के लिये लाभकारी सिद्ध होगी. 

वाणभट्ट के इस लेख में जो भी विचार हैं, वो वेदों के श्लोकों पर सिन्हा जी की पुस्तक से प्रेरित हैं. सिन्हा जी ने भी वेदों के संचित ज्ञान को सारांश में और सहज शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. 

वेद की शिक्षायें 'मनुर्भव' अर्थात् 'मनुष्य बनने' पर बल देती हैं. इनमें वर्णित ज्ञान का प्रयास है समाज को नैतिक और चारित्रिक पतन की दिशा में जाने से रोकना और समाज में एकता और अखंडता के भाव की स्थापना करना. चूँकि पृथ्वी पर मानव से अधिक श्रेष्ठ कोई अन्य प्राणी नहीं है, इसलिये मानव जो समाज का केन्द्र बिंदु है, उसे ही स्वयं को श्रेष्ठतर बनाने का प्रयास करना होगा. वेदों का सार है कि मानव ऐसे समाज का निर्माण करे कि सम्पूर्ण विश्व एक कुटुम्ब बन जाये, साथ-साथ चले और सभी का मंगल हो. दुनिया में सैकड़ों धर्म और हजारों सम्प्रदाय हो सकते हैं लेकिन सब एक-दूसरे पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने में ही लड़ते-मिटते रहे. एक हिन्दू धर्म ही ऐसा है, जिसने प्राणी मात्र के कल्याण की कामना की है, जिसमें चर-अचर-गोचर-अगोचर सब सम्मिलित हैं.    

चूँकि वेद किसी व्यक्ति विशेष की रचना नहीं है, किसी एक काल-खण्ड में इसकी रचना हुयी हो ऐसा भी कोई दृष्टान्त नहीं है. इसलिये ये माना जा सकता है कि समय के साथ-साथ ऋषियों- महर्षियों ने इस ग्रन्थ के अध्ययन और लेखन में अपना-अपना योगदान दिया होगा, वो भी बिना कोई श्रेय लिये. इसके रचना काल के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं, लेकिन सब ने एक बात मानी है कि ये ग्रन्थ ईसा के जन्म से 1000 से 5000 साल पहले लिखे गये होंगे. आलोचनात्मक दृष्टि से पाश्चात्य विद्वान इन्हें प्राचीनकाल का नहीं मानते. यहाँ पर यह आवश्यक है कि हम क्या मानते हैं ये अधिक आवश्यक है, न कि दूसरे, विशेषकर वो लोग जो विश्व विजय के उद्देश्य से दूसरों देशों पर अतिक्रमण और आक्रमण कर रहे थे. इतिहास शासकों द्वारा लिखा जाता है. तलवार की दम पर धर्म परिवर्तन करवाने वाले आततायी भी स्वयं को मानवतावादी बताने में कसर नहीं छोड़ते. धर्म अपरिवर्तनीय है. सम्प्रदाय आप कितने भी बदल लो सत्य, अहिंसा, करुणा और प्रेम धर्म थे, तो धर्म ही रहेंगे. और हिन्दू के अतिरिक्त हर सम्प्रदाय ने धर्म के नाम पर ही सबसे अधिक हिंसा की है. त्याग की आधारशिला पर स्थापित हिन्दू ही पूर्णरूप से धर्म की कसौटी पर खरा उतरता है. जो भी सम्प्रदाय, दूसरे सम्प्रदाय से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये छल-बल का सहारा ले, वो और कुछ भी हो सकता है परन्तु धर्म तो कतई नहीं. परमार्थ और परहित आधारित वेदों ने हिन्दू धर्म को एक स्थिर और स्थायी नींव प्रदान की. इसी कारण हमारा देश हजारों वर्षों के मुग़ल और अंग्रेज़ शासन के बाद भी हम अपनी मान्यताओं से पृथक नहीं हो पाये. 'यूनान-मिस्र-रोमा सब मिट गये जहाँ से, बाकी मगर है अब तक नामो निशाँ हमारा'. सबने आतताइयों की ताकत के विरुद्ध समर्पण कर दिया होगा. कोई बात तो होगी कि भारत में धर्म की जडें इतनी गहरी हैं कि अन्याय और अत्याचार की पराकाष्ठा भी उसे समाप्त नहीं कर पायी. और जब अन्य सम्प्रदाय हिन्दू और हिन्दुत्व की ओर उँगली उठाता है, तो लगता है उनका कट्टरपंथ, उन्हें हिन्दू धर्म की अच्छाइयाँ और उनकी गलतियाँ भी स्वीकार करने नहीं दे रहा है. 

मानवता का सन्देश देते वेदों को शायद पढना और समझना मेरे बस की बात नहीं थी लेकिन सिन्हा जी के इस अनुग्रह ने मुझे अपने धर्म और पुरखों पर गर्व करने का एक मौका दे दिया. इसको केवल धर्म ग्रन्थ न समझ कर मानव-धर्म ग्रन्थ समझना अधिक उचित है. जात-पात में बंटे देश को एक बनाये रखने के लिये आवश्यक है कि धर्म के मर्म को समझा जाये. व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये हिन्दू धर्म की कोई कितनी भी आलोचना करे, लेकिन जिसे इसमें निहित दर्शन समझ आ जायेगा, उसे ये मानना पड़ेगा कि धर्म केवल धर्म होता है, वो भी मानव का मानव के प्रति. इस पुस्तक की कुछ छोटी-छोटी बातें मै साझा करने का प्रयास करता हूँ. 

वेदों का आविर्भाव इतना पहले हो गया था कि बहुधा लोग इसे सृष्टि के पूर्व परमेश्वर द्वारा लिखा मान लेते हैं. यहीं से आज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले लोग इनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाने लगते हैं. और इन्हें ब्राह्मणों द्वारा रचा मायाजाल बता कर इनकी अपकीर्ति फ़ैलाने का प्रयास करते हैं. इनमें से अधिकांश ने वेदों की विषयवस्तु को जानने-समझने का प्रयास ही नहीं किया था. मैंने भी कभी नहीं किया था. कभी वेदों को पढ़ने की न कभी इच्छा हुयी, न साहस. वेद का शाब्दिक अर्थ होता है ज्ञान का सन्ग्रह. वेदों का एक-एक वाक्य विश्वबन्धुत्व और लोकमंगल की कामना से ओत-प्रोत है.

वेदों की कुछ सार्वभौमिक और कालातीत शिक्षायें निम्नवत हैं:

1. मनुर्भव : मनुष्य बनो

2. संगच्छध्वं संवदध्वं : साथ चलें, मिलकर बोलें

3. स्वस्ति पन्था मनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव : सूर्य-चन्द्र के सदृश कल्याण मार्ग के पथिक बनें 

4. मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे : सबको परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें 

5. अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं, परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम् : अट्ठारहों पुराणों में बस दो ही बातें लिखी हैं, परोपकार ही पुण्य है और परपीड़ा ही पाप 

6. मा गृध: कस्य स्विद्धनम : पराये धन का लालच न करो 

7. मा हिंसी: पुरुषान्यशुन्च्श्र : मनुष्य और पशुओं को मन, कर्म और वाणी से किसी प्रकार का कष्ट न दो 

8. ऋतस्य पथा प्रेत : सत्य के मार्ग पर चलो 

9. सर्वे भवन्तु सुखिन: : सभी लोग सुखी हों 

10. तेन त्यक्तेन भुंजीथा : त्याग की भावना का उपयोग करो 

11. पश्येम शरद:, जीवेम शरद: शतं : (यम, नियम, प्राणायाम, आसन का) पालन कर सौ वर्ष तक जीवित रहने का संकल्प 

12. यतोऽन्यदस्तिभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म: : जो सबको सामान रूप से अभ्युदय की ओर ले जाये, सबको कल्याण मार्ग पर ले जाये, वही धर्म है  

13. अहमनृतात्सत्यमुपैमि : मै असत्य (अनाचार) से पृथक रह कर सत्य (सदाचार) की ओर प्रवृत होऊँ

14. तत्कृणमो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्य: : ऐसी प्रार्थना करें जिससे मनुष्यों में परस्पर सुमति और सद्भाव का विस्तार हो  

15.  वसुधैव कुटुम्बकम् : समस्त पृथ्वी ही परिवार है 

वेदों में कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था और आयु के आधार पर आश्रम व्यवस्था का निर्धारण किया गया है. हर देश काल में और आज भी हर काम हर कोई कर सकता है, उसके लिये उतना ही पुरुषार्थ करना होगा. वर्ण व्यवस्था को उत्पति से जोड़ने के कारण देश अनायास निरन्तर बनी रहने वाली जातिगत व्यवस्था से जुड़ गया. समाज में व्याप्त विरोधाभास इसी बात को लेकर है. जन्म नहीं अपितु कर्म द्वारा वर्ण का निर्धारण ही देश और समाज के विकास की दिशा तय करेगा. धर्म ग्रंथों का बिना पढ़े उनका मूल्याङ्कन करना, हमें भारत के उद्दात ज्ञान से वंचित रखे हुये है. डॉ. सिन्हा का हिन्दी भाषा में संस्कृत के क्लिष्ट श्लोकों का भावार्थ निश्चय ही पाठकों को भारतीय वैदिक ज्ञान और संस्कृति के विषय में और अधिक जानने को प्रेरित करेगा.    

-वाणभट्ट 

शनिवार, 1 नवंबर 2025

समृद्धि

बंगले पर गहरा सन्नाटा व्याप्त था. पुरानी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों के बंगले इतने बड़े होते थे, जितने में आज लोग यूनिवर्सिटी खोल के बैठ जाते हैं. बंगले के सामने लॉन और पीछे किचन गार्डेन. एक छोटा-मोटा साम्राज्य समझ लीजिये. जब असिस्टेंट प्रोफेसर पर जॉइनिंग होती है, तब परिवार बड़ा होता है. माता-पिता-बीवी-बच्चे. घर मिलता है टाइप-थ्री. प्रोफ़ेसरी आते-आते घर में दो प्राणी बचते हैं और कमरे पाँच. चूँकि सरकार बंगले को आवश्यकता से अधिक ओहदे से जोड़ के देखती है, इसलिये बड़ा बंगला तब मिलता है जब आवश्यक्तायें सीमित हो जाती हैं. अब जब एक कमरे में दो लोग रहते हों, तो बाकी कमरों में झाड़ू लगवाना भी काम हो जाता है. किचन गार्डेन का भी कोई मतलब नहीं रह जाता. उसे मेन्टेन करने के लिये माली लगाओ, और जब सारी गोभी और मूली एक साथ तैयार होती हैं, तो समस्या ये हो जाती है कि कितनी खाओ, कितनी बाँटो. चूँकि पड़ोसी भी उसी तरह के बंगलों के मालिक होते हैं, तो सबके यहाँ स्थिति एक सी होती है. कौन किसको बाँटे. सारे काम वाले, माली, चौका-बर्तन करने वाली, कुक और ड्राइवर, भी सब्जी खा-खा कर अघा चुके होते हैं. अब प्रोफेसर हो कर यूनिवर्सिटी गेट पर सब्जी का ठेला लगाना शोभा तो देता नहीं, इसलिये जतन से उगायी गयी सब्जियों को तो ख़राब होना ही है. हॉर्टिकल्चर उत्पादन में जो 30 से 40 प्रतिशत नुकसान दर्ज़ किया जाता है, वो 45 से 50 प्रतिशत पहुँच जाये, यदि देश भर के बंगलों में हो रहे हॉर्टिकल्चरल लॉस को भी जोड़ लिया जाये. 

शांति इतनी अधिक थी कि घण्टी बजाने का दिल नहीं कर रहा था. लेकिन गेट खोलने बन्द करने की आवाज़ के बाद भी घर के भीतर कोई हलचल नहीं दिखी. लुधियाना से चंडीगढ़ सिर्फ़ प्रोफेसर साहब से मिलने ही तो आये थे हम. हम यानि डॉक्टर पड्डा और मै. ये प्रोफेसर डॉक्टर पड्डा के मित्र थे. उनसे मिलने के बाद पता चला कि वो उन्हीं की तरह सरदार भी थे. मजबूरी थी. कॉल बेल बजानी ही पड़ गयी. दरवाज़े पर लगी घण्टी (कॉल बेल) दबायी, तो सरकारी आवास पर अमूमन लगने वाली बजर की कर्कश आवाज ने मानो वातावरण में ध्वनि प्रदूषण फैला दिया हो. फ्रैक्शन ऑफ़ सेकेंड में हाथ घण्टी से हट गया. घण्टी बजाने के पाँच मिनट तक भी कोई हलचल नहीं हुयी. ताला दिख नहीं रहा था. हमें शक़ हुआ कि पीछे किचन गार्डेन वाले दरवाज़े पर ताला लगा के तो वो लोग कहीं निकल न गये हों. सन् चौरानबे में मोबाइल गिने-चुने लोगों के पास ही होता था. वैसे उनके कहीं निकलने की गुंजाइश इसलिये नहीं थी कि कुछ दिन पहले ही वो अस्पताल से लौटे थे, हार्ट अटैक से रिकवर हो कर. जिसकी सूचना मिलने के बाद ही पड्डा साहब ने प्रोग्राम बनाया, उनको देखने चलने का. कार जा रही थी, पड्डा साहब को साथ चाहिये था, मेरा परिवार इलाहाबाद गया हुआ था, इसलिये हम भी साथ में चिपक लिये. हमारे पूर्वांचल में हम का मतलब मै ही होता है. 

ट्रेनिंग के बाद मेरी पहली पोस्टिंग लुधियाना में हुयी थी. वहाँ जा कर मुझे एहसास हुआ कि समृद्धि क्या होती है. दुनिया भर में उस समय जितनी कारें होती थीं, सबके शो रूम वहाँ उपलब्ध थे. उनके सारे मॉडल घुमारमंडी की सड़कों पर घूमते देखे जा सकते थे. क्या ली, क्या लिवाइस, क्या लीकूपर, क्या लकोस्ट, सबके एक्सक्लूसिव शो रूम्स मैने पहली बार देखे थे. इलाहाबाद में तो सिविल लाइन्स की बड़ी से बड़ी दुकान पर मेरे साइज़ की तीन जींस निकल आयें तो बड़ी बात थी. वहाँ मिठाइयों की दुकानें भी कार के शो रूम जैसी बड़ी होती थीं. हमने अपने शहर में शराब की दुकानें और पान के खोखे देखे थे. लुधियाना में इसके उलट, दारू के खोखे थे, और ग्रेनाइट टॉप पर चाँदी के वर्क से सजी गिलौरियों और शटर वाली परमानेंट पान की दुकानें थीं. शाम के सात बजे फ़िरोजपुर रोड क्रॉस करने में डर इसलिये लगता था कि लम्बी-लम्बी कारों का काफ़िला थमने का नाम नहीं लेता था और उसे चला रहा चालक किस आसमान पर है, इसका अंदाज़ लगाना कठिन था. वहाँ के गाँवों में भी मकान पक्के हुआ करते थे. खपरैल शब्द उनकी शब्दावली में नहीं था. कुल्हड़ में चाय यूपी के भैये ही पसन्द करते थे, तब भी वहाँ काँच के गिलास प्रचलन में थे. आदमी को उपर से नीचे तक देखिये, तो चश्मे से लेकर जूते तक हर चीज़ ब्रैंडेड. पैसा सिर्फ़ होना ही काफ़ी नहीं था, वो दिखना भी चाहिये. पंजाबी आम तब तक खाता था, जब तक आम सौ रुपये किलो हो, जब बीस रुपया दाम हो जाता था, तो इसलिये आम खाना छोड़ देता कि अब तो भैया भी आम खा रहा होगा. वहाँ आपको इसलिये भी ख़र्च करना पड़ता था कि आपके अगल-बग़ल सब ख़र्च कर रहे हैं. खरबूजे को देख के खरबूजा रंग बदलता है, और मै तो खरबूजों के बीच रह रहा था. पूरी तरह ब्रैंडेड तो नहीं हो पाया लेकिन फिर भी खाने से कम दिखाने पर ख़र्च बढ़ गया.

पाँच मिनट के बाद प्रोफेसर साहब ने दरवाज़ा खोला. साथ में उनकी धर्मपत्नी भी थीं. पाँचवें कमरे से आने में इतना समय तो लग ही सकता था. दोनों ने सहज भाव से मुस्कुराते हुये हम लोगों का स्वागत किया. दोनों दोस्तों ने गर्म जोशी से उर लगाई भुज भेंट किया. माहौल एकदम जीवंत हो गया. हा-हा, हो-हो के कहकहे गूँजने लगे. पड्डा साहब ने याद दिलाया - यार थोड़ा धीरे बोल डॉक्टर ने मना किया होगा. तू चुपचाप बैठ. हम परजाई जी से बात कर लेंगे. अभी-अभी तो तू झटके से निकला है. तू बीमार है और हम तुझे देखने आये हैं, और तू है कि बीमारी को हल्के में ले रहा है. उसी खुशनुमा माहौल में भाभी जी चाय-वाय ले आयीं. प्रोफेसर साहब पूरे मस्ती के मूड में थे. शायद दोनों दोस्त लम्बे अंतराल के बाद मिले हों. यार पड्डे हारी-बीमारी तो आती-जाती रहती है. पर मै ज़्यादा लोड नहीं लेता. डॉक्टर ने तो बहुत कुछ बताया है, ये कर वो ना कर, ये खा वो ना खा. उसने तो देसी घी तक मना कर दिया है. बोल रहा था कि आपने परहेज नहीं किया तो दोबारा अटैक पड़ सकता है. मैंने भी बोल दिया कि भाई, मैंने पूरी ज़िन्दगी घी लगा के रोटी खायी है. चाहे कुछ भी हो जाये, मै बिना देसी घी के रोटी नहीं खा सकता. तेरे को जो भी दवायी देनी हो दे दे, लेकिन मै घी छोड़ने वाला नहीं.

बालकनी में पड़ी रोटी सूख कर पापड़ बन गयी थी. कई दिन बाद मेरा ध्यान उधर गया. पत्नी जी का लुधियाना आगमन कुछ दिन पहले ही हो चुका था. मैंने श्रीमती जी को आवाज़ लगायी - ये क्या रोटी बालकनी में डाल रखी है. उन्होंने बताया कि बची हुयी बासी रोटी कौवों के लिये बालकनी में डाल दी थी. लेकिन लगता है, अभी तक किसी की नज़र नहीं पड़ी. घी-नमक लगा कर तवे पर सिकी बासी रोटी मेरा सुबह का पसंदीदा नाश्ता है. मैंने उन्हें बताया - ये पंजाब के कौवे हैं. ये बिना घी की रोटी नहीं खाने वाले. इस पर घी लगा कर रखा करो. 

पाँच मिनट बाद बालकनी से रोटी नदारद थी. 

समृद्धि कुछ ऐसी ही होनी चाहिये. हमारे आस पास, हमारे अगल-बग़ल, हर तरफ़, और सबकी.

-वाणभट्ट

रविवार, 26 अक्टूबर 2025

उपनिवेशवाद

हर देश-काल में ताकतवर लोग अपनी बात को ऐसे व्यक्त करते रहे हैं, जैसे वो पत्थर की लकीर हो. समय के साथ नये ताकतवर आते गये और नयी लकीरें खींचते गये. पहले जब आम जनता को नियम-कानून जैसी चीज़ें पता नहीं थी, तो लोग छल-बल से अपनी बात मनवा लेते थे. कुछ देशों में जहाँ अभी भी तानाशाही या फिरकापरस्ती का बोलबाला है, वहाँ जनता को आज के आधुनिक युग में भी चपड़-चूं करने की इजाज़त नहीं है. वैसे देश-काल कोई भी हो पद-बल और उसमें निहित शक्तियाँ आम और अमरुद आदमी को उसी तरह अलग कर देती हैं, जैसे हंस दूध और पानी को.

राजशाही से आजिज़ आ चुकी जनता ने जब राजशाही का विरोध किया तो उन्होंने जनता को प्रजातन्त्र का झुनझुना पकड़ा दिया. ताकि जनता को लगे कि जनता ने अपनी सरकार का गठन अपने लिये, अपने द्वारा कर लिया है. इस व्यवस्था को प्रजातन्त्र की संज्ञा से नवाज़ा गया. उस समय भी राजनीति में जनता की सेवा के निस्वार्थ उद्देश्य से वो ही लोग कूदे जो साधन-सम्पन्न-समृद्ध लोग थे. जहाँ अधिकान्श जनता, दो जून के निवाले के इंतज़ाम में जुटी हो, वहाँ राजनीति भी एक प्रकार की विलासिता ही थी. और विलासिता पर आम आदमी का हक़ किसी ताक़तवर को भला कब, कैसे और क्यों सुहायेगा. सो ताकत का रूप बदला लेकिन सत्ता वहीं रही जहाँ पहले थी. जब जनता को ये एहसास हुआ कि प्रजातन्त्र तो मूलतः संख्या समीकरण है. जिसकी संख्या ज्यादा होगी, वही शासन के शीर्ष पर होगा. शक्ति के इस परिवर्तन-हस्तान्तरण को समाजवाद के रूप में परिभाषित किया गया. ठेठ भाषा में समाजवाद को इस तरह समझ सकते हैं कि पहले जिसकी लाठी (शक्ति-बल) उसकी भैंस होती थी, आज जिसके पास संख्या अधिक हो वो भैंस हाँक ले जायेगा. शक्ति के कई रूप हुआ करते थे, धन-बल-बुद्धि, लेकिन जब से संख्या बल आया बाकि सभी बल ढक्कन हो गये. जिसके पास संख्या है, वो जब चाहे, जहाँ चाहे, जो भी चाहे, अपनी बात मनवा ले. मनवा न भी पाये तो भी इनमें देश के सामान्य जन-जीवन को अस्त-व्यस्त-ठप्प करने की क्षमता तो है ही. इसमें प्रजातन्त्र बेचारा सा मुँह टापता रह जाता है.

संख्या बल की अवधारणा राजनीति तक ही रहती तो भी गनीमत थी. ये अवधारणा महामारी की तरह हर क्षेत्र में फ़ैल गयी. हर क्षेत्र मतलब हर क्षेत्र. विज्ञान जैसे विषयों का इससे अछूता रह पाना असम्भव था. परिभाषा के अनुसार विज्ञान वह विशिष्ट ज्ञान है, जिसके माध्यम से प्राकृतिक घटनाओं का सुव्यवस्थित और क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है, जिनका अवलोकन, परीक्षण, प्रयोग और तर्क के द्वारा सिद्धान्तों के रूप में प्रतिपादन किया जा सके. यह एक ऐसी विद्या है, जो ब्रह्माण्ड के रहस्यों की व्याख्या करने में सहायता करती है. धरती की समस्त जीवों में सबसे उन्नत प्रजाति, मानव, आरम्भ से ही प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने में लग गया. सिर्फ़ धरती पर हो रही प्रक्रियाओं को ही नहीं, मनुष्य ने ब्रह्माण्ड की सभी गतिविधियों, यहाँ तक कि ग्रह-नक्षत्रों-तारों के बारे में ज्ञान अर्जित करने का प्रयास किया. आज भी उसकी जिज्ञासा का अन्त नहीं है. नित नये प्रयोग और शोध हो रहे हैं, नित नयी खोज सामने आ रही है. 

जब तक विज्ञान विषय नहीं बना था, तब तक सारी खोजें मानव मात्र के लिये थीं. तब तक वो साझा ज्ञान था, सबके लिये. पिछला ज्ञान आगे के विज्ञान की आधारशिला बना. भारत में ऋषि परम्परा में ज्ञान-विज्ञान अपने उत्कर्ष पर था. जिसमें व्यक्ति नहीं ज्ञान सर्वोपरि था. इसीलिये हमने नियमों का प्रतिपादन व्यक्ति के नाम से नहीं किया. जब सारी दुनिया संशय में जी रही थी कि धरती चपटी है या चौकोर, हमें धरती का भूगोल मालूम था. जब सेब न्यूटन बाबा के सर पर नहीं गिरा था, हमें गुरु (बृहस्पति) के गुरुत्व का भान था. अणु-परमाणु की परिकल्पना का उद्भव भी 'यथा पिंन्डे तथा ब्रह्मांडे' से हुआ होगा. हमारे ऋषि-मुनि अपने ज्ञान का डंका बजाने में विश्वास नहीं करते थे, इसलिये सबने काम किया और वेदों के रूप में अपनी भाषा संस्कृत में लिपिबद्ध कर के समस्त प्राणी मात्र के उत्थान के लिये बिना किसी कॉपीराईट के उपलब्ध करा दिया. 

आर्थिक रूप से विकसित देश, अपने विचारों और शोध को तत्परता से लिपिबद्ध और प्रकाशित करने का हमेशा से प्रयास करते रहे हैं. भारत अपने कई महापुरुषों को सिर्फ़ इसलिये पहचान पाया क्योंकि उनके कृतित्व विदेशों में लिपिबद्ध हुये, वहाँ उनके कार्यों और विचारों को सराहना मिली. सैकड़ों वर्षों की पराधीनता ने देश की शिक्षा व्यवस्था को इस स्थिति तक समाप्त कर दिया कि हम अपने ही पुरातन ज्ञान-विज्ञान को संशय की दृष्टि से देखते हैं. अपने ही भारतीय विज्ञान पर प्रश्नचिंह खड़ा करने का कोई मौका नहीं चूकते. न हमें अपने चिकित्सकीय ज्ञान, आयुर्वेद पर गर्व है, न ही हम अपने खगोलीय ज्ञान को प्रमाणिक मानते हैं. कारण मात्र इतना है कि हमारे ऋषि-मनीषियों ने खोज को महत्त्व दिया, अपने नाम या योगदान को रेखांकित करने पर नहीं. उनके लिये विज्ञान सर्व सुलभ ज्ञान था, जिसका उपयोग मानव कल्याण और मानवता के लिये किया जाना था. पश्चिम के वैज्ञानिक अपनी खोज को अपना नाम देने के लोभ से बच नहीं सके.  मुगलों ने भारत की धन-सम्पदा को लूटने का लक्ष्य बनाया तो यूरोप के आक्रान्ताओं ने यहाँ की बौद्धिक सम्पदा को बिना श्रेय दिये चोरी करने में सन्कोच नहीं किया. ये बात ध्यान देने वाली है कि पाश्चात्य जगत में अधिकान्श खोज का अंग्रेजों के भारत आने के बाद सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में होना संयोग मात्र नहीं है.

विज्ञान का आरम्भ सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय से ही हुआ होगा. आवश्यकता अविष्कार की जननी है. लोगों ने आवश्यकता के अनुसार अविष्कार किये होंगे, जिनका उपयोग करने के लिये सर्वसाधारण को शिक्षित किया होगा कि सबका जीवन उन्नत और सुखद हो सके. जीवन के लिये आवश्यक मूलभूत खोजों पर किसी महान वैज्ञानिक का नाम नहीं है. किसने आग खोजी, किसने शिकार के लिये हथियार बनाये, किसने पहिये का अविष्कार किया, किसने खेती को जीवन का आधार बनाया. खेती ने ही आगे चल कर मानव समाज की स्थापना की. किसी भी खोज से किसी का नाम नहीं जुड़ा है. विज्ञान का ज्ञान भले सीमित लोगों के द्वारा विकसित किया गया हो लेकिन उसका लाभ सबके लिये था. तब विज्ञान शौक था, रोजगार नहीं. फिर यूनीवर्सिटीज़ में विज्ञान के अलग-अलग विषय बने. शोध का उपयोग व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और लाभ के लिये होने लगा. जहाँ भी ताकत का प्रवेश होगा, वहाँ राजनीति का आना भी तय है. मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने भी अपने सिद्धांतों को प्रतिपादित करने, अपने स्व को प्रोन्नत करने और भिन्न विचारधारा के व्यक्ति को कमतर दिखाने के लिये, संख्या बल की राजनीति का सहारा लिया. समय के साथ विज्ञान में राजनीति का घालमेल बढ़ता गया. दिन प्रति दिन शोध में धन की आवश्यकता बढ़ती गयी. इसके लिये कम्पनी प्रायोजित शोध आरम्भ हो गये. और जो शोध प्रायोजित करेगा तो उसके पीछे उसका अपना कोई न कोई स्वार्थ तो अवश्य सिद्ध हो रहा होगा. कई बार तो लगता है कि समस्याओं को अनायास विस्तारित किया जाता है ताकि वित्तीय प्रावधान को आकृष्ट किया जा सके. एलोपैथी इसका एक सबसे जीवन्त उदाहरण है. दवा कम्पनियाँ विभिन्न बीमारियों को लक्ष्य करके उनके उपचार हेतु दवा या टीकाकरण पर शोध और उनका वृहद् स्तर पर क्लीनिकल परिक्षण करवाती हैं. चूँकि आयुर्वेद और होम्योपैथी, जो सापेक्ष रूप से कम ख़र्चीली चिकित्सा पद्यति है, इसलिये इस में फण्डिंग भी कम है. बीमारियों को जड़ से ठीक करने के इनके बड़े से बड़े दावों की अभी भी पुष्टि नहीं हो पायी है, क्योंकि इस प्रकार के शोध को फण्ड करने में लाभ भी कम है. फण्ड की उपलब्धता प्रतिभाशाली मस्तिष्क को आकृष्ट करती है. जो जितना बड़ा भौकाल बना ले, वो उतना अधिक फण्ड खींच सकता है. यहीं पर वैज्ञानिक का व्यक्तिगत प्रभाव, नेटवर्क और व्यक्तित्व काम आता है. थोड़ी बहुत भी राजनीति कर ली तो मुद्दा देश या विश्वव्यापी बन जाता है. 

शिक्षा और ज्ञान को आर्थिक रूप से लाभ उठाने का विचार पाश्चात्य सभ्यता की देन है. पहले से स्थापित ज्ञान-विज्ञान को अधिसंख्य लोगों द्वारा बोली जाने वाली, अंग्रेजी भाषा में लिख कर, उन्होंने लगभग प्रत्येक विषय में अपने आप को अग्रणी मान लिया. विश्व के अधिकांश देश उनके उपनिवेश रहे इसलिये उनको दुनिया भर पर अपने विचार थोपने में अधिक प्रयास नहीं करना पड़ा. हमारे वेद-पुराणों को पिछड़ा और अप्रमाणिक सिद्ध करके, उसी ज्ञान पर पश्चिम के वैज्ञानिकों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर ली. संख्याबल यहाँ भी अपना काम कर गया. आप लाख प्रयास कीजिये, उद्धरण दीजिये, बहुमत से चलने वाली सभ्यतायें, आप को सक्षम और स्वयं को पिछड़ा मानने को तैयार नहीं हैं. और माने भी क्यों जब उन्होंने हमारी शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करके, अपने विचारों को हमारी जड़ों में इतना गहरे रोप दिया कि हमारा स्वयं पर से विश्वास डगमगा गया. विश्व के स्वतन्त्र और विकसित देशों, यूरोप, अमेरिका, जापान, चीन आदि ने अपनी भाषा और संस्कृति की गरिमा और प्रतिष्ठा का परित्याग नहीं किया. मुगलों और अंग्रेजों की ग़ुलामी ने हमारे भीतर इतनी गहरी पैठ बना ली कि हम आज भी न अपनी भाषा बना पाये, न अपना विज्ञान. जो अंग्रेजी में पढ़ लिया, उसी को सही और सत्य मान लिया. इस कारण हमारा विज्ञान और चिकित्सा पद्यति पश्चिमोन्मुखी हो कर रह गयी. अपने अत्यन्त उन्नत और विकसित पुरातन ज्ञान को नकार कर हम आज अपनी ही वैज्ञानिक अवधारणाओं की स्वीकृति के लिये पश्चिम का मुख देख रहे हैं. अपने चिकित्साशास्त्र, आयुर्वेद को कोई बाहर वाला नहीं, अपने ही आधुनिक भारतीय चिकित्सा जगत के लोग चुनौती दे रहे हैं. जबकि वर्तमान में पाश्चात्य जगत, योग और आयुर्वेद के लाभ को समझ रहा है और उसकी ओर झुकाव महसूस कर रहा है. अपनी भाषा में विज्ञान की पुस्तकों का आज भी नितान्त अभाव है. वैज्ञानिक पत्रिकाओं के न होने से हमारे वैज्ञानिक अपने शोध को अंग्रेजी में छापने-छपवाने को विवश हैं. शोध पत्रों का प्रकाशन एक सर्वकालिक लाभप्रद व्यवसाय बन गया है. कोरोना की विश्वव्यापी महामारी के दौरान जब अन्य उत्पादक क्षेत्र भीषण मंदी के शिकार हो गये थे, छापाखाना ही एक ऐसा व्यवसाय था, जो फूला और फला. 

नवोन्मेषी प्रायोगिक समाधान उन्मुख शोध भले समस्या का निवारण करने में सक्षम हों, किन्तु उन्हें उच्च स्तर की शोध पत्रिकाओं में स्थान नहीं मिलता. आज कल शोध दो धडों में विभक्त दिखायी देता है. अव्यवहारिक, मौलिक शोध और व्यवहारिक, प्रायोगिक शोध. मौलिक शोध जनित शोध पत्रों को उच्च स्तर की शोध पत्रिकाओं में स्थान मिल जाता है, जबकि प्रायोगिक व्यावहारिक शोध, प्रायः तकनीक के रूप में ही सीमित रह जाते हैं. यद्यपि कि इनका उपयोग समस्या के समाधान के लिये किया जा सकता है किन्तु इनको उच्च रेटिंग के शोध पत्र में परिवर्तित करना दुष्कर कार्य है. हाई रेटिंग के कारण आज मौलिक और व्यवहारिक शोध का अन्तर इतना अधिक हो गया है कि मौलिक शोध के वैज्ञानिक मौलिक शोध को ही विज्ञान मानने की भूल कर बैठते हैं, और व्यवहारिक शोध को हेय दृष्टि से देखते हैं. यही कारण है कि व्यवहारिक शोध करने वाले भी मौलिक शोध करने और उनके प्रकाशन की ओर आकृष्ट हो रहे हैं. मौलिक शोध भी एक चूहा दौड़ सिद्ध होती जा रही है क्योंकि मौलिक शोध के लिये मौलिक सोच का होना अत्यंत आवश्यक है. जबकि अधिकांश मौलिक शोध के लिये हम आज भी पश्चिम देशों के शोध की दिशा का अनुसरण कर रहे हैं. जिन संस्थाओं ने मौलिक और व्यवहारिक शोध का समन्वय कर लिया, वे ऐसी लोकोपयोगी तकनीक विकसित करने में सफल हुये, जिनका आधार मौलिक शोध था.

मौलिक शोध आवश्यक हैं, किन्तु यदि उसकी परिणति प्रायोगिक या व्यवहारिक समाधान में नहीं होती तो उसकी उपयोगिता व्यक्तिगत प्रोन्नति के लिये तो उचित हो सकती है, लेकिन देश-समाज के लिये नहीं. वर्तमान समय में शोध को समावेशी बनाने की आवश्यकता है ताकि वित्तीय प्रावधानों और संसाधनों का लक्ष्य समाधान केन्द्रित हो. अपने मौलिक शोध के स्तर पर हमारा स्वयं का विश्वास आवश्यक है, इसके पुष्टिकरण के लिये हमें विदेशी संस्थाओं की स्वीकृति पर निर्भर न रहना पड़े. जब तक व्यवहारिक विज्ञान की अवहेलना होगी, वैज्ञानिक मौलिक शोध करके आत्मुत्थान का प्रयास करते रहेंगे. इन परिस्थितियों में यदि देश को नवोन्मेषी उन्नत तकनीकों के लिये आयातित तकनीकों पर ही निर्भर रहना पड़ता है, तो ये अत्यन्त दुःखद होगा. 

जबसे भारत की अधिकांश शोध संस्थाओं ने शोध पत्रों को वैज्ञानिक प्रोन्नति का आधार बना लिया है, वैज्ञानिकगण भी वैश्विक स्तर पर होने वाली समस्याओं पर शोध और शोध पत्र लेखन को वरीयता दे रहे हैं. मौलिक विषयों पर किये शोध पत्रों को उच्च स्तर की शोध पत्रिकाओं में स्थान मिल जाता है. ये पत्र शोध समस्या के सैद्धान्तिक निवारण की ओर इन्गित तो करते हैं, किन्तु प्रायोगिक और प्रयुक्त किये जा सकने व्यवहारिक समाधानों से प्रायः कोसों दूर होते हैं. उच्च स्तर के शोध के लिये, हम मुख्य रूप से आयातित यन्त्रों पर निर्भर रहते हैं. इनकी आवश्यकता मात्र इसलिये होती है कि इन यंत्रों के परिणाम पर सारा विश्व विश्वास करता है और इनमें अधिकांश उपकरण विकसित देशों द्वारा निर्मित किये गये हैं. परिणामस्वरूप वित्तीय प्रावधान का महत्तम भाग, आयातित उपकरणों की खरीद पर व्यय हो जाता है. इस प्रकार विकसित देश हमारे ऊपर न केवल अपने विचार प्रत्यारोपित कर रहे हैं, बल्कि अपने शोध उपकरणों को खरीदने और शोध पत्रिकाओं में लेख छापने के लिये हमें बाध्य कर रहे हैं. 

स्वतन्त्रता के पचहत्तर साल बाद, हम आज भी बौद्धिक परतन्त्रता में जकड़े हुये हैं. समस्यायें क्षेत्रीय हैं, तो उनका समाधान भी यहीं से निकलेगा. 'थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली' का नारा ही काफ़ी नहीं है. धरातल पर इस विचार को लाना होगा. प्रयोगशाला के लिये अपने उपकरणों, अपने रसायनों पर विश्वास, सम्भवतः इस दिशा में पहला कदम हो. हमारे पुरखों ने आत्मानुभूति और गहन अंतदृष्टि से आयुर्वेद की जड़ी-बूटियों की खोज की वो भी बिना किसी तथाकथित उन्नत यन्त्र-उपकरण के. वे ऐसा इसलिये कर सके क्योंकि ज्ञान-विज्ञान के लिये उनके पास कोई विदेशी पुस्तक या मानक नहीं थे. आज आवश्यकता है कि भारत के पुरातन ज्ञान-विज्ञान को वैश्विक पटल पर स्वीकार्य बनाने की, उन्हें पुनर्स्थापित करने की. किन्तु इसके लिये आवश्यक है कि भारत का विज्ञान भी उपनिवेशवाद से बाहर निकले. अपने ग्रन्थों में लिखे विज्ञान का पठन-पाठन-अध्ययन, उनका परीक्षण और पुष्टिकरण, अपनी ही भाषा में आज की मुख्य आवश्यकता है. इस विषय में एक विज्ञापन की टैग लाइन ध्यान आ रही है - ये एक दिन में नहीं होगा, लेकिन एक दिन ज़रुर होगा. प्रयास तो कीजिये. 

-वाणभट्ट

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

गाज

लाईट को जाना था तो वो गयी. जेनरेटर को स्टार्ट होना था पर वो नहीं हुआ. सभा में अँधेरा छा गया. एक कहावत है - थिंग्स गो रॉन्ग ऐट मोस्ट क्रूशिअल आवर्स. मंच सज चुका था. सभी गण्यमान मंचासीन हो चुके थे. विद्वतजनों की पूरी फ़ौज सभागार में मौजूद थी. सबके पास लाईट के पुन: आ जाने का इन्तजार करने के अलावा कोई चारा भी न था. बैकअप के बैकअप की व्यवस्था पर किसी ने इन्जीनियर के कहने पर भी ध्यान नहीं दिया था. जब सब चीजें सुचारुरूप से चल रही हों तो इन्जीनियर की राय का कोई मतलब नहीं होता. मेन्टेनेन्स इन्जीनियर ने पहले ही कहा था कि एक इन्वर्टर या यूपीएस लग जाता तो सप्प्लाई से जेनरेटर पर स्विच होने में जो 15-20 सेकेण्ड का अन्तराल होता है, उसमें भी घुप्प अँधेरा नहीं होगा.  

जब से सामाजिक न्याय का मुद्दा उठा है, हिन्दुस्तान में सबने ये मान लिया है कि हर व्यक्ति बराबर है. ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, परिश्रमी हो या आलसी हो, सबको धरती पर एक ही स्तर का जीवन जीने का भग्वत प्रदत्त अधिकार है. क्योंकि सब मनुष्य हैं. भगवान ने सबको मनुष्य योनि में जन्म दिया है. मनुष्य और मनुष्य में भेद करना मानवता के विरुद्ध है. समाज में जो वर्ण और वर्ग भेद की विषमता व्याप्त है, उसको दूर करने की प्रक्रिया वोट के द्वारा चयनित लोगों की व्यवस्था द्वारा की जा सकती है. वर्ग सन्घर्ष को दूर करने के लिये भारत भूमि की पावन धरा पर समय-समय पर महान विभूतियों ने जन्म लिया. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इनमें से अधिकान्श आर्थिक या शैक्षणिक या सामाजिक दृष्टि से उन्नत, समृद्ध और सम्पन्न लोग थे. जिनकी बातों का समाज पर व्यापक असर पड़ता था, आज भी पड़ता है. सीधी सी बात है मेरा उत्थान मुझसे अधिक सक्षम व्यक्ति ही तो कर पायेगा. धन-बल, भुज-बल, पद-बल, संख्या-बल, जिनके पास है, उनके विचारों में ताकत आ जाती और बातों में वज़न. इनमें से कई सुधारक अपने-अपने समाज का सामाजिक उन्नयन करते-करते कब धनपशुओं में शुमार हो गये, इनके अपनों को भी ज्ञात नहीं हुआ. अब जब उपरोक्त किसी भी प्रकार की शक्ति में से कोई शक्ति उनके पास है तो उनका अनुसरण करने वालों की संख्या का बढ़ना भी तय है. 

वाणभट्ट की सोच, इस सोच को और व्यापक बनाने की है. सामाजिक बराबरी को वैश्विक स्तर पर लाने की आवश्यकता है. ये अमरीका और जापान वाले क्या आदमी से उपर हैं. कोरिया, चीन और सिंगापुर अगर तरक्की कर रहे हैं तो क्या उनकी समृद्धि पर सम्पूर्ण वसुन्धरा के अन्य लोगों का कोई अधिकार नहीं है. किसी देश में गरीबी-भुखमरी है, तो कहीं तानाशाही ने जनता का जीवन नर्क बना रखा है. कितना अच्छा होता कि देशों के बीच की लकीरें ही हट जातीं और पूरी धरती एक हो जाती. सोच तो इतनी व्यापक होनी चाहिये कि धरती पर जीने का अधिकार सिर्फ़ मानव प्रजाति को नहीं है. बल्कि अन्य जीव-जन्तुओं-वनस्पतियों को भी है. आदमी अन्य प्रजातियों से श्रेष्ठ है, इसलिये सबका साथ और सबका विकास उसी को करना है. लेकिन आदमी है तो उसके साथ उसका स्वार्थ चिपका हुआ है. हर व्यक्ति को जीविकोपार्जन के लिये लाभ के विषय में सोचना और कार्य करना ज़रूरी है. अधिक लाभ यानि अधिक परिश्रम. किन्तु लाभ की अनियन्त्रित चाह कब लोभ में बदल जाती है, व्यक्ति को स्वयं पता नहीं चलता. अधिकार माँगने वाले हमेशा अधिकार देने वालों से संख्या में अधिक रहे हैं. कारण बहुत साफ़ है. जिसने भी बल प्राप्त करने के लिये अधिक श्रम किया, उसके पास हमसे अधिक अधिकार होंगे ही. पुरुषार्थ करके जब वही व्यक्ति अपनी सफलता का आनन्द लेने का प्रयास करता तो अधिकार माँगने वालों की नींद खुल जाती है. और वो बराबरी का हिस्सा बँटवाने को तत्पर हो जाते हैं.   

भारत ही क्या पूरी दुनिया में कभी भी बराबरी नहीं रही है. सबसे बड़ा वर्ग विभेद सक्षम और असक्षम का रहा है, समर्थ और असमर्थ का रहा है, धनवान और निर्धन का रहा है. उसके पीछे कई कारण रहे हो सकते हैं. सिर्फ़ भारत में ही हजारों धर्म-सम्प्रदाय-जातियाँ नहीं रही हैं, अन्य देशों में भी कभी एक विचारधारा या धर्म नहीं रहा. किन्तु सभी ने सबको बराबर का मान-सम्मान-आदर दिया हो, ऐसा इतिहास में कहीं नहीं दिखता. जो भी अधिक ताकतवर था, बुद्धि में, धन में, बल में या संख्या में उसने दूसरों को बदलने में, दबाने में, अपना सारा जोर लगा दिया. लेकिन बराबर कभी नहीं होने दिया. अब हम भारत के बाहर इस वर्ग विद्वेष के लिये ब्राह्मण या पण्डित जी को तो कोस नहीं सकते, लेकिन हमें लगता है कि देश के भीतर अपनी दुर्दशा का ठीकरा किसी पर तो फोड़ना ही है, तो पण्डित जी पर क्यों न फोड़ें. जबकि फ़र्क़ सिर्फ़ धन और निर्धन का है. अधिकांश इस दुश्चक्र में फँसे रह जाते हैं. भारत का इतिहास ऐसे महापुरुषों से भरा पड़ा है, जो इस दुश्चक्र को भेद कर बाहर निकल पाये. जिन्होंने अपनी स्थितियों-परिस्थितियों के लिये दूसरों को दोष देना बन्द कर दिया. दूसरों की लकीर छोटी करने के बजाय उन्होंने अपनी इतनी लम्बी लकीर बना दी कि उनकी मिसाल बन गयी. सदियाँ बीत गयीं, कोई उन्हें भुला नहीं सका. उनका नाम इतिहास में दर्ज़ हो गया. लकीर इतनी गहरी भी थी कि बाद में कोई चाह कर भी इसे मिटा न सका. अपनी लकीर बनाने-बढाने में, विशेष रूप से तब जब सब आपके ख़िलाफ़ हों, तो परिश्रम का परिमाण भी बढ़ाना पड़ता है. जो अधिकार माँगने या अधिकारों के लिये लड़ने की अपेक्षा कहीं दुष्कर कार्य है. आज जब कोई सामाजिक समरसता की बात करता है, तो प्रायः अपने समाज, धर्म और जाति विशेष के उत्थान की ही बात करता है. मानव या मानवता की बात नहीं. मानवता की बात तो आज भी धर्मगुरु-ज्ञानी-पण्डित-पुरोहित ही कर रहे हैं. ये वो लोग हैं जिन्होंने अपने ही धर्म के कर्म काण्ड को चुनौती दी और समाज के जीवन स्तर को ऊपर उठाने में तन-मन-धन से प्रयास किया. स्वयं को सही सिद्ध करने की जगह दूसरों को गलत सिद्ध करना हमेशा आसान रहा है. भारत की राजनीति यहीं पर सिमट कर रह गयी. जब भी कोई विकास की बात करता है तो हम उसके धर्म-जाति को घसीट लाते हैं. स्थितियाँ ऐसी हो गयी हैं कि तमाम विकास के बाद भी कोई स्वयं को विकसित मानने को तैयार नहीं है. आज जितना भी विकास देखने को मिल रहा है उसका श्रेय उन सभी भारतवासियों को है जिन्होंने अपने-अपने समय में, अपने-अपने स्तर पर भारत के विकास में अपना योगदान दिया. हमारे महापुरुष साझे हैं. उन्होंने देश के लिये काम किया. वे देश की साझी विरासत हैं. 

अभी सामाजिक न्याय पूरी तरह लागू हो ही नहीं पाया था कि हमने उसे शिक्षा के क्षेत्र में भी लागू कर दिया. आप चाहे संगीत पढ़ो या साँख्यिकी सब बराबर. इतिहास और विज्ञान एक ही श्रेणी में तौल दिये गये. यहाँ भी जिनका विज्ञान पढने में मन नहीं लगता था, उनकी संख्या अधिक थी. अधिकारों की माँग वहीं करता है, जिसमें अधिकार देने की क्षमता नहीं होती. नतीजा ये हुआ कि इतिहास या भूगोल या दर्शन शास्त्र की कोई भी टेक्स्टबुक उठा के देख लीजिये, कला संकाय के किसी भी विषय की किताब उठा कर देख लो, पहला चैप्टर उस विषय को विज्ञान सिद्ध करने में लग जाता है. सिस्टमैटिक स्टडी ऑफ एनी सब्जेक्ट इज़ साइंस. और तो और राजनीति शास्त्र को पॉलिटिकल साइंस ही बता दिया गया. और भाषाओं का तो पता नहीं लेकिन संस्कृत और हिन्दी, और भारत की अनेक भाषायें, जिनका उद्गम संस्कृत से हुआ, वो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक हैं. कोई उन्हें भाषा विज्ञान की संज्ञा देता है तो उसे सही माना जा सकता है. अंग्रेज़ी-उर्दू का इतिहास हो सकता है लेकिन उन्हें वैज्ञानिक भाषा कहना सही नहीं होगा. 

जिस तरह समाज में हर व्यक्ति की अपनी भूमिका है, उसी तरह सभी विषयों की अपनी उपादेयता है. देश-समाज के विकास के लिये सबका योगदान होता है. विषयों का सहअस्तित्व तो हो सकता है लेकिन किसी विषय की किसी दूसरे विषय पर श्रेष्ठता का निर्णय हास्यस्पद है. बेवकूफ़ी थोडा अपरिष्कृत शब्द है. जिन्हें दसवीं तक आते-आते ये एहसास हो चुका होता है कि आगे गणित और विज्ञान से उनके सम्बन्ध मधुर नहीं रहने वाला, वही लोग दूसरे विषयों के विषय में सोचना शुरू करते थे. कुछ लोगों के निर्णय उनके पिता जी या अब्बाजान उनके पैदा होने से पहले ही ले लेते कि बेटे या बेटी को प्रशासनिक सेवा में भेजना है या राजनीति में. बच्चे को इंजीनियर या डॉक्टर बनाने के सपने पालने वालों की संख्या में भी कोई कमी नहीं है. बीए-एमए, बीकॉम-एमकॉम कराने के बारे में कोई बाप नहीं सोचता. ये सब करके कोई रगड़-घिस के अधिकारी तो बन सकता है लेकिन इन्जीनियर या डॉक्टर बनाने के लिये जातक की विज्ञान में अभिरुचि होनी परम आवश्यक है. पारम्परिक पीसीएम या पीसीबी क्षेत्र में बीएससी या एमएससी करने वालों को भी ये भली भांति ज्ञात रहता है कि हिस्ट्री-ज्योग्रेफ़ी बड़ी बेवफ़ा, रात को रटी सवेरे सफ़ा. कला संकाय के विषय उन्हें वैसे ही दुरूह लगते हैं जैसे कला संकाय वाले को गणित या बायो. विज्ञान के छात्र को लॉजिकल विषयों को तो समझना सरल-सहज होता है, लेकिन रटन्त विद्या पर उनका भरोसा कम रहता है. इस मामले में गणित के विद्यार्थी, बायो वालों को भी रटन्तू ही मानते हैं. इसीलिये इन्जीनियरिंग के छात्र मेडिकल की ओर नहीं देखते और इन्हीं कारणों से मेडिकल वाले इंजीनियरिंग से परहेज करते हैं. यदि हर किसी नॉन-मैथ्स वाले की जीवनी खंगाली जाये, तो बिरले ही मिलेंगे जिन्होंने दसवीं में गणित के अच्छे मार्क्स होने के बाद भी बायो का चयन किया हो. क्योंकि तब तक छात्र को पता चल चुका होता है कि वो तार्किक है या अतार्किक. विषय को समझ सकता है या रट. उसी के अनुसार वो स्वयं या उसके बुजुर्ग, आगे की पढायी के विषय पर निर्णय लेते थे. 

हमारे समय तक कृषि को विज्ञान का दर्ज़ा मिल चुका था लेकिन ये बहुतों को मालूम ही नहीं था. संभवतः इसके बारे में वो ही लोग जानते थे जिनके चाचे-मामे-ताये कृषि विभाग से सम्बद्ध थे. उनका विचार था कि हर्डल रेस चल रही है. और रेस जीतने के दो ही तरीके हैं. या तो मेहनत करके हर्डल के उपर से निकला जाये या कम मेहनत करके हर्डल के नीचे से रेस के अंतिम सिरे पर पहुँचा जाये. जिस भतीजे में विज्ञान के प्रति रूचि होती थी वो पीसीबी में ग्रेजुएशन करना पसन्द करता था. बाकी को बुजुर्गों की नसीहत पर अधिक भरोसा होता था. क्योंकि उनसे पहले वो खानदान-समाज के कितने ही लोगों को तार चुके होते थे. उस समय तक पैसा दे कर इन्जीनियरिंग/मेडिकल की शिक्षा/डिग्री की दुकानें दक्षिण के कुछ राज्यों तक ही सीमित थीं. लिहाजा कृषि विज्ञान स्नातक में प्रवेश एक किफ़ायती विकल्प था. न कोई हर्डल, न कोई कम्पटीशन. किन्तु जब से ये विषय रोजगार गारेन्टी स्कीम के रूप में उभरा है, तब से यहाँ भी मारा-मारी शुरू हो गयी. कम्पटीशन बढ़ा तो हर्डल भी बढ़ा, नतीजा छात्रों की गुणवत्ता भी बढ़ी. किन्तु अभी भी सामाजिक रूप से इसका दर्ज़ा मेडिकल और इंजीनियरिंग के बाद ही आता है. ज्ञान-विज्ञान व्यक्ति को विनम्र बनाता है जबकि अल्प-ज्ञान की परिणति छद्म दम्भ और अहंकार में होती है. ज्ञान समावेशी है जबकि अज्ञान श्रेष्ठता सिद्ध करने में लग जाती है. और इनके लिये न कोई भाषा की गरिमा है, न कोई बात करने का शालीनता. कृषि शोध की अद्भुत समस्या ये है, कि ये कृषि में आने वाली समस्त समस्याओं का समाधान शोध से करना चाहते हैं. जबकि कृषि में अधिकांश समस्यायें इन्जीनियरिंग या प्रबन्धन सम्बंधित हैं. इनका शमन या अल्पीकरण तो सहज संभाव्य है, लेकिन हमारा सारा प्रयास उनके उन्मूलन में लगा है. वो भी इन्जीनियरों को शामिल किये बिना. आज की स्थिति में बस प्रभु से कामना ही कर सकते हैं कि उच्च पदस्थ लोगों को सद्बुद्धि और विवेक प्रदान करे कि एक ही दिशा में वित्तीय प्रावधान भविष्य में कृषि की अन्य शाखाओं-प्रशाखाओं के विकास को प्रभावित करेगा. 

जब से शिक्षा में सामाजिक न्याय लागू हुआ, कम मेहनत कर अधिक मार्क्स पाने वाले विषयों के छात्र भी ज्ञानीयों की श्रेणी में आ खड़े हुये. बीए-एमए वाले भी प्रशासन और प्रबन्धन की डिग्री लेकर डॉक्टर-इन्जीनियर के ऊपर प्रतिष्ठित हो गये. कमोबेश ये स्थिति हर जगह देखने को मिलती है. ऑफ़िस-ऑफ़िस खेल कर भ्रष्ट लोगों ने समानांतर अर्थव्यवस्था खड़ी कर डाली है. जमीन-मकान या फ़्लैट सिर्फ़ इसलिये महँगे हो गये हैं कि संसाधन सीमित हैं और दो रुपये की चीज़ को लोग दस रुपये में ख़रीदने को तैयार हैं. भ्रष्टाचार से सभी त्रस्त हैं लेकिन इसके निराकरण की उम्मीद समाज सरकार से ही करता है. व्यक्तिगत रूप से तो समाज भ्रष्ट लोगों के समर्थन में खड़ा है क्योंकि बहुमत उन्हीं के पक्ष में है. शासन और सरकार के नुमाइन्दे भी उसी समाज से ही आते हैं.  

एक बीकॉम ड्राप आउट फिल्म मेकर ने शिक्षा में सामाजिक समरसता का बीड़ा उठा रखा है. इंजीनियर्स को टारगेट करके बनी उसकी फिल्म को सुपर-डुपर हिट होना ही था. हर उस व्यक्ति को वो फिल्म अच्छी लगनी ही थी, जिसकी इन्जीनियर बनने की तमन्ना अधूरी ही रह गयी थी. अब उन्हें कौन समझाये कि ये जो मल्टीपल साउंड ट्रैक वाली फिल्में बन पा रही हैं, उसमें भी तकनीक का प्रयोग हुआ है. बल्कि ये कहना उचित होगा इस धरा पर प्राकृतिक चीज़ों के अतिरिक्त जो कुछ भी मानव निर्मित वस्तु दिखायी पड़ रही है, सब तकनीकी लोगों की देन है. इसमें कोई शक नहीं है कि समाज को हर वर्ग, हर विषय की आवश्यकता है. यही विविधता मानव जीवन को बहुआयामी बनाते हैं. कवि - लेखक - गीतकार - संगीतकार - फ़िल्मकार - पत्रकार जीवन को जीने योग्य बनाते हैं, अन्यथा पेट भर खाना और मन भर सोना तो धरती के सभी प्राणियों को मयस्सर है. उसके लिये उनके पास न शोध करने की कोई व्यवस्था है, न कोई वित्तीय प्रावधान. न कोई डराने वाला कि भैंसों की पॉपुलेशन बढ़ गयी तो उनका चारा कहाँ से आयेगा. सारी समस्या का विस्तार तो फंड आकृष्ट करने के लिये है, यदि फंड न मिले तो समस्या ख़त्म. कभी-कभी तो ये शक़ होता है कि यदि विज्ञान न होता तो समस्त मानव जाति बीमारी और भूख के मारे कब की समाप्त हो गयी होती. तब विज्ञान से अधिक वैज्ञानिकों की मन्शा पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है. 

जब कोई कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहा हो तो उसे इस बात का भान होना चाहिये कि उसकी प्रतिभा वृहद् रूप में श्रोताओं के समक्ष पहुँच पा रही है तो उसके पीछे तकनीकी लोगों की एक टीम खड़ी है. कोई विचारक अपने विचार पत्र-पत्रिकाओं-अंतरजाल के माध्यम से दूरस्थ लोगों तक पहुँचा पा रहा है तो उसे ये एहसास होना चाहिये कि ये काम तकनीक के बिना सम्भव नहीं है. जब भी किसी मानव निर्मित वस्तु से आपका सामना हो तो उस तह तक जाने का प्रयास कीजियेगा, वहाँ तक जहाँ किसी तकनीकी व्यक्ति को अपना योगदान देते आप विज़ुअलाइज़ कर पायें. आपके नल में पानी आ रहा हो और सर पर पंखा घूम रहा हो, तो किसी अदृश्य इन्जीनियर को धन्यवाद अवश्य ज्ञापित कीजियेगा. इंटरनेट आ रहा है और एसी चल रहा है, तो कोई तो है जो बिना सामने आये, आपके लिये नौ मन तेल का इंतज़ाम कर रहा है ताकि आपके मन की राधायें बिना किसी व्यवधान के नाच सकें. उन्हें धन्यवाद नहीं दे सकते तो भी चलेगा, लेकिन अपमानित करना सही नहीं है. हो सके तो इस प्रयास से बचियेगा. ये बस एक निवेदन है बाकि उसके आगे, हरि इच्छा.

सभा में लाईट गयी थी, तो गाज तो गिरनी ही थी. वाणभट्ट को इस बात में कोई संशय नहीं था कि वो गिरेगी तो किसी न किसी जिम्मेदार व्यक्ति पर, किसी इन्जीनियर पर.

 -वाणभट्ट 

रविवार, 14 सितंबर 2025

GE

जंज़ीर-दीवार-शोले में अमिताभ के होने के अलावा और क्या समानता हो सकती है. शायद ही कोई इसे गेस कर पाये. उस समय तक हमें अपनी मर्ज़ी से पिक्चर देखने की आज़ादी नहीं थी. पिक्चर तब  देखते थे जब पिता जी परिवार को साथ लेकर पिक्चर देखने जायें. दोस्तों के साथ पिक्चर देखना और परिवार के साथ पिक्चर देखने में बड़ा अन्तर होता है. तब तक राजेश खन्ना का बोल-बाला था. अधिकतर पारिवारिक फिल्में ही बनती थीं, जिनसे बच्चे कुछ सही भले न सीखें किन्तु गलत बात सीखने की गुन्जाइश न के बराबर थी. इस चक्कर में एक बार 'सफ़र' पिक्चर में पिता जी ने हमें फँसा दिया. पूरी फिल्म हम ढिशुम-ढिशुम का इंतज़ार करते रहे और फिल्म ख़त्म हो गयी. उस फिल्म में गाये किशोर दा के गाने तो आज भी सुनता हूँ, लेकिन फिल्म के कुछ दर्द भरे दृश्यों की स्मृति के चलते उस फिल्म को दोबारा देखने की हिम्मत आज तक नहीं हुयी.

ऐसी स्थिति में विजय बाबू हम लोगों का एक मात्र सहारा थे. वो अपने पिता जी के गल्ले से व्यवस्था बना कर हर फिल्म का पहला दिन, पहला शो मैनेज कर लेते थे. उम्र हमारे बराबर, यही कोई आठ-दस साल. जब बच्चों के पर निकल रहे होते थे, उनके निकल चुके थे. अमिताभ के जबरदस्त फैन. जिस दिन वो फिल्म देख कर आते थे, उस दिन शाम को बच्चों की टोली क्रिकेट, सेवेन स्टोन, गेन्द-तड़ी, गुल्ली-डंडा या गोली नहीं खेलती थी. सब लोग मैदान के किनारे बने छोटे से टीले पर बैठ जाते थे. ऑफ़ कोर्स सब लोग नीचे और विजय बाबू टीले के टॉप पर. फिर शुरू होता था, जंज़ीर, दीवार और शोले जैसी अमिताभ की फिल्मों का सजीव प्रसारण. सीन दर सीन, पूरे एक्शन, एक-एक डायलॉग और बैकग्राउण्ड म्युज़िक के साथ. एक बार भाई बम्बई जाने के विचार से निकल भी गये थे लेकिन घर के पास प्रयाग स्टेशन पर बम्बई की ट्रेन का इंतज़ार करते बरामद हुये. पिता जी ने बल भर कूटा. एक प्रतिभा ने फूटने से पहले ही काल के गर्भ में दम तोड़ दिया. इस प्रकार देश एक और अमिताभ के मिलने से वन्चित रह गया. ये एक कोइन्सिडेन्स ही है कि उनका नाम अमिताभ के परदे वाले नाम से मैच करता है. बाद में उन्होंने सेल्स और मार्केटिंग को अपना कैरियर बनाया. उनका अपना व्यवसाय है, जिसमें वो अत्यधिक सफल भी हैं. आज भी विजय भाई कोई बात कहते नहीं बल्कि डायलॉग डिलीवरी करते हैं. और आज भी उनके मेरे जैसे कई फैन्स हैं. 

उस समय तक अपर-मिडिल क्लास ने स्कूटर लेनी शुरू की थी, मिडिल-मिडल क्लास में स्पोर्ट जैसी सायकिल का चलन बढ़ रहा था और लोवर-मिडिल क्लास के पास सायकिल हुआ करती थी. उसमें लगी घंटी ही उस सायकिल सवार का टशन होती थी. हम यानि एक मकानमालिक और पाँच किरायेदार, एक परिवार की तरह रहा करते थे. उनका मकान भी आज का एचआईजी/एमआईजी नहीं पूरी की पूरी हवेली था. ये परिवार, परिवार नहीं, पूरा सर्विलांस सिस्टम था. किसी बच्चे की क्या मजाल कि उनकी पैनी निगाहों से बच जाये. आपस में प्रेम इतना था कि अपने-पराये का बिलकुल भी भेद नहीं. बच्चा किसी का हो, अगर कुछ गलत करता मिल गया तो निस्पृह भाव से मोहल्ले के चाचा-ताऊ-मामा-बाबा-नाना उसे सुधारने के लिये यथाशक्ति-यथासामर्थ्य बल प्रयोग करने से नहीं चूकते थे. उस पर तुर्रा ये कि घर में जा कर बताओ, तो माता-पिता जी से और आशीर्वाद पाओ. लिहाज़ा आज तक हममें, अन्य लोगों की तुलना में कुछ ज्यादा, जो संस्कार नाम की चीज़ बची हुयी है, उसमें उस विस्तारित परिवार का बहुत बड़ा योगदान है. जीवन का परमानन्द या तो दीन दुनिया से विरक्त सन्तों को मिलता है, या समाज में बहुतायत से पाये जाने वाले सदाचार विहीन व्यक्तियों को. कभी-कभी लगता है कि दुनिया का मज़ा लूटने के लिये पाला बदल लिया जाये, लेकिन संस्कार की जडें इतनी गहरी हैं, जो लाख प्रयास और इच्छा के बाद भी एक स्तर से नीचे गिरने नहीं देतीं.  

तब शहर भी ज्यादा बड़ा नहीं था, हाँ हम लोग  छोटे ज़रूर थे. गाहे-बगाहे पिता जी की सायकिल मिल जाना बड़ी बात थी. पूरे शहर का दायरा दस किलोमीटर में सिमट जाता था. लेकिन वही हमारे लिये बहुत था. उसमें भी गुम हो जाने की पूरी सम्भावना रहती थी. यदि शहर घूमने का मन हो और सायकिल का जुगाड़ हो गया तो मै बुलाता था सुधीर को. उसकी माता जी हम लोगों के घरों में काम करती थीं. जब तक उसकी माँ हम लोगों के घर काम करती थीं, वो घर के आस-पास अकेले ही कुछ न कुछ खेला करता था. उसकी फोटोग्राफिक मेमोरी थी. वो शहर के मोहल्ले ही नहीं वहाँ स्थित दुकानों-प्रतिष्ठानों को भी जानता था. उसके दिमाग़ में पूरे शहर का नक्शा था. चूँकि हमने नयी-नयी सायकिल चलानी सीखी थी, तो उसे बैठा कर शहर भर घुमाता था. हम लोगों ने सिविल लाइन, चौक, घंटाघर, लोकनाथ, अशोक नगर, तेलियरगंज, मुट्ठीगंज, कर्नलगंज, कटरा, ममफोर्डगंज, कैन्ट आदि इलाहाबाद के बहुत से हिस्से एक्सप्लोर किये. आज भी यदि हमें इलाहाबाद की गलियाँ अपनी लगती हैं तो उसमें हम लोगों की घुमक्कड़ जिज्ञासा का बड़ा योगदान है. बिना मैप्स के दिशा ज्ञान और सडक पर चलने के मूलभूत सिद्धान्त इस कदर आत्मसात हो गये कि मेरी कार पर मेरी गलती के कारण पड़ने वाले स्क्रैच नगण्य हैं. बाकी मेरी कार पर जितने भी घाव हैं, वो बिना ट्राफिक सेन्स के कानपुर की कुञ्ज सड़कों-गलियों में लहराते हुये चलने वालों की देन हैं. 

कुछ ब्रांड इतने बड़े हो जाते हैं कि उनके एल्फाबेट्स देखते ही उनका नाम याद आ जाता है. 'जीई' शीर्षक देख कर आप के जेहन में भी 'जनरल इलेक्ट्रिक' का नाम ज़रूर उभरा होगा. 'आर' देखते ही रिलायंस की याद आती है, और 'एक्स' देख कर ट्विटर की और 'यूसी' से अर्बन कम्पनी की. यदि आपका कृषि क्षेत्र से कोई वास्ता होता तो शायद आप इसको जीxई (GxE) के रूप में देख पाते. ऊपर जो इतनी रामायण लिखी है वो सिर्फ़ इसलिये कि मै अपनी बात को उन लोगों को समझा पाऊँ जो 'जीन' के पीछे लट्ठ लिये पड़े हैं. उन्हें लगता है कि 'जीन' सुधार देंगे तो सब सुधर जायेगा. ऊपर जितने भी उद्धरण दिये हैं, उनमें व्यक्तियों की मेधा-आईक्यू में कोई कमी नहीं थी. क्या पढ़ और क्या अनपढ़, क्या शहरी, क्या ग्रामीण, सब जगह आपको बुद्धिमान लोग मिल जायेंगे. किन्तु ये वातावरण ही था, जिसमें उनकी प्रतिभा निखरी या बिखरी. भारत में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिसमें बहुत सी प्रतिभाओं ने पलायन इसलिये कर लिया कि जिस व्यवस्था को हमने बिना किसी प्रश्नचिन्ह के स्वीकार कर रखा है, उसने उन्हें रिजेक्ट कर दिया. और उन्हीं लोगों ने जब विदेश में रह कर अपने झंडे गाड़े तो हमें भी उनके भारतीय मूल की याद आयी. भ्रष्ट आचरण वाले विभागों में ईमानदार की सत्यनिष्ठा महाभ्रष्ट लिख रहा हो तो ये सिस्टम की असफलता है, न कि व्यक्ति की. 

अभी पड़ोसी देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने को लेकर हिंसक विद्रोह हुआ है. लेकिन सरकार के कुछ नुमाइन्दों को छोड़ कर शायद ही कोई भ्रष्ट अधिकारी या कर्मचारी भीड़ के हत्थे चढ़ा. ये अवधारणा ही गलत है कि सरकार बदलने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा. जब आम नागरिक सही-गलत का भेद भूल कर आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा होगा, तो सरकार में बैठे लोग भी तो जनता में से ही आते हैं. ये वातावरण ही है, जो भ्रष्टों को पालता, पोसता और संरक्षित करता है. व्यक्तिगत रूप से कितने लोगों को सजा मिली या मिलती है. जब आम जनता ने भ्रष्टाचार को व्यवस्थित तरीके से स्वीकार कर लिया हो, जहाँ भ्रष्टाचार समाज का अपरिहार्य अंग बन चुका हो, वहाँ भ्रष्टाचार से निपटने की सारी व्यवस्था 'आई वाश' से अधिक कुछ नहीं है. सिंगापुर में 'ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट' एक संज्ञेय अपराध है और सजा का निर्धारण दो से तीन दिन के भीतर हो जाता है. अरब देशों में भी ऐसा प्रावधान है कि चोरी करने से पहले ही चोरों की रूह काँप जाती है. कलाम साहब ने एक बार कहा था कि यदि हम चाहते हैं कि हम आज ही सिंगापुर जैसे विकसित देश बन जायें तो हमें वैसा ही व्यवहार करना होगा जैसा हम सिंगापुर एयरपोर्ट पर उतरने के बाद करते हैं. 

भारत में बहुत सी ऐसी कम्पनियाँ हैं, जो आम के पल्प और जूस पर आधारित पेय पदार्थ बेच रही हैं. ये सारी कम्पनियाँ विदेशों से आम के पल्प या कंसंट्रेट इम्पोर्ट करती हैं. जबकि भारत आम का मुख्य उत्पादक व निर्यातक देश है. जब उनसे पूछा गया कि आप लोग अपने देश के आम का प्रयोग क्यों नहीं करते तो उनका जवाब हैरान करने वाला था. उच्च गुणवत्ता का उत्पाद बनाने के लिये हमें कच्चा माल भी एकरूप चाहिये. ब्राजील से आने वाला कच्चा माल गुणवत्ता में समरूप होता है, इसलिये उसके प्रसंस्करण में हमें कोई विशेष प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ती. अभी हाल ही में एक डेलिगेशन ब्राजील हो के लौटा है. हजारों एकड़ में एक ही प्रजाति की फसल देख कर वे अचंभित रह गये. यहाँ तक कि खेत के सर्वेक्षण के लिये ड्रोन और हैलीकॉप्टर का उपयोग होता है. उन्नत कृषि यंत्रों का उपयोग, मशीनीकरण व सिंचाई विधियों के उच्च स्तर ने सभी को प्रभावित किया. डेरी में गाय भी थीं, तो एक ही प्रजाति की हज़ारों गाय. उन्होंने भारत की पारंपरिक देसी गिर और साहिवाल का संवर्धन करके उनकी उत्पादकता में वृद्धि की. मूल प्रजाति में कम से कम छेड़-छाड़ कर के उसके उत्पाद की मूल गुणवत्ता को भी बनाये रखा गया है. 

मेडिकल साइंस में अभूतपूर्व विकास के बाद अब लोगों का सामना एलोपैथी के दुष्परिणामों से हो रहा है. हमारे पूर्वजों ने स्वानुभूति से, आधुनिक चिकित्सीय ज्ञान से पहले ही, चिकित्सा की पूरी एक विधा, आयुर्वेद विकसित कर रखी थी. विदेशी ग़ुलामी और अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में हम अपनी ही मूल चिकित्सा व्यवस्था से विरत हो गये. अंग्रेजी को विज्ञान मान लिया. हर अवयव (ऑर्गन) के विशिष्ट विशेषज्ञ चिकित्सक हैं. जो अनेकानेक टेस्ट-स्कैन-एमआरआई के बाद ही बीमारी का कारण खोज पाते हैं. और खास बात है कि भले बीमारी एक हो लेकिन कोई भी दो चिकित्सक एक दवाई नहीं लिखते. शहर में होटल कम अस्पताल ज़्यादा होते जा रहे हैं. कभी-कभी शक़ होता है कि आधुनिक चिकित्सा पद्यति कहीं बिज़नेस बन कर तो नहीं रह गयी है. हमारे पुराने वैद्य जी आज भी नब्ज़ टटोल कर बता देते हैं कि दिल की प्रॉब्लम है या दिमाग़ का वहम. बहुत सी बीमारियाँ आदमी के दिमाग़ की उपज होती हैं. जोसेफ़ मर्फ़ी की एक किताब - पावर ऑफ़ सबकांशस माइंड - मैंने बहुत से ऐसे लोगों को गिफ़्ट की है जो हर समय बीमारी की बात करते थे. ऐसा मैने अपने उपर अनुभव के बाद ही किया है. किसी बड़ी बीमारी से सामना न हो, प्रभु से ऐसी कामना है, लेकिन छोटी-मोटी बीमारी के लिये मै इलाज़ से बचने का प्रयास करता हूँ. अभी तक ज़ीरो मेडिकल क्लेम के लिये उपर वाले का शुक्रगुज़ार हूँ. च्यवनप्राश, काली मिर्च, अदरक, मुलेठी, आदि से काम चलता रहे, और उसके आगे बाबा के नुस्खों पर भरोसा मुझे बीमारी को बीमारी मानने नहीं देता. 

मेरे एक मित्र जिन्होंने रिटायरमेंट से पहले कभी भी नियमित दिनचर्या का पालन नहीं किया. जर्मनी जाने पर उनके बेटे-बहू ने उन्हें दौड़ने के लिये प्रेरित किया. आज न वो सिर्फ़ अपनी फ़िज़िकल फिटनेस पर ध्यान दे रहे हैं, बल्कि मैराथन में भाग लेने यहाँ-वहाँ जाते रहते हैं. बहुत से भारतीय, जो यहाँ सिस्टम में फिट होने के लिये संघर्ष करते रहे, उन्होंने विदेशों में जा कर बहुत अच्छा परफॉर्म किया और उच्च पदों को शोभायमान किया. बहुत सी भारतीय विभूतियों को हम तब पहचान पाये जब उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गये. भ्रष्ट वातावरण में ईमानदार आदमी का सर्वाइवल कितना कठिन है, सब जानते हैं. देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को तो सब ख़त्म करना चाहते हैं, लेकिन व्यक्तिगत लाभ के लिये भ्रष्टाचारी का महिमा मंडन भी करते रहते हैं. जिस सिस्टम को हमने अपरिवर्तनीय मान कर स्वीकार कर लिया है, उसमें सर्व-गुण-सम्पन्न लोग ही फल-फूल सकते हैं. वातावरण बदलिये और देखिये फ़र्क हर जगह दिखायी देगा.  

जीवन के साठ वसंत देखने के बाद तथाकथित एक्सपर्टस् पर से मेरा विश्वास कम हुआ है. हर व्यक्ति अपने चश्मे अपने दृष्टिकोण से समस्या को देख रहा है. अंधों के हाथी की तरह, कोई पैर को खम्भा बता रहा है, तो कोई कान को सूप. बात तब बनेगी जब हाथी को समग्रता से आँख से पट्टी उतार के देखा जायेगा. भारतीय कृषि एक ऐसा ही हाथी है. हर एक्सपर्ट अपने-अपने तरीके से समाधान खोज रहा है, लेकिन समग्रता से कोई नहीं. देर से ही सही, मशीनीकरण, भण्डारण, प्रसंस्करण, जल व भूमि संरक्षण और कृषक आय सम्वर्धन की बात शुरू हुयी है. वृहद स्तर पर खेती को लाभप्रद बनाये बिना कृषि और कृषक का भविष्य अनिश्चित है. आवश्यकता है ये समझने की कि हमें शोध के लिये शोध करना है या समाधान के लिये. बात शुरू हुयी थी, G x E से. 'जीन' और वातावरण. ये प्रबुद्ध पाठकों को निर्णय लेना है कि सारे संसाधन (रेसोर्सेस) एक ही दिशा में झोंक देना किस हद तक सही है. आज सारी कहानी लाभ-हानि पर सिमट के रह गयी है. इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ रहा है. सिंचाई की परियोजनाओं से सिंचित क्षेत्र बढे हैं. भण्डारण व प्रसंस्करण के माध्यम से ग्रामीण आय में वृद्धि हुयी है. हमारा काम है, ईमानदारी से उचित वातावरण का निर्माण, बाकी प्रयास स्वतः ही अपना-अपना आकार लेते जायेंगे. व्यावसायिक विधि से खेती करने के लिये ब्राज़ील का मॉडल निश्चय ही अनुकरणीय है.

-वाणभट्ट

पुनश्च: निवेदन है कि इस लेख को पूर्व में लिखे लेख 'कृषि शोध - दशा और दिशा' की अगली कड़ी के रूप में देखा-पढ़ा जाये. जिसका लिंक है -

https://vaanbhatt.blogspot.com/2025/03/blog-post_31.html 

संयोग: आज हिन्दी दिवस पर इस लेख का लिखा जाना एक सुखद संयोग है.

शनिवार, 16 अगस्त 2025

कुत्ता प्रेम

कुछ लोगों को लेख के टाइटल से शिकायत होनी लाज़मी है. दरअसल सभ्यता का तकाज़ है कि कुत्ते को कुत्ता न कहा जाये. भले ही कुत्ता कितना बड़ा कमीना हो. आख़िर कुत्तों के भी कुछ मानवाधिकार हैं. उन्हें व्यक्तिवाचक सम्बोधन से बुलाना श्रेयस्कर है, जातिवाचक उद्बोधन उनके सम्मान को ठेस पहुँचा सकता है. इन परिस्थितियों में यदि उसने आपके दुर्व्यवहार से कुपित हो कर काट लिया तो आपको बुरा मानने का अधिकार नहीं है. 

आजकल जिस चैनेल पर देखो, डिबेट छिड़ी हुयी है, कुत्तों के पक्ष और विपक्ष में. धरती जब से क़ायम है, तब से द्वैत भी स्थापित है. इलेक्ट्रॉन है तो प्रोटॉन भी है. ज़मीन है तो आसमान भी है. स्थिर है तो चालयमान भी है. जीवन है तो मरण भी है. वाद-विवाद भी तभी होगा जब एक पक्ष सही को सही कहेगा और दूसरा उसी सही को गलत. दोनों ही सही को सही या ग़लत को गलत कहेंगे तो वाद-विवाद की गुंजाइश ही नहीं बचेगी. ऐसे में और कोई समस्या हो या न हो लेकिन लोग अपना बहुमूल्य समय कैसे काटेंगे, ये एक राष्ट्रीय चुनौती बन जायेगा. जिस देश में हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान भी सरकार द्वारा किये जाने की उम्मीद पाले बैठा हो, वहाँ सरकार को लोगों का समय कैसे कटे इसके लिये अध्यादेश लाना पड़ेगा. फिर उसके समर्थन और विरोध में चैनलों पर डिबेट होगी, पार्लियामेंट में गतिरोध होगा, सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी, अखबार में सुर्खियाँ बनेंगी और लोगों का समय कट जायेगा. जिनको भगवान ने दूरदृष्टि से नहीं नवाज़ा है, उनका आज कट जाये तो फिर कल की कल देखी जायेगी वाले एटीट्युड में उनका पूरा जीवन ही कट जाता है. 

कुछ लोगों का तो काम ही है विरोध करना. यदि आप खेत कहेंगे तो वो खलिहान की बात करेंगे. ऐसे लोग ही हैं जिनके कारण समाज में निरंतर कोई न कोई बहस चलती रहती है. उन्हें बहस खत्म करने की गरज नहीं है, बल्कि बहस-मुबाहिसा जारी रहे, बिना किसी स्वार्थ के उनकी बस इतनी सी ख्वाहिश रहती है. बहस खत्म हो गयी तो वो करेंगे क्या. क्या विधानसभा क्या लोक सभा. क्या कोर्ट क्या कचहरी. यदि बहस नहीं होगी तो बहुतों की नौबत फ़ाक़ाकशी की आ जायेगी. कुल मिला के ये कहा जा सकता है कि बहसबाजी का मुख्य उद्देश्य कंफ्यूजन क्रियेट करना है ताकि सही और गलत का निर्णय ना हो पाये. और सही इतना कन्फ्यूज हो जाये कि गलत के आगे आत्मसमर्पण कर दे. 

नौकरी के शुरूआती दिन थे. तनख्वाह कम थी और मकान किराये का. मकानमालिक रात नौ बजे गेट पर ताला लगा देता था. और विजय का मार्केटिंग का जॉब था. लौटने का कोई समय न था. मकानमालिक था भला आदमी. उसका व्यवहार पितृवत था. कभी भी उन्होंने गेट खोलने में कोई हुज्जत नहीं की. रात-बिरात जब भी उस घर का कोई सदस्य लौटे तो उनको पता होना चाहिये कि कौन कब लौटा और क्यों देर से लौटा. उस नियम के लपेटे में किरायेदारों को भी आना ही था. विजय बाबू की समस्या ये थी कि वो शहर में नये थे और गली के कुत्तों लिये बिलकुल अनजान. जब तक मकानमालिक गेट न खोल दे, गली के कुत्ते भौंक-भौंक के उसका जीना मुहाल कर देते. मार्केटिंग के बन्दों की यही खासियत उन्हें आरएनडी और प्रोडक्शन के लोगों से अलग करती है कि उन्हें दुनिया देखनी और झेलनी पड़ती है. जबकि बाकी सब अपनी कम्फर्ट ज़ोन में भी कम्फर्ट महसूस नहीं कर पाते. दिनभर की भागा-दौड़ी में विजय बाबू को रात में ही सॉलिड डिनर करने का मौका मिलता था. नॉनवेज के शौक़ीन थे. उन्होंने भोजन के अवशेष प्लेट में छोड़ने के बजाय पॉलीथीन में पैक कराना शुरू कर दिया. अब वही गली के कुत्ते देर रात तक दुम हिलाते हुये विजय के लौटने की बाट जोहते. ये कुत्तों की खासियत है, बोटी फेंको तो उनकी दुम में ब्राउनियन मोशन शुरू हो जाता है. 

जब से लोगों को पता चला कि श्वान को साधने से खतरनाक ग्रह सध जाता है तबसे लोगों का कुत्तों के प्रति अगाध स्नेह उमड़ पड़ा है. घर में श्वान पालना एक जिम्मेदारी वाला काम है. घर के मेम्बर की तरह उसका भी ख्याल रखो. खाना-पीना, दवा-दारु. इसमें खर्चा तो है ही लेकिन सबसे बड़ी समस्या सुबह-शाम टहलाने की है. नहीं टहलायेंगे तो डर रहता है कि जिन गद्दों और एसी कमरों में वो रहता है, वहीं गन्दगी न कर दे. बाहर टहलाने के चक्कर में दूर-दूर तक के मोहल्लों में दुश्मनी हो जाती है, सो अलग से. अपने मोहल्ले में टहलाओ तो पड़ोसियों से दुश्मनी होने की सम्भावना रहती है. और अच्छे-बुरे दिनों में पडोसी ही साथ देते हैं, इसलिये मोहल्ले में टहलाने का प्रश्न नहीं उठता. दूसरे मोहल्ले में जाओ तो उस मोहल्ले के लोग और कुत्ते वस्तुतः कुत्ता बना देते हैं. कुत्ता पालक अपने अन्दर के जानवर (कुत्ते) को न जगाये तो दूसरे मोहल्ले में टहल या टहला पाना कोई हँसी-मज़ाक नहीं है. 

जब गली में ढेर सारे लावारिस कुत्ते घूम रहे हों तो ग्रह शान्ति के लिये कुत्ते पालना कहाँ की समझदारी है. जब से लॉकर में घर की बहुमूल्य वस्तुयें रखी जाने लगीं हैं, चोरों को भी मालूम है कि घरों में कुछ नहीं मिलना. तो उन्होंने भी एटीएम उड़ाने और ऑनलाइन हैकिंग को अपना लिया है. ऐसे में सुरक्षा के दृष्टिकोण से कुत्ते पालना कतई उचित नहीं है. सड़क के कुत्तों का क्या है बस दिन में एक रोटी के चार टुकड़े कर के फेंक दो, उसी में दुम हिलाते रहते हैं. कुत्ते भले दस हों या बीस, रोटी एक ही निकलती है. हमने अपनी भूमिका निभा दी बाकी मोहल्लावासी भी तो अपना योगदान दें. आख़िर ये सुरक्षा तो सभी की करते हैं. भोजन कम मिलने के कारण सड़क के कुत्ते मालनरिश्ड हो गये हैं. दिन भर इधर-उधर पड़े गहन निद्रा में डूबे रहते हैं. निंद्रा इतनी गहन होती है कि जब तक स्कूटर-कार इनके सर पर न पहुँच जाये, ये हिलते नहीं हैं. दिन भर में हॉर्न की इतनी हॉन्किंग सुन लेते हैं कि आपके हॉर्न बजाने का इन पर कोई असर नहीं होता. लेकिन पालतू कुत्तों की तुलना में सड़क के कुत्तों में एक अच्छाई है. ये कभी घर के सामने या आस-पास गन्दगी नहीं फैलाते. पालतू कुत्ते सफ़ाई  पसन्द होते हैं और साफ़-सुथरी जगह पर ही निवृत होना पसन्द करते हैं. उनके मालिक भी जब साथ चलते हैं तो ये अन्दाज़ा लगाना मुश्किल हो जाता है कि कौन किसको टहला रहा है. कुत्ता चलता है तो ये चलते हैं, कुत्ता रुक जाये तो इनका सारा ध्यान उसके फ़ारिग होने की प्रक्रिया पर ही रहता है. भले ही वो ठीक आपके गेट के सामने हो. इसी चक्कर में मुझे पचीस हज़ार ख़र्च कर के सीसीटीवी लगवाना पड़ा ताकि कम से कम ये तो पता चल सके कि ये किस कुत्ते का काम है. 

मिश्र जी नहाने के लिये तौलिया लपेटे तैयार थे. एकाएक उन्हें याद आया कि गेट पर थोड़ी झाड़ू-बुहारू कर ली जाये. उसी अवस्था में वो झाड़ू ले कर गेट पर आ गये. गेट पर एक कुत्ता उनके ऊपर लपका, जिसकी तीव्रता को उन्होंने झाड़ू दिखा कर शान्त कर दिया. झाड़ू लगा कर वो नहाने घुस गये. नहा कर निकले ही थे कि कॉलबेल बज गयी. बाहर निकले तो पुलिस की गाड़ी खड़ी थी, जो उन्हें बैठा कर थाने ले गयी. किसी कुत्ता प्रेमी ने उनकी झाड़ू से कुत्ते को मारते हुये फ़ोटो खींच कर पुलिस में शिकायत कर दी थी. किसी तरह मामला निपटा कर मिश्र जी घर लौट तो आये पर रात भर दहशत में रहे कि कहीं कल के अख़बार में उनकी तौलिया पहने फोटो न आ जाये.

जब स्मार्ट वाच खरीद ही ली तो दस हज़ार स्टेप्स चलने की तमन्ना भी जागृत हो गयी. वाच पर पैसा ख़र्च किया था, तो घर से निकलना ज़रूरी हो गया. उन दिनों वाच नयी थी और उसका पैसा वसूलने के इरादे से जब भी मौका मिलता, मै सड़क पर होता. एक रात दस बजे मौका मिला. रूट थोडा लम्बा पकड़ लिया. ये एहसास जब हुआ तो विचार बना कि शॉर्टकट से निकल लिया जाये. रास्ता आधा हो जाता. गली में सन्नाटा पसरा था. स्ट्रीट लाईट्स जल रहीं थी. किसी प्रकार की कोई गतिविधि नहीं दिख रही थी. जल्दी वापस लौटने के इरादे से गली में 20-30 कदम ही बढ़ा होऊँगा कि एक मिट्टी का ढेर कुत्ते में तब्दील हो कर भौंकता हुआ मेरी ओर लपका. और देखते ही देखते और भी मिट्टी के ढेरों में जीवन आ गया. सर पर पाँव रख कर भागना क्या होता है, उस दिन मेरी समझ में आ गया. लम्बे रूट से भी जब तक घर नहीं पहुँच गया, दिल की धड़कन पर मेरा नियन्त्रण नहीं था. वो दिन है और आज का दिन, सुबह-दोपहर-शाम-रात जब भी टहलने निकलता हूँ, तो ढाई फ़िट की एक चमचमाती हुयी सुनहरे रंग की परदे की रॉड बैटन के रूप में मेरे हाथ में शोभायमान होती है. कुत्ता प्रेमी चमकती बैटन का उद्देश्य कुत्तों पर प्रहार के लिये कतई न समझें. ये इसलिये है कि कुत्तों को दूर से दिख जाये कि मेरे हाथ में कुछ है. पास आने पर कुत्ते ये न सोचें कि वर्मा जी भी कुत्तई कर गये. 

ये दुर्भाग्य ही है कि अल्पमत मुखर है और बहुमत शान्त. एक या दो प्रतिशत कुत्ता प्रेमियों की तुलना में कुत्ता पीड़ितों की संख्या बहुत ज्यादा है. लेकिन ये दो प्रतिशत लोग पूरे समाज को कुत्तों के प्रति दया का सन्देश दे रहे हैं. इनमें से अधिकांश माँसभक्षीयों का अन्य जीवों के प्रति पशु प्रेम नहीं उमड़ता. कुत्ता प्रेमियों से निवेदन है कि कुत्तों के मानवाधिकार के लिये बेशक नैशनल और इंटरनैशनल लेवल तक अवश्य लडें लेकिन उनके कल्याण के लिये कुछ करें. सिर्फ़ दिन में दो बार रोटी डाल कर कुत्ता प्रेम से मुक्त न हो जायें. उनके लिये शेल्टर होम बनायें. उनके भोजन, रहन-सहन, दवा-दारू का सम्पूर्ण ख्याल रखें. कुत्ता पीड़ित इस पुनीत कार्य के लिये, किसी प्रकार का धनावरोध नहीं आने देंगे. फिलहाल ये काम आप अपने घर के एक कमरे से आरम्भ कर सकते हैं. आपका प्रेम और हमारा जीवन दोनों सुरक्षित रहेंगे.

-वाणभट्ट

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

ब्रेन स्टॉर्मिंग

जब पुराने विचार चुक जायें

तो ज़रूरी है, ब्रेन स्टॉर्मिंग करायें


आउट ऑफ़ बॉक्स विचार न आ जायें

इसलिये घिसे-पिटे टाइम टेस्टेड

विचारकों को ही बुलायें

उनको मंच और माइक थमायें

मुशायरे की तर्ज़ पर 

मरहबा और मुकरर्र फरमायें


जब लोग वही पुराने होंगे

तो क्या ख़ाक नये फ़साने होंगे

वैसे भी समस्यायें जब वही हैं

लोग वही हैं, वही सोच है,

तो समाधान भी पुराने होंगे


उन्हीं को मथेगें, गढ़ेंगे कुछ नये शब्द

बनेंगे चैटजीपीटी पर पैराफ़्रेज़िन्ग से 

कुछ नये वाक्य

विचारों की आँधी में उड़ेंगे शब्दों के ग़ुबार 


चार दिन मन्थन के बाद

आँधियाँ बवंडर मचा कर

वापस लौट जायेंगी अपने दड़बों में


जब ग़र्द बैठेगी

तो काग़ज़ की चादरों पर 

करीने से शब्द बैठा दिये जायेंगे

जो दो-एक साल बाद फ़िर झाड़े जायेंगे


फ़िर होगी ब्रेन स्टॉर्मिंग इक अंतराल के बाद


- वाणभट्ट


वैदिक संस्कृति में मानवधर्म - एक समीक्षा

मुझे हमेशा से लगता था कि जीवन जीने की भी कोई कुन्जी (मेड ईज़ी या गाइड) पुस्तक होनी चाहिये थी. हर आदमी पैदा होता है, और अन्त तक बस दुविधा और स...