रविवार, 29 दिसंबर 2024

समाज सेवा

कोई पूछे कि आदमी क्या है? तो गुलज़ार साहब कहते कि आदमी बुलबुला है पानी का. अब हम गुलज़ार तो हैं नहीं, इसलिये पुराना घिसा-पिटा डायलॉग मार देते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. आजकल जिसे देखो बस यही सिद्ध करने में लगा रहता है कि समय बहुत बदल गया है. समय ही तो एक ऐसी चीज़ है जो पल प्रति पल नवीन है. उसे निरन्तर आगे बढ़ना और बदलना ही है. लोगों की ये टिप्पणी अमूमन समय को लेकर कम समाज को लेकर अधिक होती है. जब समय हर समय बदल रहा है, तो समाज का बदलना भी तय है. वो वैसा का वैसा कैसे रहेगा जैसे पहले था. लेकिन आदमी की आदत है, उसे या तो भूत में जीना है या भविष्य में. हर कोई जमाने से पता नहीं क्या-क्या उम्मीदें पाले घूम रहा है. उनकी बातों से लगता है - 'क्या से क्या हो गया' या 'ये कहाँ आ गए हम'. उनका पसन्दीदा विषय होता है कि क्या ज़माना हुआ करता था और अब क्या हो गया है. वाट्सएप्प पर स्टेटस ऐसा  लगाते हैं मानो समाज उनका उधार खा कर चुकता करना भूल गया हो. उन्होंने तो समाज को बचाने के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और ज़माना कृतघ्न निकला. भूतकाल की यादें संजोये कहेगा - जाने कहाँ गये वो दिन. जब आज की नयी पीढ़ी ने कन्चे और गुल्ली-डंडा खेला नहीं, देखा नहीं, जिन्होंने वीडियो गेम पर अपना बचपन गुजार दिया हो, उनको आपके 'हाय वो भी क्या दिन थे', से क्या ख़ाक सरोकार होगा. पुराने लोगों में भी, जिनका जीवन रईसी-जमींदारी, सुख-सुविधाओं में बीता हो, वो भले ही बीते हुये दिनों के लौटने की उम्मीद में ठंडी आहें भर सकते हैं. लेकिन जिनका जीवन त्रासदियों से जूझते बीता हो, वो कभी नहीं चाहेंगे कि कोई उनके बीते हुये दिन लौटा दे. 

भविष्य के नाम पर इनके पास, भारत के चीन, जापान, इजरायल और अमेरिका बन जाने के दिवा स्वप्न हैं. लेकिन उस विकास के पीछे जिस राष्ट्रवाद और त्याग की आवश्यकता होती है या होगी, उसकी आशा ये दूसरों से करते हैं. भगत सिंह हो तो पडोसी के यहाँ और अम्बानी हो तो हमारे यहाँ. और जब ये सोच ऊपर से नीचे तक हर आदमी की आत्मा तक में घुस गयी हो तो आज़ादी के सत्तर साल बाद आज हम जहाँ पहुँचे हैं, वो भी बहुत है. स्वार्थ का भाव हावी है. त्याग का अभाव सर्वत्र व्याप्त है. देश-समाज से ऊपर व्यक्तिगत स्वार्थ की अति के कारण ही भारत आज भी विकासशील देशों की श्रेणी में आता है. ये सभ्यता का तकाज़ा है, नहीं तो विकसित देश हमें बैकवर्ड (पिछड़ा) देश भी कह सकते थे. जैसे हमने अपने यहाँ एक छद्म अदर बैकवर्ड क्लास (ओबीसी वर्ग) बना रखा है, ताकि कुछ जातियों को लगता रहे कि वो पैदायशी फॉरवर्ड हैं और रहेंगे. हम उसे डेवेलपिंग क्लास भी कह सकते थे, लेकिन उससे उनमें हीनता के बोध में कमी आती है. हमें लगता है कि विकसित देश हमें विकासशील बोल कर हमारी इज्ज़तअफज़ाई कर रहे हैं. हमें ये खुशफ़हमी बनी रहती है कि कुछ भी हो इतनी विसंगतियों के बाद भी हम तरक्की कर रहे हैं. हमारा इतिहास तो हमेशा से गौरवशाली रहा है. और हम आसानी से आत्मश्लाघा के शिकार बन जाते हैं. लेकिन हमें ये नहीं समझ आता कि इस शब्द से उन्होंने डिक्लेयर कर रखा है कि भाई आज़ादी के सत्तर साल बाद भी ये विकासरत हैं, और अभी तक विकसित नहीं हो पाये हैं. इसे कहते हैं मखमल में लपेट के जूता मारना. 

हमने क्या सबने, बचपन से अब तक दुनिया को आगे ही जाते देखा है. देश ने तरक्की के नये-नये प्रतिमान गढ़े हैं. ऐसे में जब कोई बीते हुये दिनों को याद करता है, तो समझ आता है कि वो उस ज़माने की समाज में व्याप्त मानवीय मूल्यों और सद्भाव की बात कर रहा है. तब शायद नैतिकता और आदर्श कोरे शब्द नहीं थे और पूरा का पूरा समाज उन्हें जीने की कोशिश करता था. लोगों के पास समय की कोई कमी नहीं थी, इसलिए सबके साझे सुख और दुःख  के होते थे. तीज-त्यौहार सब मिलजुल के मनाते थे. समाज एक परिवार था और जीवन एक उत्सव. लेकिन भौतिक तरक्की, जो आज देखने को मिल रही है, तब वो न थी. ढाई सौ रुपये की सैलरी में पूरा परिवार पल जाता था. परिवार को कुनबा कहना ज़्यादा उचित होगा, क्योंकि उसमें दादी-बाबा, भाई-बहन, पत्नी-बच्चे सब शामिल थे. पास-पड़ोस और गाँव-देहात, एक्सटेंडेड फैमिली हुआ करते थे. आज ढाई लाख के पैकेज में ढाई प्राणी पल जायें तो गनीमत है. फिर आदमी कहता फिर रहा है, जमाना बदल गया है. 

तब समय की न कमी थी, न कोई पाबन्दी. प्रतिदिन प्रातः खेत-खलिहान का मुआयना करना शारीरिक आवश्यकता भी थी और मज़बूरी भी. कोयले की अँगीठी की आँच में माँ और दादी को खाना बनाते सभी पुरनिया लोगों ने देखा होगा. सुबह सवेरा होने से पहले चूल्हा जलाना और रात का खाना खत्म होने के बाद चूल्हे को मिटटी से लीपना अनिवार्य था. बिना नहाये किचन में प्रवेश वर्जित था. अँधेरा होने के बाद का जीवन, लालटेन और लैम्प के प्रकाश तक सीमित हो जाता था. बिजली के अविष्कार, उत्पादन और वितरण ने मानव विकास में अमूल्य योगदान दिया है. आज जब जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है तो आदमी पुराने झींगा-लाला वाले दिनों में पुन: लौट जाने की बातें कर रहा है. बहुत से अतिशिक्षित और सम्पन्न लोग, सारे विकास को तिलांजलि देकर खेती करने और जंगलों में झोंपड़े बनाने को तत्पर लग रहे हैं. निसन्देह तकनीकी विकास ने मानव जीवन को बहुत सुगम बना दिया है. किन्तु सामाजिक जीवन को भी नकारात्मक तरीके से प्रभावित किया है.

आदमी ने इतनी तरक्की की है, इतनी तरक्की की है कि क्या बतायें. जहाँ दहेज में रेडियो और साइकिल की डिमांड हुआ करती थी, अब वहाँ कोई एसयूवी से नीचे बात करने को तैयार नहीं हैं. मेट्रो ट्रेन हर शहर में चलायी जा रही है. ऊँची-ऊँची स्काई स्क्रैपर बिल्डिंग हर शहर में बन रही हैं. जगह जगह एक्सप्रेस वे बन रहे हैं. मानव श्रम को कम करने और शरीर के आराम देने के लिये आज ना-ना प्रकार के उपकरण और यंत्र उपलब्ध हैं. आदमी अपने शरीर को आराम देने के लिये इसलिये काम कर रहा है कि बहुत सारे पैसे के बिना सुविधाओं का अम्बार नहीं खरीद सकता. पैसा कमाने की होड़ सी लगी है. यहाँ तक भी बात समझ आती है कि आदमी अपनी इच्छाओं के लिये ही तो जीता है. लेकिन इसके बाद कहानी में ट्विस्ट है. कुछ समय बाद अन्जाने में एक-दूसरे से आगे निकल जाने की अन्धी दौड़ में शामिल हो जाता है. इंसान का जीवन आज से ज़्यादा सुखी और खुशहाल शायद पहले कभी नहीं था. लेकिन जब सब सुखी हो जायें तो आदमी ये सोच कर दुखी हो जाता है कि उसका सुख मेरे सुख से बड़ा कैसे. किसी वाट्सएप्प ज्ञानी ने फ़रमाया है कि आदमी अपने दुःख से नहीं दूसरों के सुख से दुखी है.    

एक जमाना था कि मेहनतकश लोगों ने 'आराम है हराम' का नारा दिया था. अब सब का ध्यान ऐशो-आराम की ओर रहता है. मेहनत-मजदूरी-किसानी करके जीवन-यापन तो किया जा सकता है लेकिन ज़िन्दगी का मज़ा लेना है, तो शरीर को आराम और दिमाग़ को काम पर लगाना पड़ता है. इसीलिये आज के संपन्न व्यक्ति को खाना कमाने के लिये कम और पचाने के लिये ज्यादा मेहनत (शरीरिक श्रम) करनी पड़ रही है. स्वीगी-जोमैटो-ब्लिंकिट-अमेज़न जैसी कम्पनियाँ सिर्फ़ इसलिये फल-फूल रहीं हैं कि आदमी को आराम चाहिये. पूरा बाज़ार आपके फ़िंगरटिप पर मौज़ूद है, आपको बाजार जाने और सामान लाद के लाने तक की जहमत भी नहीं उठानी. 

सत्तर साल में घिसी-पिटी सत्ता लोलुपता वाली राजनीति भी धीरे-धीरे करके बदल चुकी है. नेताओं को भी मालूम हो गया है कि काठ की हांडी अब जल के कोयला बन गयी है. जनता भी अब अपने मतलब की सूचनाये इंटरनेट और मीडिया चैनेल्स से खोज लाती है. तरक्की की जो बयार पिछले सालों में चली है, उसे देख कर कभी-कभी लगने लगता कि इससे ज्यादा अच्छे दिन भला और क्या हो सकते हैं. हाँ, ये उन नेताओं और पार्टियों के दुर्दिन ज़रूर हैं, जो पुराने ढर्रे की लॉलीपॉप वाली राजनीति करना चाहते हैं. गरीबी हटाते-हटाते वो कब अरब-खरब पति बन गये, उन्हें खुद पता नहीं चला. कितने ही जनप्रतिनिधि जनता के पैसों का सदुपयोग (दुरूपयोग) करते हुये, फ़ुटपाथ से महलों में पहुँच गये. इस क्रान्ति को उन्होंने सामाजिक न्याय की संज्ञा से अलंकृत किया. आज सत्ताच्युत होने के बाद उनके पास अपने शासनकाल के स्वर्णिम दिनों को याद करते रहने के अलावा कोई चारा नहीं है. ये लोग समाजवाद  की परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिये इस कदर लालायित और आतुर हैं कि बस मुग़लकाल की पुनर्स्थापना का संकल्प ही उनके चुनावी घोषणापत्र में शामिल होने से बाक़ी रह गया है. अगले चुनाव में वो इस कमी को भी दूर करने का भरसक प्रयास अवश्य करेंगे.

सरकार चाहे कितना भी प्रयास कर ले, कितनी ही विकास की योजनायें बना ले, देश तो तभी उन्नति करेगा, जब जनता को ये एहसास होगा कि विकसित राष्ट्र के लिये सभी को योगदान देना होगा. नियम कानून तो हर देश में होते हैं ताकि समाज में सभी को समान सुरक्षा और अधिकार मिल सकें. वो देश और समाज आगे निकल गये, जहाँ इनका अनुपालन सुनिश्चित किया गया. समाज द्वारा स्वीकार्य कुछ मैनर्स और एटीकेट्स ने परस्पर व्यवहार को भी निर्धारित किया. तभी वो देश, सभ्य, सुसंस्कृत और विकसित देशों में शुमार हुआ. कलाम साहब ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि हिंदुस्तानी जिस तरह सिंगापुर में व्यवहार करता है, वैसा ही व्यवहार भारत में करने लग जाये, तो भारत को सिंगापुर बनने में देर नहीं लगेगी. लेकिन 70 सालों में हमें लोकतंत्र द्वारा प्रदत्त फ़ुल फ्रीडम का आनन्द लेने की आदत पड़ चुकी है. 'रूल्स आर फ़ॉर फ़ूल्स' को ब्रह्मवाक्य मनाने वाली व्यवस्था में सबको लगता है कि हमने कोई देश या समाज सुधार का ठेका तो ले नहीं रखा. जब सारा देश सुधर जायेगा तो हम भी सुधरने की सोचेंगे.  

इसमें भी कोई शक नहीं कि देश की तरक्की और खुशहाली दोनों के लिये काम करना ही पड़ता है. काम है तो पैसा है, पैसा है तो आलिशान ज़िन्दगी है और आलिशान ज़िन्दगी है तो खुशहाली है. लेकिन इन सबके पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण लिमिटिंग फैक्टर है, वो है समय. जब आप तरक्की की रेस में दौड़ रहे हैं, तो समय का अभाव उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है. उसे तो न आप घटा सकते हैं, न बढ़ा. हर एक के पास एक दिन में चौबीस घंटे ही हैं. उसी में आपको काम भी करना है और, सामाजिकता को भी बनाये और बचाये रखना है. पैसा तो काम का बाई-प्रोडक्ट (उप-उत्पाद) है. जिसे देखिये बहुत सा पैसा कमाने के उद्देश्य से दिन-रात काम कर रहा है. इसलिये प्रत्यक्ष रूप से देशप्रेम भले ही नेपथ्य में चला गया हो लेकिन विकास सर्वत्र दिखायी देने लगा है. इसी प्रकार यदि सब काम करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हम स्वयं को विकसित राष्ट्र डिक्लेयर कर दें. अपनी पीठ ख़ुद ही ठोंकनी पड़ती है. दूसरों से अप्रूवल लेने की आदत भी बदलने की ज़रूरत है. चाहे हम कितने भी विकसित हो जायें, एक चीज़ की कमी तो रहेगी. वो है समय की.

समय भी एक पूँजी है. लेकिन जब हर कोई धनोपार्जन के लिये व्यस्त से व्यस्ततर होता जा रहा है, तो कोई किसी को समय कैसे दे पायेगा. नतीजा आज आदमी में जैसा एकाकीपन का भाव देखने को मिलता है, वैसा कभी नहीं रहा. मनुष्य हमेशा से एक सामाजिक प्राणी रहा है. किन्तु व्यक्तिगत उत्थान के चक्कर में वो समाज की अनदेखी करता चला गया. जब सब के सब अपने-अपने स्तर पर समृद्ध हैं, तो दुखी रहने की कोई वजह दिखती है तो वो है भावनाओं की अभिव्यक्ति की कमी. जब सब अपनी सुनाने  और दिखाने में लगे हैं तो किसे फुर्सत है कि आपकी सुने या देखे. यही कारण है कि इतनी समृद्धि के बाद भी आदमी जीवन का मर्सिया पढ़े जा रहा है. उन पुराने दिनों को याद करके दुखी हो रहा है, जब यार-दोस्त तो बहुत थे और जीवन की आपा-धापी न थी. अकेलापन एक महामारी बन के उभरा है. शायर जाफ़र अली से गुस्ताखी की मुआफ़ी के साथ शेर में थोडा संशोधन कर के प्रस्तुत कर रहा हूँ. 'तुम्हें अपने से कब फुर्सत, हम अपने ग़म से कब खाली, चलो बस हो चुका मिलना, न हम खाली, न तुम खाली'. 

सशरीर मिलने के लिये समय चाहिये जो किसी के पास है नहीं (विशेष रूप से जब आप पीते-पिलाते न हों). चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इस नाते तकनीकी जगत ने कुछ विकल्प प्रस्तुत किये. जिसमें फ़ेसबुक, वाट्सएप्प, इन्स्टाग्राम आदि-इत्यादि प्रमुख हैं. लेकिन समय का चक्र देखिये, नौबत यहाँ तक आ गयी है कि समाज के नाम पर सोशल मिडिया ही बच गया है. जब सब बिज़ी हैं तो समय किसके पास है. और इतना ही काफी नहीं है. अगर हम बिज़ी हैं तो लोगों को बिज़ी लगना और दिखना भी चाहिये. पहले फ़ेसबुक पर आपने पोस्ट चेपी नहीं कि लाइक और कमेंट्स की झड़ी लग जाती थी. और ये एक सोशल ऑब्लिगेशन हो जाता था. यदि आपने मेरी पोस्ट लाइक की तो मेरा भी दायित्व था कि आपकी पोस्ट को लाइक करना. एक हाथ दे तो एक हाथ ले. अपने को बिज़ी दिखाने के चक्कर में लोगों ने पोस्ट्स पर कमेन्ट देने कम कर दिये. बाद में कुछ इमोजी और लाइक्स से काम चलाने लगे. अब तो हालात ये हैं कि हज़ार लोगों की फ्रेंड लिस्ट में व्यूज़ भले पाँच सौ पहुँच जायें, लेकिन कमेन्ट चार-पाँच और लाइक पचीस मिल जायें, तो गनीमत समझिये. देख तो सब रहे हैं लेकिन कोई दिखाना नहीं चाहता कि वो देख रहा है. ऐसा मै अपने वृहद सोशल मिडिया अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ. फ़ेसबुक का उपयोग मै लोगों के जन्मदिन के रिमाइंडर की तरह करता आया हूँ. और मेरा अनुभव कहता है कि जब भी किसी को मैंने व्यक्तिगत विश या कमेन्ट किया है, उसका जवाब आया है. यानि बन्दा देखता तो है लेकिन दिखाता है कि देख नहीं रहा है. यही हाल डिजिटल सामाजिकता के दूसरे स्तम्भ वाट्सएप्प का है. लोग रीड रिसिप्ट ऑफ़ करके इस सुविधा का भरपूर आनन्द ले रहे हैं. आपको पता ही नहीं चलेगा कि किसने आपकी पोस्ट देखी, किसने नहीं. 

मेरा सोशल मिडिया अनुभव ये भी कहता है कि मानव जीवन में कभी भी इतना एकाकीपन नहीं था, जितना तकनीकी क्रान्ति ने उसे अकेला कर दिया है. जब हम पच्चासी इंच का टीवी खरीदेंगे और विभिन्न ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के लिये पैसा खर्च करेंगे, तो उसे वसूलना भी तो पड़ेगा. इसके लिये घर में रहना ज़रूरी है. जिसको सामाजिक भाईचारा निभाना हो उसे मेरा टीवी देखना पड़ेगा. लेकिन उसे भी तो अपने पचहत्तर इंच के टीवी का पैसा वसूलना है. न हम खाली न तुम खाली वाली बात है. कभी कभी लगता है कि मुझे भी दिखाना चाहिये कि मै भी बहुत बिज़ी हूँ. इसका बस एक ही तरीका है की सोशल मिडिया से किनारा कर लिया जाये. मेरे गुड मोर्निंग या बर्थडे विश करने से किसी को भला क्या ही फ़रक पड़ता होगा. पिछले साल की तरह मैंने इस साल भी सोशल मिडिया से दूर रहने का संकल्प लेने की सोच ही रहा था कि एक देववाणी हुयी - 'वत्स तुम जो कर रहे हो उसे निष्काम भाव से करते जाओ. देश को तुम्हारे जैसे लोगों की महती आवश्यकता है जो लोगों के एकाकीपन के एहसास को कम करने के प्रयास में लगे हैं. ये भी एक प्रकार की समाज सेवा है'. 

यदि आप वाकई चाहते हैं कि कोई आपके काम में ख़लल न डाले तो इन प्लेटफॉर्म्स में अन्फ्रेंड और ब्लॉक करने के ऑप्शंस भी हैं. अब देववाणी तो मै टालने से रहा. आप अपना देख लीजिये.  

-वाणभट्ट

रविवार, 8 दिसंबर 2024

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के विभिन्न पहलू इस विषय का मुख्य आधार होते थे. लेखक प्रायः समाज में व्याप्त विषमताओं को रेखांकित करते हुये, एक काल्पनिक समाज की परिकल्पना करता था, और लेख मानव मात्र के कल्याण के भाव से समाप्त होता था. इस विषय पर यदि मंचन होता तो तालियाँ बजती थीं और यदि फिल्म बन जाये तो उसके हिट होने की प्रबल सम्भावना होती थी. कारण भी यूँ ही नहीं था, यथार्थ सदैव आदर्शवादी कल्पनाओं से कोसों दूर होता है. जब मन मोहन देसाई की फिल्मों में अमिताभ समाज के असामाजिक तत्वों को ठिकाने लगता था तो हॉल सीटियों से गूँज जाता था. कुछ घंटों के लिए ही सही, आम आदमी अपने ऊपर हुये अन्याय पर प्रतीकात्मक विजय से खुश हो लेता था.    

मूल रूप देखा जाये तो मनुष्य के सामाजिक जीवन का आरम्भ भी कृषि के विकास के साथ ही हुआ होगा. उसके पहले तो वो भी अन्य वन्य जीवों की तरह भोजन की खोज में इधर-उधर घूमता रहता था. बुद्धि तो पहले भी अन्य प्राणियों से अधिक थी, इसलिये उनको अपना भोज्य बना लेना सबसे सरल और सहज था. पाषाण युग में पत्थरों के अस्त्र बना कर उनका शिकार करना भी सीखा होगा. सम्भवतः आरम्भ में मांसाहार ही उसका मुख्य ऊर्जा स्रोत रहा हो. निरंतर प्रकृति के सानिध्य में रहने के कारण धीरे-धीरे उसके वनस्पति ज्ञान में वृद्धि हुयी हो और फल-फूल उसके भोजन में सम्मिलित हुये होंगे. समय के साथ उसने घुमन्तू जीवन से त्रस्त होकर स्थायी निवास का निर्णय लिया हो. इसीलिये कृषि को सबसे पुराना उद्यम माना जा सकता है. जंगल काट कर खेत बनाये गये होंगे. पानी के बिना कृषि संभव नहीं है, इसीलिए अधिकांश सभ्यताओं की स्थापना नदियों के किनारे ही हुयी. कृषि किसी भी समाज की मुख्य धुरी रही होगी और उसी के आस पास समाज बना होगा। समाज है तो उसके कुछ अनुशासन, कुछ रीति, रिवाज और मान्यतायें बनी होंगी. हज़ारों साल के मानव इतिहास का आरम्भ समाज से ही हुआ होगा. उसके बाद का इतिहास एक सभ्यता का दूसरी सभ्यता पर श्रेष्ठता और नियंत्रण स्थापित करने का इतिहास है. समाज है तो उसकी वर्जनायें भी अवश्य रही होंगी. एक-दूसरे पर अधिपत्य और अधिकार का प्रयास जो आज देखने को मिलता है, वो पहले भी रहा होगा. मुखिया और पंचों, नियम और कानून, पुरस्कार और दण्ड की आवश्यकता ही न होती, यदि समाज में समानता, समरसता और सद्भावना होती.

पहले योग्यता के आधार पर राजा का चयन होता रहा होगा, बाद में वो परिवारवाद में परिवर्तित हो गया हो. राजा का बेटा राजा. परिवर्तन जीवंत समाज का लक्षण है. राजशाही का जब बोझ प्रजा की सहनशक्ति की सीमा के बाहर हो गया होगा, तब लोकतंत्र और प्रजातंत्र की ओर समाज का ध्यान गया होगा. जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिये. मुख्य बात ये है कि राजशाही रही हो या प्रजातंत्र, दोनों में ही वर्चस्व की लड़ाई है. पहले जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत थी. लाठी तो अब भी काम आती है, बस उसके प्रयोग का तरीका बदलता गया है. एक समय ऐसा भी आया जब मजबूत लाठी वाले ज़्यादा से ज़्यादा भैंस को हाँक ले जाते थे. फिर लाठी का जोर जब कम होने लगा तो उन्हीं लठैतों ने समाजवाद का चोला पहन कर भैंसों को चारा डालना शुरू कर दिया. हालात ये हैं कि चारे के चक्कर में भैंसों को आज भी पता नहीं कि उन्हें दुह कौन रहा है. 

भैंसों और आदमी के समाज में अंतर है. भैंसों को सिर्फ़ चारे से मतलब है, उनके लिये जाति-धर्म का कोई मलतब नहीं है. लेकिन आदमी के मामले में ऐसा नहीं है. उसका रंग और नस्ल और धर्म और जाति के आधार पर वर्गीकरण किया जा सकता है. अब चूँकि आदमी सोच भी सकता है, तो उसे हर समय इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि उसका व्यक्तिगत लाभ किधर है. इस प्रक्रिया में न उसे देश का ध्यान रहता है, न समाज का. यदि पक्ष और विपक्ष दोनों ही देश कल्याण की कामना करते हैं, जब दोनों का उद्देश्य समाज सेवा ही है, तो उनकी कार्य पद्यति में इतना विरोधाभास और अन्तर क्यों देखने को मिलता है. राजनीति कोई व्यवसाय तो है नहीं कि उसी से रोजी-रोटी चले. सेवा करने का ऐसा जज़्बा और जूनून देश के नेताओं में ही देखने को मिलता है कि लगता है इन्हें सेवा का अवसर नहीं मिला तो ये बेचारे करेंगे क्या. भारत में नेतागिरी और राजनीति फ़ुल टाइम जॉब है. एक बार विदेश से कोई डेलिगेशन आया. उसमें वहाँ के किसी मंत्री ने हमारे मंत्री जी से पूछा आप करते क्या हैं. उनका इंस्टैंट जवाब था - नेता हैं, और क्या करना है. फिर उस विदेशी नेता को स्पेसिफ़िकली पूछना पड़ा कि जीवीकोपार्जन के लिये क्या करते हैं, तो उनका जवाब था - नेतागिरी. 

आज लोकतंत्र जब अपने चरम पर है तो समाज का वही राजशाही स्वरूप देखने को मिल रहा है. पक्ष हो या विपक्ष सभी नेता दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहे हैं. उद्योगपति और नौकरशाह सब चकित-व्यथित हैं कि बिना हर्र और फिटकरी के मात्र समाज सेवा से कैसे धनकुबेर बना जा सकता है. वो ये भूल जाते हैं कि हमारे पूर्वजों ने पहले ही बता रखा है कि सेवा करोगे तो मेवा मिलेगा. सम्भवतः ये उन्होंने अपने बच्चों के लिये कहा हो कि यदि जायजाद में हिस्सा चाहिये तो सेवा करते रहना. उनकी सोच एक परिवार तक सीमित थी. हमारे नेता पूरे देश को एक परिवार मानते हैं. पूरे देश की संपत्ति उनकी अपनी है, इसलिये वो समस्त देश की सेवा करने को तत्पर रहते हैं. और इनके लिये देश की जनता ही माई-बाप है. अतः उनकी सेवा करना इनका जन्मसिद्ध अधिकार है और अपने अधिकार का पालन करने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता. 

लेकिन 'चैरिटी बिगिन्स ऐट होम' के यूनिवर्सल लॉ को मानने वाले पहले अपना, फिर अपने परिवार के उद्धार में लग जाते हैं. फिर उन्हें चिन्ता होती है, अपनी बिरादरी, अपने समाज की. समाज भी देखता है कि जिसमें लंपटइ के सारे गुण हैं वो ही नेता बन कर उनका कल्याण कर सकता है. नेता उन्हें समझाता है कि बिना पद के नेतागिरी बस इंवेस्टमेंट है, कर कुछ नहीं सकते. इसलिये संगठित रहना आवश्यक ताकि कोई बड़ी पार्टी उन्हें टिकट दे. बड़ी पार्टी भी समाज पर उसकी पकड़ और संख्याबल देख कर ही नेता पर दाँव लगाती है. नतीजा जितने समाज, जितनी जाति, उतने नेता. हर नेता अपने अपनों के उत्थान के लिये प्रतिबद्ध. अपने समाज के पिछड़े, शोषितों और वंचितों के लिये न्याय की लड़ाई लड़ते-लड़ते कब वो धनपतियों (धनपशुओं) की श्रेणी में आ जाते हैं, उन्हें स्वयं पता नहीं चलता. इस प्रक्रिया में समाज का भला होता है या नहीं, ये तो पता नहीं, लेकिन देश का नुकसान अवश्य हो जाता है. समाजों में बँटे लोग न अपने भले की सोच पाते हैं, न देश के. इस मामले में भैंसों का सिक्स्थ सेंस मनुष्यों से बेहतर है, क्योंकि वहाँ जातिगत विद्वेष नहीं है. न ही किसी की किसी के उपर राज करने की इच्छा. शायद इसीलिये आदमी अन्य जीवों से अलग है. किन्तु दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के प्रयास में आदमी-आदमी से अगल होता चला जाता है. फिर नेता लोग उन्हें जोड़ने में लग जाते हैं ताकि लोग जुड़े या न जुडें उनका वोट बैंक जुड़ा रहना चाहिये. 

आज जब समाज इतने हिस्सों में बँट गया है कि कभी-कभी लगने लगता है कि मनुष्य में समाजिकता के ह्रास यही मुख्य कारण है. यदि इन्सान का इन्सान से भाईचारा हो तो किसी और चारे की आदमी को ज़रूरत नहीं है. समाज में जब लोगों के सम्बंधों का आधार जाति और संप्रदाय तक सीमित हो गया है, तो आज़ादी के पचहत्तर साल बाद जिस भारत का स्वप्न हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देखा होगा, वैसा भारत नहीं दिखता. ये निश्चय ही चिंतन का विषय है. पहले बुद्धिबल की श्रेष्ठता से मनुष्य, मनुष्य पर राज करता था, आज उस पर धन-समृद्धि का तड़का भी लग चुका है. समृद्धता के तड़के ने समाज को जोड़ने से अधिक तोड़ने का काम किया है. समृद्धि के पीछे निश्चय ही लोगों के व्यक्तिगत प्रयास से रहे हों, किन्तु पहले ये समृद्धता परिवार की होती थी, समाज की होती थी, आज ये व्यक्तिगत हो गयी है. अहं और मै तत्व इतना हावी है कि लोग भूल जाते हैं कि उनके बनने-बनाने में उस समाज का भी कुछ न कुछ योगदान रहा है, जिसमें वो पला-बढ़ा है. 

आज लोग सामाजिक, चारित्रिक और राजनैतिक पतन की ऐसे बात करते हैं, जैसे वो स्वयं समाज से अलग हैं. नेता भी समाज से आते हैं और जैसा समाज होगा, वैसे ही लोगों को अपना नेता चुनेगा. जब सब तरफ समाज में गिरावट देखने को मिल रही है, तो ऐसे में  लम्पट, स्वार्थी और निरंकुश नेताओं से समाज सुधार की आशा करना कहाँ की समझदारी है. किन्तु दुनिया आशा पर ही टिकी है. सबकी उम्मीद है कि कुछ भी हो अपना नेता अपने लोगों का ख्याल तो रखेगा ही. उसे ये किंचित भान नहीं है कि वो जिस नेता के पीछे चल रहा है, उसका मूल उद्देश्य अपने और अपने परिवार-खानदान की बेहतरी पहले है. आज यदि समाज पर लेख लिखा जाये तो बहुत सम्भावना है कि छात्र लिखें कि मनुष्य एक व्यक्तिगत प्राणी है, और मौका पा कर अपने स्वार्थ या लाभ के लिये कभी-कभी सामाजिक हो जाता है. विशेष रूप से मनुष्य जब सफलता के शीर्ष पर जब पहुँच जाता है तो एकदम से व्यक्तिगत हो जाता है. और किसी प्रकार की समस्या आने पर पुन: सामाजिक बनने का प्रयास करता है. संयोग से समाज में अभी भी सहृदय लोगों की कमी नहीं है, वो इनकी सहायता को तत्पर रहते हैं. समस्या के निकलते ही बन्दा पुन: व्यक्तिगत हो जाता है. कई बार तो उसे ये भी कहते सुना जा सकता है कि उसने समस्या को कैसे स्मार्टली मैनेज किया. ऐसा नहीं है कि समाज में अच्छे लोगों या स्वार्थरहित समाजसेवियों की कमी है, लेकिन अमूमन ये लोग नेपथ्य में रह कर अपना कार्य करते रहते हैं. ऐसे लोग प्रायः राजनीति से दूर भी रहते हैं.

मनुष्य चाहे कितनी भी भौतिक प्रगति कर ले, लेकिन मूलरूप से है तो सामाजिक तो प्राणी ही. अपने सुख और दुःख को साझा किये बिना उसे भला चैन कहाँ. मजबूरी ये है कि जो समाज अगल-बगल रहता है, उससे तो वो जाति-धर्म-आर्थिक-राजनैतिक अंतरों के कारण कट गया है. अब चूँकि सभी सक्षम और समृद्ध हैं, तो किसे फुरसत है कि दूसरे के सुख-दुःख की परवाह करे. पहले पूरा मोहल्ला चाचा-मामा-ताऊ-बाबा होता था. कभी-कभी लगता है कि हममें जो थोड़ी बहुत संस्कार नाम की चीज़ बची है, उसमें घर वालों से ज्यादा पड़ोसियों का योगदान है. चूँकि पड़ोस एक परिवार की तरह था, तो पड़ोसी भी अभिवावक की तरह ही व्यवहार करते थे. जितना पड़ोस के चाचा जी लोगों ने कूटा होगा उतना तो पिता जी ने टोका भी नहीं होगा. अब न पड़ोसी का बच्चा चाचा मानता है, न चाचा बच्चे को टोकने की हिम्मत कर पाते हैं. हमारी पीढी ने तकनीक के कारण लोगों को अलग अलग होते देखा है. टीवी के आने से पहले, पिता जी लोग शाम को किसी न किसी के यहाँ जाते थे या कोई न कोई हमारे घर आता था. मोहल्ले में जब पहला टेलीफोन या टीवी आया तो वो पूरे मोहल्ले का था. जिसके यहाँ लगता तथा वो दूसरों को बुलाये बिना न चित्रहार देखता था, न रामायण. सबके यहाँ साइकिल थी, सबके सपने स्कूटर तक ही सीमित थे. 

जब से तकनीक ने घर में प्रवेश किया, तो लोगों का घर से निकलना कम से कमतर होता गया. आज घर में जितने सदस्य उतने टीवी हैं, और उससे कहीं ज्यादा टीवी चॅनेल्स और ओटीटी प्लेटफ़ॉर्मस् हैं. चूँकि कुछ भी फ़्री नहीं है इसलिये पैसा वसूलने के उद्देश्य से आपको टीवी पर समय बिताना मजबूरी बन चुकी है. मोबाइल डाटा का भी पैसा लगता है. इसलिये आदमी की विवशता है कि उसका भी उपयोग करे. अब डाटा और टॉक टाइम तो अनलिमिटेड है लेकिन बात करने के मुद्दे ख़त्म से होते जा रहे हैं. शुरुआत में जब टॉक टाइम फ्री हुआ था तो लोग दिन में दस बार यार-दोस्तों-सम्बन्धियों के हाल लेते थे. अब लगता है कि ज्यादा आत्मीयता दिखायी तो अगला पूरा वेला (खलिहर) न समझ ले. इसलिये व्यस्त रहने से ज्यादा व्यस्त दिखाना ज़रूरी है. लोगों ने कॉल करना छोड़ दिया. एक समय था जब टेलीमार्केटिंग वालों ने जीना मुहाल कर रखा था. दिन में पचासों फोन आते थे कि ये ले लीजिये, वो ले लीजिये. हमने परेशान हो कर ऐसे नम्बरों पर डीएनडी (डू नॉट डिस्टर्ब) लगा दिया. अब स्थिति ये है कि दिन और महीने गुजर जाते हैं, किसी का काम हो तो ही कोई फोन आता है. हम भी ये सोच कर फोन नहीं करते कि अगला व्यस्त है तो क्या डिस्टर्ब करना. सोच रहा हूँ कि फिर से डीएनडी हटा दूँ ताकि दिन में दो-चार बार आदमी की आवाज़ सुन सकूँ. 

कुछ दिन सभी को सोशल मिडिया का शौक चर्राया. फिर यहाँ भी पैमाने बनने लगे. देखो कितना खाली है दिन भर सोशल मीडिया पर लगा रहता है. वाट्सएप्प वालों को तो यूजर्स चाहिये, सो उन्होंने भी नये-नये प्रावधान कर दिये. ताकि लोग बिना किसी आत्मग्लानि, संशय और संकोच के उसका उपयोग कर सकें. सो इसमें रीड रिसिप्ट और लास्ट लॉग इन डिसेबल के ऑप्शंस भी जोड़ दिये गये. लोगों ने इन फीचर्स को हाथों हाथ लिया. अब आपको पता नहीं चलेगा कि हमने आपकी पोस्ट देखी या स्टेटस देखा है या नहीं. कुछ ऐसा ही हाल फेसबुक का है. लोग आते हैं और फेसबुक पर आपका वीडियो देख कर निकल जाते हैं. नतीज़ा व्यूज़ तो सैकड़ों में होते हैं लेकिन लाइक और कमेन्ट दस भी पहुँच जायें तो आप अपने आप को सोशल मान सकते हैं. आजकल जिसे देखो वो इन्स्टा(ग्राम) का उपयोग कर रहा है, शायद वहाँ प्राइवेसी अधिक है. हमने आपकी पोस्ट देखी भी और आपको पता ही नहीं चला कि हमने देखी. आपको तो ये ही लगेगा कि बंदा इतना बिज़ी है कि सोशल मिडिया पर भी सामाजिक होने का समय नहीं है तो फिर वो फिज़िकली होली और दिवाली मिलने आपके घर कैसे आ सकता है. वो आता है और पूरी प्राइवेसी के साथ आपकी पोस्ट-स्टेट्स देखता है और बिना कोई निशान छोड़े निकल लेता है. ऐसे ही लोगों के लिये ग़ालिब ने शेर लिखा था-

अंदाज़ अपने देखते हैं आईने में वो 

और ये भी देखते हैं कोई देखता न हो 

मुझे मालूम है कि ये शेर ग़ालिब का नहीं है. लेकिन जब लोग कमेन्ट में बतायेंगे कि ये शेर ग़ालिब का नहीं है तो मुझे पता चल जायेगा कि कौन-कौन इतना वेला है कि इतनी लम्बी वाहियात पोस्ट पढ़ गया और किसने-किसने मेरी पोस्ट देख ली है.

-वाणभट्ट

रविवार, 27 अक्टूबर 2024

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म योग सिखाता हो, वहाँ यम-नियम के नाम से ही बड़े-बड़ों की हवा निकल जाती है. इसलिये वो कर्म काण्ड को लक्ष्य करके मूल धर्म पर आघात करने से नहीं चूकते. समाज में सदियों से व्याप्त जड़ता, अंधविश्वास और कुप्रथाओं को हिन्दू धर्म से जोड़ कर शिक्षित लोग-बाग स्वयं को नास्तिक कहलाना अधिक पसन्द करते हैं. कर्म के आधार पर बनी गतिशील जातिगत व्यवस्था को नवशिक्षित लोगों ने जड़ मान कर धर्म परिवर्तन का आधार बना लिया. विश्व में हिन्दू ही ऐसा एक मात्र धर्म है, जिसमें कर्म के अनुसार वर्ग-वर्ण-जाति बदलने की व्यवस्था है. लेकिन कर्म करना कठिन, श्रमसाध्य और दुष्कर है. इसकी अपेक्षा व्यवस्था को दोष देकर धर्म बदलना बहुत आसान है. उसके पीछे कहीं न कहीं मानव जीवन को भोग-विलास के लिये उपयोग करना मूल कारण दिखायी देता है. बड़े भाग्य से मानव जीवन मिला है तो क्यों न थोड़ा भोग-विलास कर लिया जाये. स्वर्ग में जा कर तो हवन-पूजन करना ही है. बाकि सबके लिये इस और उस जीवन में ऐश की सम्भावना है. मूल रूप से भारत में विकसित सभी धर्म करुणा और त्याग पर आधारित हैं. वैसे संप्रदायों को धर्म मनाना भी एक हिसाब से गलत ही है. धर्म बदला नहीं जा सकता. सम्प्रदाय कितने भी बदल लीजिये. धर्म शाश्वत, सार्वभौमिक और अपरिवर्तनीय है. 

ज्ञान की प्राप्ति के लिये भारत वर्ष में ब्रह्मचर्य और अनुशासन पर बहुत बल दिया गया है. तभी हमारे पूर्वज, ऋषि-मुनि, गणित या ग्रह-नक्षत्रों की गणना में विश्व में अग्रणी रहे. ये बात अलग है कि हमारे ही अँग्रेजी में साइंस पढ़े लोग उन्हें वैज्ञानिक मनाने को तैयार नहीं हैं. विज्ञान की किसी भी आधुनिक विधा का आप नाम लीजिये, उसका वर्णन वेद और पुराणों में मिल जाता है. हमारा भू, हमेशा से गोल रहा है. किसी प्रकार का कोई संशय नहीं कि धरती गोल है या चपटी. 'यथा पिण्डे, तथा ब्रह्मंडे'. उनका ज्ञान परमाणु की संरचना से लेकर ब्रह्मांडीय गतिविधियों से अनभिज्ञ न था. शायद इसलिये पश्चिमी देशों में हुयी अधिकांश खोजें अंग्रेजों के भारत में पदार्पण के बाद हुयी. लुटेरे मुग़ल का ध्यान बस ख़जाना लूटने तक सीमित रहा. अंग्रेज़ों ने बौद्धिक सम्पदा पर डाका डाला. उन्होंने ही पेपर पब्लिश करने और पेटेंट-कॉपीराइट जैसी लफ्फाज़ी में हमें उलझा दिया. वरना हमारे देश में विज्ञान तो जनकल्याण के लिये था. जब से मार्केट में मुनाफ़ा कमाने का चलन बढ़ा है, तब से सब अपना-अपना शोध सीने से चिपकाये घूम रहे हैं, कि पेटेंट कराएंगे और लाभ कमाएंगे. आजकल तो किसी को राय भी देनी हो तो आईडिया स्टैम्प पेपर पर लिखवा कर साइन करवा लीजिये. वरना आप का आईडिया वो अपने नाम पर पेटेंट करवा सकता है. अब न पुरातन काल का सतयुग बचा, न वर्तमान काल की एथिक्स बची है. 

सारी बातों का लब्बोलुआब ये है कि ज्ञानीजन का ज्ञान बहते झरने की तरह सबको सहज उपलब्ध है, और विज्ञानीजन अपने लाभ और प्रमोशन तक सीमित हो गये हैं. उसमें भी दो तरह का विज्ञान है. एक सरकारी और एक असरकारी यानि प्राइवेट. प्राइवेट का विज्ञान लाभ को प्रोत्साहित करता है. जहाँ ब्रैंड, पैकेजिंग और मार्केटिंग स्ट्रेटीज़ के दम पर हर माल मुनाफ़े पर निकाल दिया जाता है. सरकारी का हाल भी कुछ अजीब है. पीएचडी-डीएससी करते-करते यदि आईएएस/पीसीएस/तहसीलदार नहीं बन पाये, तो इज़्ज़त से जीवन-यापन करने की एक सरकारी स्कीम है, अध्यापन और शोध. इसमें भी अमूमन वो ही आगे जा पाता है, जिसमें एक अच्छे प्रशासक या प्रबंधक के गुण हों. यही गुण तब और मुखरित हो कर निखरते हैं, जब उन्हें कोई प्रशासनिक पद मिल जाता है. सुयोग से यदि किसी कमेटी के चेयरमैन भी बन गये, तब इनकी प्रतिभा के नये रंग सामने आते हैं. वरना ये निरीह प्राणी की तरह कुंडली मारे पड़े रहते हैं. 

अब चूँकि ये नौकरी है, तो नौकरी की तरह ही करनी होगी. एग्जाम होगा, प्रमोशन होगा और प्रमोशन के लिये एक आदर्श पथ होगा. जिस पथ पर चल के आपके विभाग के लोग उच्च पदों पर आसीन हुये. उन्हें ये अच्छी तरह मालूम होता है कि उन्हें क्या करना चाहिये था, लेकिन उन्होंने नहीं किया. अब वही काम दूसरों से करवाना है. सबसे बड़ा काम तो मातहतों से टाइम का पालन करवाना है. बिना सीएल/ईएल के पूरा मकान बनवा लेने वाले जानते हैं कि उनका मकान बन चुका है और जूनीयर्स को बनवाना है. उनके बच्चे पढ़ चुके हैं, जूनीयर्स को पेरेंट मीटिंग में जाना है. आठ घंटे कोई लैब में रहेगा तो कब तक यूरेका नहीं कहेगा. लिखायी-पढ़ायी करेगा तो पेपर छपेंगे, पेपर छपेंगे तो मार्गदर्शन का श्रेय उन्हें भी मिलेगा. जो रिटायमेंट के बाद एक्स्टेंशन में काम आयेगा. सेवा विस्तार नहीं भी मिला तो विद्वतजनों के लिये बहुत सी कमेटियाँ हैं. जहाँ वो यथा योग्यता, यथा कांटैक्ट पना योगदान दे सकते हैं. 

श्लोक 'न ब्रूयात सत्यम अप्रियं' सत्यवादी हरिश्चन्द्र और सत्य के प्रयोग करने वाले गाँधी के देश में कुछ अटपटा सा लगता है. हमारे पूर्वज 'सत्यमेव जयते' के अनुपालक थे, और हम असत्य को महिमामंडित करने में लगे हैं. जिसने भी इस विचार का प्रतिपादन किया होगा, वो या तो राज पुरोहित रहा होगा या भविष्यवक्ता, जो बुरी से बुरी बातों पर मुलम्मा चढ़ा कर उन्हें कर्णप्रिय बनाने का हुनर रखते थे. कतिपय सम्भव है वो राजा-महाराजा के दरबार में चारण या भाट रहा हो. जबकि उन्हें भली-भाँति मालूम था कि इस देश में शाश्वत सत्य तो राम नाम ही है. 

-वाणभट्ट

रविवार, 13 अक्टूबर 2024

पंख

एक्सलरेटर को हल्का सा ऐंठा ही था कि स्कूटर हवा से बातें करने लगा. फोर स्ट्रोक वाली हीरो-होण्डा चलाने वाले को पिकअप से संतोष करना ही पड़ता है. लेकिन होण्डा एक्टिवा की बात कुछ और है. हेलमेट लगा हो तो कब ये साठ पार कर जाती है, पता ही नहीं लगता. जब तक मैंने स्वयं एक्टिवा नहीं चलायी थी, मुझे लगता था कि लोग-बाग़ ख़ामख्वाह उड़े जा रहे हैं. आज की पीढ़ी या तो स्पीड चाहती है या टशन. बुलेट अगर डिमांड में है और धुआँधार बिक रही है तो उसके पीछे टेक्नोलॉजी से ज़्यादा स्टाइल स्टेटमेंट वाली बात है. 

पंख होते तो उड़ आती रे या पंछी बनूँ उड़ती फिरूँ मस्त गगन में आदि-इत्यादि गीतों की भावनायें इंसान की मूल रूप से स्वतंत्र रहने की प्रवृत्ति को दर्शाती है. पैदल जाने में आस-पड़ोस, घर-परिवार के द्वारा गंतव्य तक पहुँचने से पहले पकड़े जाने की सम्भावना अधिक रहती है. उड़ने में समय भी कम लगता है. फुर्र से उड़े और पहुँच गये. जिससे मिलना है मिले, और उसी तरह फुर्र से किसी को हवा लगने से पहले वापस हो लिये. 

जब पहली बार सन् सत्तासी में हीरो-होण्डा भारत में इंट्रोड्यूस हुयी थी, तो मार्केट में स्कूटर 'हमारा बजाज' का बोलबाला था. बजाज को स्टार्ट करने से पहले उसकी आरती उतारने का एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर था. स्कूटर को तीन बार इंजन की ओर झुकाओ, तभी पेट्रोल कार्बोरेटर तक पहुँचता था. बजाज स्कूटर के मालिक को छोटा-मोटा मेकैनिक होना पड़ता था. कभी भी आपको स्पार्क प्लग साफ़ करना पड़ सकता था. एक-दो क्लच वायर तो स्कूटर की डिक्की में पड़े ही रहते थे, जिसे बदलना, कोई भी ओनर जल्दी ही सीख जाता था. संतोष धन से समृद्ध हम लोग एक लीटर में अस्सी किलोमीटर चलने वाली हीरो-होण्डा के उपर तीस किलोमीटर चलने वाले बजाज से मात्र इसलिये संतुष्ट थे कि उसकी रिसेल वैल्यू थी, और तब तक किसी को हीरो-होण्डा के रीसेल की नौबत नहीं आयी थी. दोनों के दाम में भी दुगने का अंतर था. जड़त्व के मामले में हम लोगों का कोई सानी नहीं है. काफी समय तक बजाज सिर्फ़ अपने स्थापित नाम और विज्ञापनों पर ही चलता रहा. 'यू जस्ट कांट बीट अ बजाज'. आज भी बहुत सी ऑब्सलीट हो चुकी पॉलिटिकल पार्टीज़ और एजेंडों को बस इसलिये ढोये जा रहे हैं क्योंकि वो पुरानी पार्टीयाँ और पुराने मुद्दे हैं. कुछ पुराने लीडर्स के प्रति हम स्वयं को प्रतिबद्ध समझते हैं. 

उसी समय सबसे पहली ऑटोमेटिक गियर वाली स्कूटर काईनेटिक होण्डा ने भी इंडियन मार्केट में एंट्री मारी. टेक्नोलॉजिकली सुपीरियर इन गाड़ियों ने भारत के टू-व्हीलर सेगमेंट को अभूतपूर्व रूप से प्रभावित किया. नतीजन मार्केट में जापानी तकनीक वाली कावासाकी-बजाज और इंड-सुज़ुकी जैसी गाडीयाँ भी लॉन्च हुयीं. लेकिन मार्केट में हीरो होण्डा और काईनेटिक होण्डा का वर्चस्व बना रहा. इन भारतीय कंपनियों के माध्यम से होण्डा ने भारत के मार्केट पोटेंशियल का अध्ययन कर लिया. सन् सत्तासी में ही मैंने आँकलन कर लिया था कि जिस दिन होण्डा ने डायरेक्ट अपना प्रोडक्ट लॉन्च कर दिया, इन भारतीय कम्पनियों के लिये समस्या आ सकती है. कभी लूना और स्पार्क जैसी गाडियाँ देने वाली मार्केट लीडर रही काईनेटिक गायब हो गयी. हीरो और बजाज भी मार्केट में बने रहने के लिये निरंतर नये-नये मॉडल्स निकाल रहे हैं. 

निसंदेह एक्टिवा के नये-नये मॉडल्स ने युवाओं को पंख दे दिये हैं. कल्पना तो कल्पना होती है. लेकिन किसी भी कल्पना का आधार कहीं से ली गयी प्रेरणा होती है. जब होंडा वालों ने अपने टू-व्हीलर सेगमेंट के लिये पंख का सिम्बल चुना तब मुझे शक़ नहीं हुआ कि इनका इरादा क्या है. इनका टू-व्हीलर आपको गति प्रदान करेगा और वो भी ऐसी वैसी नहीं. उड़ने के माफ़िक. आपको लगेगा कि पंख निकल आये हों. जिसे देखो भड़भड़ाया उड़ा जा रहा है. स्पीड इतनी की स्पीड ब्रेकर भी हैरान हो जाता है कि हम ख़ामख्वाह लेटे पड़े हैं. आज गति ही विकास है. विकास और परिवर्तन हमेशा आगे ही जाता है, लेकिन 'पाथ ऑफ़ नो रिटर्न' पर. 

स्पीड की खोज में जुटे युवाओं के लिये इस गाड़ी में मुझे व्यक्तिगत तौर पर बस दो कमियाँ लगीं. १. चौड़े इंजन को कवर करने के लिये इन्होंने उतनी ही चौड़ी सीट लगा रखी है. इससे पिलीयन सीट पर बैठने वाले को हमेशा ये डर बना रहता है कि चढ़ते-उतरते कहीं उसकी तशरीफ़ का टोकरा पब्लिक दर्शन के लिये खुल न जाये. २. इसका फुटरेस्ट स्कूटर की बॉडी से बाहर काफ़ी निकला सा लगता है. बाक़ी हवा में उड़ने वालों के लिये इससे मुफ़ीद टू-व्हीलर फ़िलहाल तो मार्केट में नहीं दिखता. 

अमूमन मोहल्ला मार्केटिंग के लिये कंधे का झोला मेरे ड्रेस कोड में शामिल है. उस दिन शाम को टहल के लौट रहा था, जब घर से फ़रमाइश आयी कि लौटते हुये माज़ा की दो लीटर की बोतल लिये आना. लिहाज़ा मुझे पॉलीथीन बैग लेना पड़ गया. जब से मार्केट का विस्तार हुआ है, तब से लगता है दुकानों ने पूरा फुटपाथ निगल लिया है. पैदल चलने वालों के लिये सड़क पर चलने की विवशता है. ख़रामा- ख़रामा मै सड़क पर अपनी बायीं साइड लिये घर की ओर चल दिया. तभी एक मोहतरमा सनसनाती हुयी मेरे बगल से एक्टिवा से गुजरीं. हेलमेट पहनने के बाद अधिकांश लोगों को लगता है उनकी गर्दन सामने की ओर फ़िक्स हो गयी है. ग़लती से कोई अगर मोड़ पर सर दायें-बाँयें घुमा लें, तो समझिये ड्राइविंग टेस्ट दे कर ही लाइसेंस बना है. 

उनके पंख खुले हुये थे. पंख से एक सॉफ्ट फीलिंग आती है. एक्टिवा के फुटरेस्ट को डैने की संज्ञा देना अधिक उचित होगा. सशक्त पक्षियों जैसे गिद्ध, चील और बाज के डैनों को पंख कहना सही नहीं है. नयी पीढ़ी इतनी जल्दी में होती है कि इनको फुटरेस्ट खोलने का समय भले मिल जाये, लेकिन इसे बन्द करने की किसके पास फुरसत है. ये उसे बन्द इसलिये भी नहीं करते कि बार-बार क्या खोलना-बन्द करना. जापान में विकसित होण्डा एक्टिवा के निर्माताओं ने ये सोच कर की ड्राइविंग के बेसिक्स तो लोगों को पता होंगे, फुट रेस्ट बंद रखने का क्लाज मैनुअल में नहीं डाला. ना ही किसी ने इन्हें बताया कि जब फुटरेस्ट उपयोग में न हो तो बन्द कर देना चाहिये. सारे एक्टिवा वाले शार्प चाकू जैसा फुटरेस्ट लिये खुले-आम घूम रहे हैं. बाकी गाड़ियों के यूज़र्स का भी यही हाल है. लेकिन उनके फुटरेस्ट संभवतः हैंडल की चौड़ाई के भीतर आ जाते हों. 

उनका फुटरेस्ट मेरे पैर पर भी लग सकता था, यदि मेरे दाहिने हाथ के पॉलीथीन में माज़ा की बोतल न लटक रही होती. पॉलीथीन का लिफ़ाफ़ा फट चुका था और माज़ा की बोतल सड़क पर रोल होते हुये पीछे से आती कार के ठीक सामने थी. कार वाला शाम को मार्केट में बढ़ती चहल-पहल के चलते नियन्त्रित स्पीड पर चल रहा था. उसने ब्रेक मार कर माज़ा को शहीद होने से बचा लिया. 

बोतल की जगह यदि मेरा पैर चपेट में आ जाता तो स्थिति का अंदाज़ आसानी से लगाया जा सकता है. उधर उन मोहतरमा को पता भी नहीं लगा कि उनकी पीठ के पीछे मेरा काम लगते-लगते रह गया. यहाँ ये बताना भी ज़रूरी है कि अधिकांश लोग स्कूटर का बैक मिरर अपने चेहरे पर फ़ोकस रखते हैं ताकि हैंड्स फ़्री पर बात करते हुये अपनी भाव-भंगिमा निहार सकें. पब्लिक की सेफ़्टी के मद्देनज़र कम्पनी को मेरा सुझाव है कि भाई जब इतनी अच्छी और मॉडर्न स्कूटर बना ही दी है तो एक बटन ऐसा भी लगा दो कि जिसे दबाते ही फुटरेस्ट खुल और बन्द हो सकें. मेन स्टैंड का उपयोग न जानने वाली और हमेशा साइड स्टैंड पर टू-व्हीलर खड़ा करने वाली युवा पीढ़ी के पास समय का सर्वथा अभाव है और रहेगा.  

-वाणभट्ट

रविवार, 15 सितंबर 2024

इंजिनियर्स डे

साल में आने वाले अनेक दिवसों की तरह ही अभियन्ता दिवस मनाये जाने का रिवाज़ बन गया है. और रिवाज़ों का निर्वहन करना हमारी परम्परा से अधिक आदत सा बन चुका है.  साल में एक बार पितृ-मातृ-शिक्षक-मित्र-चिकित्सक-किसान-मजदूर ऐसे अनेकानेक दिवस आते हैं और चले जाते हैं. जब से सोशल मिडिया का अविर्भाव हुआ है, तब से और भी पता नहीं कौन-कौन से दिन जुड़ते चले गये. और ये अच्छा भी है कि इसी बहाने कम से कम एक बार तो समाज उनके प्रति कृताज्ञता व्यक्त कर लेता है, जिनका उन सभी के जीवन में कोई न कोई योगदान रहा है. 

वैसे तो ये जीवन उन सब लोगों और अनुभवों का सम-टोटल है, जिनसे हमारा सबाका पड़ा है. हमें तो उन सभी लोगों के प्रति प्रतिदिन कृतज्ञ महसूस करना चाहिये, जिन्होंने हमारे जीवन को वर्तमान स्वरुप दिया है. हमारे  सक्षम बनने में उनका अमूल्य योगदान रहा है. उन्हें व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद देने के चक्कर में लिस्ट के बहुत लम्बा हो जाने की सम्भावना है. जिस उन्नत समाज में आज हम रह रहे हैं, जहाँ जब सभी अपने को सेल्फमेड मैन सिद्ध करने में लगे हों, तो कोई कैसे किसी इंडिविजुअल या कुछ व्यक्ति विशेषों के प्रति अपना आभार व्यक्त कर दे. बकौल दुष्यंत कुमार-

हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही

ऐसे में सब के लिये एक-एक दिन मुकर्रर करके एक जनरल कृतज्ञता ज्ञापन कर देने का प्रचलन स्वागत योग्य है. व्यक्तिगत कृतज्ञता ज्ञापित करना तो हमने कब का छोड़ दिया है. नहीं तो लोगों को ये गुमान होना लाज़मी है कि आज हम जो कुछ भी हैं, उन्हीं की अनुकम्पा और वजह से हैं. फिर डर ये भी रहता है कि कहीं कोई अपने योगदान का मूल्य ना माँग ले. ज़माना इतना आगे बढ़ चुका है कि लोग अपने माँ-बाप से भी ये पूछने में गुरेज नहीं करते कि आपने मेरे लिये किया क्या है. और माँ-बाप को भी ज्यादा इमोशनल होने की ज़रूरत नहीं है. जो उन्होंने अपने माँ-बाप से लिया, वही बच्चों को लौटते हैं. सारा लेन-देन बराबर. इसीलिये बच्चों के लिये भी दुनिया की सारी माताओं और सारे पिताओं को धन्यवाद देना कतिपय आसान है, बनिसप्त अपने इकलौते माँ-बाप को. 

परसाई जी ने कहीं अपने लेखों में लिखा है कि दिवस हमेशा कमज़ोर लोगों का मनाया जाता है. कभी आपने प्रशासक दिवस या नेता दिवस या बॉस दिवस का ज़िक्र सुना है. बल्कि गौर करें तो ये ताकतवर लोग ही निर्णय लेते हैं कि किसका-किसका दिवस मनाया जाये. अमूमन उनका दिवस मानना जरूरी है जो हमसे कमज़ोर हैं क्योंकि हमें उनसे काम भी कराना है. दीन-हीन लोगों की कमी होती है कि कोई उन्हें थोड़ी इज्ज़त दे-दे तो वो अपना काम दिल-औ-जान से करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. जबकि समझदार मैनेजर टाईप के लोग निष्काम भाव से डिटैच रूप से आत्मउत्थान और व्यक्तिगत लाभ के लिये कार्य करते हैं. मैनेजमेन्ट का शायद यही तरीका बन गया है. काम निकालना हो तो थोडा चढ़ा दो, थोड़ी पीठ थपथपा दो. और कोई ज्यादा चढ़ जाये तो उसे उसकी औकात दिखा दो. देख भाई तू नौकरी कर रहा है, जिसकी तनख्वाह भी लेता है. प्रशासन के लिये सबसे बड़ी चुनौती होते हैं हाइली क्वालीलिफाईड लोगों से डील करना. लेकिन तुर्रा ये है कि भले ही तू ज्ञान-विज्ञान में हमसे आगे है लेकिन ये मत भूलना कि रहना हमारे अंडर ही है. यही सब देखते हुये बहुत से इंजीनियर्स और डॉक्टर्स अब प्रशासनिक सेवाओं की ओर रुख़ कर रहे हैं. 

इतने ज़्यादा दिवस मनाये जाने लगे हैं कि हर दिवस एक फॉर्मेलिटी सा बन के रह गया है. अभी कल ही हिन्दी दिवस हो के बीता है. आजकल इसका पखवाड़ा मनाया जाता है. हिन्दी पखवाड़ा और स्वच्छता पखवाड़ा लगभग साथ-साथ ही मनाया जाता है. अगर दोनों के पोस्टर भी कहीं साथ लग जायें तो लोग-बाग कन्फ्यूज हो जायें कि किसकी सफाई की बात हो रही है. ग्लोबल विलेज़ के युग में हिन्दी की बात करना आत्म गौरव की बात है. लेकिन यही आत्म गौरव सभी प्रादेशिक और आँचलिक भाषायें भी महसूस करना चाहती हैं. हमारे देश में चूँकि प्रजातंत्र हमेशा से अपने चरम उत्कर्ष पर रहा है इसलिये हम लोगों को जात-पात-सम्प्रदाय के आधार पर विभाजित करना आसान रहा है. भाषा को लेकर भी ऐसा ही विभाजन हमेशा से रहा है. सम्भवतः विश्व पटल पर ये बात सबको पता थी कि धरती पर भारत भूमि एक ऐसी जगह है जहाँ के लोगों में फूट डाल कर आसानी से राज किया जा सकता है. ऐसे ही नहीं हर कोई ऐरा-गैरा सर उठाये यहीं आक्रमण करने चला आया. 

वर्तमान परिपेक्ष्य में भी ये साफ़ परिलक्षित होता है कि आज भी सत्ता के लिये पक्ष और विपक्ष देश को दाँव पर लगाने से बाज नहीं आते. जब सबके अपने-अपने व्यक्तिगत लाभ के एजेंडे और महत्वआकांक्षायें हों तो क्या देश, क्या दफ़्तर, क्या समाज, सब को तोडना आसान है. यदि समाज किसी भी सर्वमान्य कारण से संगठित हो गया, तो सत्ता में भागीदारी माँगता है. जो कोई भी शासक नहीं चाहेगा. क्षेत्र, भाषा और जाति, सबसे ज्वलनशील मुद्दे रहे हैं. आज़ादी के सत्तर साल बाद भी ये जंग छिड़ी हुयी है कि कौन ज्यादा पिछड़ा है. हम या तुम. गोया देश-दुनिया में सभी इंसान बराबर करने के बाद ही हमारे जातिगत नेता दम लेंगे. हर जाति-सम्प्रदाय में नेताओं ने बराबरी के अधिकार दिलाने के लिये जन्म ले लिया है. और जल्द ही ये व्यवस्था न सिर्फ भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर लागू कराना, इनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य है. लेकिन इनकी पूँजी जिस दर से बढ़ती है, उस का कोई हिसाब नहीं है और इन सब के पीछे इनका व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध होता ही दिखता है. इनका मूल उद्देश्य अपनी जाति के लोगों को विकसित या उन्नत बनाना नहीं रहा. जातिगत भावनाओं को उभार कर अपनी नेतागिरी चमकाना और जिसकी परिणति अन्ततः किसी शक्तिशाली सम्मानजनक पद सुरक्षित करने के रूप में होती है.  

ऐसे माहौल में इंजीनियरिंग ही एक ऐसा प्रोफेशन है जो देश के विकास के लिये आरम्भ से प्रतिबद्ध रहा है. हर युग में मानव जीवन को सुगम बनाने के प्रयास होते रहे हैं. तब भले अभियांत्रिकी में डिग्री न मिलती रही हो लेकिन दिनों-दिन ऐसी खोजें और अविष्कार होते रहे जिसने धरती पर मनुष्य के जीवन को आरामदायक और आसन बनाने में अपना योगदान दिया है. यदि आपको विश्वास न हो तो अपनी गर्दन 360 डिग्री घुमा कर देख लीजिये. जो भी मानव निर्मित चीजें आप देख पा रहे हैं, उसके पीछे किसी तकनीकी व्यक्ति का हाथ अवश्य होगा. इन चीजों के हम इतने अभ्यस्त हो चले हैं कि इनका होना हम सहज मान लेते हैं. आखिर इन सुविधाओं (कार-टीवी-फ्रिज़-एसी आदि) के पीछे वर्षों का शोध और सुधार के पश्चात् ही हम दिन प्रतिदिन उन्नत हुए मॉडल्स का प्रयोग कर पा रहे हैं. इंजीनियर्स के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का दिन निश्चय ही सराहनीय है. भारत के महानतम अभियन्ताओं में श्री मोक्षगुंडम विश्वेसरैया जी की जयन्ती के कारण इंजीनियर्स डे के लिये सितम्बर 15 का चयन बहुत आसान हो गया. देश और समाज की अधिकान्श वृहद् समस्याओं का वृहद् स्तर पर समाधान आज भी इंजीनियरिंग के माध्यम से सम्भव है.

आज ही सवेरे अख़बार में भ्रष्टाचार की एक कलंक कथा छपी है. जिसमें तकरीबन दस अभियंताओं को भ्रष्टाचार के आरोप में निलम्बित कर दिया गया. कुछ आश्चर्यजनक नहीं लगता? पूरे प्रकरण में वित्त और प्रशासन के किसी भी व्यक्ति का कहीं कोई नाम नहीं है. हो सकता है विभागीय कार्यवाही उन्हीं के द्वारा की गयी हो. जिसे भी सरकारी कार्य पद्यति की थोड़ी भी जानकारी हो उसे पता होगा कि गलत काम कितनी पारदर्शिता से होता है. वातानुकूलित कमरों में बैठ कर फाइल-फाइल खेलने वाले अधिकतर प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार से दूर ही रहते हैं और ठीकरा किसी काम करने वाले पर ही फोडा जाता है. हर बिल के निस्तारण पर मलाई काटने वाला प्रशासन अभियन्ताओं को भ्रष्ट बताने में किसी प्रकार की हीला-हवाली नहीं करता. हर सफल काम के आगे प्रशासन का नाम होता है जबकि हर बिगड़े काम के पीछे जिम्मेदार कोई न कोई तकनीकी व्यक्ति या अभियन्ता ही निकलेगा. निर्णय करते समय प्रशासन आगे होता है और अभियन्ता को निर्देशित करता है. जब बजट आता है तो प्लानिंग पर विचार-विमर्श को अधिक समय देना चाहिये, लेकिन प्रशासन के पास योजनाओं के कार्यन्वयन के लिये सदैव समय का अभाव होता है. जब प्लानिंग किसी और को और एग्जीक्यूट किसी और को करना ही तो एडमिनिस्ट्रेटर को तो बस जादू की छड़ी ही घुमानी है. अमूमन प्रशासन का लक्ष्य जल्दी से जल्दी बजट युटिलाइज़ (कंज्यूम) करना होता है. और सभी को पता है कि जल्दी का काम किसका होता है. 

-वाणभट्ट 

शनिवार, 31 अगस्त 2024

महसूस तो करते हो ना...

रिश्तों का तकाज़ा है कि निभाये जायें
इक तरफ़ा कब तक ये भी तो बतायें

बहुत आसान है दूसरे को दोष दे देना 
अपनी गलती हो तो कभी मान जायें 

अब बहस की भी गुंजाईश नहीं रहती 
जब कोई बोले तो हम भी कुछ सुनायें 

आसमाँ में उड़ने का चलन छूट चुका है 
पिंजरे में आज़ादी का चलो जश्न मनायें 

कोई किसी से कोई उम्मीद नहीं रखता 
है कोई शुबहा तो दोस्तों को आजमायें 

'वाणभट्ट' रखना राब्ता दिल का दिल से 
दानिशमंद जमाने में जायें तो कहाँ जायें  

-वाणभट्ट

बुधवार, 14 अगस्त 2024

सुख

सबको तलाश है

सुख की

सब खोज रहे हैं 

अपना-अपना सुख 


या ये कहें कि 

सबको मिल ही जाता है 

अपना-अपना सुख

लेकिन दूसरे के सुख से 

हमेशा कुछ कम 

दूसरे के सुख की बराबरी में 

कुछ और सुख इकठ्ठा करने में 

लग जाते हैं हम 


इस प्रयास में 

ना जाने कितने सुख

हमने इकठ्ठा किये

लेकिन हर बार दूसरे का पड़ला भारी रहा 

पड़ले के दूसरे सिरे पर जो बैठा है न 

उसको भी ऐसा ही लगता है

फिर शुरू होती है 

एक अंतहीन दौड़ 

एक-दूसरे से आगे निकल जाने की


सुख जितना इकठ्ठा होता है 

दुःख उतना बढ़ता जाता है 

तेरा एक नया सुख

देता है जन्म मेरे एक नये दुःख को 

एक दिन बुद्ध चेतना से 

चलता है पता 

मेरे दुःख का मूल है 

दूसरे का सुख 


अब जब भी करता हूँ सचेत प्रयास

सुख दूसरे को देने का 

घटता नहीं 

बढ़ जाता है मेरा सुख 

शायद मनुष्य ही वह प्राणी है 

जो अपने आस पास ख़ुशी बिखेर के 

सुखी होता है 


अपनी नाव जब डूबने लगे 

अपने ही सुख के बोझ से 

तो 

आते हैं याद कबीर


'जो जल बाडै नाव में 

घर में बाढ़े दाम

दोउ हाथ उलीचिये

यही सज्जन को काम'


-वाणभट्ट

समाज सेवा

कोई पूछे कि आदमी क्या है? तो गुलज़ार साहब कहते कि आदमी बुलबुला है पानी का. अब हम गुलज़ार तो हैं नहीं, इसलिये पुराना घिसा-पिटा डायलॉग मार देते ...