शनिवार, 8 मार्च 2025

इन द परस्युट ऑफ़ हैप्पीनेस

देवेश का फोन आया तो उसमें आग्रह के भाव से कहीं ज्यादा अधिकार का भाव था. 'भैया हमका महाकुम्भ नय नहलउबो का. तुम्हार जइस इलाहाबादी के रहे हम डुबकी नय लगाय पाये तो तुम्हार प्रयागराजी होवै के का फ़ायदा.' 

इस महाकुम्भ में एक बार पहले भी नहा पाने की स्मृतियाँ जीवन्त हो गयीं. कानपुर से निकलते ही मेले का सा माहौल बन गया था. जिसे देखो प्रयागराज की ओर बढ़ा चला जा रहा है. रास्ते में कोई चाय की दुकान या ढाबा नहीं था जहाँ लोगों की भीड़ न हो. जहाँ-जहाँ टोल प्लाजा और डाईवर्ज़ंस थे, वहाँ-वहाँ यही भीड़ जाम में कन्वर्ट हो जा रही थी. पेट्रोल पम्प पर गाड़ियों की लम्बी-लम्बी लाइनें लगी हुयी थीं. ऐसी लाइनें हम लोगों को तभी देखने को मिलती थीं जब अफवाह फ़ैल जाती थी कि बजट में तेल का दाम बढ़ने वाला है, या शहर के सभी पेट्रोल पम्पों में बस दो दिन का पेट्रोल बचा है. लोग वाहन उपयोग के इतने आदी हो चले हैं कि यात्रा के किसी अन्य मोड के बारे में सोच भी नहीं सकते. सब टैंक फुल कराने में लगे रहते. मौकापरस्त लोग पेट्रोल के थोड़े ज्यादा पैसे भी वसूल लें तो वाहन स्वामी सहर्ष दे देते. अख़बारों और न्यूज़ चैनेल्स में प्रयागराज जा रही सभी ट्रेनों के ठसाठस फुल होने के दृश्य दिखाये जा रहे थे. स्टेशन पर भी ट्रेन्स में चढने-उतरने में मारा-मारी दिखायी जा रही थी. कुछ स्टेशनों पर तो तिल रखने की भी जगह नहीं दिख रही थी. क्या रिजर्वेशन और क्या बिना रिजर्वेशन. भीड़ इतनी की ना तो कोई टिकट खरीद सकता था, ना कोई उसे चेक कर सकता था. जब आप पुण्य कार्य के लिये जा रहे हों तो टिकट खरीदने या देखने या दिखाने को प्रभु के कार्य में हस्तक्षेप ही माना जायेगा. लेकिन ये तय है कि बिना श्रद्धा के कोई घर से निकलने की हिम्मत नहीं कर सकता. वैसे भी हमारे यहाँ मान्यता है कि जब कोई अदृश्य शक्ति आपको प्रेरित करती है, तभी आप तीर्थ के लिये निकल पाते हैं. आप गंगा जी नहीं जाते, गंगा जी आपको बुलाती हैं.

बहुत से मन के चंगे लोगों ने कठौती में ही गंगा मान कर बाल्टी स्नान कर लिया. और जो लोग प्रयागराज रिटर्न थे, उनको भी अपने इस ब्रह्म ज्ञान से वंचित न रहने दिया. कुछ को प्रयागराज से लौटे श्रद्धालुओं द्वारा लाया संगम का जल मिल गया था. यदि कोई कहता है कि भारत में भगवान बसते हैं, तो उसने सही ही कहा है. एक सौ पचास करोड़ के देश में यदि मात्र दस प्रतिशत लोग ही आज़ादी के पचहत्तर साल बाद विकसित भारत की सुविधाओं का लाभ लेने में सक्षम हों तो बाकी एक सौ पैंतीस करोड़ को भी तो जीने का कोई ना कोई सबब चाहिये ना. पढ़े-लिखे अज्ञानी इसे अन्ध भक्ति कह सकते हैं. उन्हें धर्म को अफ़ीम बोलने में किसी प्रकार की आत्मग्लानि महसूस नहीं होती. लेकिन मज़हब को नासूर बोलने में चोक लेने लगती है.

जितने लोग निकल पड़े थे, उन्हें स्वयं से ज्यादा भगवान का ही भरोसा था. कब और कैसे पहुँचेंगे, कहाँ रुकेंगे, क्या खायेंगे, ये सोच लिया होता तो वे घर से निकल ही नहीं पाते. सरकार ने बहुत पुख्ता इंतज़ामात किये थे, ताकि अधिक से अधिक लोग महाकुम्भ में सम्मिलित हो सकें. मुख्य नहान दिनों के अलावा प्रतिदिन एक से दो करोड़ लोगों द्वारा संगम पर आस्था की डुबकी लगाना जीवन में एक बार प्राप्त होने वाला अनुभव था. लेकिन उस अनन्त जनसमूह में आपका अपना अहम तिरोहित हो जाता है. एक अस्तित्वहीनता का बोध जन्म लेता है. साथ ही ये भान भी होता है बूँद-बूँद से सिन्धु बना है. बूँदों के बिना सागर का अस्तित्व नहीं है. सागर में बूँद का कोई वज़ूद हो न हो लेकिन हर बूँद में सागर के समस्त गुण-धर्म-अवयव उपस्थित हैं. सब अपने-अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार धरती पर अवतरित और अवस्थित हैं. सब की अपनी-अपनी नितान्त एकाकी यात्रा है. सब यहाँ यदि उमड़े पड़ रहे हैं तो अपने-अपने व्यक्तिगत मोक्ष की कामना के साथ. 

हमारे वाकर्स ग्रूप के चार बन्दों ने पच्चीस जनवरी को महाकुम्भ जाने का निर्णय लिया. मैंने जब से होश सम्भाला है हर पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी को देश के झण्डे को नमन अवश्य किया है. मुझे उम्मीद थी कि पच्चीस को जा कर, उसी दिन लौट के आ पाना शायद सम्भव न हो पाये, इसलिये मैंने जाने से मना कर दिया. शाम को हम और गर्ग साहब जब आराम से चाय का लुफ्त उठा रहे थे, बर्थवाल जी का फोन आया कि यार मिश्रा ने भीड़-भाड़ देख कर जाने का आइडिया ड्राप कर दिया है. हम लोग की विशेषता है कि व्यक्तिवाचक नामों के ऊपर सहजता से जातिवाचक सूचकों से लोगों को बुला लेते हैं. माँ-बाप खामख्वाह ही बच्चों के नाम पर रिसर्च करते हैं. जब कि हम वर्मा-शर्मा से भी काम चला सकते हैं. अब कोई और इंटरेस्टेड हो तो उसे अकोमोडेट किया जा सकता हैं. शायद गंगा मैया की पुकार थी जिसने मुझे बॉस से स्टेशन लीव लेने के लिये प्रेरित किया. 'सर यदि इजाज़त हो तो इस बार मै प्रयागराज में ही झन्डा फहरा लूँ.' माँ गंगे की कृपा से मुझे इस बात की सहर्ष अनुमति भी मिल गयी. अब भी अगर मै कहूँ कि मै प्रयागराज गया था, तो मेरी भूल होगी. करने और करवाने वाला तो बस केशव है, हम तो बस अपने-अपने अहम् का वहम पाले बैठे हैं. प्रभु की माया ही ऐसी है. 

हम लोग प्रातः छ: बजे इलाहाबाद के रास्ते पर निकल पड़े थे. रास्ते के दृश्य का बखान पहले ही कर चुका हूँ. बहरहाल किसी तरह लखनऊ वाली तरफ से हम इलाहाबाद में प्रवेश कर पाये. हाइवे छोड़ने के बाद सामने अन्तहीन जाम से सामना हुआ. शहर के भीतर के जाम की स्थिति कोई बेहतर नहीं थी. कई डायवर्ज़ंस को झेलते हुये किसी तरह हम लोग अपने बाघम्बरी स्थित घर पहुँच पाये. मित्रों ने राय दी कि कार को घर पर ही छोड़ दिया जाये और आगे की यात्रा पैदल तय की जाये. इलाहाबाद में जिसका जीवन बीता हो उसे घर से संगम तक पैदल जाने की बात थोड़ी अटपटी लगी. मैंने प्रतिरोध किया कि कार जहाँ तक जा सकती है वहाँ तक चलते हैं, उसके बाद पैदल चल लेंगे. लेकिन जाम के मद्देनज़र मित्रों ने लोकल व्यक्ति की सलाह मानने से इन्कार कर दिया. मन मसोस के मुझे भी उनके साथ पैदल चलना पड़ गया. ये तो बाद में पता चला कि ये हम लोगों का उस दिन का सबसे अच्छा निर्णय था. संयोग से हमारे घर से संगम की कुल दूरी अधिक से अधिक पाँच किलोमीटर की होगी. सो ये तो पता था कि अधिकतम कितना चलना पड़ सकता है. जाम-डाईवर्ज़ंस में घूमते-फिरते हम लोगों संगम स्नान करके लौटने में छ: घन्टे लगे. इस बीच जब हम लोग कुछ अल्पाहार के लिये रुके तो मुझे ध्यान आया कि मेरा एकादशी का व्रत भी है और सुबह से कुछ संतरों और केलों का ही सेवन किया था. बाकी लोगों ने बीच में भोजन जैसा कुछ लिया था. शाम तीन बजे से निकले-निकले रात नौ बजे हम वापस घर लौट पाये. सुबह छ: बजे से हम निरंतर यात्रा पर थे. सभी के शरीर थक चुके थे लेकिन संगम स्नान के बाद सभी की आत्मा जोश से लबरेज थी. स्नान के बाद माथे पर चन्दन-टीका करके हम सब एक अनजान स्फूर्ति का अनुभव कर रहे थे. 

मैंने पता किया पास ही एक स्कूल के प्रांगण में झन्डा फहराने का कार्यक्रम सुबह नौ बजे संपन्न होना था. मैंने कहा उसके बाद निकलने में कल दस तो बज ही जायेगा. सबने एक दूसरे की ओर देखा. बर्थवाल ने बोला - कल यदि झन्डा आप अपने ऑफिस में ही फहरायें तो कैसा रहेगा. सभी के चहरे चमक उठे. अगले पाँच मिनट में हम फिर सफ़र पर थे. जितना जाम जाने में था उतना ही जाम लौटने में भी था. लेकिन शहर के भीतर, हाइवे पहुँचने तक. जाने वाले रास्ते पर अभी भी जाम की स्थिति बनी हुयी थी. हमारी लौटने वाली साइड पर कतिपय कम भीड़ थी. रात तीन बजे हम लोग वापस कानपुर आ सके और मै अपने संस्थान के 26 जनवरी समरोह में सम्मिलित भी हुआ. अब इसे कोई दैवी शक्ति न माने तो न माने, मुझे मालूम है कि ये सब मुझे मेरे सामर्थ्य के बाहर प्रतीत होता यदि मैंने माँ गंगा के बुलावे पर अपना दिमाग लगा दिया होता. यही स्थिति कमोबेश सभी श्रद्धालुओं के साथ हुयी होगी. कुछ को शहर प्रवेश से ही पन्दरह-बीस किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था. लेकिन आध्यात्म से चमकते उनके चेहरों पर पुलिस-प्रशासन के लिये अतिश्योक्तिरंजित शब्द थे. किसी को किसी प्रकार का न गिला था न शिकवा.    

देवेश बाबू, हैं तो पटना के खाँटी बिहारी, लेकिन इलाहाबाद में साथ बीटेक करने के दौरान इलाहाबादी भाषा-शैली में विशारद भी कर डाली. ये उपाधि कोई संस्थान या विश्वविद्यालय नहीं देता. इसे आपको परम ज्ञानी इलाहाबादियों संगत में रह कर ही प्राप्त करना होता है. जिसका उपयोग रिक्शे-ऑटो से करना नितान्त आवश्यक है, अन्यथा वे आपको बाहरी समझ कर दुगना पैसा वसूल लें. इसका दूसरा सबसे प्रयोग होता था तब होता है जब इलाहाबादी बकैतों को डील करना हो. अगर आपने बहस-मुबाहिसा (वाद-विवाद) में परिस्कृत भाषा शैली का प्रयोग गलती से कर दिया तो आपके लिये लॉजिकल तरीके से बात कहना मुश्किल हो जाये. बहुत मुमकिन है कि इलाहाबादी आपको बताय दे कि तुम अबहिन लरका हो और तुमका कुच्छौ नय मालूम है. ऐके बाद बहस की कौनो गुंजाईश बचत है का. आपको बैकफुट पर आना ही पड़ता कि इन जाहिलों से कौन भिड़े. 

मेरा इलाहाबाद कुछ हद तक सन अट्ठासी के बाद से छूट सा गया था, ये बात अलग है कि आप चाहिये तो भी इलाहाबाद छूटता कहाँ है. दिल्ली-पंजाब में रहने के बाद हिन्दी जैसा कुछ तो बचा रहा लेकिन इलाहाबादी भाषा पर कमांड जाता रहा. फेसबुक और वाट्सएप्प पर इलाहाबादी ग्रूप्स में होने के कारण हम लोग गाहे-बगाहे इलाहाबादी की प्रैक्टिस कर लेते हैं. ईश्वरीय विधान के अनुसार फिलहाल मेरा डेरा कानपुर है, जो कि एक गंगा किनारे वाला शहर है. मैंने देवेश को बताने की कोशिश की कि भाई भगवान् के फज़ल से मै पहले ही पच्चीस जनवरी को ही संगम स्नान का पुण्य लाभ ले आया. मेरी अब तक की ज़िन्दगी में अटेंड किये गए माघ, अर्धकुम्भ और कुम्भ मेलों में पहला अवसर था, जब मुझ इलाहाबादी को अपने घर से संगम तक की दूरी पैदल नापनी पड़ी हो. इसके पहले सायकिल, स्कूटर या कार संगम क्षेत्र तक चली जाया करती थी. लेकिन 144 साल बाद पड़ने वाला ये महाकुम्भ भी तो पहली बार पड़ा था. देवेश के पुन: गंगा स्नान के आग्रह को मुझे मानना ही था. दोस्ती होती भी तो निभाने के लिये है. तय हुआ कि 21 फरवरी को सुबह निकल कर भाई दिल्ली से कानपुर आ जायेगा और शाम को ऑफिस करके हम लोग प्रयागराज को कूच कर जायें ताकि रात 12 तक हम संगम तट पर पहुँच जायें. 

लेकिन ऐसा हो न सका, देवेश भाई का प्रवेश कानपुर में रात आठ बजे के बाद हुआ. खाना-पीना करके हम लोग रात ग्यारह बजे उसकी ऑटोमेटिक गियर वाली एसयूवी से निकल पाये. उसके ड्राइवर ओम को कानपुर में आराम करने के लिये बमुश्किल आधा एक घंटा मिला होगा. लेकिन वो ड्राइवर ही क्या जो ये न हाँके कि मैंने तीन-तीन दिन तक लगातार कार चलायी है. उसका एक पक्ष ये है कि मेरे रहते साहब को आराम न मिला तो मेरे होने का क्या लाभ. दूसरा पक्ष ये भी हो सकता है कि साहब की ड्राइविंग पर उसे भरोसा कम हो. गाडी ऑटोमेटिक थी और बड़ी थी इसलिये मुझ जैसे छोटी गाड़ी ब्रिओ चलाने वाले पर न तो दोस्त को विश्वास था न ड्राइवर को. 

प्रयागराज की बानगी भौती बायपास से ही दिखनी शुरू हो गयी थी. हमें लगा शायद जाम कानपुर के एन्ट्री पॉइंट रामदेवी तक हो लेकिन जल्द ही ये एहसास हो गया कि पूरे इलाहाबाद तक इस जाम से जूझना पड़ेगा. बाई पास के बाद जाम और बढ़ता जा रहा था. कोई ढाबा, चाय की दुकान, पेट्रोल पम्प खाली नहीं था. जाम में जो गाड़ियाँ दिख रही थीं, उनमें से गाहे-बगाहे ही यूपी की गाड़ियाँ थीं. पंजाब, गुजरात, हिमाचल, राजस्थान आदि प्रदेशों से आ रही गाड़ियों का ताँता लगा हुआ था. उसमें हमारी दिल्ली की एक गाडी भी फँस गयी थी. किसी को कोई हड़बड़ी आज नहीं थी. कोई कान-फोडू हॉर्न नहीं. सब शांति से अपनी लेन में गाड़ी लगाये खड़े थे. जगह मिलती तो बढ़ते, न मिलती तो खड़े रहते. ये बात अलग है कि छ: लेन सड़क पर आठ लेन बन चुकीं थीं, जो जाम के दृश्य को और भी भयावह बना रही थीं. ड्राइवर के बगल वाली सीट पर मै काबिज था, पीछे वाली सीट पर भाई रश्मि भाभी के साथ विराजमान थे. सामने वाली कार लगभग दस मीटर मूव कर चुकी थी, पीछे वाले से रहा नहीं गया, उसने हॉर्न ठोंक दिया. मैंने ओम की ओर मुड़ के देखा तो उसे आँख बन्द किये ध्यानावस्था में पाया. हल्के से आवाज़ देकर उसे गाडी किनारे किसी चाय की दुकान पर लगाने को कहा. 

उसके बाद की कमान देवेश ने सम्हाली और ड्राइवर साहब एक घन्टे की नैप लेने के इरादे से बगल वाली सीट पर बैठ गये. सुबह 6 बजे हम लोग इलाहाबाद के एन्ट्री पॉइंट पर थे. और गूगल मैप आगे का रास्ता नीला दिखा रहा था, जो हमें किसी चमत्कार जैसा लगा. लगा हाइवे छोड़ के हम एक घन्टे में घर पर होंगे. लेकिन एन्ट्री पॉइंट पर आठ लेन ट्रैक का जाम बगल सब लेन में भी प्रवेश कर चुका था. ओम तब तक अपनी नींद पूरी करके उठ गया था. एक पेट्रोल पम्प पर हम लोगों ने टैंक फुल करा लिया ताकि लौटते समय पेट्रोल की चिंता न रहे. वहीं पर चाय पी गयी. चाय वाले से पूछा यहाँ इतने बड़े जाम का क्या कारण है, जबकि आगे सड़क खाली है. उसने एक कातिल मुस्कराहट के साथ जवाब दिया - यहाँ से इलाहाबाद में प्रवेश बंद है. सब को लखनऊ वाली तरफ से ही घुसना होगा. बनारस रूट पर आगे बढने से पहले एक टोल भी है. अब मुझे उस जाम का कारण समझ आ गया था. ओम ड्राइविंग सीट पर अपनी जगह पुन: स्थापित हो गया और देवेश पिछली सीट पर बैठते ही नींद के आगोश में आ चुका था.          

लगभग 15-20 लाख की शहरी आबादी वाले शहर में प्रतिदिन एक करोड़ से ज्यादा लोगों के आने से प्रशासन को यदि अप्रत्याशित कदम उठाने पड़ें, तो उठाने ही पड़ेंगे. एक तरफ से आओ और दूसरी तरफ से निकल जाओ. मुझे लगा ऐसी व्यवस्था ठीक ही है. चूँकि इस यात्रा के सूत्रधार मा-बदौलत ही थे तो मेरी पलक झपकने का सवाल ही कहाँ था. चलाना मुझको था नहीं सो मेरी ड्यूटी बस ये ही देखने की थी कि ड्राइव करने वाला झपिया तो नहीं रहा. लेकिन इस भीषण जाम में झपियाने की गुंजाईश नहीं थी. झपियाये नहीं कि आगे या पीछे से ठुंके नहीं. इस बात का संतोष था कि धीरे ही सही, आगे बढ़ तो रहे हैं. लखनऊ रूट से जब इलाहाबाद के लिए बढ़े तो लगा, अब घर सारे जामों के बाद भी जल्द पहुँच जायेंगे. लेकिन आगे बढ़ने पर बताया गया फाफामऊ पुल से प्रवेश निषेध है. आगे बेला कछार से स्टील ब्रिज के द्वारा शहर में प्रवेश किया जा सकता है. हमने मान लिया कि जाम से बचने का एक तरीका डायवर्ज़न भी है, सो बिना किसी हील-हुज्जत के आगे बढ़ लिये. इलाहाबादी होने के नाते मुझे ऐसे किसी पुल का ज्ञान नहीं था जो सीधे स्टैनली रोड पर खुलता हो, लेकिन इंतजाम पुलिस का था और पुलिस का विनम्रता से आग्रह करना अपने आप में एक अजूबा सा लगा. ये भी लगा कि ज्यादा झिकझिक की तो भाई लोग अपने पुराने रूप में न आ जायें. तो हम लोग बढ़ते चले गये. और स्टील ब्रिज से होते हुये स्टैनली तक पहुँच गये. अब मेरा गन्तव्य, मेरा घर, मात्र छ:-सात किलोमीटर यानि आधा घंटा की दूरी पर था. तभी सामने चौराहे पर एकाएक कुछ पुलिस वाले प्रकट हो गये. उन्होंने बताया - दरअसल बेला कछार में पार्किंग बनायी ही इसलिये गयी है कि वहाँ इलाहाबाद के बाहर से आने वाली गाड़ियों को खड़ा करा दिया जाये. वहाँ दूर दूर तक न हाथी था ना घोड़ा था, सभी को पैदल ही जाना था. रेतीली मिटटी में इ-रिक्शे चल नहीं सकते थे. मै तो बस इस ख़ुलूस में बढ़ा जा रहा था कि अपना घर तो है ही.            

पुलिस वाले ने मुस्कुराते हुये बड़ी मासूमियत से हमें रोक दिया. आप अपनी गाड़ी बेला कछार में लगा दीजिये. मैंने बताया कि मै इलाहाबाद का ही रहने वाला हूँ. उसने बताया या तो इलाहाबाद की कार हो या इलाहाबाद का आधार हो तब ही हम आपको शहर प्रवेश की इज़ाजत दे सकते हैं. मैंने चिरौरी के अन्दाज़ में कहा - भाई जब नौकरी बाहर है, आधार भी कानपुर का है, तो क्या करूँ. देवेश की तन्द्रा कुछ देर पहले ही टूटी थी. बिफर गया - ये कह तो रहे हैं कि इनका घर है यहाँ पर और ये भी सरकारी अधिकारी हैं सेन्ट्रल गवर्नमेंट में. पुलिस वाले पर देवेश के पर्सनालिटी का कुछ रौब पड़ा या नहीं ये तो कहना मुश्किल है लेकिन पीछे लग रहे जाम की अपेक्षा हम लोगों को प्रवेश की अनुमति देना उसे ज्यादा उचित लगा. हमारे मुड़ने की जगह भी नहीं थी. उसने साथ ही ये शब्द भी जोड़ दिये सीधे से निकल जाइये आप लोग दाहिने कहाँ मुड़ने जा रहे थे. उस दिन पहली बार मुझे अपने ही शहर में बेगानेपन का एहसास हुआ. शुक्र है कि हम आगे निकल गये अगर वापस लौट के बेला कछार में गाड़ी पार्क करनी पड़ती तो हम लोगों को भले थोडा ज्यादा चलना होता लेकिन बेचारे पाठकों का क्या होता. उनके के लिये ये लम्बा ब्लॉग और लम्बा हो जाता. उस पुलिस वाले में हमें देवदर्शन हो गये. भगवान् के प्रति आस्था कुछ और बढ़ गयी. 

शहर के जाम से जूझते हुये किसी तरह जब हमने घर के सामने गाडी खड़ी की तो दोपहर का एक बजा था. कानपुर से इलाहाबाद अपने घर तक की यात्रा में हमें चौदह घन्टे लग चुके थे.  

अब हमारा अगला काम था जल्दी से फ्रेश हो कर संगम की ओर पैदल प्रस्थान करना. पिछले अनुभव ने यही सिखाया था. शहर में जिधर देखो आदमी ही आदमी. पूरा रास्ता पैदल श्रद्धालुओं से भरा हुआ था. आपको अपने लिये जगह बनाते हुये आगे बढ़ना एक चुनौती से कम नहीं था. तीर्थयात्रियों के लिये आने और जाने के मार्ग को भी अलग करने का प्रयास किया गया था. भीड़ को कम करने के उद्देश्य से बैरिकेड्स लगा कर रूट डाईवर्जन्स भी किये गये थे. सामने दिख रहे गंतव्य तक पहुँचने में आपको कितनी दूरी तय करनी होगी और कितना समय लगेगा ये कहना मुश्किल था. इ-रिक्शे ने अलोपी मन्दिर पर छोड़ दिया. किसी ने बताया आजकल यंग बाइकर्स मोटरसायकिल पर लोगों को थोडा और आगे तक ले जा सकते हैं. किराया दो सौ रुपये प्रति सवारी और एक मोटरसायकिल पर दो सवारी से कम नहीं बैठा रहे थे. वो दो मोटरसायकिल वाले भी हमें देवदूतों से कम नहीं लगे. लेकिन उन्होंने शास्त्री ब्रिज के नीचे जहाँ छोड़ा वहाँ से भी संगम एरिया ढाई किलोमीटर तो रहा ही होगा. लेकिन रेले के साथ बढ़ते हुये शायद ही किसी को ये ध्यान आया हो कि हम सबने रात भर यात्रा की है या किसी प्रकार की थकान है. शिव रात्रि और मेले का आखिरी स्नान करीब ही था और हर कोई चाहता था कि वो इस महाकुम्भ का हिस्सा बने इसलिये प्रतिदिन एक से डेढ़ करोड़ लोग प्रयागराज में संगम स्नान कर रहे थे. संगम पर हर तरफ़ आदमी ही आदमी दिख रहे थे. कहीं भी कपड़े-बैग रखने की जगह नहीं दिख रही थी. मेले की खासियत होती है, आप बढ़ते जाते हैं तो रास्ता निकलता जाता है. हम सबने बारी-बारी से स्नान किया. इस भीड़ में हर व्यक्ति अकेला था. उसके संकल्प, उसकी मान्यतायें उसकी अपनी थीं. सभी उस अद्भुत वातावरण में राग-द्वेष से पूरी तरह मुक्त थे. जितने संकल्प उतनी डुबकी. डुबकी सभी इष्ट-मित्र-परिवार के लिये. भाभी जी ने सम्पूर्ण भक्ति भाव के साथ पूजा अर्चना सम्पन्न की. लेकिन चन्दन-टीका और सेल्फी भी ज़रूरी थी स्नान को यादगार बनाने के लिये. 


पाप-पुण्य की अह्मंयताओं से मुक्त ये स्नान हमारे जीवन के कुछ अविस्मरणीय क्षणों में शामिल हो गया. आनन्द की खोज में सभी इधर-उधर भटक रहे हैं. यूँ ही करोड़ों लोग कष्ट झेलते हुये हर साल माघ मेले में संगम तट पर नहीं पहुँच जाते. इस बार तो ग्रहों का विशेष संयोग वैसे भी 144 साल बाद पड़ा था. इस भीड़ का हिस्सा बनके हर व्यक्ति आल्हादित अनुभव कर रहा था. हम भी उनमें से एक थे. लेकिन एक बात हमें अच्छे से समझ आ गयी थी, कष्ट जितना अधिक होगा आनन्द का लेवल भी उतना ही अधिक होगा. कम या अधिक सभी 60 करोड़ श्रद्धालुओं ने इस यात्रा में कष्ट उठाये होंगे. लेकिन सब तृप्त आत्मा से वापस लौट गये. उन करोड़ों लोगों की तरह वापस लौटते हुये हम भी इस अद्भुत अनुभव को संजोने में लगे थे. गंगाजल और संगम की मिट्टी साथ थी, अपने उन इष्ट-मित्रों के लिये जो किसी कारण से संगम तक नहीं पहुँच पाये थे. आनन्द वो नहीं है जो आप अपने लिये करते हैं. आनन्द वो है जो हम दूसरों के लिये करते हैं. और इसकी खासियत है कि ये बाँटने से बढ़ता है. 

- वाणभट्ट 

बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

जालिम जमाना

आजकल लोग बाग कुछ ज्यादा सेंटीमेंटल और इमोशनल होते जा रहे हैं. होना भी चाहिये. पे कमीशन्स लगने के बाद सब आत्म निर्भर जो हो गये हैं. और इसीलिये अलग-थलग भी. जब सब प्रैक्टिकल होने की जुगत में लगे हैं, तो कौन किसके अहम का तुष्टिकरण करे. किसी को कोई चुनाव-वुनाव लड़ना हो तो भले गधेे को बाप बना ले. वर्ना किसी को आपके इमोशन में भला क्या दिलचस्पी हो सकती है. हाँ लेखक और कवि ऐसे प्राणी हैं, जिन्हें यहीं से मसाला खोजना होता है. तो भाई साहब, हमने सोशल मीडिया की किसी विधा या किसी ग्रूप को पकड़ा, तो फिर छोड़ा नहीं.

हर समय तरक्की और विकास की बात करने वाले बिज़ी टाइप के लोग अपना रीड रिसिप्ट ऑफ़ रखते हैं ताकि लोगों को गलतफ़हमी बनी रहे कि बन्दा बहुत व्यस्त है. बीच में मुझे लगा कि लोग मुझे एकदम खलिहर समझ रहे हैं, कि जब देखो तब ऑनलाइन रहता है. तो मैने भी इस सुविधा का उपयोग करने का निश्चय किया. अब मुझमें कुछ-कुछ मिस्टर इंडिया वाली शक्तियाँ आ गयीं थीं. मै ऑनलाइन रहता, और लोग पूछते भाई कहाँ व्यस्त हो आजकल वॉट्सएप्प भी नहीं देखते. फ़ेसबुक पर अपना कोई भी सुराग़ नहीं छोड़ता था. न कोई लाइक, न कोई कमेंट. आदमी परेशान हो जाता है. व्यूज़ तो हज़ार के उपर, पर कमेंट और लाइक दो-चार. नाज़ुक मिजाज़ होने के कारण मुझे दूसरों के दर्द का एहसास बहुत आसानी से हो जाता है. बताईये किसी ने इतनी मेहनत-जतन से पोस्ट या स्टेटस लगाया, और किसी ने उसको तवज्जोह नहीं दी. ऐसे में अच्छे भले आदमी के दिल का टूटना लाज़मी है. मुझे अपने उपर गिल्टी कॉन्शस होने लगा. बताओ किसी का दिल दुखाने का भला मेरा क्या अख़्तियार है. आदमी को कम से कम अपनी नज़र में तो सही होना ही चाहिये. 

अपनी नज़रों में गुनाहगार न होते क्यूँ कर

दिल ही दुश्मन है मुखालिफ़ के गवाहों की तरह 

- सुदर्शन फ़ाकिर

सिर्फ़ और सिर्फ़ इसी उद्देश्य से मैने रीड रिसिप्ट को पुन: ऑन कर दिया. 

अब इसमें और भी बड़ा लफड़ा ये है कि किसी ने दर्द भरा स्टेट्स लगाया और आपने पलट के हाल नहीं पूछा तो उसके दिल की तो वो जाने, आपका दिल, आपकी अंतरात्मा, आपको कचोटना शुरू कर देती है. लगता है बन्दे ने कुछ उट-पटांग कर लिया, तो समाज कल्याण या सुधारक होने का जो दम्भ पाले बैठे हैं, उसका क्या होगा. कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि कॉल किया तो बन्दा खुशमिजाज़ मूड में मिला. बोला डायलॉग अच्छा लगा सो चेप दिया. सबसे ज़्यादा दिक़्क़त तब है जब बन्दा वाकई लो फील कर रहा हो. डर रहता है कि यदि आपने फोन पर उसे पैसिफ़ाइ करने का प्रयास किया तो घण्टे दो घण्टे गये. ऐसा नहीं है कि यार-दोस्तों-रिश्तेदारों के लिये मै इतना समय दान नहीं कर सकता, लेकिन अफ़सोस की बात है कि ये इतने नाशुक्रे टाइप के लोग हैं कि बाद में आप ही के लिये कहते घूमते हैं कि खाली आदमी है, इसे कोई काम नहीं है. फोन लगाता है तो दो घण्टे बरबाद कर देता है. कवि और लेखक होने का एक नुकसान ये भी है कि आपके दिल में तो सारे जहाँ का दर्द है लेकिन ये भाई लोग बड़े प्रैक्टिकल हैं. इन्हें ऐसा बन्दा चाहिये जो इनकी व्यथा सुन के इन्हें हल्का तो कर दे, लेकिन इनकी बात पचा जाये, किसी से कुछ ना कहे. 

बॉस से पीड़ित लोग अक्सर गिरते-पड़ते मुझ नाचीज़ के पास ही आ कर टपकते हैं. उन्हें मालूम है कि कविवर घायल साहब ही उनके उद्गार झेल सकते हैं. उन्हें सांत्वना देने के चक्कर में मुझे भी मजबूरी में संवेदना के दो-चार शब्द कहने पड़ जाते हैं. बॉस को कहे कुछ सम्पुट उनकी घायल आत्मा पर फ़ाहे का काम करते हैं. अब जब रिटायरमेंट की कगार पर हूँ, तब समझ आया कि मेरा अच्छे से अच्छा दोस्त जब मेरा बॉस बनता है तो मुझे ही क्यों सुधारने में लग जाता है. हल्के होने के बाद जब इनका टूटा-फूटा आत्मविश्वास लौट आता है, तो ये ही जा कर बॉस को प्रेषित उन्हीं सम्बोधनों को मेरे नाम से ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर आते हैं. पता नहीं बॉस भी ऐसे लोगों को कैसे टॉलरेट करते हैं. मै तो कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता. उन्हें कमरे से बाहर निकाल दूँ. यदि कभी गलती से मै बॉस बन गया तो ऐसे लोगों की एंट्री ही बैन करवा दूँगा. लेकिन सहृदय लोगों के बॉस बन पाने की सम्भावना नगण्य होती है. उस पर एक दर्द ये भी है कि ऐसे लोग अपने ग़मों से उबरने के बाद पार्टी करते हैं तो हमें ही नहीं बुलाते. कभी-कभी तो लगता है कि इनकी पार्टी में जाने के लिये खाना-पीना शुरू कर दूँ, क्योंकि इनकी शिकायत रहती है कि तुम्हें क्या बुलाना, न खाते हो, न पीते. 

ऐसे लोगों की खासियत ये भी होती है कि इनके पास किसी और के दुखड़े सुनने का न समय है, न जज़्बा. गलती से किसी ने इनके आगे बीन बजानी शुरू कर दी तो यही लोग पॉज़िटिव एटिट्युड पर एक लम्बा लेक्चर पेल देंगे. यदि बन्दा गलती से इनके पास पहुँच जाये, और इनकी सुनने बैठ जाये, तो अपनी शान में इतने कसीदे काढ देंगे कि यकीन मानिये उस बन्दे को डिप्रेशन में जाने से स्वयं ब्रह्मा भी नहीं रोक सकते.

जिन बन्दों के नेटवर्क में मेरे जैसे लोग नहीं हैं, वो जालिम जमाने वाले स्टेटस ऐसे डालते हैं जैसे उन्होंने जमाने के लिये पता नहीं कितना त्याग किया है, लेकिन जमाना उनके किसी काम नहीं आया. बस उन्हें प्रताड़ित करने में लगा है. ऐसे लोगों को मेरी बिना माँगे वाली राय ये है कि पहले आप जमाने के काम आना शुरू कीजिये, फिर स्टेटस भी लगा लीजियेगा. तब वो आपका अधिकार होगा. दूसरा ऑपशन ये है कि मुझ जैसों को अपना दोस्त बनाईये. आपको आपके दर्द का एक साझीदार मिलेगा, और मुझ जैसों को एक कहानी का किरदार. 

- वाणभट्ट

शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

अन्तरात्मा

नौकरी की शुरुआत से ही मुझे ऑफिशियल क्वार्टर्स में रहने का सौभाग्य मिला. हर जगह कैंपस की लाइफ़ एकदम स्टैण्डर्ड सी होती है. ऑफिस से निकले तो घर आ गया और घर से निकले तो ऑफिस. कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो ऑफिस की बात जब तक घर पर बता न लें उन्हें बदहजमी बनी रहती है. ऑफिस में भले ही उनकी चूं न निकलती हो, लेकिन बीवी को उनकी अफ़सरी पर कोई शक न हो इसलिये शाम को चाय पर ऑफ़िस की छोटी-बड़ी सब बातें बता के ही दम लेते हैं. अपनी लकीर लम्बी करने में बहुत मेहनत है, इसके बनिस्पत दूसरे की लकीर छोटी करना कहीं आसान है. दिन भर मोहल्ले की पंचायत से बोर बीवी भी कुछ चटपटा सुनना चाहती है. आज बॉस ने किसी पडोसी की क्लास ली हो तो उससे अधिक इम्पोर्टेन्ट भला क्या बात हो सकती है. उसकी सोचिये जिसकी उस दिन क्लास लगी हो. उस शाम या तो बन्दा टहलने नहीं निकलता, और यदि निकल जाये तो उसे लगता है कि पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा उसके हाल से वाक़िफ़ है. हमारे यूपी में भाभी जी लोगों का आलम ये है कि भाईसाहब के साथ हों तो भले लम्बी-लम्बी हाँक लें. लेकिन अगर कभी अकेले में आमना-सामना हो जाये पहचानने से भी इंकार कर दें. ऐसे माहौल में यदि पड़ोस की भाभी जी ने बाई मिस्टेक गल्ती से स्माइल फेंक दी तो कसम से आदमी को डिप्रेशन का शिकार होने में देर नहीं लगती. 

कैम्पस मतलब शहर के अन्दर एक शहर. जो शहर में हो कर भी शहर से बाहर होता है. कभी कभी तो ये एहसास होता था कि कैम्पस देश और दुनिया के भी बाहर है. वहाँ की ख़बरें भी आन्तरिक होती हैं, जिनका बाहर की दुनिया से कोई मतलब नहीं. किसने किसका क्या काम लगाया और किसने किसको क्या सबक सिखाया, ये सब को पता होता है. जो ऑफिस में डिस्कस होता है, वही किटी में और जो किटी में डिस्कस होता है, उस पर ऑफिस में चर्चा होती है. कुछ लोगों को लगता है कि कैम्पस में रहने से आपकी प्राइवेसी नहीं रहती. लेकिन नये अनजाने शहर में पचास लोग जानने वाले हों, ये भी कोई कम नेमत नहीं है. सारी प्राइवेसी में खलल के बाद भी मुझे कैम्पस लाइफ़ इसीलिये अच्छी लगती थी कि मिलने वाला कोई ये नहीं कह सकता कि मैं इन्हें नहीं जानता या पहचानता. ये बात अलग है कि पहचाने या ना पहचाने. जो पहचान ले समझ लो उसे कुछ आपसे काम पड़ने वाला है. और जो न पहचाने उसका निकट भविष्य में आपसे कोई काम नहीं पड़ने वाला. सीधा हिसाब है. ऑफिस की दोस्ती फटे की यारी है. किस्मत ने साथ कर दिया तो निभाना ही पड़ेगा, किसी तरह का कोई वादा नहीं है. इसीलिये ऑफिस के रिश्ते मोहल्ले और मोहल्ले के रिश्ते ऑफिस पहुँच ही जाते. जो कुछ भी एक जॉइंट फैमिली में हो सकता है, सब यहाँ होता है. कौन सा ऐसा परिवार है, जहाँ सब बराबर हों, सबमें एका हो और किसी प्रकार की कोई खटपट न हो. हमारे यहाँ तो केन्द्र सरकार का विभाग होने के कारण सम्पूर्ण भारतीय संस्कृतियों के दर्शन हो जाते हैं. जो इस भावना की पुष्टि करते हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है.

कैम्पस की लाइफ़ में हम और हमारा परिवार रच-बस गया था. शायद ही कभी हमने कैम्पस से बाहर निकलने की सोची हो. दिन अच्छे भले कट रहे थे. सब एक दूसरे से खुल के मिलते थे क्योंकि क्या घर क्या ऑफिस सबको सबके बारे में सब पता था. लेकिन आदमी की फितरत ही ऐसी है कि जब सब कुछ सही-सही चल रहा हो तो उसे कुछ नया करने का मन करता है. बस मोनोटोनी से बचने के लिये. ऐसे में किसी ने राय दे दी कि इनकम टैक्स में रियायत पानी है तो होम लोन ले लो. जब आदमी नौकरी खोज रहा होता है तो उसे आजीविका के लिये एक अदद नौकरी की तलाश होती है. और जब पहली बार इनकम टैक्स देना पड़ता है तो उसे लगता है कि सरकार उसे चूस रही है. उसने कोई पूरे देश का ठेका तो उठा नहीं रखा है. तो जनाब टैक्स बचाने के लिए वो जितने हथकण्डे अपना सकता है, सब अपनाता है. सरकार को भी मालूम है नौकरीपेशा लोगों की ये मानसिकता. सो एक हाथ देती है और दूसरे हाथ ऐसी स्कीमें ले आती हैं जो टैक्सफ्री हैं ताकि जनता उनमें निवेश करे और सरकार का पैसा सरकार के पास ही रहे. देश की अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिये पैसे का सर्कुलेशन में रहना भी ज़रूरी है, वरना भारत का मिडिल क्लास तो इसीलिये बदनाम था कि साढ़े सात परसेंट के मुनाफ़े पर वो सारी बचत-पूँजी पीपीएफ और जीपीएफ में झोंक दे. 

टैक्स बचाने के उद्देश्य से मेरे मन में भी 'एक बंगला बने न्यारा' वाली तमन्ना कुलाँचे मारने लगी. सहगल साहब के ज़माने से अब तक में बहुत परिवर्तन आ चुका था. मिडल और सर्विस क्लास के लिये बँगले अब सपनों में ही रह गये थे. एलआईजी, एमआईजी और एचआईजी जो आप के बजट को सूट करे, वही चुन लीजिये और बंगले का स्वप्न भूल जाइये. सन 2000-05 तक फ्लैट्स की अवधारणा आ चुकी थी लेकिन अपने दस फुटा लॉन में सुबह की चाय और जाड़े में अपनी छत पर चटाई बिछा के धूप सेंकने की इच्छा ख़त्म नहीं हुयी थी. मिडल क्लास की खुशियाँ भी कितनी छोटी होती थीं, उन दिनों. शुभ कार्य को शीघ्र ही किया जाना चाहिये. वैसे तो हम लोग अपने कैम्पस जीवन से पूरी तरह सन्तुष्ट थे, किन्तु टैक्स बचाने के एक मात्र उद्देश्य से मैंने होम लोन लेने का निश्चय लिया. ये भी निर्णय हुआ कि मकान ले लेते हैं पर रहेंगे कैम्पस में ही.  

शुरुआत प्राइवेट बिल्डर्स के यहाँ से की क्योंकि सरकारी लोगों को पता नहीं क्यों लगता है कि प्राइवेट बिल्डर्स बेटर प्लानिंग करते हैं और अधिक सुविधायें देते हैं. ये तो बाद में पता चलता है कि उनकी मार्केटिंग ही उत्कृष्ट होती है, सुविधायें नहीं. कैम्पस में रहते-रहते हम लोग दुनिया से बाहर हो चुके थे. दुनिया कहाँ कितने आगे निकल गयी पता ही नहीं चला. बिल्डर ने पहले ही बता दिया कि 60 प्रतिशत श्वेत और बाकी 40 प्रतिशत श्याम में पेमेंट करना होगा. मै साईट मैनेजर की ओर देखता रह गया. भाई जितना कहोगे उतना अपनी बचत और लोन लेकर हम पूरा सफ़ेद धन दे सकते हैं, काली कमाई का तो एक धेला नहीं है हमारे पास. उसने कहा भाई साहब आप किस दुनिया में रहते हैं. जिसने भी मकान या फ़्लैट ख़रीदा हो पहले उससे मिलें वो बतायेगा कि मकान कैसे ख़रीदा जाता है. परम मित्र गर्ग साहब ने बताया कि महाजनो येन गत: स पन्था:. विभाग के मूर्धन्य लोगों ने यूँ ही सरकारी कॉलोनियों को आशियाना नहीं बनाया है. इसके लिये आपको पूरा लोन आसानी से मिल सकता है. इसीलिये हमारे सीनियर्स ने पास की एक शहरी प्राधिकरण कॉलोनी में अपना रैन-बसेरा बसाया हुआ है, तुम भी वहीं के लिये प्रयास करो.    

जब जागो तभी सवेरा. साहब हम भी ले आये एक फॉर्म कॉलोनी में मकान आवंटन के लिये. जैसा कि हमने पहले बताया था कि हम लोग अब तक ज़माने से बाहर का जीवन जी रहे थे. मकान की लॉटरी से लेकर रजिस्ट्री तक की प्रक्रिया में शामिल हर आदमी मुँह बाये खड़ा था. कोई फिक्स्ड रेट नहीं था और जो था वो भी अनाप-शनाप. तुर्रा ये कि जनाब दस्तूर है, चढ़ावे का. और बिना चढ़ावे के पत्ता तक नहीं खिसकता. बड़े-बड़े लोगों ने छोटे-छोटे लोगों को इस काम पर लगा रखा है. आप शिकायत भी करेंगे तो किसकी, किससे. जिस देश में व्यक्तिगत स्वार्थ सर चढ़ के बोलता हो वहाँ ईमानदारी की बात करने वाला भी अकेला हो जाता है. मकान आवंटन की इस पूरी प्रकिया में मुझे उन उन लोगों से मिलना पड़ा जिनसे शायद कोई कभी दोबारा मिलना न चाहे. बहुतों की कलई खुलते देखी और उनके रुआब का कारण भी समझ आया. सीधी सी बात है, अगर वो जनता की सहायता करने के उद्देश्य से काम करेंगे तो जनता को दुहेंगे कैसे. 

अब सेमी फिनिश्ड मकान को फिनिश कराना भी एक चुनौती से कम नहीं था. लेकिन अब तक ऑफिशियल डीलिंग की कुछ-कुछ आदत सी पड़ गयी थी. ऊपर वाले दिखाने को कट्टर ईमानदार टाइप के लोग होते हैं. उनका काम है नीचे वालों को संरक्षण देना. बात नीचे वालों से ही बनती है और उनके नखरे उठाना हर किसी की मज़बूरी बन जाता है. उसे ही वो अपनी ताकत समझ कर गौरवान्वित होते रहते हैं. 

जब बिजली के कनेक्शन के लिये सबस्टेशन पहुँचा तो अन्दर घुसने से पहले ही जुगाड़ तलाशने लगा. किसी ने बताया फॉर्म विभाग के एक साहब के झोले में रहता है लेकिन देते हैं वो किसी चाय की दुकान पर बैठने वाले दलाल के माध्यम से ही हैं. पता नहीं क्यों मुझे दलाल शब्द से घोर आपत्ति है. आपको उन्हें सेवा प्रदाता कहना चाहिये. एक से एक दुरूह काम को वो अपने नेटवर्क की वजह से चुटकी बजाते ही कर और करवा सकते हैं. चाय की दुकान पर बहुत भीड़ थी. कुछ लोग चाय भी पी रहे थे. कुछ चाय पी कर बैठे हुये थे. कुछ चाय के आने का इन्तजार कर रहे थे. भगोने पर चाय औटाई जा रही थी. बिना किसी को सम्बोधित किये मैंने हवा में जुमला उछाला - बिजली का कनेक्शन लेना था. कुछ मुस्कुराते चेहरों को मैंने अपनी ओर देखता पाया. फ़रेब के धन्धे पूरी ईमानदारी से होते हैं. दो बन्दे मेरी तरफ बढ़ लिये. किनारे ले जाकर उन्होंने पूरी कागज़ी फोर्मैलिटी और ईमानदारी से फिक्स्ड रेट भी बता दिया. ये भी बता दिया कि ज्यादा जुगाड़ के चक्कर में पड़ेंगे तो चक्कर ही काटते रह जायेंगे. अब तक के तजुर्बों से मुझे इस बात पर विश्वास  हो चला था कि तुलसी बाबा जी ने भी निर्विघ्न मानस लिखने से पहले दुष्टों की पूजा अर्चना क्यों की होगी.

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएं| जे बिनु काज दाहिनेहु बाएं||

पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें| उजरें हरष बिषाद बसेरें|| ||

कुछ लोग निहायत ही दुष्ट प्रवृत्ति के होते हैं. उन्हें निष्प्रयोजन ही दूसरों की को परेशान करने में आनन्द आता है. अर्थात आप ये भी मान सकते हैं कि दुष्टों का धरती पर सदा से वास रहा है और बिना उनकी स्तुति-वन्दन के महान से महान लोगों के लिये महान कार्यों का निष्पादन कर सकना असम्भव रहा है. सम्भवतः ये देश इसी कारण से आज भी विकासशील राष्ट्र है क्योंकि ये दुष्टों के सही हो जाने की उम्मीद पाले बैठा रहा. इनकी सेन्स वैल्यू हो या न हो लेकिन न्यूसेंस वैल्यू बहुत है. अब चूँकि न्यूसेंस कोई अपराध तो है नहीं कि इन्हें कोई सजा दी जा सके. अक्सर ये लोग संगठित तरीके से गिरोह बना कर काम करते हैं. इनका पूरा इको सिस्टम होता है. और अच्छे लोग तो हमेशा माइनोरिटी में ही रहे हैं. इनके बस दो ही इलाज़ हैं. या तो सही जगह पर सही तरह से लट्ठ बजे या इनके अहम् की तुष्टि की जाये. पहले में रिस्क ये है कि उनकी संख्या ज्यादा है. दूसरा कोई भी शरीफ़ व्यक्ति उतना नहीं गिर सकता, जहाँ ये लोट रहे हैं. इगो को सन्तुष्ट करना एक सबसे सेफ़ तरीका है लेकिन इसके लिये आपको अपनी इगो की तिलांजलि देनी पड़ती है. काश ये बात पहले समझ आ जाती तो हम भी इस जीवन में कुछ महान काम कर गुजरते. अपनी इसी मूढ़ता के चलते अपने कितने ही महान विचारों को मूर्त रूप नहीं दे पाया. अब तो कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है कि ये जीवन तो व्यर्थ चला गया, अगले जनम में देखा जायेगा.

अपने इगो को दरकिनार करते हुये उनके सामने चाय की पेशकश की लेकिन बन्दों ने गुटखे की डिमांड रख दी. जिसके लिये बस पाँच रुपये से उन्होंने संतोष कर लिया. मुझे ले कर वो सबस्टेशन में घुस गये और एक चपरासीनुमा अफ़सर (श्री श्रीलाल शुक्ल जी के कॉपीराइट से साभार चुराया हुआ) के सामने मुझे प्रस्तुत कर दिया. अफ़सर ने उन्हें देखते ही आग बबूला होने का स्वांग किया. यहाँ ले कर क्यों आ गये और उन्हें डाँटते हुये वो उनके साथ कमरे के बाहर निकल गया. जब कि उन दिनों मोबाईल फोन वाला ज़माना नहीं था कि कोई कुछ रिकॉर्ड कर सके. लेकिन पेन वाले स्पाईकैम आ चुके थे. 

अब मेरा ध्यान कमरे की दरो-दीवार पर गया. सरकारी दीवारों पर एक ही रंग होता है जो मेरे स्टाफ़ क्वार्टर का भी था पीला क्रीम. कमरा छोटा था. अफसर की मेज-कुर्सी के बाद बमुश्किल विजिटर चेयर की गुंजाईश थी. जिसकी शोभा नाचीज़ उस समय बढ़ा रहा था. उनमें एक दरवाज़ा था जिससे मै अन्दर आया था या वो बाहर गये थे. एक खिड़की थी जो मेज के ठीक सामने थी, मेरी पीठ के पीछे. मेज की बायीं ओर एक सीमेंट की ढली हुयी अलमारी थी, जिस पर पल्ले लगने बाकी थे. उस अलमारी में एक फोटो फ्रेम रखा था. वो भी उल्टा यानि बोर्ड वाला हिस्सा सामने था, फोटो वाला पीछे. हो सकता है फोटो का शीशा टूट गया हो. मेरे मन में किसकी फोटो है, ये जानने की प्रबल जिज्ञासा उठ खड़ी हुयी. जब तक मै ये देख पाता की तस्वीर किसकी है, तीनों गुटका चबाते हुये वापस आ गये.

सेवा प्रदाता के हाथ में एक फॉर्म था. उसने कहाँ-कहाँ हस्ताक्षर करने हैं और क्या-क्या कागज़ लगाने हैं, इसकी संक्षिप्त हिदायत दी और साथ में ये भी जोड़ दिया कि फॉर्म गलत हो गया तो फिर पूरी फोर्मैलिटी करनी पड़ेगी. फ़ीस के साथ उसने शीघ्र आने के लिये भी कहा. आ कर चाय कि दुकान पर हमसे मिल लीजियेगा, आपका काम हो जायेगा. तय रेट के अनुसार मैंने शर्ट की उपरी जेब में रखे रुपये साहब जी की ओर बढ़ा दिया. उसने चढ़ावा सेवा प्रदाताओं को अर्पित करने का इशारा किया. मैंने वैसा ही किया. तीनों पैसा लेकर फॉर्म सहित पुनः कमरे से बाहर चले गये. शायद पैसा गिनने या देखने कि कहीं कटा फटा नोट तो नहीं पकड़ा दिया. उनके अपने तरीके हैं ठोंक बजा के काम करने के. इस बीच मुझे हाथ बढ़ा कर फोटो देखने का मौका मिल गया. 

फोटो गाँधी जी की थी. मुझे लगा कि कम से कम उस अफ़सर की अंतरात्मा इतनी जाग्रत तो थी कि हमारे महापुरुष के सामने गलत करने से वो कतरा रहा था. अन्य विभागों में उनके चित्र सामने लोग सरेआम हर वो काम कर रहे हैं जो उन्हें नहीं करने चाहिये. गाँधी जी का चित्र भला किसी को कुछ भी सही या गलत करने से कैसे रोक सकता था. जहाँ लोग भगवान के सामने भी गलत करने से न घबराते हों, वहाँ इस व्यक्ति का राष्ट्रपिता के प्रति इतना आदर भाव देख कर मै भाव विह्वल हो गया. हर विभाग का अपना दस्तूर होता है वर्ना देश में भले लोगों की कमी नहीं है. मेरा मन उस अफ़सर के प्रति श्रद्धा और आदर से भर गया.

-वाणभट्ट 

शनिवार, 18 जनवरी 2025

प्रोस्पैरिटी इंडेक्स

भारत वर्ष को लेकर विकसित देश बस गरीबी और भुखमरी की बातें करते हैं. उन्हें ये बताते बड़ा अच्छा लगता है कि अभी भी हमारा देश ग्लोबल हंगर इंडेक्स में बहुत आगे है. जो कि देश में व्याप्त भयंकर भुखमरी का द्योतक है. और हमारा भोलापन देखिये कि कोई भी बात अंग्रेजी में छप जाये तो उसे ब्रह्मवाक्य मान कर अपनी ही सरकार के पीछे पड़ जाते हैं. अपने पिछड़ेपन का सियापा फैलाना विपक्ष के लिये सत्ता तक पहुँचने का माध्यम बन गया है. एक बात मेरी समझ में आजतक नहीं आयी कि जब पक्ष और विपक्ष दोनों का ध्येय देश की उन्नति है तो सत्ता में होने या न होने से क्या फ़र्क पड़ता है. जो लोग भी चुन के आ जायें, देशहित में काम करें. और न भी आयें तो भी देशहित के लिये काम करने से किसी ने उन्हें रोका तो नहीं है. सब मिल जुल के संसद में बैठो, जो उचित हो उस पर वोटिंग के आधार पर नियम बनाओ, कानून बनाओ. बहुत ही आसान है. पर शायद यहीं से राजनीति की शुरुआत होती है.

स्थिति ये है कि भाई लोग बिना सत्ता में आये कुछ करना नहीं चाहते. और जब आ जाते हैं तो पक्ष, विपक्ष में परिवर्तित हो जाता है और विपक्ष पक्ष में. इतने समय में जो बात समझ आयी है वो ये है कि पक्ष अपनी पीठ ठोंकने को आतुर है, तो विपक्ष उसकी बधिया उधेड़ने में. क्या मजाल कि किसी भी कंस्ट्रॅक्टिव काम पर ही दोनों एक मत हो जायें. एक जमाना था जब नेता देश की आज़ादी के लिये  एकजुट हो कर लड़ रहे थे, अपनी-अपनी तरह से. लेकिन तब तक सत्ता का स्वाद नहीं चखा गया था. दुश्मन एकदम क्लियर था. एक बार सत्ता का स्वाद मिल गया तो देश को अपनी जागीर समझ लिया. पुश्त-दर-पुश्त अपनी संतानों को बस ये ही बताते रहे कि ये देश तुम्हारी विरासत है. 70 सालों में तरक्की तो हुयी लेकिन जितनी होनी चाहिये थी, उतनी नहीं. जिनको सत्ता मिली, उनका विकास देख के ये अवश्य पता लगता है कि देश के विकास की कृपा कहाँ रुकी पड़ी थी. 

सत्तर सालों में जनता ने भी बहुत सारे प्रयोग कर डाले. जब हम आज भी इतने भोले-भाले हैं कि अपना भला नहीं सोच सकते, तो पहले की बात ही क्या करनी. जिसने जो भी वादे किये, जनता ने उसे ही सिरमौर बना दिया. वादे भी ऐसे कि जनता को लगे कि रामराज्य ऐसा ही होता होगा. अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम. कोई भी समाज त्याग पर तो विकसित हो सकता है, लेकिन यदि भोग को ही विकास का पैमाना मान लिया जाये तो समाज का तो भला होने से रहा. जो बुद्धि-बल-धन से सम्पन्न हैं, जिम्मेदारी उन्हीं की है, कि वो समाज के वंचितों के उत्त्थान और विकास के विषय में सोचें, काम करें. समृद्ध और सम्पन्न लोग यथासामर्थ्य-यथाशक्ति कर भी रहे थे. कभी-कभी उन लोगों को भी भ्रम हो जाता था कि दुनिया चलाने का ठेका उन्होंने ही तो नहीं ले रखा है. जब हम अपने बुद्धि-बल से सम्पन्न हो रहे हैं, तो वो मेरी व्यक्तिगत सम्पन्नता है और उस पर किसी प्रकार की दावेदारी नहीं होनी चाहिये. 

लोकतंत्र की खूबी ये है कि वो बनता वंचितों से  है लेकिन पलता पूँजीपतियों की गोद में ही है. क्योंकि 'एव्री वोट काउंट्स'. और वंचितों की संख्या, समर्थों की संख्या से हमेशा अधिक रही है. सत्ता उसी के पास रहती है जिसके पीछे जनता है. और जनता को चाहिये उँगलियाँ घी में और सर कढाई में. ऐसी स्थिति में एक ऐसे समाज की परिकल्पना गढ़ी गयी, जहाँ किसी प्रकार का वर्ग-विभेद न हो. सब बराबर. एक काल्पनिक आदर्श व्यवस्था. ये बात अलग है कि आदर्श के मानदण्ड इतने ऊपर हैं कि उनके लिये प्रयास तो किया जा सकता है, लेकिन प्राप्त करना असम्भव है, वो भी तब जब समाज के अधिसंख्य लोग त्याग के लिये तत्पर न हों और व्यक्तिगत स्वार्थ सर्वोपरि हो. बहरहाल लोकतंत्र की कुन्जी जनता के हाथ है और जनता उसके साथ है, जो अधिक सपने यथार्थवादी तरीके से बेच सके. इसी प्रयोग में सरकारें जीतती रहीं और जनता हर बार हारती रही. उसी के परिणामस्वरुप आज सामने है एक विभाजित-विघटित समाज. जो आज भी अपने उत्थान का जश्न मनाने से अधिक अपने पिछड़ेपन को जीने और ढोने को विवश है. 

मेरे एक परिचित कनाडा से लौट के भारत आये. पुणे में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी शुरू की. लेकिन थोड़े ही दिनों में उन्हें ये एहसास हो गया कि उन्होंने गलती कर दी. जो वर्क कल्चर कनाडा में था या जिस ग्रोथ की सम्भावनायें कनाडा में थीं, वो यहाँ नहीं मिलनी. इसलिये उन्होंने अपनी पत्नी से वापस लौटने के विषय में परामर्श किया. पत्नी ने छूटते ही मना कर दिया. यहाँ उसने हर घरेलू काम के लिये कोई न कोई हेल्पर लगा रखा था, वहाँ सारा का सारा काम खुद ही करना पड़ता था. जहाँ सब समृद्ध हों वहाँ आपकी समृद्धि का कोई मोल नहीं. यहाँ तो आप आदमी, और आदमी का समय दोनों खरीद सकते हैं. कोई देश कितनी भी तरक्की कर ले लेकिन तरक्की का मज़ा (विशेष रूप से जब व्यक्तिगत हो) तो वो आप विकाशसील देश में ही ले सकते हैं. देश को तो निरन्तर आगे ही बढ़ना है. उसी का नतीजा है कि आज हर क्षेत्र में उन्नति दिखायी देती है. जैसे-जैसे लोगों समृद्धि बढ़ी है वैसे-वैसे जनसामान्य के जीवन स्तर में भी सुधार हुआ है. एक समय वो था जब समृद्धि का मानक मारुती 800  थी, आज ना-ना प्रकार की विदेशी कारों का भारतीय बाज़ार में जलवा है. हर तरफ मॉल कल्चर देख-देख कर आँखें चकाचौंध हैं. हर कोई देश की तरक्की देख कर हतप्रभ है. कुछ दिन पूर्व ही मेरे एक मित्र दो महीने का जापान प्रवास करके आये हैं. जब हालचाल लिया तो उनका पहला वाक्य था - वर्मा जी नरक देखने के लिये आपको कहीं और जाने की जरूरत नहीं है. बस अपने अगल-बगल नज़र घुमा के देख लीजिये. उनके इस वक्तव्य ने मेरी - 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' की भावना को ठेस लगायी, लेकिन वास्तविकता यही है इसलिये मैंने कोई कुतर्क नहीं किया. 

चूँकि हमने सारे विकास का ठेका अपने नेताओं को दे दिया है तो हम आसानी से अपनी बेसिक जिम्मेदारी भी उन पर थोपने से नहीं चूकते. सरकार कुछ करती ही नहीं. सरकार के सफायी अभियान के प्रयासों के बाद भी कूड़ों के ढेर अभी भी दिखायी दे रहे हैं. बहुमंजली इमारतों और आवासीय कॉलोनियों के बगल में बसी झुग्गी-झोपड़ियों ने विकसित समाज को सस्ते मजदूर मुहैया करा रखे हैं. और उन्हीं मलिन बस्तियों को सम्पन्न लोग प्रायः हिकारत की नज़र से देखते हैं. नेताओं ने भी अपनी गाड़ियों के शीशे काले कर रखे हैं ताकि समाज की विद्रूपता को आसानी से अनदेखा कर सकें. अभी हमारे इलाके में फुटपाथ और नाली का अभियान आरम्भ हुआ. उम्मीद थी कि विलुप्त हो गये फुटपाथ और नालियाँ पुन: प्रगट हो जायेंगे, लेकिन ऐसा हो न सका. जिसने-जिसने सहयोग किया उसके सामने काम हो गया, जिसने नहीं किया उसका वोट भी तो सरकार में बने रहने के लिये आवश्यक है. फुटपाथ पर अतिक्रमण वैसे ही विद्यमान है, जैसे पहले था. जैसा समाज होगा वो अपने जैसे लीडर ही चुनेगा. जाति-पंथ-सम्प्रदाय के आधार पर हम जब तक नेता चुनते रहेंगे, सरकारें तो बनती रहेगी, किन्तु देश हाशिये पर ही रहेगा. 

प्रिय पाठकों, आप लोगों को लग रहा होगा कि बंदा ये क्या मर्सिया ले कर बैठ गया जबकि देश दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है. मल्टीस्टोरी बिल्डिंगें बन रही हैं, मेट्रो रेल चल रही हैं, सड़कों के जाल बुने जा रहे हैं, बड़ी-बड़ी विदेशी कारों ने सड़कों को जाम कर रखा है, ट्रेन में एसी कोच की संख्या जनरल डिब्बों से ज्यादा हो गयी है, फिर भी वाणभट्ट को तरक्की नहीं दिखायी दे रही है, तो निश्चय ही आप गलत सोच रहे हैं. दरअसल लेखक ये कहना चाहता है कि देश को सत्तर साल बाद जहाँ होना चाहिये था, वहाँ से अभी भी बहुत दूर है. इन्फ्रास्ट्रक्चर की तरक्की दिखायी देती है लेकिन सामाजिक मूल्यों का ह्रास किसी को दिखायी नहीं देता. एक मित्र इंग्लैण्ड में रहते हैं. भारत आते-जाते रहते हैं. उनका कहना था कि हम लोग सिर्फ़ भौतिक संरचनात्मक विकास देख कर प्रफुल्लित हैं. सभ्यता और संस्कार छोड़ कर प्रगति नहीं होती. ये ढाई साल के बच्चे में तो विकसित की जा सकती है लेकिन पच्चीस साल के युवा में नहीं. न तो हम अपने भारतीय संस्कारों को पोषित कर सके, न ही हमने विदेशी मैनर्स को पूरी तरह अपनाया. जब बदतमीज़ी को हमने स्मार्टनेस का पर्याय मान लिया तो हर व्यक्ति स्मार्ट बनने और बच्चों को स्मार्ट बनाने में लगा है. दलील देता है कि ज़माने के साथ चलना हमारी मज़बूरी है.     

मेरा ध्यान देश की समृद्धि पर नहीं गया होता यदि इस बार देवोत्थान एकादशी पर अपने भाई साहब के कहने पर एकादशी का व्रत रखना शुरू न किया होता. तब पता चला कि देवशायनी एकादशी से लेकर देवोत्थान एकादशी तक हिन्दू धर्म में सभी शुभ कार्य वर्जित हैं. और विष्णु भगवान के जागने के बाद जो शुभ कार्यों का रेला शुरू हुआ कि मेरे जैसे असामाजिक व्यक्ति (तत्व) के यहाँ भी विवाह के कुछ नहीं तो दस कार्ड आ गये. अब चूँकि दिखावे का ही जमाना है तो मुझे भी ग्यारह सौ से लेकर इक्कीस सौ से लेकर इक्यावन सौ तक देने पड़ गये. जिसको तेल लगाना था, उसको इक्यावन सौ और जिससे ज्यादा काम न पड़ने की उम्मीद थी, उसे ग्यारह सौ में निपटा दिया. फिर भी औकात दिखाने के चक्कर में महीने का बजट बिगड़ गया. अब जब कार्ड ही इतना मँहगा है तो नैवेद्य तो उससे ऊपर ही होना चाहिये. उपर से कार्ड देते समय कोई मैरिज हॉल में पर-प्लेट का रेट बता दे तो आदमी शर्माते-शर्माते भी ग्यारह सौ तो दे ही जायेगा. यदि आपका किसी से दुश्मनी मोल लेने का मंसूबा हो तो, आप पाँच सौ एक से भी काम चला सकते हैं.   

केवल दिल्ली एनसीआर में ही देवोत्थान एकादशी पर 48000 शादियाँ एक ही दिन में थीं. पूरे देश में कितनी होंगी, इसका एक सहज अंदाज़ लगाया जा सकता है. तमाम डेस्टिनेशन वेडिंग के कार्ड थे, जिसमें हर ओकेजन के हिसाब से ड्रेस कोड निर्धारित थे. उस पर तुर्रा ये था कि दसों शादी में फोटो खींची जानी थी. जिन्हें स्टेटस और फेसबुक पर अपडेट किया जाना था, इसलिये ड्रेस रिपीट भी नहीं होनी थी. और ऐसा सिर्फ मेरे लिये होता तो गनीमत थी, सारे कार्ड विथ फैमिली वाले थे. पूरे घर का स्टैण्डर्ड दिखाते-दिखाते मेरी तो ऐसी की तैसी हो गयी. और ऐसा सभी के साथ हुआ होगा. अपर क्लास अगर एक सूट में सारी शादी अटेंड कर ले, तो उसे सादगी या सिम्प्लिसिटी कहा जाता है. मिडल क्लास के लिये, इसे ही चिरकुटई की संज्ञा दी गयी है. बेगानी शादी में जब हम ही दस-बीस हज़ार के लपेटे में आ गये तो जिसके यहाँ शादी होगी उसको तो दिल खोल के दिखाना ही होता है. अब जब से लड़कियों और लड़कों में भेद कम हो रहा है, तो क्या लड़की और क्या लड़का दोनों की शादी में खर्चा बराबर हो रहा है. तीन-चार दिन चलने वाली शादीयों में, जिसे पूछो कितना खर्च हुआ तो ऑन एन एवेरेज पच्चीस-तीस लाख ऐसे बोल रहा है, जैसे इतना तो बनता ही था. और ये मै अपने जैसे मिडल क्लास लोगों की बात कर रहा हूँ. वर-वधु पक्ष दोनों के खर्चों को जोड़ लिया जाये तो एक शादी पचास लाख के अल्ले-पल्ले पड़ेगी. इसीलिये भारतीय शादियों को बिग फैट इंडियन वेडिंग्स के रूप में इन्टरनैशनल टीवी चैनेल्स पर शान से दिखाया जा रहा है. इतनी शादी से कितने ही लोग जुड़े होंगे. आभूषण वाला, परिधान वाला, किराने वाला, फल-फूल-सब्जी वाला, खाना बनाने वाला, खिलाने वाला, डेकोरेशन वाला, मैरिज हॉल वाला, बैंड वाला, पटाखे वाला, ट्रान्सपोर्ट वाला, होटल वाला, ट्रेवेल वाला. ब्यूटिशियन-मेकअप-नाइ-दर्जी-मोची-धोबी-लौंड्री, सभी की कहीं न कहीं आवश्यकता पड़ी होगी. पहले एक शादी, एक सायकिल, फिर स्कूटर, फिर मोटर सायकिल पर सेटेल हो जाया करती थी, अब कार से कम में बात नहीं बनती. स्टेटस की बात हो तो बस ये बताना होता है कि कार दस की है या बीस की. लाख तो आपने जोड़ ही लिया होगा. एक शादी कितने लोगों को इनकम और एम्प्लॉयमेंट देती है. शादी को पैसे की बर्बादी कहने वालों को इसके देश की अर्थ व्यवस्था में देने वाले योगदान पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये. देश की अर्थव्यवस्था को सम्हालने के सबसे बड़े पिलर का ज़िक्र करना तो मै भूल ही गया. जी हाँ, आपने सही समझा. जब तक उनका सहयोग न मिले किसी भी बारात का मज़ा जाता रहता है. बिना पिये आदमी (और अब औरत भी) भला कितनी देर डांस कर सकता/सकती है. यानि एक शादी का मतलब है देश की अर्थ व्यवस्था के सशक्तिकरण की दिशा में एक सशक्त कदम. जितना हम प्रतिवर्ष शादियों में खर्च कर देते हैं उतना तो कई विकसित देशों का जीडीपी भी न होगा. प्रोस्पैरिटी हर तरफ से फटी पड़ रही है. विश्व की 70 प्रतिशत ओबीस पॉपुलेशन (मोटापाग्रसित जनसंख्या) के साथ हम विश्व की नम्बर तीन पायदान पर हैं. बताइये और कितनी समृद्धि चाहिये.

जो लोग भारत को गरीब और मुफलिसों का देश समझते हों उन्हें कम से कम भारत में एक शादी जरुर अटेंड करनी चाहिये. दिमाग चकरघिन्नी न खा जाये तो कहना. यहाँ लोग जिंदगी भर बचत इसलिये करते हैं कि बच्चों की शादी शानदार तरह से की जायेगी. एक सौ सत्ताईस देशों की ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत एक सौ पाँचवें नम्बर पर है. इस बात पर विपक्ष बहुत शोर मचाता है. लेकिन किसी ने ये जानने की कोशिश नहीं की कि ग्लोबल प्रोस्पैरिटी इंडेक्स में हम कहाँ हैं. सुधी पाठकों की जानकारी के लिये ये बताना जरूरी हो जाता कि यहाँ भी हमारी स्थिति एक सौ सडसठ देशों में एक सौ तीन है. जीवन में द्वैत हमेशा रहेगा. सच-झूठ, अच्छाई-बुराई, श्वेत-श्याम, अमीरी-गरीबी, सब जगह साथ-साथ रहते हैं. एक चन्द्रयान प्रोजेक्ट को संसाधनों का दुरूपयोग मान सकता है तो दूसरा सफलता का कीर्तिमान. ये हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हमारा अपना दृष्टिकोण क्या है. हर सिक्के के दो पहलू होते हैं और हर तस्वीर के दो रुख़.

विपक्ष जहाँ हंगर इंडेक्स के आधार पर भारत के पिछड़े होने का सियापा फैला सकता है, तो वहीं सत्ता पक्ष ग्लोबल प्रोस्पैरिटी इंडेक्स को आधार बना कर देश के विकासोन्मुखी होने पर अपनी पीठ ठोंक सकता है. मेरे विचार से ये सब आंकड़े हैं जो सदैव मानवीय संवेदनाओं से परे होते हैं. देश को विकसित होने में हम सबकी भूमिका अहम होने वाली है. राष्ट्रवाद और मानवमूल्य ही किसी विकसित देश की आधारशिला हैं. 

-वाणभट्ट

रविवार, 29 दिसंबर 2024

समाज सेवा

कोई पूछे कि आदमी क्या है? तो गुलज़ार साहब कहते कि आदमी बुलबुला है पानी का. अब हम गुलज़ार तो हैं नहीं, इसलिये पुराना घिसा-पिटा डायलॉग मार देते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. आजकल जिसे देखो बस यही सिद्ध करने में लगा रहता है कि समय बहुत बदल गया है. समय ही तो एक ऐसी चीज़ है जो पल प्रति पल नवीन है. उसे निरन्तर आगे बढ़ना और बदलना ही है. लोगों की ये टिप्पणी अमूमन समय को लेकर कम समाज को लेकर अधिक होती है. जब समय हर समय बदल रहा है, तो समाज का बदलना भी तय है. वो वैसा का वैसा कैसे रहेगा जैसे पहले था. लेकिन आदमी की आदत है, उसे या तो भूत में जीना है या भविष्य में. हर कोई जमाने से पता नहीं क्या-क्या उम्मीदें पाले घूम रहा है. उनकी बातों से लगता है - 'क्या से क्या हो गया' या 'ये कहाँ आ गए हम'. उनका पसन्दीदा विषय होता है कि क्या ज़माना हुआ करता था और अब क्या हो गया है. वाट्सएप्प पर स्टेटस ऐसा  लगाते हैं मानो समाज उनका उधार खा कर चुकता करना भूल गया हो. उन्होंने तो समाज को बचाने के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और ज़माना कृतघ्न निकला. भूतकाल की यादें संजोये कहेगा - जाने कहाँ गये वो दिन. जब आज की नयी पीढ़ी ने कन्चे और गुल्ली-डंडा खेला नहीं, देखा नहीं, जिन्होंने वीडियो गेम पर अपना बचपन गुजार दिया हो, उनको आपके 'हाय वो भी क्या दिन थे', से क्या ख़ाक सरोकार होगा. पुराने लोगों में भी, जिनका जीवन रईसी-जमींदारी, सुख-सुविधाओं में बीता हो, वो भले ही बीते हुये दिनों के लौटने की उम्मीद में ठंडी आहें भर सकते हैं. लेकिन जिनका जीवन त्रासदियों से जूझते बीता हो, वो कभी नहीं चाहेंगे कि कोई उनके बीते हुये दिन लौटा दे. 

भविष्य के नाम पर इनके पास, भारत के चीन, जापान, इजरायल और अमेरिका बन जाने के दिवा स्वप्न हैं. लेकिन उस विकास के पीछे जिस राष्ट्रवाद और त्याग की आवश्यकता होती है या होगी, उसकी आशा ये दूसरों से करते हैं. भगत सिंह हो तो पडोसी के यहाँ और अम्बानी हो तो हमारे यहाँ. और जब ये सोच ऊपर से नीचे तक हर आदमी की आत्मा तक में घुस गयी हो तो आज़ादी के सत्तर साल बाद आज हम जहाँ पहुँचे हैं, वो भी बहुत है. स्वार्थ का भाव हावी है. त्याग का अभाव सर्वत्र व्याप्त है. देश-समाज से ऊपर व्यक्तिगत स्वार्थ की अति के कारण ही भारत आज भी विकासशील देशों की श्रेणी में आता है. ये सभ्यता का तकाज़ा है, नहीं तो विकसित देश हमें बैकवर्ड (पिछड़ा) देश भी कह सकते थे. जैसे हमने अपने यहाँ एक छद्म अदर बैकवर्ड क्लास (ओबीसी वर्ग) बना रखा है, ताकि कुछ जातियों को लगता रहे कि वो पैदायशी फॉरवर्ड हैं और रहेंगे. हम उसे डेवेलपिंग क्लास भी कह सकते थे, लेकिन उससे उनमें हीनता के बोध में कमी आती है. हमें लगता है कि विकसित देश हमें विकासशील बोल कर हमारी इज्ज़तअफज़ाई कर रहे हैं. हमें ये खुशफ़हमी बनी रहती है कि कुछ भी हो इतनी विसंगतियों के बाद भी हम तरक्की कर रहे हैं. हमारा इतिहास तो हमेशा से गौरवशाली रहा है. और हम आसानी से आत्मश्लाघा के शिकार बन जाते हैं. लेकिन हमें ये नहीं समझ आता कि इस शब्द से उन्होंने डिक्लेयर कर रखा है कि भाई आज़ादी के सत्तर साल बाद भी ये विकासरत हैं, और अभी तक विकसित नहीं हो पाये हैं. इसे कहते हैं मखमल में लपेट के जूता मारना. 

हमने क्या सबने, बचपन से अब तक दुनिया को आगे ही जाते देखा है. देश ने तरक्की के नये-नये प्रतिमान गढ़े हैं. ऐसे में जब कोई बीते हुये दिनों को याद करता है, तो समझ आता है कि वो उस ज़माने की समाज में व्याप्त मानवीय मूल्यों और सद्भाव की बात कर रहा है. तब शायद नैतिकता और आदर्श कोरे शब्द नहीं थे और पूरा का पूरा समाज उन्हें जीने की कोशिश करता था. लोगों के पास समय की कोई कमी नहीं थी, इसलिए सबके साझे सुख और दुःख  के होते थे. तीज-त्यौहार सब मिलजुल के मनाते थे. समाज एक परिवार था और जीवन एक उत्सव. लेकिन भौतिक तरक्की, जो आज देखने को मिल रही है, तब वो न थी. ढाई सौ रुपये की सैलरी में पूरा परिवार पल जाता था. परिवार को कुनबा कहना ज़्यादा उचित होगा, क्योंकि उसमें दादी-बाबा, भाई-बहन, पत्नी-बच्चे सब शामिल थे. पास-पड़ोस और गाँव-देहात, एक्सटेंडेड फैमिली हुआ करते थे. आज ढाई लाख के पैकेज में ढाई प्राणी पल जायें तो गनीमत है. फिर आदमी कहता फिर रहा है, जमाना बदल गया है. 

तब समय की न कमी थी, न कोई पाबन्दी. प्रतिदिन प्रातः खेत-खलिहान का मुआयना करना शारीरिक आवश्यकता भी थी और मज़बूरी भी. कोयले की अँगीठी की आँच में माँ और दादी को खाना बनाते सभी पुरनिया लोगों ने देखा होगा. सुबह सवेरा होने से पहले चूल्हा जलाना और रात का खाना खत्म होने के बाद चूल्हे को मिटटी से लीपना अनिवार्य था. बिना नहाये किचन में प्रवेश वर्जित था. अँधेरा होने के बाद का जीवन, लालटेन और लैम्प के प्रकाश तक सीमित हो जाता था. बिजली के अविष्कार, उत्पादन और वितरण ने मानव विकास में अमूल्य योगदान दिया है. आज जब जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है तो आदमी पुराने झींगा-लाला वाले दिनों में पुन: लौट जाने की बातें कर रहा है. बहुत से अतिशिक्षित और सम्पन्न लोग, सारे विकास को तिलांजलि देकर खेती करने और जंगलों में झोंपड़े बनाने को तत्पर लग रहे हैं. निसन्देह तकनीकी विकास ने मानव जीवन को बहुत सुगम बना दिया है. किन्तु सामाजिक जीवन को भी नकारात्मक तरीके से प्रभावित किया है.

आदमी ने इतनी तरक्की की है, इतनी तरक्की की है कि क्या बतायें. जहाँ दहेज में रेडियो और साइकिल की डिमांड हुआ करती थी, अब वहाँ कोई एसयूवी से नीचे बात करने को तैयार नहीं हैं. मेट्रो ट्रेन हर शहर में चलायी जा रही है. ऊँची-ऊँची स्काई स्क्रैपर बिल्डिंग हर शहर में बन रही हैं. जगह जगह एक्सप्रेस वे बन रहे हैं. मानव श्रम को कम करने और शरीर के आराम देने के लिये आज ना-ना प्रकार के उपकरण और यंत्र उपलब्ध हैं. आदमी अपने शरीर को आराम देने के लिये इसलिये काम कर रहा है कि बहुत सारे पैसे के बिना सुविधाओं का अम्बार नहीं खरीद सकता. पैसा कमाने की होड़ सी लगी है. यहाँ तक भी बात समझ आती है कि आदमी अपनी इच्छाओं के लिये ही तो जीता है. लेकिन इसके बाद कहानी में ट्विस्ट है. कुछ समय बाद अन्जाने में एक-दूसरे से आगे निकल जाने की अन्धी दौड़ में शामिल हो जाता है. इंसान का जीवन आज से ज़्यादा सुखी और खुशहाल शायद पहले कभी नहीं था. लेकिन जब सब सुखी हो जायें तो आदमी ये सोच कर दुखी हो जाता है कि उसका सुख मेरे सुख से बड़ा कैसे. किसी वाट्सएप्प ज्ञानी ने फ़रमाया है कि आदमी अपने दुःख से नहीं दूसरों के सुख से दुखी है.    

एक जमाना था कि मेहनतकश लोगों ने 'आराम है हराम' का नारा दिया था. अब सब का ध्यान ऐशो-आराम की ओर रहता है. मेहनत-मजदूरी-किसानी करके जीवन-यापन तो किया जा सकता है लेकिन ज़िन्दगी का मज़ा लेना है, तो शरीर को आराम और दिमाग़ को काम पर लगाना पड़ता है. इसीलिये आज के संपन्न व्यक्ति को खाना कमाने के लिये कम और पचाने के लिये ज्यादा मेहनत (शरीरिक श्रम) करनी पड़ रही है. स्वीगी-जोमैटो-ब्लिंकिट-अमेज़न जैसी कम्पनियाँ सिर्फ़ इसलिये फल-फूल रहीं हैं कि आदमी को आराम चाहिये. पूरा बाज़ार आपके फ़िंगरटिप पर मौज़ूद है, आपको बाजार जाने और सामान लाद के लाने तक की जहमत भी नहीं उठानी. 

सत्तर साल में घिसी-पिटी सत्ता लोलुपता वाली राजनीति भी धीरे-धीरे करके बदल चुकी है. नेताओं को भी मालूम हो गया है कि काठ की हांडी अब जल के कोयला बन गयी है. जनता भी अब अपने मतलब की सूचनाये इंटरनेट और मीडिया चैनेल्स से खोज लाती है. तरक्की की जो बयार पिछले सालों में चली है, उसे देख कर कभी-कभी लगने लगता कि इससे ज्यादा अच्छे दिन भला और क्या हो सकते हैं. हाँ, ये उन नेताओं और पार्टियों के दुर्दिन ज़रूर हैं, जो पुराने ढर्रे की लॉलीपॉप वाली राजनीति करना चाहते हैं. गरीबी हटाते-हटाते वो कब अरब-खरब पति बन गये, उन्हें खुद पता नहीं चला. कितने ही जनप्रतिनिधि जनता के पैसों का सदुपयोग (दुरूपयोग) करते हुये, फ़ुटपाथ से महलों में पहुँच गये. इस क्रान्ति को उन्होंने सामाजिक न्याय की संज्ञा से अलंकृत किया. आज सत्ताच्युत होने के बाद उनके पास अपने शासनकाल के स्वर्णिम दिनों को याद करते रहने के अलावा कोई चारा नहीं है. ये लोग समाजवाद  की परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिये इस कदर लालायित और आतुर हैं कि बस मुग़लकाल की पुनर्स्थापना का संकल्प ही उनके चुनावी घोषणापत्र में शामिल होने से बाक़ी रह गया है. अगले चुनाव में वो इस कमी को भी दूर करने का भरसक प्रयास अवश्य करेंगे.

सरकार चाहे कितना भी प्रयास कर ले, कितनी ही विकास की योजनायें बना ले, देश तो तभी उन्नति करेगा, जब जनता को ये एहसास होगा कि विकसित राष्ट्र के लिये सभी को योगदान देना होगा. नियम कानून तो हर देश में होते हैं ताकि समाज में सभी को समान सुरक्षा और अधिकार मिल सकें. वो देश और समाज आगे निकल गये, जहाँ इनका अनुपालन सुनिश्चित किया गया. समाज द्वारा स्वीकार्य कुछ मैनर्स और एटीकेट्स ने परस्पर व्यवहार को भी निर्धारित किया. तभी वो देश, सभ्य, सुसंस्कृत और विकसित देशों में शुमार हुआ. कलाम साहब ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि हिंदुस्तानी जिस तरह सिंगापुर में व्यवहार करता है, वैसा ही व्यवहार भारत में करने लग जाये, तो भारत को सिंगापुर बनने में देर नहीं लगेगी. लेकिन 70 सालों में हमें लोकतंत्र द्वारा प्रदत्त फ़ुल फ्रीडम का आनन्द लेने की आदत पड़ चुकी है. 'रूल्स आर फ़ॉर फ़ूल्स' को ब्रह्मवाक्य मनाने वाली व्यवस्था में सबको लगता है कि हमने कोई देश या समाज सुधार का ठेका तो ले नहीं रखा. जब सारा देश सुधर जायेगा तो हम भी सुधरने की सोचेंगे.  

इसमें भी कोई शक नहीं कि देश की तरक्की और खुशहाली दोनों के लिये काम करना ही पड़ता है. काम है तो पैसा है, पैसा है तो आलिशान ज़िन्दगी है और आलिशान ज़िन्दगी है तो खुशहाली है. लेकिन इन सबके पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण लिमिटिंग फैक्टर है, वो है समय. जब आप तरक्की की रेस में दौड़ रहे हैं, तो समय का अभाव उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है. उसे तो न आप घटा सकते हैं, न बढ़ा. हर एक के पास एक दिन में चौबीस घंटे ही हैं. उसी में आपको काम भी करना है और, सामाजिकता को भी बनाये और बचाये रखना है. पैसा तो काम का बाई-प्रोडक्ट (उप-उत्पाद) है. जिसे देखिये बहुत सा पैसा कमाने के उद्देश्य से दिन-रात काम कर रहा है. इसलिये प्रत्यक्ष रूप से देशप्रेम भले ही नेपथ्य में चला गया हो लेकिन विकास सर्वत्र दिखायी देने लगा है. इसी प्रकार यदि सब काम करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हम स्वयं को विकसित राष्ट्र डिक्लेयर कर दें. अपनी पीठ ख़ुद ही ठोंकनी पड़ती है. दूसरों से अप्रूवल लेने की आदत भी बदलने की ज़रूरत है. चाहे हम कितने भी विकसित हो जायें, एक चीज़ की कमी तो रहेगी. वो है समय की.

समय भी एक पूँजी है. लेकिन जब हर कोई धनोपार्जन के लिये व्यस्त से व्यस्ततर होता जा रहा है, तो कोई किसी को समय कैसे दे पायेगा. नतीजा आज आदमी में जैसा एकाकीपन का भाव देखने को मिलता है, वैसा कभी नहीं रहा. मनुष्य हमेशा से एक सामाजिक प्राणी रहा है. किन्तु व्यक्तिगत उत्थान के चक्कर में वो समाज की अनदेखी करता चला गया. जब सब के सब अपने-अपने स्तर पर समृद्ध हैं, तो दुखी रहने की कोई वजह दिखती है तो वो है भावनाओं की अभिव्यक्ति की कमी. जब सब अपनी सुनाने  और दिखाने में लगे हैं तो किसे फुर्सत है कि आपकी सुने या देखे. यही कारण है कि इतनी समृद्धि के बाद भी आदमी जीवन का मर्सिया पढ़े जा रहा है. उन पुराने दिनों को याद करके दुखी हो रहा है, जब यार-दोस्त तो बहुत थे और जीवन की आपा-धापी न थी. अकेलापन एक महामारी बन के उभरा है. शायर जाफ़र अली से गुस्ताखी की मुआफ़ी के साथ शेर में थोडा संशोधन कर के प्रस्तुत कर रहा हूँ. 'तुम्हें अपने से कब फुर्सत, हम अपने ग़म से कब खाली, चलो बस हो चुका मिलना, न हम खाली, न तुम खाली'. 

सशरीर मिलने के लिये समय चाहिये जो किसी के पास है नहीं (विशेष रूप से जब आप पीते-पिलाते न हों). चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इस नाते तकनीकी जगत ने कुछ विकल्प प्रस्तुत किये. जिसमें फ़ेसबुक, वाट्सएप्प, इन्स्टाग्राम आदि-इत्यादि प्रमुख हैं. लेकिन समय का चक्र देखिये, नौबत यहाँ तक आ गयी है कि समाज के नाम पर सोशल मिडिया ही बच गया है. जब सब बिज़ी हैं तो समय किसके पास है. और इतना ही काफी नहीं है. अगर हम बिज़ी हैं तो लोगों को बिज़ी लगना और दिखना भी चाहिये. पहले फ़ेसबुक पर आपने पोस्ट चेपी नहीं कि लाइक और कमेंट्स की झड़ी लग जाती थी. और ये एक सोशल ऑब्लिगेशन हो जाता था. यदि आपने मेरी पोस्ट लाइक की तो मेरा भी दायित्व था कि आपकी पोस्ट को लाइक करना. एक हाथ दे तो एक हाथ ले. अपने को बिज़ी दिखाने के चक्कर में लोगों ने पोस्ट्स पर कमेन्ट देने कम कर दिये. बाद में कुछ इमोजी और लाइक्स से काम चलाने लगे. अब तो हालात ये हैं कि हज़ार लोगों की फ्रेंड लिस्ट में व्यूज़ भले पाँच सौ पहुँच जायें, लेकिन कमेन्ट चार-पाँच और लाइक पचीस मिल जायें, तो गनीमत समझिये. देख तो सब रहे हैं लेकिन कोई दिखाना नहीं चाहता कि वो देख रहा है. ऐसा मै अपने वृहद सोशल मिडिया अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ. फ़ेसबुक का उपयोग मै लोगों के जन्मदिन के रिमाइंडर की तरह करता आया हूँ. और मेरा अनुभव कहता है कि जब भी किसी को मैंने व्यक्तिगत विश या कमेन्ट किया है, उसका जवाब आया है. यानि बन्दा देखता तो है लेकिन दिखाता है कि देख नहीं रहा है. यही हाल डिजिटल सामाजिकता के दूसरे स्तम्भ वाट्सएप्प का है. लोग रीड रिसिप्ट ऑफ़ करके इस सुविधा का भरपूर आनन्द ले रहे हैं. आपको पता ही नहीं चलेगा कि किसने आपकी पोस्ट देखी, किसने नहीं. 

मेरा सोशल मिडिया अनुभव ये भी कहता है कि मानव जीवन में कभी भी इतना एकाकीपन नहीं था, जितना तकनीकी क्रान्ति ने उसे अकेला कर दिया है. जब हम पच्चासी इंच का टीवी खरीदेंगे और विभिन्न ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के लिये पैसा खर्च करेंगे, तो उसे वसूलना भी तो पड़ेगा. इसके लिये घर में रहना ज़रूरी है. जिसको सामाजिक भाईचारा निभाना हो उसे मेरा टीवी देखना पड़ेगा. लेकिन उसे भी तो अपने पचहत्तर इंच के टीवी का पैसा वसूलना है. न हम खाली न तुम खाली वाली बात है. कभी कभी लगता है कि मुझे भी दिखाना चाहिये कि मै भी बहुत बिज़ी हूँ. इसका बस एक ही तरीका है की सोशल मिडिया से किनारा कर लिया जाये. मेरे गुड मोर्निंग या बर्थडे विश करने से किसी को भला क्या ही फ़रक पड़ता होगा. पिछले साल की तरह मैंने इस साल भी सोशल मिडिया से दूर रहने का संकल्प लेने की सोच ही रहा था कि एक देववाणी हुयी - 'वत्स तुम जो कर रहे हो उसे निष्काम भाव से करते जाओ. देश को तुम्हारे जैसे लोगों की महती आवश्यकता है जो लोगों के एकाकीपन के एहसास को कम करने के प्रयास में लगे हैं. ये भी एक प्रकार की समाज सेवा है'. 

यदि आप वाकई चाहते हैं कि कोई आपके काम में ख़लल न डाले तो इन प्लेटफॉर्म्स में अन्फ्रेंड और ब्लॉक करने के ऑप्शंस भी हैं. अब देववाणी तो मै टालने से रहा. आप अपना देख लीजिये.  

-वाणभट्ट

रविवार, 8 दिसंबर 2024

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के विभिन्न पहलू इस विषय का मुख्य आधार होते थे. लेखक प्रायः समाज में व्याप्त विषमताओं को रेखांकित करते हुये, एक काल्पनिक समाज की परिकल्पना करता था, और लेख मानव मात्र के कल्याण के भाव से समाप्त होता था. इस विषय पर यदि मंचन होता तो तालियाँ बजती थीं और यदि फिल्म बन जाये तो उसके हिट होने की प्रबल सम्भावना होती थी. कारण भी यूँ ही नहीं था, यथार्थ सदैव आदर्शवादी कल्पनाओं से कोसों दूर होता है. जब मन मोहन देसाई की फिल्मों में अमिताभ समाज के असामाजिक तत्वों को ठिकाने लगता था तो हॉल सीटियों से गूँज जाता था. कुछ घंटों के लिए ही सही, आम आदमी अपने ऊपर हुये अन्याय पर प्रतीकात्मक विजय से खुश हो लेता था.    

मूल रूप देखा जाये तो मनुष्य के सामाजिक जीवन का आरम्भ भी कृषि के विकास के साथ ही हुआ होगा. उसके पहले तो वो भी अन्य वन्य जीवों की तरह भोजन की खोज में इधर-उधर घूमता रहता था. बुद्धि तो पहले भी अन्य प्राणियों से अधिक थी, इसलिये उनको अपना भोज्य बना लेना सबसे सरल और सहज था. पाषाण युग में पत्थरों के अस्त्र बना कर उनका शिकार करना भी सीखा होगा. सम्भवतः आरम्भ में मांसाहार ही उसका मुख्य ऊर्जा स्रोत रहा हो. निरंतर प्रकृति के सानिध्य में रहने के कारण धीरे-धीरे उसके वनस्पति ज्ञान में वृद्धि हुयी हो और फल-फूल उसके भोजन में सम्मिलित हुये होंगे. समय के साथ उसने घुमन्तू जीवन से त्रस्त होकर स्थायी निवास का निर्णय लिया हो. इसीलिये कृषि को सबसे पुराना उद्यम माना जा सकता है. जंगल काट कर खेत बनाये गये होंगे. पानी के बिना कृषि संभव नहीं है, इसीलिए अधिकांश सभ्यताओं की स्थापना नदियों के किनारे ही हुयी. कृषि किसी भी समाज की मुख्य धुरी रही होगी और उसी के आस पास समाज बना होगा। समाज है तो उसके कुछ अनुशासन, कुछ रीति, रिवाज और मान्यतायें बनी होंगी. हज़ारों साल के मानव इतिहास का आरम्भ समाज से ही हुआ होगा. उसके बाद का इतिहास एक सभ्यता का दूसरी सभ्यता पर श्रेष्ठता और नियंत्रण स्थापित करने का इतिहास है. समाज है तो उसकी वर्जनायें भी अवश्य रही होंगी. एक-दूसरे पर अधिपत्य और अधिकार का प्रयास जो आज देखने को मिलता है, वो पहले भी रहा होगा. मुखिया और पंचों, नियम और कानून, पुरस्कार और दण्ड की आवश्यकता ही न होती, यदि समाज में समानता, समरसता और सद्भावना होती.

पहले योग्यता के आधार पर राजा का चयन होता रहा होगा, बाद में वो परिवारवाद में परिवर्तित हो गया हो. राजा का बेटा राजा. परिवर्तन जीवंत समाज का लक्षण है. राजशाही का जब बोझ प्रजा की सहनशक्ति की सीमा के बाहर हो गया होगा, तब लोकतंत्र और प्रजातंत्र की ओर समाज का ध्यान गया होगा. जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिये. मुख्य बात ये है कि राजशाही रही हो या प्रजातंत्र, दोनों में ही वर्चस्व की लड़ाई है. पहले जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत थी. लाठी तो अब भी काम आती है, बस उसके प्रयोग का तरीका बदलता गया है. एक समय ऐसा भी आया जब मजबूत लाठी वाले ज़्यादा से ज़्यादा भैंस को हाँक ले जाते थे. फिर लाठी का जोर जब कम होने लगा तो उन्हीं लठैतों ने समाजवाद का चोला पहन कर भैंसों को चारा डालना शुरू कर दिया. हालात ये हैं कि चारे के चक्कर में भैंसों को आज भी पता नहीं कि उन्हें दुह कौन रहा है. 

भैंसों और आदमी के समाज में अंतर है. भैंसों को सिर्फ़ चारे से मतलब है, उनके लिये जाति-धर्म का कोई मलतब नहीं है. लेकिन आदमी के मामले में ऐसा नहीं है. उसका रंग और नस्ल और धर्म और जाति के आधार पर वर्गीकरण किया जा सकता है. अब चूँकि आदमी सोच भी सकता है, तो उसे हर समय इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि उसका व्यक्तिगत लाभ किधर है. इस प्रक्रिया में न उसे देश का ध्यान रहता है, न समाज का. यदि पक्ष और विपक्ष दोनों ही देश कल्याण की कामना करते हैं, जब दोनों का उद्देश्य समाज सेवा ही है, तो उनकी कार्य पद्यति में इतना विरोधाभास और अन्तर क्यों देखने को मिलता है. राजनीति कोई व्यवसाय तो है नहीं कि उसी से रोजी-रोटी चले. सेवा करने का ऐसा जज़्बा और जूनून देश के नेताओं में ही देखने को मिलता है कि लगता है इन्हें सेवा का अवसर नहीं मिला तो ये बेचारे करेंगे क्या. भारत में नेतागिरी और राजनीति फ़ुल टाइम जॉब है. एक बार विदेश से कोई डेलिगेशन आया. उसमें वहाँ के किसी मंत्री ने हमारे मंत्री जी से पूछा आप करते क्या हैं. उनका इंस्टैंट जवाब था - नेता हैं, और क्या करना है. फिर उस विदेशी नेता को स्पेसिफ़िकली पूछना पड़ा कि जीवीकोपार्जन के लिये क्या करते हैं, तो उनका जवाब था - नेतागिरी. 

आज लोकतंत्र जब अपने चरम पर है तो समाज का वही राजशाही स्वरूप देखने को मिल रहा है. पक्ष हो या विपक्ष सभी नेता दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहे हैं. उद्योगपति और नौकरशाह सब चकित-व्यथित हैं कि बिना हर्र और फिटकरी के मात्र समाज सेवा से कैसे धनकुबेर बना जा सकता है. वो ये भूल जाते हैं कि हमारे पूर्वजों ने पहले ही बता रखा है कि सेवा करोगे तो मेवा मिलेगा. सम्भवतः ये उन्होंने अपने बच्चों के लिये कहा हो कि यदि जायजाद में हिस्सा चाहिये तो सेवा करते रहना. उनकी सोच एक परिवार तक सीमित थी. हमारे नेता पूरे देश को एक परिवार मानते हैं. पूरे देश की संपत्ति उनकी अपनी है, इसलिये वो समस्त देश की सेवा करने को तत्पर रहते हैं. और इनके लिये देश की जनता ही माई-बाप है. अतः उनकी सेवा करना इनका जन्मसिद्ध अधिकार है और अपने अधिकार का पालन करने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता. 

लेकिन 'चैरिटी बिगिन्स ऐट होम' के यूनिवर्सल लॉ को मानने वाले पहले अपना, फिर अपने परिवार के उद्धार में लग जाते हैं. फिर उन्हें चिन्ता होती है, अपनी बिरादरी, अपने समाज की. समाज भी देखता है कि जिसमें लंपटइ के सारे गुण हैं वो ही नेता बन कर उनका कल्याण कर सकता है. नेता उन्हें समझाता है कि बिना पद के नेतागिरी बस इंवेस्टमेंट है, कर कुछ नहीं सकते. इसलिये संगठित रहना आवश्यक ताकि कोई बड़ी पार्टी उन्हें टिकट दे. बड़ी पार्टी भी समाज पर उसकी पकड़ और संख्याबल देख कर ही नेता पर दाँव लगाती है. नतीजा जितने समाज, जितनी जाति, उतने नेता. हर नेता अपने अपनों के उत्थान के लिये प्रतिबद्ध. अपने समाज के पिछड़े, शोषितों और वंचितों के लिये न्याय की लड़ाई लड़ते-लड़ते कब वो धनपतियों (धनपशुओं) की श्रेणी में आ जाते हैं, उन्हें स्वयं पता नहीं चलता. इस प्रक्रिया में समाज का भला होता है या नहीं, ये तो पता नहीं, लेकिन देश का नुकसान अवश्य हो जाता है. समाजों में बँटे लोग न अपने भले की सोच पाते हैं, न देश के. इस मामले में भैंसों का सिक्स्थ सेंस मनुष्यों से बेहतर है, क्योंकि वहाँ जातिगत विद्वेष नहीं है. न ही किसी की किसी के उपर राज करने की इच्छा. शायद इसीलिये आदमी अन्य जीवों से अलग है. किन्तु दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के प्रयास में आदमी-आदमी से अगल होता चला जाता है. फिर नेता लोग उन्हें जोड़ने में लग जाते हैं ताकि लोग जुड़े या न जुडें उनका वोट बैंक जुड़ा रहना चाहिये. 

आज जब समाज इतने हिस्सों में बँट गया है कि कभी-कभी लगने लगता है कि मनुष्य में समाजिकता के ह्रास यही मुख्य कारण है. यदि इन्सान का इन्सान से भाईचारा हो तो किसी और चारे की आदमी को ज़रूरत नहीं है. समाज में जब लोगों के सम्बंधों का आधार जाति और संप्रदाय तक सीमित हो गया है, तो आज़ादी के पचहत्तर साल बाद जिस भारत का स्वप्न हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देखा होगा, वैसा भारत नहीं दिखता. ये निश्चय ही चिंतन का विषय है. पहले बुद्धिबल की श्रेष्ठता से मनुष्य, मनुष्य पर राज करता था, आज उस पर धन-समृद्धि का तड़का भी लग चुका है. समृद्धता के तड़के ने समाज को जोड़ने से अधिक तोड़ने का काम किया है. समृद्धि के पीछे निश्चय ही लोगों के व्यक्तिगत प्रयास से रहे हों, किन्तु पहले ये समृद्धता परिवार की होती थी, समाज की होती थी, आज ये व्यक्तिगत हो गयी है. अहं और मै तत्व इतना हावी है कि लोग भूल जाते हैं कि उनके बनने-बनाने में उस समाज का भी कुछ न कुछ योगदान रहा है, जिसमें वो पला-बढ़ा है. 

आज लोग सामाजिक, चारित्रिक और राजनैतिक पतन की ऐसे बात करते हैं, जैसे वो स्वयं समाज से अलग हैं. नेता भी समाज से आते हैं और जैसा समाज होगा, वैसे ही लोगों को अपना नेता चुनेगा. जब सब तरफ समाज में गिरावट देखने को मिल रही है, तो ऐसे में  लम्पट, स्वार्थी और निरंकुश नेताओं से समाज सुधार की आशा करना कहाँ की समझदारी है. किन्तु दुनिया आशा पर ही टिकी है. सबकी उम्मीद है कि कुछ भी हो अपना नेता अपने लोगों का ख्याल तो रखेगा ही. उसे ये किंचित भान नहीं है कि वो जिस नेता के पीछे चल रहा है, उसका मूल उद्देश्य अपने और अपने परिवार-खानदान की बेहतरी पहले है. आज यदि समाज पर लेख लिखा जाये तो बहुत सम्भावना है कि छात्र लिखें कि मनुष्य एक व्यक्तिगत प्राणी है, और मौका पा कर अपने स्वार्थ या लाभ के लिये कभी-कभी सामाजिक हो जाता है. विशेष रूप से मनुष्य जब सफलता के शीर्ष पर जब पहुँच जाता है तो एकदम से व्यक्तिगत हो जाता है. और किसी प्रकार की समस्या आने पर पुन: सामाजिक बनने का प्रयास करता है. संयोग से समाज में अभी भी सहृदय लोगों की कमी नहीं है, वो इनकी सहायता को तत्पर रहते हैं. समस्या के निकलते ही बन्दा पुन: व्यक्तिगत हो जाता है. कई बार तो उसे ये भी कहते सुना जा सकता है कि उसने समस्या को कैसे स्मार्टली मैनेज किया. ऐसा नहीं है कि समाज में अच्छे लोगों या स्वार्थरहित समाजसेवियों की कमी है, लेकिन अमूमन ये लोग नेपथ्य में रह कर अपना कार्य करते रहते हैं. ऐसे लोग प्रायः राजनीति से दूर भी रहते हैं.

मनुष्य चाहे कितनी भी भौतिक प्रगति कर ले, लेकिन मूलरूप से है तो सामाजिक तो प्राणी ही. अपने सुख और दुःख को साझा किये बिना उसे भला चैन कहाँ. मजबूरी ये है कि जो समाज अगल-बगल रहता है, उससे तो वो जाति-धर्म-आर्थिक-राजनैतिक अंतरों के कारण कट गया है. अब चूँकि सभी सक्षम और समृद्ध हैं, तो किसे फुरसत है कि दूसरे के सुख-दुःख की परवाह करे. पहले पूरा मोहल्ला चाचा-मामा-ताऊ-बाबा होता था. कभी-कभी लगता है कि हममें जो थोड़ी बहुत संस्कार नाम की चीज़ बची है, उसमें घर वालों से ज्यादा पड़ोसियों का योगदान है. चूँकि पड़ोस एक परिवार की तरह था, तो पड़ोसी भी अभिवावक की तरह ही व्यवहार करते थे. जितना पड़ोस के चाचा जी लोगों ने कूटा होगा उतना तो पिता जी ने टोका भी नहीं होगा. अब न पड़ोसी का बच्चा चाचा मानता है, न चाचा बच्चे को टोकने की हिम्मत कर पाते हैं. हमारी पीढी ने तकनीक के कारण लोगों को अलग अलग होते देखा है. टीवी के आने से पहले, पिता जी लोग शाम को किसी न किसी के यहाँ जाते थे या कोई न कोई हमारे घर आता था. मोहल्ले में जब पहला टेलीफोन या टीवी आया तो वो पूरे मोहल्ले का था. जिसके यहाँ लगता तथा वो दूसरों को बुलाये बिना न चित्रहार देखता था, न रामायण. सबके यहाँ साइकिल थी, सबके सपने स्कूटर तक ही सीमित थे. 

जब से तकनीक ने घर में प्रवेश किया, तो लोगों का घर से निकलना कम से कमतर होता गया. आज घर में जितने सदस्य उतने टीवी हैं, और उससे कहीं ज्यादा टीवी चॅनेल्स और ओटीटी प्लेटफ़ॉर्मस् हैं. चूँकि कुछ भी फ़्री नहीं है इसलिये पैसा वसूलने के उद्देश्य से आपको टीवी पर समय बिताना मजबूरी बन चुकी है. मोबाइल डाटा का भी पैसा लगता है. इसलिये आदमी की विवशता है कि उसका भी उपयोग करे. अब डाटा और टॉक टाइम तो अनलिमिटेड है लेकिन बात करने के मुद्दे ख़त्म से होते जा रहे हैं. शुरुआत में जब टॉक टाइम फ्री हुआ था तो लोग दिन में दस बार यार-दोस्तों-सम्बन्धियों के हाल लेते थे. अब लगता है कि ज्यादा आत्मीयता दिखायी तो अगला पूरा वेला (खलिहर) न समझ ले. इसलिये व्यस्त रहने से ज्यादा व्यस्त दिखाना ज़रूरी है. लोगों ने कॉल करना छोड़ दिया. एक समय था जब टेलीमार्केटिंग वालों ने जीना मुहाल कर रखा था. दिन में पचासों फोन आते थे कि ये ले लीजिये, वो ले लीजिये. हमने परेशान हो कर ऐसे नम्बरों पर डीएनडी (डू नॉट डिस्टर्ब) लगा दिया. अब स्थिति ये है कि दिन और महीने गुजर जाते हैं, किसी का काम हो तो ही कोई फोन आता है. हम भी ये सोच कर फोन नहीं करते कि अगला व्यस्त है तो क्या डिस्टर्ब करना. सोच रहा हूँ कि फिर से डीएनडी हटा दूँ ताकि दिन में दो-चार बार आदमी की आवाज़ सुन सकूँ. 

कुछ दिन सभी को सोशल मिडिया का शौक चर्राया. फिर यहाँ भी पैमाने बनने लगे. देखो कितना खाली है दिन भर सोशल मीडिया पर लगा रहता है. वाट्सएप्प वालों को तो यूजर्स चाहिये, सो उन्होंने भी नये-नये प्रावधान कर दिये. ताकि लोग बिना किसी आत्मग्लानि, संशय और संकोच के उसका उपयोग कर सकें. सो इसमें रीड रिसिप्ट और लास्ट लॉग इन डिसेबल के ऑप्शंस भी जोड़ दिये गये. लोगों ने इन फीचर्स को हाथों हाथ लिया. अब आपको पता नहीं चलेगा कि हमने आपकी पोस्ट देखी या स्टेटस देखा है या नहीं. कुछ ऐसा ही हाल फेसबुक का है. लोग आते हैं और फेसबुक पर आपका वीडियो देख कर निकल जाते हैं. नतीज़ा व्यूज़ तो सैकड़ों में होते हैं लेकिन लाइक और कमेन्ट दस भी पहुँच जायें तो आप अपने आप को सोशल मान सकते हैं. आजकल जिसे देखो वो इन्स्टा(ग्राम) का उपयोग कर रहा है, शायद वहाँ प्राइवेसी अधिक है. हमने आपकी पोस्ट देखी भी और आपको पता ही नहीं चला कि हमने देखी. आपको तो ये ही लगेगा कि बंदा इतना बिज़ी है कि सोशल मिडिया पर भी सामाजिक होने का समय नहीं है तो फिर वो फिज़िकली होली और दिवाली मिलने आपके घर कैसे आ सकता है. वो आता है और पूरी प्राइवेसी के साथ आपकी पोस्ट-स्टेट्स देखता है और बिना कोई निशान छोड़े निकल लेता है. ऐसे ही लोगों के लिये ग़ालिब ने शेर लिखा था-

अंदाज़ अपने देखते हैं आईने में वो 

और ये भी देखते हैं कोई देखता न हो 

मुझे मालूम है कि ये शेर ग़ालिब का नहीं है. लेकिन जब लोग कमेन्ट में बतायेंगे कि ये शेर ग़ालिब का नहीं है तो मुझे पता चल जायेगा कि कौन-कौन इतना वेला है कि इतनी लम्बी वाहियात पोस्ट पढ़ गया और किसने-किसने मेरी पोस्ट देख ली है.

-वाणभट्ट

रविवार, 27 अक्टूबर 2024

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म योग सिखाता हो, वहाँ यम-नियम के नाम से ही बड़े-बड़ों की हवा निकल जाती है. इसलिये वो कर्म काण्ड को लक्ष्य करके मूल धर्म पर आघात करने से नहीं चूकते. समाज में सदियों से व्याप्त जड़ता, अंधविश्वास और कुप्रथाओं को हिन्दू धर्म से जोड़ कर शिक्षित लोग-बाग स्वयं को नास्तिक कहलाना अधिक पसन्द करते हैं. कर्म के आधार पर बनी गतिशील जातिगत व्यवस्था को नवशिक्षित लोगों ने जड़ मान कर धर्म परिवर्तन का आधार बना लिया. विश्व में हिन्दू ही ऐसा एक मात्र धर्म है, जिसमें कर्म के अनुसार वर्ग-वर्ण-जाति बदलने की व्यवस्था है. लेकिन कर्म करना कठिन, श्रमसाध्य और दुष्कर है. इसकी अपेक्षा व्यवस्था को दोष देकर धर्म बदलना बहुत आसान है. उसके पीछे कहीं न कहीं मानव जीवन को भोग-विलास के लिये उपयोग करना मूल कारण दिखायी देता है. बड़े भाग्य से मानव जीवन मिला है तो क्यों न थोड़ा भोग-विलास कर लिया जाये. स्वर्ग में जा कर तो हवन-पूजन करना ही है. बाकि सबके लिये इस और उस जीवन में ऐश की सम्भावना है. मूल रूप से भारत में विकसित सभी धर्म करुणा और त्याग पर आधारित हैं. वैसे संप्रदायों को धर्म मनाना भी एक हिसाब से गलत ही है. धर्म बदला नहीं जा सकता. सम्प्रदाय कितने भी बदल लीजिये. धर्म शाश्वत, सार्वभौमिक और अपरिवर्तनीय है. 

ज्ञान की प्राप्ति के लिये भारत वर्ष में ब्रह्मचर्य और अनुशासन पर बहुत बल दिया गया है. तभी हमारे पूर्वज, ऋषि-मुनि, गणित या ग्रह-नक्षत्रों की गणना में विश्व में अग्रणी रहे. ये बात अलग है कि हमारे ही अँग्रेजी में साइंस पढ़े लोग उन्हें वैज्ञानिक मनाने को तैयार नहीं हैं. विज्ञान की किसी भी आधुनिक विधा का आप नाम लीजिये, उसका वर्णन वेद और पुराणों में मिल जाता है. हमारा भू, हमेशा से गोल रहा है. किसी प्रकार का कोई संशय नहीं कि धरती गोल है या चपटी. 'यथा पिण्डे, तथा ब्रह्मंडे'. उनका ज्ञान परमाणु की संरचना से लेकर ब्रह्मांडीय गतिविधियों से अनभिज्ञ न था. शायद इसलिये पश्चिमी देशों में हुयी अधिकांश खोजें अंग्रेजों के भारत में पदार्पण के बाद हुयी. लुटेरे मुग़ल का ध्यान बस ख़जाना लूटने तक सीमित रहा. अंग्रेज़ों ने बौद्धिक सम्पदा पर डाका डाला. उन्होंने ही पेपर पब्लिश करने और पेटेंट-कॉपीराइट जैसी लफ्फाज़ी में हमें उलझा दिया. वरना हमारे देश में विज्ञान तो जनकल्याण के लिये था. जब से मार्केट में मुनाफ़ा कमाने का चलन बढ़ा है, तब से सब अपना-अपना शोध सीने से चिपकाये घूम रहे हैं, कि पेटेंट कराएंगे और लाभ कमाएंगे. आजकल तो किसी को राय भी देनी हो तो आईडिया स्टैम्प पेपर पर लिखवा कर साइन करवा लीजिये. वरना आप का आईडिया वो अपने नाम पर पेटेंट करवा सकता है. अब न पुरातन काल का सतयुग बचा, न वर्तमान काल की एथिक्स बची है. 

सारी बातों का लब्बोलुआब ये है कि ज्ञानीजन का ज्ञान बहते झरने की तरह सबको सहज उपलब्ध है, और विज्ञानीजन अपने लाभ और प्रमोशन तक सीमित हो गये हैं. उसमें भी दो तरह का विज्ञान है. एक सरकारी और एक असरकारी यानि प्राइवेट. प्राइवेट का विज्ञान लाभ को प्रोत्साहित करता है. जहाँ ब्रैंड, पैकेजिंग और मार्केटिंग स्ट्रेटीज़ के दम पर हर माल मुनाफ़े पर निकाल दिया जाता है. सरकारी का हाल भी कुछ अजीब है. पीएचडी-डीएससी करते-करते यदि आईएएस/पीसीएस/तहसीलदार नहीं बन पाये, तो इज़्ज़त से जीवन-यापन करने की एक सरकारी स्कीम है, अध्यापन और शोध. इसमें भी अमूमन वो ही आगे जा पाता है, जिसमें एक अच्छे प्रशासक या प्रबंधक के गुण हों. यही गुण तब और मुखरित हो कर निखरते हैं, जब उन्हें कोई प्रशासनिक पद मिल जाता है. सुयोग से यदि किसी कमेटी के चेयरमैन भी बन गये, तब इनकी प्रतिभा के नये रंग सामने आते हैं. वरना ये निरीह प्राणी की तरह कुंडली मारे पड़े रहते हैं. 

अब चूँकि ये नौकरी है, तो नौकरी की तरह ही करनी होगी. एग्जाम होगा, प्रमोशन होगा और प्रमोशन के लिये एक आदर्श पथ होगा. जिस पथ पर चल के आपके विभाग के लोग उच्च पदों पर आसीन हुये. उन्हें ये अच्छी तरह मालूम होता है कि उन्हें क्या करना चाहिये था, लेकिन उन्होंने नहीं किया. अब वही काम दूसरों से करवाना है. सबसे बड़ा काम तो मातहतों से टाइम का पालन करवाना है. बिना सीएल/ईएल के पूरा मकान बनवा लेने वाले जानते हैं कि उनका मकान बन चुका है और जूनीयर्स को बनवाना है. उनके बच्चे पढ़ चुके हैं, जूनीयर्स को पेरेंट मीटिंग में जाना है. आठ घंटे कोई लैब में रहेगा तो कब तक यूरेका नहीं कहेगा. लिखायी-पढ़ायी करेगा तो पेपर छपेंगे, पेपर छपेंगे तो मार्गदर्शन का श्रेय उन्हें भी मिलेगा. जो रिटायमेंट के बाद एक्स्टेंशन में काम आयेगा. सेवा विस्तार नहीं भी मिला तो विद्वतजनों के लिये बहुत सी कमेटियाँ हैं. जहाँ वो यथा योग्यता, यथा कांटैक्ट पना योगदान दे सकते हैं. 

श्लोक 'न ब्रूयात सत्यम अप्रियं' सत्यवादी हरिश्चन्द्र और सत्य के प्रयोग करने वाले गाँधी के देश में कुछ अटपटा सा लगता है. हमारे पूर्वज 'सत्यमेव जयते' के अनुपालक थे, और हम असत्य को महिमामंडित करने में लगे हैं. जिसने भी इस विचार का प्रतिपादन किया होगा, वो या तो राज पुरोहित रहा होगा या भविष्यवक्ता, जो बुरी से बुरी बातों पर मुलम्मा चढ़ा कर उन्हें कर्णप्रिय बनाने का हुनर रखते थे. कतिपय सम्भव है वो राजा-महाराजा के दरबार में चारण या भाट रहा हो. जबकि उन्हें भली-भाँति मालूम था कि इस देश में शाश्वत सत्य तो राम नाम ही है. 

-वाणभट्ट

इन द परस्युट ऑफ़ हैप्पीनेस

देवेश का फोन आया तो उसमें आग्रह के भाव से कहीं ज्यादा अधिकार का भाव था. 'भैया हमका महाकुम्भ नय नहलउबो का. तुम्हार जइस इलाहाबादी के रहे ह...