बंगले पर गहरा सन्नाटा व्याप्त था. पुरानी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों के बंगले इतने बड़े होते थे, जितने में आज लोग यूनिवर्सिटी खोल के बैठ जाते हैं. बंगले के सामने लॉन और पीछे किचन गार्डेन. एक छोटा-मोटा साम्राज्य समझ लीजिये. जब असिस्टेंट प्रोफेसर पर जॉइनिंग होती है, तब परिवार बड़ा होता है. माता-पिता-बीवी-बच्चे. घर मिलता है टाइप-थ्री. प्रोफ़ेसरी आते-आते घर में दो प्राणी बचते हैं और कमरे पाँच. चूँकि सरकार बंगले को आवश्यकता से अधिक ओहदे से जोड़ के देखती है, इसलिये बड़ा बंगला तब मिलता है जब आवश्यक्तायें सीमित हो जाती हैं. अब जब एक कमरे में दो लोग रहते हों, तो बाकी कमरों में झाड़ू लगवाना भी काम हो जाता है. किचन गार्डेन का भी कोई मतलब नहीं रह जाता. उसे मेन्टेन करने के लिये माली लगाओ, और जब सारी गोभी और मूली एक साथ तैयार होती हैं, तो समस्या ये हो जाती है कि कितनी खाओ, कितनी बाँटो. चूँकि पड़ोसी भी उसी तरह के बंगलों के मालिक होते हैं, तो सबके यहाँ स्थिति एक सी होती है. कौन किसको बाँटे. सारे काम वाले, माली, चौका-बर्तन करने वाली, कुक और ड्राइवर, भी सब्जी खा-खा कर अघा चुके होते हैं. अब प्रोफेसर हो कर यूनिवर्सिटी गेट पर सब्जी का ठेला लगाना शोभा तो देता नहीं, इसलिये जतन से उगायी गयी सब्जियों को तो ख़राब होना ही है. हॉर्टिकल्चर उत्पादन में जो 30 से 40 प्रतिशत नुकसान दर्ज़ किया जाता है, वो 45 से 50 प्रतिशत पहुँच जाये, यदि देश भर के बंगलों में हो रहे हॉर्टिकल्चरल लॉस को भी जोड़ लिया जाये.
शांति इतनी अधिक थी कि घण्टी बजाने का दिल नहीं कर रहा था. लेकिन गेट खोलने बन्द करने की आवाज़ के बाद भी घर के भीतर कोई हलचल नहीं दिखी. लुधियाना से चंडीगढ़ सिर्फ़ प्रोफेसर साहब से मिलने ही तो आये थे हम. हम यानि डॉक्टर पड्डा और मै. ये प्रोफेसर डॉक्टर पड्डा के मित्र थे. उनसे मिलने के बाद पता चला कि वो उन्हीं की तरह सरदार भी थे. मजबूरी थी. कॉल बेल बजानी ही पड़ गयी. दरवाज़े पर लगी घण्टी (कॉल बेल) दबायी, तो सरकारी आवास पर अमूमन लगने वाली बजर की कर्कश आवाज ने मानो वातावरण में ध्वनि प्रदूषण फैला दिया हो. फ्रैक्शन ऑफ़ सेकेंड्स में हाथ घण्टी से हट गया. घण्टी बजाने के पाँच मिनट तक भी कोई हलचल नहीं हुयी. ताला दिख नहीं रहा था. हमें शक़ हुआ कि पीछे किचन गार्डेन वाले दरवाज़े पर ताला लगा के तो वो लोग कहीं निकल न गये हों. सन् चौरानबे में मोबाइल गिने-चुने लोगों के पास ही होता था. वैसे उनके कहीं निकलने की गुंजाइश इसलिये नहीं थी कि कुछ दिन पहले ही वो अस्पताल से लौटे थे, हार्ट अटैक से रिकवर हो कर. जिसकी सूचना मिलने के बाद ही पड्डा साहब ने प्रोग्राम बनाया, उनको देखने चलने का. कार जा रही थी, पड्डा साहब को साथ चाहिये था, मेरा परिवार इलाहाबाद गया हुआ था, इसलिये हम भी साथ में चिपक लिये. हमारे पूर्वांचल में हम का मतलब मै ही होता है.
ट्रेनिंग के बाद मेरी पहली पोस्टिंग लुधियाना में हुयी थी. वहाँ जा कर मुझे एहसास हुआ कि समृद्धि क्या होती है. दुनिया भर में उस समय जितनी कारें होती थीं, सबके शो रूम वहाँ उपलब्ध थे. उनके सारे मॉडल वहाँ सड़कों पर घूमते देखे जा सकते थे. क्या ली, क्या लिवाइस, क्या लीकूपर, क्या लिकॉस्ट, सबके एक्सक्लूसिव शो रूम्स मैने पहली बार देखे थे. इलाहाबाद में तो बड़ी से बड़ी दुकान पर मेरे साइज़ की तीन जींस निकल आये तो बड़ी बात थी. वहाँ मिठाइयों की दुकानें भी कार के शो रूम जैसी बड़ी होती थीं. हमने अपने शहर में शराब की दुकानें और पान के खोखे देखे थे. लुधियाना में इसके उलट, वहाँ दारू के खोखे थे, और ग्रेनाइट टॉप पर चाँदी के वर्क से सजी गिलौरियों और शटर वाली परमानेंट पान की दुकानें थीं. शाम के सात बजे फ़िरोजपुर रोड क्रॉस करने में डर इसलिये लगता था कि लम्बी-लम्बी कारों का काफ़िला थमने का नाम नहीं लेता था और उसे चला रहा चालक किस आसमान पर है, इसका अंदाज़ लगाना कठिन था. वहाँ के गाँव में भी मकान पक्के हुआ करते थे. कुल्हड़ में चाय यूपी के भैये ही पसन्द करते थे, तब भी वहाँ काँच के गिलास का चलन था. आदमी को उपर से नीचे तक देखिये, तो चश्मे से लेकर जूते तक हर चीज़ ब्रैंडेड. पैसा सिर्फ़ होना ही काफ़ी नहीं था, वो दिखना भी चाहिये. पंजाबी आम तब तक खाता था, जब तक आम सौ रुपये किलो हो, जब बीस रुपया दाम हो जाता था, तो इसलिये आम छोड़ देता था कि अब तो भैया भी आम खा रहा होगा. वहाँ आपको इसलिये भी ख़र्च करना पड़ता था कि आपके अगल-बग़ल सब ख़र्च कर रहे हैं. खरबूजे को देख के खरबूजा रंग बदलता है, और मै तो खरबूजों के बीच रह रहा था. पूरी तरह ब्रैंडेड तो नहीं हो पाया लेकिन फिर भी खाने से कम दिखाने पर ख़र्च बढ़ गया.
पाँच मिनट के बाद प्रोफेसर साहब ने दरवाज़ा खोला. साथ में उनकी धर्मपत्नी भी थीं. पाँचवें कमरे से आने में इतना समय तो लग ही सकता था. दोनों ने सहज भाव से मुस्कुराते हुये हम लोगों का स्वागत किया. दोनों दोस्तों ने गर्म जोशी से उर लगाई भुज भेंट किया. माहौल एकदम जीवंत हो गया. हा-हा, हो-हो के कहकहे गूँजने लगे. पड्डा साहब ने याद दिलाया - यार थोड़ा धीरे बोल डॉक्टर ने मना किया होगा. तू चुपचाप बैठ. भाभी जी से हम बात कर लेंगे. अभी-अभी तो तू झटके से निकला है. तू बीमार है और हम तुझे देखने आये हैं और तू है कि बीमारी को हल्के में ले रहा है. उसी खुशनुमा माहौल में भाभी जी चाय-वाय ले आयीं. प्रोफेसर साहब पूरे मस्ती के मूड में थे. शायद दोनों दोस्त लम्बे अंतराल के बाद मिले हों. यार पड्डे हारी-बीमारी तो आती-जाती रहती है. पर मै ज़्यादा लोड नहीं लेता. डॉक्टर ने तो बहुत कुछ बताया है, ये कर वो ना कर, ये खा वो ना खा. उसने तो देसी घी तक मना कर दिया है. बोल रहा था कि आपने परहेज नहीं किया तो दोबारा हार्ट अटैक पड़ सकता है. मैंने भी बोल दिया कि भाई, मैंने पूरी ज़िन्दगी घी लगा के रोटी खायी है. चाहे कुछ भी हो जाये मै बिना देसी घी के रोटी नहीं खा सकता. तेरे को जो भी दवायी देनी हो दे दे, लेकिन मै घी छोड़ने वाला नहीं.
बालकनी में पड़ी रोटी सूख कर पापड़ बन गयी थी. कई दिन बाद मेरा ध्यान उधर गया. पत्नी जी का लुधियाना आगमन कुछ दिन पहले ही हो चुका था. मैंने श्रीमती जी को आवाज़ लगायी - ये क्या रोटी बालकनी में डाल रखी है. उन्होंने बताया कि बची हुयी बासी रोटी कौवों के लिये बालकनी में डाल दी थी. लेकिन लगता है, अभी तक किसी की नज़र नहीं पड़ी. घी-नमक लगा कर तवे पर सिकी रोटी मेरा सुबह का पसंदीदा नाश्ता है. मैंने उन्हें बताया - ये पंजाब के कौवे हैं. ये बिना घी की रोटी नहीं खाने वाले. इस पर घी लगा कर रखा करो.
पाँच मिनट बाद बालकनी से रोटी नदारद थी.
समृद्धि कुछ ऐसी ही होनी चाहिये. हमारे आस पास, हमारे अगल-बग़ल, हर तरफ़, सबकी.
-वाणभट्ट
सुंदर
जवाब देंहटाएंलुधियाना के जीव जन्तु, पक्षी को भी समरिधी भा रही है।
जवाब देंहटाएं