लाईट को जाना था तो वो गयी. जेनरेटर को स्टार्ट होना था पर वो नहीं हुआ. सभा में अँधेरा छा गया. एक कहावत है - थिंग्स गो रॉन्ग ऐट मोस्ट क्रूशिअल आवर्स. मंच सज चुका था. सभी गण्यमान मंचासीन हो चुके थे. विद्वतजनों की पूरी फ़ौज सभागार में मौजूद थी. सबके पास लाईट के पुन: आ जाने का इन्तजार करने के अलावा कोई चारा भी न था. बैकअप के बैकअप की व्यवस्था पर किसी ने इन्जीनियर के कहने पर भी ध्यान नहीं दिया था. जब सब चीजें सुचारुरूप से चल रही हों तो इन्जीनियर की राय का कोई मतलब नहीं होता. मेन्टेनेन्स इन्जीनियर ने पहले ही कहा था कि एक इन्वर्टर या यूपीएस लग जाता तो सप्प्लाई से जेनरेटर पर स्विच होने में जो 30-40 सेकेण्ड का अन्तराल होता है, उसमें भी घुप्प अँधेरा नहीं होगा.
जब से सामाजिक न्याय का मुद्दा उठा है, हिन्दुस्तान में सबने ये मान लिया है कि हर व्यक्ति बराबर है. ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, परिश्रमी हो या आलसी हो, सबको धरती पर एक ही स्तर का जीवन जीने का भग्वत प्रदत्त अधिकार है. क्योंकि सब मनुष्य हैं. भगवान ने सबको मनुष्य योनि में जन्म दिया है. मनुष्य और मनुष्य में भेद करना मानवता के विरुद्ध है. समाज में जो वर्ण और वर्ग भेद की विषमता व्याप्त है. उसको दूर करने की प्रक्रिया वोट के द्वारा चयनित लोगों की व्यवस्था द्वारा की जा सकती है. वर्ग सन्घर्ष को दूर करने के लिये भारत भूमि की पावन धरा पर समय-समय पर महान विभूतियों ने जन्म लिया. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इनमें से अधिकान्श आर्थिक या शैक्षणिक या सामाजिक दृष्टि से उन्नत, समृद्ध और सम्पन्न लोग थे. जिनकी बातों का समाज पर व्यापक असर पड़ता था, आज भी पड़ता है. सीधी से बात है मेरा उत्थान मुझसे अधिक सक्षम व्यक्ति ही तो कर पायेगा. धन-बल, भुज-बल, पद-बल, संख्या-बल, जिनके पास है, उनके विचारों में ताकत आ जाती और बातों में वजन. इनमें से कई सुधारक अपने-अपने समाज का सामाजिक उन्नयन करते-करते कब धनपशुओं में शुमार हो गये, इनके अपनों को भी ज्ञात नहीं हुआ. अब जब उपरोक्त किसी भी प्रकार की शक्ति में से कोई शक्ति उनके पास है तो उनका अनुसरण करने वालों की संख्या का बढ़ना भी तय है.
वाणभट्ट की सोच, इस सोच को और व्यापक बनाने की है. सामाजिक बराबरी को वैश्विक स्तर पर लाने की आवश्यकता है. ये अमरीका और जापान वाले क्या आदमी नहीं हैं. कोरिया, चीन और सिंगापुर अगर तरक्की कर रहे हैं तो क्या उनकी समृद्धि पर सम्पूर्ण वसुन्धरा के अन्य लोगों का कोई अधिकार नहीं है. किसी देश में गरीबी-भुखमरी है, तो कहीं तानाशाही ने जनता का जीवन नर्क बना रखा है. कितना अच्छा होता कि देशों के बीच की लकीरें ही हट जातीं और पूरी धरती एक हो जाती. सोच तो इतनी व्यापक होनी चाहिये कि धरती पर जीने का अधिकार सिर्फ़ मानव प्रजाति को नहीं है. बल्कि अन्य जीव-जन्तुओं-वनस्पतियों को भी है. आदमी अन्य प्रजातियों से श्रेष्ठ है, इसलिये सबका साथ और सबका विकास उसी को करना है. लेकिन आदमी है तो उसके साथ उसका स्वार्थ चिपका हुआ है. हर व्यक्ति को जीविकोपार्जन के लिये लाभ के विषय में सोचना और कार्य करना जरूरी है. अधिक लाभ यानि अधिक परिश्रम. किन्तु लाभ की अनियन्त्रित चाह कब लोभ में बदल जाती है, व्यक्ति को स्वयं पता नहीं चलता. अधिकार माँगने वाले हमेशा अधिकार देने वालों से संख्या में अधिक रहे हैं. कारण बहुत साफ़ है. जिसने भी बल प्राप्त करने के लिये अधिक श्रम किया, उसके पास हमसे अधिक अधिकार होंगे ही. पुरुषार्थ करके जब वही व्यक्ति अपनी सफलता का आनन्द लेने का प्रयास करता तो अधिकार माँगने वालों की नींद खुल जाती है. और वो बराबरी का हिस्सा बँटवाने को तत्पर हो जाते हैं.
भारत ही क्या पूरी दुनिया में कभी भी बराबरी नहीं रही है. सबसे बड़ा वर्ग विभेद सक्षम और असक्षम का रहा है, समर्थ और असमर्थ का रहा है, धनवान और निर्धन का रहा है. उसके पीछे कई कारण रहे हो सकते हैं. सिर्फ़ भारत में ही हजारों धर्म-सम्प्रदाय-जातियाँ नहीं रही हैं, अन्य देशों में भी कभी एक विचारधारा या धर्म नहीं रहा. किन्तु सभी ने सबको बराबर का मान-सम्मान-आदर दिया हो, ऐसा इतिहास में कहीं नहीं दिखता. जो भी अधिक ताकतवर था, बुद्धि में, धन में, बल में या संख्या में उसने दूसरों को बदलने में, दबाने में, अपना सारा जोर लगा दिया. लेकिन बराबर कभी नहीं होने दिया. अब हम भारत के बाहर इस वर्ग विद्वेष के लिये ब्राह्मण या पण्डित जी को तो कोस नहीं सकते, लेकिन हमें लगता है कि अपनी दुर्दशा का ठीकरा किसी पर तो फोड़ना ही है, तो पण्डित जी पर क्यों न फोड़ें. भारत का इतिहास ऐसे महापुरुषों से भरा पड़ा है, जिन्होंने अपनी स्थितियों-परिस्थितियों के लिये दूसरों को दोष देना बन्द कर दिया. दूसरों की लकीर छोटी करने के बजाय उन्होंने अपनी इतनी लम्बी लकीर बना दी कि सदियाँ बीत गयीं, उनका नाम इतिहास में दर्ज़ हो गया. लकीर इतनी गहरी भी थी कि बाद में कोई इसे मिटा नहीं पाया. अपनी लकीर बनाने-बढाने में, विशेष रूप से तब जब सब आपके ख़िलाफ़ हों, तो परिश्रम का परिमाण भी बढ़ाना पड़ता है. जो अधिकार माँगने या अधिकारों के लिये लड़ने की अपेक्षा कहीं दुष्कर कार्य है. आज जब कोई सामाजिक समरसता की बात करता है, तो प्रायः अपने समाज, धर्म और जाति विशेष के उत्थान की ही बात करता है. मानव या मानवता की बात नहीं. मानवता की बात का काम आज भी धर्मगुरु-ज्ञानी-पण्डित-पुरोहित ही कर रहे हैं. ये वो लोग हैं जिन्होंने अपने ही धर्म के कर्म काण्ड को चुनौती दी और समाज के जीवन स्तर को ऊपर उठाने में तन-मन-धन से प्रयास किया. स्वयं को सही सिद्ध करने की जगह दूसरों को गलत सिद्ध करना हमेशा आसान रहा है. भारत की राजनीति यहीं पर सिमट कर रह गयी. जब भी कोई विकास की बात करता है तो हम उसके धर्म-जाति को घसीट लाते हैं. स्थितियाँ ऐसी हो गयी हैं कि तमाम विकास के बाद भी कोई स्वयं को विकसित मानने को तैयार नहीं है. आज जितना भी विकास देखने को मिल रहा है उसका श्रेय सभी भारतवासियों को है जिन्होंने अपने-अपने समय में, अपने-अपने स्तर पर भारत के विकास में अपना योगदान दिया. हमारे महापुरुष साझे हैं. उन्होंने देश के लिये काम किया. वे देश की साझी विरासत हैं.
अभी सामाजिक न्याय पूरी तरह लागू हो ही नहीं पाया था कि हमने उसे शिक्षा के क्षेत्र में भी लागू कर दिया. आप चाहे संगीत पढ़ो या साँख्यिकी सब बराबर. इतिहास और विज्ञान एक ही श्रेणी में तौल दिये गये. यहाँ भी जिनका विज्ञान पढने में मन नहीं लगता था, उनकी संख्या अधिक थी. अधिकारों की माँग वहीं करता है, जिसमें अधिकार देने की क्षमता नहीं होती. नतीजा ये हुआ कि इतिहास या भूगोल या दर्शन शास्त्र की कोई भी टेक्स्टबुक उठा के देख लीजिये, कला संकाय के किसी भी विषय की किताब उठा कर देख लो, पहला चैप्टर उस विषय को विज्ञान सिद्ध करने में लग जाता है. सिस्टमैटिक स्टडी ऑफ एनी सब्जेक्ट इज़ साइंस. और तो और राजनीति शास्त्र को पॉलिटिकल साइंस ही बता दिया गया. और भाषाओं का तो पता नहीं लेकिन संस्कृत और हिन्दी, और भारत की अनेक भाषायें, जिनका उद्गम संस्कृत से हुआ, वो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक हैं. कोई उन्हें भाषा विज्ञान की संज्ञा देता है तो उसे सही माना जा सकता है. अंग्रेज़ी-उर्दू का इतिहास हो सकता है लेकिन उन्हें वैज्ञानिक भाषा कहना सही नहीं होगा.
जिस तरह समाज में हर व्यक्ति की अपनी भूमिका है, उसी तरह सभी विषयों की अपनी उपादेयता है. देश-समाज के विकास के लिये सबका योगदान होता है. विषयों का सहअस्तित्व तो हो सकता है लेकिन किसी विषय की किसी दूसरे विषय पर श्रेष्ठता का निर्णय हास्यस्पद है. बेवकूफ़ी थोडा अपरिष्कृत शब्द है. जिन्हें दसवीं तक आते-आते ये एहसास हो चुका होता है कि आगे गणित और विज्ञान से उनके सम्बन्ध मधुर नहीं रहने वाला, वही लोग दूसरे विषयों के विषय में सोचना शुरू करते थे. कुछ लोगों के निर्णय उनके पिता जी या अब्बाजान उनके पैदा होने से पहले ही ले लेते कि बेटे या बेटी को प्रशासनिक सेवा में भेजना है या राजनीति में. बच्चे को इंजीनियर या डॉक्टर बनाने के सपने पालने वालों की संख्या में भी कोई कमी नहीं है. बीए-एमए, बीकॉम-एमकॉम कराने के बारे में कोई बाप नहीं सोचता. ये सब करके कोई रगड़-घिस के अधिकारी तो बन सकता है लेकिन इन्जीनियर या डॉक्टर बनाने के लिये जातक की विज्ञान में अभिरुचि होनी परम आवश्यक है. पारम्परिक पीसीएम या पीसीबी क्षेत्र में बीएससी या एमएससी करने वालों को भी ये भली भांति ज्ञात रहता है कि हिस्ट्री ज्योग्रेफ़ी बड़ी बेवफ़ा, रात को रटी सवेरे सफ़ा. कला संकाय के विषय उसे वैसे ही दुरूह लगते हैं जैसे कला संकाय वाले को गणित. विज्ञान के छात्र को लॉजिकल विषयों को तो समझना सरल-सहज होता है, लेकिन रटन्त विद्या पर उनका भरोसा कम रहता है. इस मामले में गणित के विद्यार्थी, बायो वालों को भी रटन्तू ही मानते हैं. इसीलिये इन्जीनियरिंग के छात्र मेडिकल की ओर नहीं देखते और इन्हीं कारणों से मेडिकल वाले इंजीनियरिंग से परहेज करते हैं. यदि हर किसी नॉन-मैथ्स वाले की जीवनी खंगाली जाये, तो बिरले ही मिलेंगे जिन्होंने दसवीं में गणित के अच्छे मार्क्स होने के बाद भी बायो का चयन किया हो. क्योंकि तब तक छात्र को पता चल चुका होता है कि वो तार्किक है या अतार्किक. विषय को समझ सकता है या रट. उसी के अनुसार वो स्वयं या उसके बुजुर्ग, आगे की पढायी के विषय पर निर्णय लेते थे.
हमारे समय तक कृषि को विज्ञान का दर्ज़ा मिल चुका था लेकिन ये बहुतों को मालूम नहीं था. संभवतः इसके बारे में वो ही लोग जानते थे जिनके चाचे-मामे-ताये कृषि विभाग से सम्बद्ध थे. उनका विचार था कि हर्डल रेस चल रही है. और रेस जीतने के दो ही तरीके हैं. या तो मेहनत करके हर्डल के उपर से निकला जाये या कम मेहनत करके हर्डल के नीचे से रेस के अंतिम सिरे पर पहुँचा जाये. जिस भतीजे में विज्ञान के प्रति रूचि होती थी वो पीसीबी में ग्रेजुएशन करना पसन्द करता था. बाकी को बुजुर्गों की नसीहत पर अधिक भरोसा होता था. क्योंकि उनसे पहले वो खानदान-समाज के कितने ही लोगों को तार चुके होते थे. उस समय तक पैसा दे कर इन्जीनियरिंग/मेडिकल की शिक्षा/डिग्री की दुकानें दक्षिण के कुछ राज्यों तक ही सीमित थीं. लिहाजा कृषि विज्ञान स्नातक में प्रवेश एक किफ़ायती विकल्प था. न कोई हर्डल, न कोई कम्पटीशन. किन्तु जब से ये विषय रोजगार गारेन्टी स्कीम के रूप में उभरा है, तब से यहाँ भी मारा-मारी शुरू हो गयी. कम्पटीशन बढ़ा तो हर्डल भी बढ़ा, नतीजा छात्रों की गुणवत्ता भी बढ़ी. किन्तु अभी भी इसका दर्ज़ा मेडिकल और इंजीनियरिंग के बाद ही आता है. ज्ञान-विज्ञान व्यक्ति को विनम्र बनाता है जबकि अल्प-ज्ञान की परिणति छद्म दम्भ और अहंकार में होती है. ज्ञान समावेशी है जबकि अज्ञान श्रेष्ठता सिद्ध करने में लग जाता है. और इनके लिये न कोई भाषा की गरिमा है, न कोई बात करने का सलीका. कृषि शोध की अद्भुत समस्या ये है, कि ये कृषि में आने वाली समस्त समस्याओं का समाधान शोध से करना चाहते हैं. जबकि कृषि में अधिकांश समस्यायें इन्जीनियरिंग या प्रबन्धन सम्बंधित हैं. इनका शमन या अल्पीकरण तो संभव है, लेकिन हमारा सारा शोध प्रयास उनके उन्मूलन में लगा है. वो भी इन्जीनियरों को शामिल किये बिना. आज की स्थिति में बस प्रभु से कामना ही कर सकते हैं कि उच्च पदस्थ लोगों को सद्बुद्धि और विवेक प्रदान करे कि एक ही दिशा में वित्तीय प्रावधान भविष्य में कृषि की अन्य शाखाओं-प्रशाखाओं के विकास को प्रभावित करेगा.
जब से शिक्षा में सामाजिक न्याय लागू हुआ, कम मेहनत कर अधिक मार्क्स पाने वाले विषयों के छात्र भी ज्ञानीयों की श्रेणी में आ खड़े हुये. बीए-एमए वाले भी प्रशासन और प्रबन्धन की डिग्री लेकर डॉक्टर-इन्जीनियर के ऊपर प्रतिष्ठित हो गये. कमोबेश ये स्थिति हर जगह देखने को मिलती है. ऑफ़िस-ऑफ़िस खेल कर भ्रष्ट लोगों ने समानांतर अर्थव्यवस्था खड़ी कर डाली है. जमीन-मकान या फ़्लैट सिर्फ़ इसलिये महँगे हो गये हैं कि संसाधन सीमित हैं और दो रुपये की चीज़ को लोग दस रुपये में ख़रीदने को तैयार हैं. भ्रष्टाचार से सभी त्रस्त हैं लेकिन इसके निराकरण की उम्मीद समाज सरकार से ही करता है. व्यक्तिगत रूप से तो समाज भ्रष्ट लोगों के समर्थन में खड़ा है क्योंकि बहुमत उन्हीं के पक्ष में है. शासन और सरकार के नुमाइन्दे भी उसी समाज से ही आते हैं.
एक बीकॉम ड्राप आउट फिल्म मेकर ने शिक्षा में सामाजिक समरसता का बीड़ा उठा रखा है. इंजीनियर्स को टारगेट करके बनी उसकी फिल्म को सुपर-डुपर हिट होना ही था. हर उस व्यक्ति को वो फिल्म अच्छी लगनी ही थी, जिसकी इन्जीनियर बनने की तमन्ना अधूरी ही रह गयी थी. अब उन्हें कौन समझाये कि ये जो मल्टीपल साउंड ट्रैक वाली फिल्में बन पा रही हैं, उसमें भी तकनीक का प्रयोग हुआ है. बल्कि ये कहना उचित होगा इस धरा पर प्राकृतिक चीज़ों के अतिरिक्त जो कुछ भी मानव निर्मित वस्तु दिखायी पड़ रही है, सब तकनीकी लोगों की देन है. इसमें कोई शक नहीं है कि समाज को हर वर्ग, हर विषय की आवश्यकता है. यही विविधता मानव जीवन को बहुआयामी बनाते हैं. कवि - लेखक - गीतकार - संगीतकार - फ़िल्मकार - पत्रकार जीवन को जीने योग्य बनाते हैं, अन्यथा पेट भर खाना और मन भर सोना तो धरती के सभी प्राणियों को मयस्सर है. उसके लिये उनके पास न शोध करने की कोई व्यवस्था है, न कोई वित्तीय प्रावधान. न कोई डराने वाला कि भैंसों की पॉपुलेशन बढ़ गयी तो उनका चारा कहाँ से आयेगा. सारी समस्या का विस्तार तो फंड आकृष्ट करने के लिये है, यदि फंड न मिले तो समस्या ख़त्म. कभी-कभी तो ये शक़ होता है कि यदि विज्ञान न होता तो समस्त मानव जाति बीमारी और भूख के मारे कब की समाप्त हो गयी होती. तब विज्ञान से अधिक वैज्ञानिकों की मन्शा पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है.
जब कोई कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहा हो तो उसे इस बात का भान होना चाहिये कि उसकी प्रतिभा वृहद् रूप में श्रोताओं के समक्ष पहुँच पा रही है तो उसके पीछे तकनीकी लोगों की एक टीम खड़ी है. कोई विचारक अपने विचार पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से दूरस्थ लोगों तक पहुँचा पा रहा है तो ये तकनीक के बिना सम्भव नहीं है. जब भी किसी मानव निर्मित वस्तु से आपका सामना हो तो उस तह तक जाने का प्रयास कीजियेगा, वहाँ तक जहाँ किसी तकनीकी व्यक्ति को अपना योगदान देते आप विज़ुअलाइज़ कर पायें. आपके नल में पानी आ रहा हो और सर पर पंखा घूम रहा हो, तो किसी अदृश्य इन्जीनियर को धन्यवाद अवश्य ज्ञापित कीजियेगा. इंटरनेट आ रहा है और एसी चल रहा है, तो कोई तो है जो बिना सामने आये, आपके लिये नौ मन तेल का इंतज़ाम कर रहा है ताकि आपके मन की राधायें बिना किसी व्यवधान के नाच सकें. उन्हें धन्यवाद नहीं दे सकते तो भी चलेगा, लेकिन अपमानित करना सही नहीं है. हो सके तो इस प्रयास से बचियेगा. ये बस एक निवेदन है बाकि उसके आगे, हरि इच्छा.
सभा में लाईट गयी थी, तो गाज तो गिरनी ही थी. वाणभट्ट को इस बात में कोई संशय नहीं था कि वो गिरेगी तो किसी न किसी जिम्मेदार व्यक्ति पर, किसी इन्जीनियर पर.
-वाणभट्ट
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