रविवार, 26 अक्टूबर 2025

उपनिवेशवाद

हर देश-काल में ताकतवर लोग अपनी बात को ऐसे व्यक्त करते रहे हैं, जैसे वो पत्थर की लकीर हो. समय के साथ नये ताकतवर आते गये और नयी लकीरें खींचते गये. पहले जब आम जनता को नियम-कानून जैसी चीज़ें पता नहीं थी, तो लोग छल-बल से अपनी बात मनवा लेते थे. कुछ देशों में जहाँ अभी भी तानाशाही या फिरकापरस्ती का बोलबाला है, वहाँ जनता को आज के आधुनिक युग में भी चपड़-चूं करने की इजाज़त नहीं है. वैसे देश-काल कोई भी हो पद-बल और उसमें निहित शक्तियाँ आम और अमरुद आदमी को उसी तरह अलग कर देती हैं, जैसे हंस दूध और पानी को.

राजशाही से आजिज़ आ चुकी जनता ने जब राजशाही का विरोध किया तो उन्होंने जनता को प्रजातन्त्र का झुनझुना पकड़ा दिया. ताकि जनता को लगे कि जनता ने अपनी सरकार का गठन अपने लिये, अपने द्वारा कर लिया है. इस व्यवस्था को प्रजातन्त्र की संज्ञा से नवाज़ा गया. उस समय भी राजनीति में जनता की सेवा के निस्वार्थ उद्देश्य से वो ही लोग कूदे जो साधन-सम्पन्न-समृद्ध लोग थे. जहाँ अधिकान्श जनता, दो जून के निवाले के इंतज़ाम में जुटी हो, वहाँ राजनीति भी एक प्रकार की विलासिता ही थी. और विलासिता पर आम आदमी का हक़ किसी ताक़तवर को भला कब, कैसे और क्यों सुहायेगा. सो ताकत का रूप बदला लेकिन सत्ता वहीं रही जहाँ पहले थी. जब जनता को ये एहसास हुआ कि प्रजातन्त्र तो मूलतः संख्या समीकरण है. जिसकी संख्या ज्यादा होगी, वही शासन के शीर्ष पर होगा. शक्ति के इस परिवर्तन-हस्तान्तरण को समाजवाद के रूप में परिभाषित किया गया. ठेठ भाषा में समाजवाद को इस तरह समझ सकते हैं कि पहले जिसकी लाठी (शक्ति-बल) उसकी भैंस होती थी, आज जिसके पास संख्या अधिक हो वो भैंस हाँक ले जायेगा. शक्ति के कई रूप हुआ करते थे, धन-बल-बुद्धि, लेकिन जब से संख्या बल आया बाकि सभी बल ढक्कन हो गये. जिसके पास संख्या है, वो जब चाहे, जहाँ चाहे, जो भी चाहे, अपनी बात मनवा ले. मनवा न भी पाये तो भी इनमें देश के सामान्य जन-जीवन को अस्त-व्यस्त-ठप्प करने की क्षमता तो है ही. इसमें प्रजातन्त्र बेचारा सा मुँह टापता रह जाता है.

संख्या बल की अवधारणा राजनीति तक ही रहती तो भी गनीमत थी. ये अवधारणा महामारी की तरह हर क्षेत्र में फ़ैल गयी. हर क्षेत्र मतलब हर क्षेत्र. विज्ञान जैसे विषयों का इससे अछूता रह पाना असम्भव था. परिभाषा के अनुसार विज्ञान वह विशिष्ट ज्ञान है, जिसके माध्यम से प्राकृतिक घटनाओं का सुव्यवस्थित और क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है, जिनका अवलोकन, परीक्षण, प्रयोग और तर्क के द्वारा सिद्धान्तों के रूप में प्रतिपादन किया जा सके. यह एक ऐसी विद्या है, जो ब्रह्माण्ड के रहस्यों की व्याख्या करने में सहायता करती है. धरती की समस्त जीवों में सबसे उन्नत प्रजाति, मानव, आरम्भ से ही प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने में लग गया. सिर्फ़ धरती पर हो रही प्रक्रियाओं को ही नहीं, मनुष्य ने ब्रह्माण्ड की सभी गतिविधियों, यहाँ तक कि ग्रह-नक्षत्रों-तारों के बारे में ज्ञान अर्जित करने का प्रयास किया. आज भी उसकी जिज्ञासा का अन्त नहीं है. नित नये प्रयोग और शोध हो रहे हैं, नित नयी खोज सामने आ रही है. 

जब तक विज्ञान विषय नहीं बना था, तब तक सारी खोजें मानव मात्र के लिये थीं. तब तक वो साझा ज्ञान था, सबके लिये. पिछला ज्ञान आगे के विज्ञान की आधारशिला बना. भारत में ऋषि परम्परा में ज्ञान-विज्ञान अपने उत्कर्ष पर था. जिसमें व्यक्ति नहीं ज्ञान सर्वोपरि था. इसीलिये हमने नियमों का प्रतिपादन व्यक्ति के नाम से नहीं किया. जब सारी दुनिया संशय में जी रही थी कि धरती चपटी है या चौकोर, हमें धरती का भूगोल मालूम था. जब सेब न्यूटन बाबा के सर पर नहीं गिरा था, हमें गुरु (बृहस्पति) के गुरुत्व का भान था. अणु-परमाणु की परिकल्पना का उद्भव भी 'यथा पिंन्डे तथा ब्रह्मांडे' से हुआ होगा. हमारे ऋषि-मुनि अपने ज्ञान का डंका बजाने में विश्वास नहीं करते थे, इसलिये सबने काम किया और वेदों के रूप में अपनी भाषा संस्कृत में लिपिबद्ध कर के समस्त प्राणी मात्र के उत्थान के लिये बिना किसी कॉपीराईट के उपलब्ध करा दिया. 

आर्थिक रूप से विकसित देश, अपने विचारों और शोध को तत्परता से लिपिबद्ध और प्रकाशित करने का हमेशा से प्रयास करते रहे हैं. भारत अपने कई महापुरुषों को सिर्फ़ इसलिये पहचान पाया क्योंकि उनके कृतित्व विदेशों में लिपिबद्ध हुये, वहाँ उनके कार्यों और विचारों को सराहना मिली. सैकड़ों वर्षों की पराधीनता ने देश की शिक्षा व्यवस्था को इस स्थिति तक समाप्त कर दिया कि हम अपने ही पुरातन ज्ञान-विज्ञान को संशय की दृष्टि से देखते हैं. अपने ही भारतीय विज्ञान पर प्रश्नचिंह खड़ा करने का कोई मौका नहीं चूकते. न हमें अपने चिकित्सकीय ज्ञान, आयुर्वेद पर गर्व है, न ही हम अपने खगोलीय ज्ञान को प्रमाणिक मानते हैं. कारण मात्र इतना है कि हमारे ऋषि-मनीषियों ने खोज को महत्त्व दिया, अपने नाम या योगदान को रेखांकित करने पर नहीं. उनके लिये विज्ञान सर्व सुलभ ज्ञान था, जिसका उपयोग मानव कल्याण और मानवता के लिये किया जाना था. पश्चिम के वैज्ञानिक अपनी खोज को अपना नाम देने के लोभ से बच नहीं सके.  मुगलों ने भारत की धन-सम्पदा को लूटने का लक्ष्य बनाया तो यूरोप के आक्रान्ताओं ने यहाँ की बौद्धिक सम्पदा को बिना श्रेय दिये चोरी करने में सन्कोच नहीं किया. ये बात ध्यान देने वाली है कि पाश्चात्य जगत में अधिकान्श खोज का अंग्रेजों के भारत आने के बाद सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में होना संयोग मात्र नहीं है.

विज्ञान का आरम्भ सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय से ही हुआ होगा. आवश्यकता अविष्कार की जननी है. लोगों ने आवश्यकता के अनुसार अविष्कार किये होंगे, जिनका उपयोग करने के लिये सर्वसाधारण को शिक्षित किया होगा कि सबका जीवन उन्नत और सुखद हो सके. जीवन के लिये आवश्यक मूलभूत खोजों पर किसी महान वैज्ञानिक का नाम नहीं है. किसने आग खोजी, किसने शिकार के लिये हथियार बनाये, किसने पहिये का अविष्कार किया, किसने खेती को जीवन का आधार बनाया. खेती ने ही आगे चल कर मानव समाज की स्थापना की. किसी भी खोज से किसी का नाम नहीं जुड़ा है. विज्ञान का ज्ञान भले सीमित लोगों के द्वारा विकसित किया गया हो लेकिन उसका लाभ सबके लिये था. तब विज्ञान शौक था, रोजगार नहीं. फिर यूनीवर्सिटीज़ में विज्ञान के अलग-अलग विषय बने. शोध का उपयोग व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और लाभ के लिये होने लगा. जहाँ भी ताकत का प्रवेश होगा, वहाँ राजनीति का आना भी तय है. मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने भी अपने सिद्धांतों को प्रतिपादित करने, अपने स्व को प्रोन्नत करने और भिन्न विचारधारा के व्यक्ति को कमतर दिखाने के लिये, संख्या बल की राजनीति का सहारा लिया. समय के साथ विज्ञान में राजनीति का घालमेल बढ़ता गया. दिन प्रति दिन शोध में धन की आवश्यकता बढ़ती गयी. इसके लिये कम्पनी प्रायोजित शोध आरम्भ हो गये. और जो शोध प्रायोजित करेगा तो उसके पीछे उसका अपना कोई न कोई स्वार्थ तो अवश्य सिद्ध हो रहा होगा. कई बार तो लगता है कि समस्याओं को अनायास विस्तारित किया जाता है ताकि वित्तीय प्रावधान को आकृष्ट किया जा सके. एलोपैथी इसका एक सबसे जीवन्त उदाहरण है. दवा कम्पनियाँ विभिन्न बीमारियों को लक्ष्य करके उनके उपचार हेतु दवा या टीकाकरण पर शोध और उनका वृहद् स्तर पर क्लीनिकल परिक्षण करवाती हैं. चूँकि आयुर्वेद और होम्योपैथी, जो सापेक्ष रूप से कम ख़र्चीली चिकित्सा पद्यति है, इसलिये इस में फण्डिंग भी कम है. बीमारियों को जड़ से ठीक करने के इनके बड़े से बड़े दावों की अभी भी पुष्टि नहीं हो पायी है, क्योंकि इस प्रकार के शोध को फण्ड करने में लाभ भी कम है. फण्ड की उपलब्धता प्रतिभाशाली मस्तिष्क को आकृष्ट करती है. जो जितना बड़ा भौकाल बना ले, वो उतना अधिक फण्ड खींच सकता है. यहीं पर वैज्ञानिक का व्यक्तिगत प्रभाव, नेटवर्क और व्यक्तित्व काम आता है. थोड़ी बहुत भी राजनीति कर ली तो मुद्दा देश या विश्वव्यापी बन जाता है. 

शिक्षा और ज्ञान को आर्थिक रूप से लाभ उठाने का विचार पाश्चात्य सभ्यता की देन है. पहले से स्थापित ज्ञान-विज्ञान को अधिसंख्य लोगों द्वारा बोली जाने वाली, अंग्रेजी भाषा में लिख कर, उन्होंने लगभग प्रत्येक विषय में अपने आप को अग्रणी मान लिया. विश्व के अधिकांश देश उनके उपनिवेश रहे इसलिये उनको दुनिया भर पर अपने विचार थोपने में अधिक प्रयास नहीं करना पड़ा. हमारे वेद-पुराणों को पिछड़ा और अप्रमाणिक सिद्ध करके, उसी ज्ञान पर पश्चिम के वैज्ञानिकों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर ली. संख्याबल यहाँ भी अपना काम कर गया. आप लाख प्रयास कीजिये, उद्धरण दीजिये, बहुमत से चलने वाली सभ्यतायें, आप को सक्षम और स्वयं को पिछड़ा मानने को तैयार नहीं हैं. और माने भी क्यों जब उन्होंने हमारी शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करके, अपने विचारों को हमारी जड़ों में इतना गहरे रोप दिया कि हमारा स्वयं पर से विश्वास डगमगा गया. विश्व के स्वतन्त्र और विकसित देशों, यूरोप, अमेरिका, जापान, चीन आदि ने अपनी भाषा और संस्कृति की गरिमा और प्रतिष्ठा का परित्याग नहीं किया. मुगलों और अंग्रेजों की ग़ुलामी ने हमारे भीतर इतनी गहरी पैठ बना ली कि हम आज भी न अपनी भाषा बना पाये, न अपना विज्ञान. जो अंग्रेजी में पढ़ लिया, उसी को सही और सत्य मान लिया. इस कारण हमारा विज्ञान और चिकित्सा पद्यति पश्चिमोन्मुखी हो कर रह गयी. अपने अत्यन्त उन्नत और विकसित पुरातन ज्ञान को नकार कर हम आज अपनी ही वैज्ञानिक अवधारणाओं की स्वीकृति के लिये पश्चिम का मुख देख रहे हैं. अपने चिकित्साशास्त्र, आयुर्वेद को कोई बाहर वाला नहीं, अपने ही आधुनिक भारतीय चिकित्सा जगत के लोग चुनौती दे रहे हैं. जबकि वर्तमान में पाश्चात्य जगत, योग और आयुर्वेद के लाभ को समझ रहा है और उसकी ओर झुकाव महसूस कर रहा है. अपनी भाषा में विज्ञान की पुस्तकों का आज भी नितान्त अभाव है. वैज्ञानिक पत्रिकाओं के न होने से हमारे वैज्ञानिक अपने शोध को अंग्रेजी में छापने-छपवाने को विवश हैं. शोध पत्रों का प्रकाशन एक सर्वकालिक लाभप्रद व्यवसाय बन गया है. कोरोना की विश्वव्यापी महामारी के दौरान जब अन्य उत्पादक क्षेत्र भीषण मंदी के शिकार हो गये थे, छापाखाना ही एक ऐसा व्यवसाय था, जो फूला और फला. 

नवोन्मेषी प्रायोगिक समाधान उन्मुख शोध भले समस्या का निवारण करने में सक्षम हों, किन्तु उन्हें उच्च स्तर की शोध पत्रिकाओं में स्थान नहीं मिलता. आज कल शोध दो धडों में विभक्त दिखायी देता है. अव्यवहारिक, मौलिक शोध और व्यवहारिक, प्रायोगिक शोध. मौलिक शोध जनित शोध पत्रों को उच्च स्तर की शोध पत्रिकाओं में स्थान मिल जाता है, जबकि प्रायोगिक व्यावहारिक शोध, प्रायः तकनीक के रूप में ही सीमित रह जाते हैं. यद्यपि कि इनका उपयोग समस्या के समाधान के लिये किया जा सकता है किन्तु इनको उच्च रेटिंग के शोध पत्र में परिवर्तित करना दुष्कर कार्य है. हाई रेटिंग के कारण आज मौलिक और व्यवहारिक शोध का अन्तर इतना अधिक हो गया है कि मौलिक शोध के वैज्ञानिक मौलिक शोध को ही विज्ञान मानने की भूल कर बैठते हैं, और व्यवहारिक शोध को हेय दृष्टि से देखते हैं. यही कारण है कि व्यवहारिक शोध करने वाले भी मौलिक शोध करने और उनके प्रकाशन की ओर आकृष्ट हो रहे हैं. मौलिक शोध भी एक चूहा दौड़ सिद्ध होती जा रही है क्योंकि मौलिक शोध के लिये मौलिक सोच का होना अत्यंत आवश्यक है. जबकि अधिकांश मौलिक शोध के लिये हम आज भी पश्चिम देशों के शोध की दिशा का अनुसरण कर रहे हैं. जिन संस्थाओं ने मौलिक और व्यवहारिक शोध का समन्वय कर लिया, वे ऐसी लोकोपयोगी तकनीक विकसित करने में सफल हुये, जिनका आधार मौलिक शोध था.

मौलिक शोध आवश्यक हैं, किन्तु यदि उसकी परिणति प्रायोगिक या व्यवहारिक समाधान में नहीं होती तो उसकी उपयोगिता व्यक्तिगत प्रोन्नति के लिये तो उचित हो सकती है, लेकिन देश-समाज के लिये नहीं. वर्तमान समय में शोध को समावेशी बनाने की आवश्यकता है ताकि वित्तीय प्रावधानों और संसाधनों का लक्ष्य समाधान केन्द्रित हो. अपने मौलिक शोध के स्तर पर हमारा स्वयं का विश्वास आवश्यक है, इसके पुष्टिकरण के लिये हमें विदेशी संस्थाओं की स्वीकृति पर निर्भर न रहना पड़े. जब तक व्यवहारिक विज्ञान की अवहेलना होगी, वैज्ञानिक मौलिक शोध करके आत्मुत्थान का प्रयास करते रहेंगे. इन परिस्थितियों में यदि देश को नवोन्मेषी उन्नत तकनीकों के लिये आयातित तकनीकों पर ही निर्भर रहना पड़ता है, तो ये अत्यन्त दुःखद होगा. 

जबसे भारत की अधिकांश शोध संस्थाओं ने शोध पत्रों को वैज्ञानिक प्रोन्नति का आधार बना लिया है, वैज्ञानिकगण भी वैश्विक स्तर पर होने वाली समस्याओं पर शोध और शोध पत्र लेखन को वरीयता दे रहे हैं. मौलिक विषयों पर किये शोध पत्रों को उच्च स्तर की शोध पत्रिकाओं में स्थान मिल जाता है. ये पत्र शोध समस्या के सैद्धान्तिक निवारण की ओर इन्गित तो करते हैं, किन्तु प्रायोगिक और प्रयुक्त किये जा सकने व्यवहारिक समाधानों से प्रायः कोसों दूर होते हैं. उच्च स्तर के शोध के लिये, हम मुख्य रूप से आयातित यन्त्रों पर निर्भर रहते हैं. इनकी आवश्यकता मात्र इसलिये होती है कि इन यंत्रों के परिणाम पर सारा विश्व विश्वास करता है और इनमें अधिकांश उपकरण विकसित देशों द्वारा निर्मित किये गये हैं. परिणामस्वरूप वित्तीय प्रावधान का महत्तम भाग, आयातित उपकरणों की खरीद पर व्यय हो जाता है. इस प्रकार विकसित देश हमारे ऊपर न केवल अपने विचार प्रत्यारोपित कर रहे हैं, बल्कि अपने शोध उपकरणों को खरीदने और शोध पत्रिकाओं में लेख छापने के लिये हमें बाध्य कर रहे हैं. 

स्वतन्त्रता के पचहत्तर साल बाद, हम आज भी बौद्धिक परतन्त्रता में जकड़े हुये हैं. समस्यायें क्षेत्रीय हैं, तो उनका समाधान भी यहीं से निकलेगा. 'थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली' का नारा ही काफ़ी नहीं है. धरातल पर इस विचार को लाना होगा. प्रयोगशाला के लिये अपने उपकरणों, अपने रसायनों पर विश्वास, सम्भवतः इस दिशा में पहला कदम हो. हमारे पुरखों ने आत्मानुभूति और गहन अंतदृष्टि से आयुर्वेद की जड़ी-बूटियों की खोज की वो भी बिना किसी तथाकथित उन्नत यन्त्र-उपकरण के. वे ऐसा इसलिये कर सके क्योंकि ज्ञान-विज्ञान के लिये उनके पास कोई विदेशी पुस्तक या मानक नहीं थे. आज आवश्यकता है कि भारत के पुरातन ज्ञान-विज्ञान को वैश्विक पटल पर स्वीकार्य बनाने की, उन्हें पुनर्स्थापित करने की. किन्तु इसके लिये आवश्यक है कि भारत का विज्ञान भी उपनिवेशवाद से बाहर निकले. अपने ग्रन्थों में लिखे विज्ञान का पठन-पाठन-अध्ययन, उनका परीक्षण और पुष्टिकरण, अपनी ही भाषा में आज की मुख्य आवश्यकता है. इस विषय में एक विज्ञापन की टैग लाइन ध्यान आ रही है - ये एक दिन में नहीं होगा, लेकिन एक दिन ज़रुर होगा. प्रयास तो कीजिये. 

-वाणभट्ट

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

गाज

लाईट को जाना था तो वो गयी. जेनरेटर को स्टार्ट होना था पर वो नहीं हुआ. सभा में अँधेरा छा गया. एक कहावत है - थिंग्स गो रॉन्ग ऐट मोस्ट क्रूशिअल आवर्स. मंच सज चुका था. सभी गण्यमान मंचासीन हो चुके थे. विद्वतजनों की पूरी फ़ौज सभागार में मौजूद थी. सबके पास लाईट के पुन: आ जाने का इन्तजार करने के अलावा कोई चारा भी न था. बैकअप के बैकअप की व्यवस्था पर किसी ने इन्जीनियर के कहने पर भी ध्यान नहीं दिया था. जब सब चीजें सुचारुरूप से चल रही हों तो इन्जीनियर की राय का कोई मतलब नहीं होता. मेन्टेनेन्स इन्जीनियर ने पहले ही कहा था कि एक इन्वर्टर या यूपीएस लग जाता तो सप्प्लाई से जेनरेटर पर स्विच होने में जो 15-20 सेकेण्ड का अन्तराल होता है, उसमें भी घुप्प अँधेरा नहीं होगा.  

जब से सामाजिक न्याय का मुद्दा उठा है, हिन्दुस्तान में सबने ये मान लिया है कि हर व्यक्ति बराबर है. ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, परिश्रमी हो या आलसी हो, सबको धरती पर एक ही स्तर का जीवन जीने का भग्वत प्रदत्त अधिकार है. क्योंकि सब मनुष्य हैं. भगवान ने सबको मनुष्य योनि में जन्म दिया है. मनुष्य और मनुष्य में भेद करना मानवता के विरुद्ध है. समाज में जो वर्ण और वर्ग भेद की विषमता व्याप्त है, उसको दूर करने की प्रक्रिया वोट के द्वारा चयनित लोगों की व्यवस्था द्वारा की जा सकती है. वर्ग सन्घर्ष को दूर करने के लिये भारत भूमि की पावन धरा पर समय-समय पर महान विभूतियों ने जन्म लिया. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इनमें से अधिकान्श आर्थिक या शैक्षणिक या सामाजिक दृष्टि से उन्नत, समृद्ध और सम्पन्न लोग थे. जिनकी बातों का समाज पर व्यापक असर पड़ता था, आज भी पड़ता है. सीधी सी बात है मेरा उत्थान मुझसे अधिक सक्षम व्यक्ति ही तो कर पायेगा. धन-बल, भुज-बल, पद-बल, संख्या-बल, जिनके पास है, उनके विचारों में ताकत आ जाती और बातों में वज़न. इनमें से कई सुधारक अपने-अपने समाज का सामाजिक उन्नयन करते-करते कब धनपशुओं में शुमार हो गये, इनके अपनों को भी ज्ञात नहीं हुआ. अब जब उपरोक्त किसी भी प्रकार की शक्ति में से कोई शक्ति उनके पास है तो उनका अनुसरण करने वालों की संख्या का बढ़ना भी तय है. 

वाणभट्ट की सोच, इस सोच को और व्यापक बनाने की है. सामाजिक बराबरी को वैश्विक स्तर पर लाने की आवश्यकता है. ये अमरीका और जापान वाले क्या आदमी से उपर हैं. कोरिया, चीन और सिंगापुर अगर तरक्की कर रहे हैं तो क्या उनकी समृद्धि पर सम्पूर्ण वसुन्धरा के अन्य लोगों का कोई अधिकार नहीं है. किसी देश में गरीबी-भुखमरी है, तो कहीं तानाशाही ने जनता का जीवन नर्क बना रखा है. कितना अच्छा होता कि देशों के बीच की लकीरें ही हट जातीं और पूरी धरती एक हो जाती. सोच तो इतनी व्यापक होनी चाहिये कि धरती पर जीने का अधिकार सिर्फ़ मानव प्रजाति को नहीं है. बल्कि अन्य जीव-जन्तुओं-वनस्पतियों को भी है. आदमी अन्य प्रजातियों से श्रेष्ठ है, इसलिये सबका साथ और सबका विकास उसी को करना है. लेकिन आदमी है तो उसके साथ उसका स्वार्थ चिपका हुआ है. हर व्यक्ति को जीविकोपार्जन के लिये लाभ के विषय में सोचना और कार्य करना ज़रूरी है. अधिक लाभ यानि अधिक परिश्रम. किन्तु लाभ की अनियन्त्रित चाह कब लोभ में बदल जाती है, व्यक्ति को स्वयं पता नहीं चलता. अधिकार माँगने वाले हमेशा अधिकार देने वालों से संख्या में अधिक रहे हैं. कारण बहुत साफ़ है. जिसने भी बल प्राप्त करने के लिये अधिक श्रम किया, उसके पास हमसे अधिक अधिकार होंगे ही. पुरुषार्थ करके जब वही व्यक्ति अपनी सफलता का आनन्द लेने का प्रयास करता तो अधिकार माँगने वालों की नींद खुल जाती है. और वो बराबरी का हिस्सा बँटवाने को तत्पर हो जाते हैं.   

भारत ही क्या पूरी दुनिया में कभी भी बराबरी नहीं रही है. सबसे बड़ा वर्ग विभेद सक्षम और असक्षम का रहा है, समर्थ और असमर्थ का रहा है, धनवान और निर्धन का रहा है. उसके पीछे कई कारण रहे हो सकते हैं. सिर्फ़ भारत में ही हजारों धर्म-सम्प्रदाय-जातियाँ नहीं रही हैं, अन्य देशों में भी कभी एक विचारधारा या धर्म नहीं रहा. किन्तु सभी ने सबको बराबर का मान-सम्मान-आदर दिया हो, ऐसा इतिहास में कहीं नहीं दिखता. जो भी अधिक ताकतवर था, बुद्धि में, धन में, बल में या संख्या में उसने दूसरों को बदलने में, दबाने में, अपना सारा जोर लगा दिया. लेकिन बराबर कभी नहीं होने दिया. अब हम भारत के बाहर इस वर्ग विद्वेष के लिये ब्राह्मण या पण्डित जी को तो कोस नहीं सकते, लेकिन हमें लगता है कि देश के भीतर अपनी दुर्दशा का ठीकरा किसी पर तो फोड़ना ही है, तो पण्डित जी पर क्यों न फोड़ें. जबकि फ़र्क़ सिर्फ़ धन और निर्धन का है. अधिकांश इस दुश्चक्र में फँसे रह जाते हैं. भारत का इतिहास ऐसे महापुरुषों से भरा पड़ा है, जो इस दुश्चक्र को भेद कर बाहर निकल पाये. जिन्होंने अपनी स्थितियों-परिस्थितियों के लिये दूसरों को दोष देना बन्द कर दिया. दूसरों की लकीर छोटी करने के बजाय उन्होंने अपनी इतनी लम्बी लकीर बना दी कि उनकी मिसाल बन गयी. सदियाँ बीत गयीं, कोई उन्हें भुला नहीं सका. उनका नाम इतिहास में दर्ज़ हो गया. लकीर इतनी गहरी भी थी कि बाद में कोई चाह कर भी इसे मिटा न सका. अपनी लकीर बनाने-बढाने में, विशेष रूप से तब जब सब आपके ख़िलाफ़ हों, तो परिश्रम का परिमाण भी बढ़ाना पड़ता है. जो अधिकार माँगने या अधिकारों के लिये लड़ने की अपेक्षा कहीं दुष्कर कार्य है. आज जब कोई सामाजिक समरसता की बात करता है, तो प्रायः अपने समाज, धर्म और जाति विशेष के उत्थान की ही बात करता है. मानव या मानवता की बात नहीं. मानवता की बात तो आज भी धर्मगुरु-ज्ञानी-पण्डित-पुरोहित ही कर रहे हैं. ये वो लोग हैं जिन्होंने अपने ही धर्म के कर्म काण्ड को चुनौती दी और समाज के जीवन स्तर को ऊपर उठाने में तन-मन-धन से प्रयास किया. स्वयं को सही सिद्ध करने की जगह दूसरों को गलत सिद्ध करना हमेशा आसान रहा है. भारत की राजनीति यहीं पर सिमट कर रह गयी. जब भी कोई विकास की बात करता है तो हम उसके धर्म-जाति को घसीट लाते हैं. स्थितियाँ ऐसी हो गयी हैं कि तमाम विकास के बाद भी कोई स्वयं को विकसित मानने को तैयार नहीं है. आज जितना भी विकास देखने को मिल रहा है उसका श्रेय उन सभी भारतवासियों को है जिन्होंने अपने-अपने समय में, अपने-अपने स्तर पर भारत के विकास में अपना योगदान दिया. हमारे महापुरुष साझे हैं. उन्होंने देश के लिये काम किया. वे देश की साझी विरासत हैं. 

अभी सामाजिक न्याय पूरी तरह लागू हो ही नहीं पाया था कि हमने उसे शिक्षा के क्षेत्र में भी लागू कर दिया. आप चाहे संगीत पढ़ो या साँख्यिकी सब बराबर. इतिहास और विज्ञान एक ही श्रेणी में तौल दिये गये. यहाँ भी जिनका विज्ञान पढने में मन नहीं लगता था, उनकी संख्या अधिक थी. अधिकारों की माँग वहीं करता है, जिसमें अधिकार देने की क्षमता नहीं होती. नतीजा ये हुआ कि इतिहास या भूगोल या दर्शन शास्त्र की कोई भी टेक्स्टबुक उठा के देख लीजिये, कला संकाय के किसी भी विषय की किताब उठा कर देख लो, पहला चैप्टर उस विषय को विज्ञान सिद्ध करने में लग जाता है. सिस्टमैटिक स्टडी ऑफ एनी सब्जेक्ट इज़ साइंस. और तो और राजनीति शास्त्र को पॉलिटिकल साइंस ही बता दिया गया. और भाषाओं का तो पता नहीं लेकिन संस्कृत और हिन्दी, और भारत की अनेक भाषायें, जिनका उद्गम संस्कृत से हुआ, वो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक हैं. कोई उन्हें भाषा विज्ञान की संज्ञा देता है तो उसे सही माना जा सकता है. अंग्रेज़ी-उर्दू का इतिहास हो सकता है लेकिन उन्हें वैज्ञानिक भाषा कहना सही नहीं होगा. 

जिस तरह समाज में हर व्यक्ति की अपनी भूमिका है, उसी तरह सभी विषयों की अपनी उपादेयता है. देश-समाज के विकास के लिये सबका योगदान होता है. विषयों का सहअस्तित्व तो हो सकता है लेकिन किसी विषय की किसी दूसरे विषय पर श्रेष्ठता का निर्णय हास्यस्पद है. बेवकूफ़ी थोडा अपरिष्कृत शब्द है. जिन्हें दसवीं तक आते-आते ये एहसास हो चुका होता है कि आगे गणित और विज्ञान से उनके सम्बन्ध मधुर नहीं रहने वाला, वही लोग दूसरे विषयों के विषय में सोचना शुरू करते थे. कुछ लोगों के निर्णय उनके पिता जी या अब्बाजान उनके पैदा होने से पहले ही ले लेते कि बेटे या बेटी को प्रशासनिक सेवा में भेजना है या राजनीति में. बच्चे को इंजीनियर या डॉक्टर बनाने के सपने पालने वालों की संख्या में भी कोई कमी नहीं है. बीए-एमए, बीकॉम-एमकॉम कराने के बारे में कोई बाप नहीं सोचता. ये सब करके कोई रगड़-घिस के अधिकारी तो बन सकता है लेकिन इन्जीनियर या डॉक्टर बनाने के लिये जातक की विज्ञान में अभिरुचि होनी परम आवश्यक है. पारम्परिक पीसीएम या पीसीबी क्षेत्र में बीएससी या एमएससी करने वालों को भी ये भली भांति ज्ञात रहता है कि हिस्ट्री-ज्योग्रेफ़ी बड़ी बेवफ़ा, रात को रटी सवेरे सफ़ा. कला संकाय के विषय उन्हें वैसे ही दुरूह लगते हैं जैसे कला संकाय वाले को गणित या बायो. विज्ञान के छात्र को लॉजिकल विषयों को तो समझना सरल-सहज होता है, लेकिन रटन्त विद्या पर उनका भरोसा कम रहता है. इस मामले में गणित के विद्यार्थी, बायो वालों को भी रटन्तू ही मानते हैं. इसीलिये इन्जीनियरिंग के छात्र मेडिकल की ओर नहीं देखते और इन्हीं कारणों से मेडिकल वाले इंजीनियरिंग से परहेज करते हैं. यदि हर किसी नॉन-मैथ्स वाले की जीवनी खंगाली जाये, तो बिरले ही मिलेंगे जिन्होंने दसवीं में गणित के अच्छे मार्क्स होने के बाद भी बायो का चयन किया हो. क्योंकि तब तक छात्र को पता चल चुका होता है कि वो तार्किक है या अतार्किक. विषय को समझ सकता है या रट. उसी के अनुसार वो स्वयं या उसके बुजुर्ग, आगे की पढायी के विषय पर निर्णय लेते थे. 

हमारे समय तक कृषि को विज्ञान का दर्ज़ा मिल चुका था लेकिन ये बहुतों को मालूम ही नहीं था. संभवतः इसके बारे में वो ही लोग जानते थे जिनके चाचे-मामे-ताये कृषि विभाग से सम्बद्ध थे. उनका विचार था कि हर्डल रेस चल रही है. और रेस जीतने के दो ही तरीके हैं. या तो मेहनत करके हर्डल के उपर से निकला जाये या कम मेहनत करके हर्डल के नीचे से रेस के अंतिम सिरे पर पहुँचा जाये. जिस भतीजे में विज्ञान के प्रति रूचि होती थी वो पीसीबी में ग्रेजुएशन करना पसन्द करता था. बाकी को बुजुर्गों की नसीहत पर अधिक भरोसा होता था. क्योंकि उनसे पहले वो खानदान-समाज के कितने ही लोगों को तार चुके होते थे. उस समय तक पैसा दे कर इन्जीनियरिंग/मेडिकल की शिक्षा/डिग्री की दुकानें दक्षिण के कुछ राज्यों तक ही सीमित थीं. लिहाजा कृषि विज्ञान स्नातक में प्रवेश एक किफ़ायती विकल्प था. न कोई हर्डल, न कोई कम्पटीशन. किन्तु जब से ये विषय रोजगार गारेन्टी स्कीम के रूप में उभरा है, तब से यहाँ भी मारा-मारी शुरू हो गयी. कम्पटीशन बढ़ा तो हर्डल भी बढ़ा, नतीजा छात्रों की गुणवत्ता भी बढ़ी. किन्तु अभी भी सामाजिक रूप से इसका दर्ज़ा मेडिकल और इंजीनियरिंग के बाद ही आता है. ज्ञान-विज्ञान व्यक्ति को विनम्र बनाता है जबकि अल्प-ज्ञान की परिणति छद्म दम्भ और अहंकार में होती है. ज्ञान समावेशी है जबकि अज्ञान श्रेष्ठता सिद्ध करने में लग जाती है. और इनके लिये न कोई भाषा की गरिमा है, न कोई बात करने का शालीनता. कृषि शोध की अद्भुत समस्या ये है, कि ये कृषि में आने वाली समस्त समस्याओं का समाधान शोध से करना चाहते हैं. जबकि कृषि में अधिकांश समस्यायें इन्जीनियरिंग या प्रबन्धन सम्बंधित हैं. इनका शमन या अल्पीकरण तो सहज संभाव्य है, लेकिन हमारा सारा प्रयास उनके उन्मूलन में लगा है. वो भी इन्जीनियरों को शामिल किये बिना. आज की स्थिति में बस प्रभु से कामना ही कर सकते हैं कि उच्च पदस्थ लोगों को सद्बुद्धि और विवेक प्रदान करे कि एक ही दिशा में वित्तीय प्रावधान भविष्य में कृषि की अन्य शाखाओं-प्रशाखाओं के विकास को प्रभावित करेगा. 

जब से शिक्षा में सामाजिक न्याय लागू हुआ, कम मेहनत कर अधिक मार्क्स पाने वाले विषयों के छात्र भी ज्ञानीयों की श्रेणी में आ खड़े हुये. बीए-एमए वाले भी प्रशासन और प्रबन्धन की डिग्री लेकर डॉक्टर-इन्जीनियर के ऊपर प्रतिष्ठित हो गये. कमोबेश ये स्थिति हर जगह देखने को मिलती है. ऑफ़िस-ऑफ़िस खेल कर भ्रष्ट लोगों ने समानांतर अर्थव्यवस्था खड़ी कर डाली है. जमीन-मकान या फ़्लैट सिर्फ़ इसलिये महँगे हो गये हैं कि संसाधन सीमित हैं और दो रुपये की चीज़ को लोग दस रुपये में ख़रीदने को तैयार हैं. भ्रष्टाचार से सभी त्रस्त हैं लेकिन इसके निराकरण की उम्मीद समाज सरकार से ही करता है. व्यक्तिगत रूप से तो समाज भ्रष्ट लोगों के समर्थन में खड़ा है क्योंकि बहुमत उन्हीं के पक्ष में है. शासन और सरकार के नुमाइन्दे भी उसी समाज से ही आते हैं.  

एक बीकॉम ड्राप आउट फिल्म मेकर ने शिक्षा में सामाजिक समरसता का बीड़ा उठा रखा है. इंजीनियर्स को टारगेट करके बनी उसकी फिल्म को सुपर-डुपर हिट होना ही था. हर उस व्यक्ति को वो फिल्म अच्छी लगनी ही थी, जिसकी इन्जीनियर बनने की तमन्ना अधूरी ही रह गयी थी. अब उन्हें कौन समझाये कि ये जो मल्टीपल साउंड ट्रैक वाली फिल्में बन पा रही हैं, उसमें भी तकनीक का प्रयोग हुआ है. बल्कि ये कहना उचित होगा इस धरा पर प्राकृतिक चीज़ों के अतिरिक्त जो कुछ भी मानव निर्मित वस्तु दिखायी पड़ रही है, सब तकनीकी लोगों की देन है. इसमें कोई शक नहीं है कि समाज को हर वर्ग, हर विषय की आवश्यकता है. यही विविधता मानव जीवन को बहुआयामी बनाते हैं. कवि - लेखक - गीतकार - संगीतकार - फ़िल्मकार - पत्रकार जीवन को जीने योग्य बनाते हैं, अन्यथा पेट भर खाना और मन भर सोना तो धरती के सभी प्राणियों को मयस्सर है. उसके लिये उनके पास न शोध करने की कोई व्यवस्था है, न कोई वित्तीय प्रावधान. न कोई डराने वाला कि भैंसों की पॉपुलेशन बढ़ गयी तो उनका चारा कहाँ से आयेगा. सारी समस्या का विस्तार तो फंड आकृष्ट करने के लिये है, यदि फंड न मिले तो समस्या ख़त्म. कभी-कभी तो ये शक़ होता है कि यदि विज्ञान न होता तो समस्त मानव जाति बीमारी और भूख के मारे कब की समाप्त हो गयी होती. तब विज्ञान से अधिक वैज्ञानिकों की मन्शा पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है. 

जब कोई कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहा हो तो उसे इस बात का भान होना चाहिये कि उसकी प्रतिभा वृहद् रूप में श्रोताओं के समक्ष पहुँच पा रही है तो उसके पीछे तकनीकी लोगों की एक टीम खड़ी है. कोई विचारक अपने विचार पत्र-पत्रिकाओं-अंतरजाल के माध्यम से दूरस्थ लोगों तक पहुँचा पा रहा है तो उसे ये एहसास होना चाहिये कि ये काम तकनीक के बिना सम्भव नहीं है. जब भी किसी मानव निर्मित वस्तु से आपका सामना हो तो उस तह तक जाने का प्रयास कीजियेगा, वहाँ तक जहाँ किसी तकनीकी व्यक्ति को अपना योगदान देते आप विज़ुअलाइज़ कर पायें. आपके नल में पानी आ रहा हो और सर पर पंखा घूम रहा हो, तो किसी अदृश्य इन्जीनियर को धन्यवाद अवश्य ज्ञापित कीजियेगा. इंटरनेट आ रहा है और एसी चल रहा है, तो कोई तो है जो बिना सामने आये, आपके लिये नौ मन तेल का इंतज़ाम कर रहा है ताकि आपके मन की राधायें बिना किसी व्यवधान के नाच सकें. उन्हें धन्यवाद नहीं दे सकते तो भी चलेगा, लेकिन अपमानित करना सही नहीं है. हो सके तो इस प्रयास से बचियेगा. ये बस एक निवेदन है बाकि उसके आगे, हरि इच्छा.

सभा में लाईट गयी थी, तो गाज तो गिरनी ही थी. वाणभट्ट को इस बात में कोई संशय नहीं था कि वो गिरेगी तो किसी न किसी जिम्मेदार व्यक्ति पर, किसी इन्जीनियर पर.

 -वाणभट्ट 

रविवार, 14 सितंबर 2025

GE

जंज़ीर-दीवार-शोले में अमिताभ के होने के अलावा और क्या समानता हो सकती है. शायद ही कोई इसे गेस कर पाये. उस समय तक हमें अपनी मर्ज़ी से पिक्चर देखने की आज़ादी नहीं थी. पिक्चर तब  देखते थे जब पिता जी परिवार को साथ लेकर पिक्चर देखने जायें. दोस्तों के साथ पिक्चर देखना और परिवार के साथ पिक्चर देखने में बड़ा अन्तर होता है. तब तक राजेश खन्ना का बोल-बाला था. अधिकतर पारिवारिक फिल्में ही बनती थीं, जिनसे बच्चे कुछ सही भले न सीखें किन्तु गलत बात सीखने की गुन्जाइश न के बराबर थी. इस चक्कर में एक बार 'सफ़र' पिक्चर में पिता जी ने हमें फँसा दिया. पूरी फिल्म हम ढिशुम-ढिशुम का इंतज़ार करते रहे और फिल्म ख़त्म हो गयी. उस फिल्म में गाये किशोर दा के गाने तो आज भी सुनता हूँ, लेकिन फिल्म के कुछ दर्द भरे दृश्यों की स्मृति के चलते उस फिल्म को दोबारा देखने की हिम्मत आज तक नहीं हुयी.

ऐसी स्थिति में विजय बाबू हम लोगों का एक मात्र सहारा थे. वो अपने पिता जी के गल्ले से व्यवस्था बना कर हर फिल्म का पहला दिन, पहला शो मैनेज कर लेते थे. उम्र हमारे बराबर, यही कोई आठ-दस साल. जब बच्चों के पर निकल रहे होते थे, उनके निकल चुके थे. अमिताभ के जबरदस्त फैन. जिस दिन वो फिल्म देख कर आते थे, उस दिन शाम को बच्चों की टोली क्रिकेट, सेवेन स्टोन, गेन्द-तड़ी, गुल्ली-डंडा या गोली नहीं खेलती थी. सब लोग मैदान के किनारे बने छोटे से टीले पर बैठ जाते थे. ऑफ़ कोर्स सब लोग नीचे और विजय बाबू टीले के टॉप पर. फिर शुरू होता था, जंज़ीर, दीवार और शोले जैसी अमिताभ की फिल्मों का सजीव प्रसारण. सीन दर सीन, पूरे एक्शन, एक-एक डायलॉग और बैकग्राउण्ड म्युज़िक के साथ. एक बार भाई बम्बई जाने के विचार से निकल भी गये थे लेकिन घर के पास प्रयाग स्टेशन पर बम्बई की ट्रेन का इंतज़ार करते बरामद हुये. पिता जी ने बल भर कूटा. एक प्रतिभा ने फूटने से पहले ही काल के गर्भ में दम तोड़ दिया. इस प्रकार देश एक और अमिताभ के मिलने से वन्चित रह गया. ये एक कोइन्सिडेन्स ही है कि उनका नाम अमिताभ के परदे वाले नाम से मैच करता है. बाद में उन्होंने सेल्स और मार्केटिंग को अपना कैरियर बनाया. उनका अपना व्यवसाय है, जिसमें वो अत्यधिक सफल भी हैं. आज भी विजय भाई कोई बात कहते नहीं बल्कि डायलॉग डिलीवरी करते हैं. और आज भी उनके मेरे जैसे कई फैन्स हैं. 

उस समय तक अपर-मिडिल क्लास ने स्कूटर लेनी शुरू की थी, मिडिल-मिडल क्लास में स्पोर्ट जैसी सायकिल का चलन बढ़ रहा था और लोवर-मिडिल क्लास के पास सायकिल हुआ करती थी. उसमें लगी घंटी ही उस सायकिल सवार का टशन होती थी. हम यानि एक मकानमालिक और पाँच किरायेदार, एक परिवार की तरह रहा करते थे. उनका मकान भी आज का एचआईजी/एमआईजी नहीं पूरी की पूरी हवेली था. ये परिवार, परिवार नहीं, पूरा सर्विलांस सिस्टम था. किसी बच्चे की क्या मजाल कि उनकी पैनी निगाहों से बच जाये. आपस में प्रेम इतना था कि अपने-पराये का बिलकुल भी भेद नहीं. बच्चा किसी का हो, अगर कुछ गलत करता मिल गया तो निस्पृह भाव से मोहल्ले के चाचा-ताऊ-मामा-बाबा-नाना उसे सुधारने के लिये यथाशक्ति-यथासामर्थ्य बल प्रयोग करने से नहीं चूकते थे. उस पर तुर्रा ये कि घर में जा कर बताओ, तो माता-पिता जी से और आशीर्वाद पाओ. लिहाज़ा आज तक हममें, अन्य लोगों की तुलना में कुछ ज्यादा, जो संस्कार नाम की चीज़ बची हुयी है, उसमें उस विस्तारित परिवार का बहुत बड़ा योगदान है. जीवन का परमानन्द या तो दीन दुनिया से विरक्त सन्तों को मिलता है, या समाज में बहुतायत से पाये जाने वाले सदाचार विहीन व्यक्तियों को. कभी-कभी लगता है कि दुनिया का मज़ा लूटने के लिये पाला बदल लिया जाये, लेकिन संस्कार की जडें इतनी गहरी हैं, जो लाख प्रयास और इच्छा के बाद भी एक स्तर से नीचे गिरने नहीं देतीं.  

तब शहर भी ज्यादा बड़ा नहीं था, हाँ हम लोग  छोटे ज़रूर थे. गाहे-बगाहे पिता जी की सायकिल मिल जाना बड़ी बात थी. पूरे शहर का दायरा दस किलोमीटर में सिमट जाता था. लेकिन वही हमारे लिये बहुत था. उसमें भी गुम हो जाने की पूरी सम्भावना रहती थी. यदि शहर घूमने का मन हो और सायकिल का जुगाड़ हो गया तो मै बुलाता था सुधीर को. उसकी माता जी हम लोगों के घरों में काम करती थीं. जब तक उसकी माँ हम लोगों के घर काम करती थीं, वो घर के आस-पास अकेले ही कुछ न कुछ खेला करता था. उसकी फोटोग्राफिक मेमोरी थी. वो शहर के मोहल्ले ही नहीं वहाँ स्थित दुकानों-प्रतिष्ठानों को भी जानता था. उसके दिमाग़ में पूरे शहर का नक्शा था. चूँकि हमने नयी-नयी सायकिल चलानी सीखी थी, तो उसे बैठा कर शहर भर घुमाता था. हम लोगों ने सिविल लाइन, चौक, घंटाघर, लोकनाथ, अशोक नगर, तेलियरगंज, मुट्ठीगंज, कर्नलगंज, कटरा, ममफोर्डगंज, कैन्ट आदि इलाहाबाद के बहुत से हिस्से एक्सप्लोर किये. आज भी यदि हमें इलाहाबाद की गलियाँ अपनी लगती हैं तो उसमें हम लोगों की घुमक्कड़ जिज्ञासा का बड़ा योगदान है. बिना मैप्स के दिशा ज्ञान और सडक पर चलने के मूलभूत सिद्धान्त इस कदर आत्मसात हो गये कि मेरी कार पर मेरी गलती के कारण पड़ने वाले स्क्रैच नगण्य हैं. बाकी मेरी कार पर जितने भी घाव हैं, वो बिना ट्राफिक सेन्स के कानपुर की कुञ्ज सड़कों-गलियों में लहराते हुये चलने वालों की देन हैं. 

कुछ ब्रांड इतने बड़े हो जाते हैं कि उनके एल्फाबेट्स देखते ही उनका नाम याद आ जाता है. 'जीई' शीर्षक देख कर आप के जेहन में भी 'जनरल इलेक्ट्रिक' का नाम ज़रूर उभरा होगा. 'आर' देखते ही रिलायंस की याद आती है, और 'एक्स' देख कर ट्विटर की और 'यूसी' से अर्बन कम्पनी की. यदि आपका कृषि क्षेत्र से कोई वास्ता होता तो शायद आप इसको जीxई (GxE) के रूप में देख पाते. ऊपर जो इतनी रामायण लिखी है वो सिर्फ़ इसलिये कि मै अपनी बात को उन लोगों को समझा पाऊँ जो 'जीन' के पीछे लट्ठ लिये पड़े हैं. उन्हें लगता है कि 'जीन' सुधार देंगे तो सब सुधर जायेगा. ऊपर जितने भी उद्धरण दिये हैं, उनमें व्यक्तियों की मेधा-आईक्यू में कोई कमी नहीं थी. क्या पढ़ और क्या अनपढ़, क्या शहरी, क्या ग्रामीण, सब जगह आपको बुद्धिमान लोग मिल जायेंगे. किन्तु ये वातावरण ही था, जिसमें उनकी प्रतिभा निखरी या बिखरी. भारत में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिसमें बहुत सी प्रतिभाओं ने पलायन इसलिये कर लिया कि जिस व्यवस्था को हमने बिना किसी प्रश्नचिन्ह के स्वीकार कर रखा है, उसने उन्हें रिजेक्ट कर दिया. और उन्हीं लोगों ने जब विदेश में रह कर अपने झंडे गाड़े तो हमें भी उनके भारतीय मूल की याद आयी. भ्रष्ट आचरण वाले विभागों में ईमानदार की सत्यनिष्ठा महाभ्रष्ट लिख रहा हो तो ये सिस्टम की असफलता है, न कि व्यक्ति की. 

अभी पड़ोसी देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने को लेकर हिंसक विद्रोह हुआ है. लेकिन सरकार के कुछ नुमाइन्दों को छोड़ कर शायद ही कोई भ्रष्ट अधिकारी या कर्मचारी भीड़ के हत्थे चढ़ा. ये अवधारणा ही गलत है कि सरकार बदलने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा. जब आम नागरिक सही-गलत का भेद भूल कर आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा होगा, तो सरकार में बैठे लोग भी तो जनता में से ही आते हैं. ये वातावरण ही है, जो भ्रष्टों को पालता, पोसता और संरक्षित करता है. व्यक्तिगत रूप से कितने लोगों को सजा मिली या मिलती है. जब आम जनता ने भ्रष्टाचार को व्यवस्थित तरीके से स्वीकार कर लिया हो, जहाँ भ्रष्टाचार समाज का अपरिहार्य अंग बन चुका हो, वहाँ भ्रष्टाचार से निपटने की सारी व्यवस्था 'आई वाश' से अधिक कुछ नहीं है. सिंगापुर में 'ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट' एक संज्ञेय अपराध है और सजा का निर्धारण दो से तीन दिन के भीतर हो जाता है. अरब देशों में भी ऐसा प्रावधान है कि चोरी करने से पहले ही चोरों की रूह काँप जाती है. कलाम साहब ने एक बार कहा था कि यदि हम चाहते हैं कि हम आज ही सिंगापुर जैसे विकसित देश बन जायें तो हमें वैसा ही व्यवहार करना होगा जैसा हम सिंगापुर एयरपोर्ट पर उतरने के बाद करते हैं. 

भारत में बहुत सी ऐसी कम्पनियाँ हैं, जो आम के पल्प और जूस पर आधारित पेय पदार्थ बेच रही हैं. ये सारी कम्पनियाँ विदेशों से आम के पल्प या कंसंट्रेट इम्पोर्ट करती हैं. जबकि भारत आम का मुख्य उत्पादक व निर्यातक देश है. जब उनसे पूछा गया कि आप लोग अपने देश के आम का प्रयोग क्यों नहीं करते तो उनका जवाब हैरान करने वाला था. उच्च गुणवत्ता का उत्पाद बनाने के लिये हमें कच्चा माल भी एकरूप चाहिये. ब्राजील से आने वाला कच्चा माल गुणवत्ता में समरूप होता है, इसलिये उसके प्रसंस्करण में हमें कोई विशेष प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ती. अभी हाल ही में एक डेलिगेशन ब्राजील हो के लौटा है. हजारों एकड़ में एक ही प्रजाति की फसल देख कर वे अचंभित रह गये. यहाँ तक कि खेत के सर्वेक्षण के लिये ड्रोन और हैलीकॉप्टर का उपयोग होता है. उन्नत कृषि यंत्रों का उपयोग, मशीनीकरण व सिंचाई विधियों के उच्च स्तर ने सभी को प्रभावित किया. डेरी में गाय भी थीं, तो एक ही प्रजाति की हज़ारों गाय. उन्होंने भारत की पारंपरिक देसी गिर और साहिवाल का संवर्धन करके उनकी उत्पादकता में वृद्धि की. मूल प्रजाति में कम से कम छेड़-छाड़ कर के उसके उत्पाद की मूल गुणवत्ता को भी बनाये रखा गया है. 

मेडिकल साइंस में अभूतपूर्व विकास के बाद अब लोगों का सामना एलोपैथी के दुष्परिणामों से हो रहा है. हमारे पूर्वजों ने स्वानुभूति से, आधुनिक चिकित्सीय ज्ञान से पहले ही, चिकित्सा की पूरी एक विधा, आयुर्वेद विकसित कर रखी थी. विदेशी ग़ुलामी और अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में हम अपनी ही मूल चिकित्सा व्यवस्था से विरत हो गये. अंग्रेजी को विज्ञान मान लिया. हर अवयव (ऑर्गन) के विशिष्ट विशेषज्ञ चिकित्सक हैं. जो अनेकानेक टेस्ट-स्कैन-एमआरआई के बाद ही बीमारी का कारण खोज पाते हैं. और खास बात है कि भले बीमारी एक हो लेकिन कोई भी दो चिकित्सक एक दवाई नहीं लिखते. शहर में होटल कम अस्पताल ज़्यादा होते जा रहे हैं. कभी-कभी शक़ होता है कि आधुनिक चिकित्सा पद्यति कहीं बिज़नेस बन कर तो नहीं रह गयी है. हमारे पुराने वैद्य जी आज भी नब्ज़ टटोल कर बता देते हैं कि दिल की प्रॉब्लम है या दिमाग़ का वहम. बहुत सी बीमारियाँ आदमी के दिमाग़ की उपज होती हैं. जोसेफ़ मर्फ़ी की एक किताब - पावर ऑफ़ सबकांशस माइंड - मैंने बहुत से ऐसे लोगों को गिफ़्ट की है जो हर समय बीमारी की बात करते थे. ऐसा मैने अपने उपर अनुभव के बाद ही किया है. किसी बड़ी बीमारी से सामना न हो, प्रभु से ऐसी कामना है, लेकिन छोटी-मोटी बीमारी के लिये मै इलाज़ से बचने का प्रयास करता हूँ. अभी तक ज़ीरो मेडिकल क्लेम के लिये उपर वाले का शुक्रगुज़ार हूँ. च्यवनप्राश, काली मिर्च, अदरक, मुलेठी, आदि से काम चलता रहे, और उसके आगे बाबा के नुस्खों पर भरोसा मुझे बीमारी को बीमारी मानने नहीं देता. 

मेरे एक मित्र जिन्होंने रिटायरमेंट से पहले कभी भी नियमित दिनचर्या का पालन नहीं किया. जर्मनी जाने पर उनके बेटे-बहू ने उन्हें दौड़ने के लिये प्रेरित किया. आज न वो सिर्फ़ अपनी फ़िज़िकल फिटनेस पर ध्यान दे रहे हैं, बल्कि मैराथन में भाग लेने यहाँ-वहाँ जाते रहते हैं. बहुत से भारतीय, जो यहाँ सिस्टम में फिट होने के लिये संघर्ष करते रहे, उन्होंने विदेशों में जा कर बहुत अच्छा परफॉर्म किया और उच्च पदों को शोभायमान किया. बहुत सी भारतीय विभूतियों को हम तब पहचान पाये जब उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गये. भ्रष्ट वातावरण में ईमानदार आदमी का सर्वाइवल कितना कठिन है, सब जानते हैं. देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को तो सब ख़त्म करना चाहते हैं, लेकिन व्यक्तिगत लाभ के लिये भ्रष्टाचारी का महिमा मंडन भी करते रहते हैं. जिस सिस्टम को हमने अपरिवर्तनीय मान कर स्वीकार कर लिया है, उसमें सर्व-गुण-सम्पन्न लोग ही फल-फूल सकते हैं. वातावरण बदलिये और देखिये फ़र्क हर जगह दिखायी देगा.  

जीवन के साठ वसंत देखने के बाद तथाकथित एक्सपर्टस् पर से मेरा विश्वास कम हुआ है. हर व्यक्ति अपने चश्मे अपने दृष्टिकोण से समस्या को देख रहा है. अंधों के हाथी की तरह, कोई पैर को खम्भा बता रहा है, तो कोई कान को सूप. बात तब बनेगी जब हाथी को समग्रता से आँख से पट्टी उतार के देखा जायेगा. भारतीय कृषि एक ऐसा ही हाथी है. हर एक्सपर्ट अपने-अपने तरीके से समाधान खोज रहा है, लेकिन समग्रता से कोई नहीं. देर से ही सही, मशीनीकरण, भण्डारण, प्रसंस्करण, जल व भूमि संरक्षण और कृषक आय सम्वर्धन की बात शुरू हुयी है. वृहद स्तर पर खेती को लाभप्रद बनाये बिना कृषि और कृषक का भविष्य अनिश्चित है. आवश्यकता है ये समझने की कि हमें शोध के लिये शोध करना है या समाधान के लिये. बात शुरू हुयी थी, G x E से. 'जीन' और वातावरण. ये प्रबुद्ध पाठकों को निर्णय लेना है कि सारे संसाधन (रेसोर्सेस) एक ही दिशा में झोंक देना किस हद तक सही है. आज सारी कहानी लाभ-हानि पर सिमट के रह गयी है. इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ रहा है. सिंचाई की परियोजनाओं से सिंचित क्षेत्र बढे हैं. भण्डारण व प्रसंस्करण के माध्यम से ग्रामीण आय में वृद्धि हुयी है. हमारा काम है, ईमानदारी से उचित वातावरण का निर्माण, बाकी प्रयास स्वतः ही अपना-अपना आकार लेते जायेंगे. व्यावसायिक विधि से खेती करने के लिये ब्राज़ील का मॉडल निश्चय ही अनुकरणीय है.

-वाणभट्ट

पुनश्च: निवेदन है कि इस लेख को पूर्व में लिखे लेख 'कृषि शोध - दशा और दिशा' की अगली कड़ी के रूप में देखा-पढ़ा जाये. जिसका लिंक है -

https://vaanbhatt.blogspot.com/2025/03/blog-post_31.html 

संयोग: आज हिन्दी दिवस पर इस लेख का लिखा जाना एक सुखद संयोग है.

शनिवार, 16 अगस्त 2025

कुत्ता प्रेम

कुछ लोगों को लेख के टाइटल से शिकायत होनी लाज़मी है. दरअसल सभ्यता का तकाज़ है कि कुत्ते को कुत्ता न कहा जाये. भले ही कुत्ता कितना बड़ा कमीना हो. आख़िर कुत्तों के भी कुछ मानवाधिकार हैं. उन्हें व्यक्तिवाचक सम्बोधन से बुलाना श्रेयस्कर है, जातिवाचक उद्बोधन उनके सम्मान को ठेस पहुँचा सकता है. इन परिस्थितियों में यदि उसने आपके दुर्व्यवहार से कुपित हो कर काट लिया तो आपको बुरा मानने का अधिकार नहीं है. 

आजकल जिस चैनेल पर देखो, डिबेट छिड़ी हुयी है, कुत्तों के पक्ष और विपक्ष में. धरती जब से क़ायम है, तब से द्वैत भी स्थापित है. इलेक्ट्रॉन है तो प्रोटॉन भी है. ज़मीन है तो आसमान भी है. स्थिर है तो चालयमान भी है. जीवन है तो मरण भी है. वाद-विवाद भी तभी होगा जब एक पक्ष सही को सही कहेगा और दूसरा उसी सही को गलत. दोनों ही सही को सही या ग़लत को गलत कहेंगे तो वाद-विवाद की गुंजाइश ही नहीं बचेगी. ऐसे में और कोई समस्या हो या न हो लेकिन लोग अपना बहुमूल्य समय कैसे काटेंगे, ये एक राष्ट्रीय चुनौती बन जायेगा. जिस देश में हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान भी सरकार द्वारा किये जाने की उम्मीद पाले बैठा हो, वहाँ सरकार को लोगों का समय कैसे कटे इसके लिये अध्यादेश लाना पड़ेगा. फिर उसके समर्थन और विरोध में चैनलों पर डिबेट होगी, पार्लियामेंट में गतिरोध होगा, सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी, अखबार में सुर्खियाँ बनेंगी और लोगों का समय कट जायेगा. जिनको भगवान ने दूरदृष्टि से नहीं नवाज़ा है, उनका आज कट जाये तो फिर कल की कल देखी जायेगी वाले एटीट्युड में उनका पूरा जीवन ही कट जाता है. 

कुछ लोगों का तो काम ही है विरोध करना. यदि आप खेत कहेंगे तो वो खलिहान की बात करेंगे. ऐसे लोग ही हैं जिनके कारण समाज में निरंतर कोई न कोई बहस चलती रहती है. उन्हें बहस खत्म करने की गरज नहीं है, बल्कि बहस-मुबाहिसा जारी रहे, बिना किसी स्वार्थ के उनकी बस इतनी सी ख्वाहिश रहती है. बहस खत्म हो गयी तो वो करेंगे क्या. क्या विधानसभा क्या लोक सभा. क्या कोर्ट क्या कचहरी. यदि बहस नहीं होगी तो बहुतों की नौबत फ़ाक़ाकशी की आ जायेगी. कुल मिला के ये कहा जा सकता है कि बहसबाजी का मुख्य उद्देश्य कंफ्यूजन क्रियेट करना है ताकि सही और गलत का निर्णय ना हो पाये. और सही इतना कन्फ्यूज हो जाये कि गलत के आगे आत्मसमर्पण कर दे. 

नौकरी के शुरूआती दिन थे. तनख्वाह कम थी और मकान किराये का. मकानमालिक रात नौ बजे गेट पर ताला लगा देता था. और विजय का मार्केटिंग का जॉब था. लौटने का कोई समय न था. मकानमालिक था भला आदमी. उसका व्यवहार पितृवत था. कभी भी उन्होंने गेट खोलने में कोई हुज्जत नहीं की. रात-बिरात जब भी उस घर का कोई सदस्य लौटे तो उनको पता होना चाहिये कि कौन कब लौटा और क्यों देर से लौटा. उस नियम के लपेटे में किरायेदारों को भी आना ही था. विजय बाबू की समस्या ये थी कि वो शहर में नये थे और गली के कुत्तों लिये बिलकुल अनजान. जब तक मकानमालिक गेट न खोल दे, गली के कुत्ते भौंक-भौंक के उसका जीना मुहाल कर देते. मार्केटिंग के बन्दों की यही खासियत उन्हें आरएनडी और प्रोडक्शन के लोगों से अलग करती है कि उन्हें दुनिया देखनी और झेलनी पड़ती है. जबकि बाकी सब अपनी कम्फर्ट ज़ोन में भी कम्फर्ट महसूस नहीं कर पाते. दिनभर की भागा-दौड़ी में विजय बाबू को रात में ही सॉलिड डिनर करने का मौका मिलता था. नॉनवेज के शौक़ीन थे. उन्होंने भोजन के अवशेष प्लेट में छोड़ने के बजाय पॉलीथीन में पैक कराना शुरू कर दिया. अब वही गली के कुत्ते देर रात तक दुम हिलाते हुये विजय के लौटने की बाट जोहते. ये कुत्तों की खासियत है, बोटी फेंको तो उनकी दुम में ब्राउनियन मोशन शुरू हो जाता है. 

जब से लोगों को पता चला कि श्वान को साधने से खतरनाक ग्रह सध जाता है तबसे लोगों का कुत्तों के प्रति अगाध स्नेह उमड़ पड़ा है. घर में श्वान पालना एक जिम्मेदारी वाला काम है. घर के मेम्बर की तरह उसका भी ख्याल रखो. खाना-पीना, दवा-दारु. इसमें खर्चा तो है ही लेकिन सबसे बड़ी समस्या सुबह-शाम टहलाने की है. नहीं टहलायेंगे तो डर रहता है कि जिन गद्दों और एसी कमरों में वो रहता है, वहीं गन्दगी न कर दे. बाहर टहलाने के चक्कर में दूर-दूर तक के मोहल्लों में दुश्मनी हो जाती है, सो अलग से. अपने मोहल्ले में टहलाओ तो पड़ोसियों से दुश्मनी होने की सम्भावना रहती है. और अच्छे-बुरे दिनों में पडोसी ही साथ देते हैं, इसलिये मोहल्ले में टहलाने का प्रश्न नहीं उठता. दूसरे मोहल्ले में जाओ तो उस मोहल्ले के लोग और कुत्ते वस्तुतः कुत्ता बना देते हैं. कुत्ता पालक अपने अन्दर के जानवर (कुत्ते) को न जगाये तो दूसरे मोहल्ले में टहल या टहला पाना कोई हँसी-मज़ाक नहीं है. 

जब गली में ढेर सारे लावारिस कुत्ते घूम रहे हों तो ग्रह शान्ति के लिये कुत्ते पालना कहाँ की समझदारी है. जब से लॉकर में घर की बहुमूल्य वस्तुयें रखी जाने लगीं हैं, चोरों को भी मालूम है कि घरों में कुछ नहीं मिलना. तो उन्होंने भी एटीएम उड़ाने और ऑनलाइन हैकिंग को अपना लिया है. ऐसे में सुरक्षा के दृष्टिकोण से कुत्ते पालना कतई उचित नहीं है. सड़क के कुत्तों का क्या है बस दिन में एक रोटी के चार टुकड़े कर के फेंक दो, उसी में दुम हिलाते रहते हैं. कुत्ते भले दस हों या बीस, रोटी एक ही निकलती है. हमने अपनी भूमिका निभा दी बाकी मोहल्लावासी भी तो अपना योगदान दें. आख़िर ये सुरक्षा तो सभी की करते हैं. भोजन कम मिलने के कारण सड़क के कुत्ते मालनरिश्ड हो गये हैं. दिन भर इधर-उधर पड़े गहन निद्रा में डूबे रहते हैं. निंद्रा इतनी गहन होती है कि जब तक स्कूटर-कार इनके सर पर न पहुँच जाये, ये हिलते नहीं हैं. दिन भर में हॉर्न की इतनी हॉन्किंग सुन लेते हैं कि आपके हॉर्न बजाने का इन पर कोई असर नहीं होता. लेकिन पालतू कुत्तों की तुलना में सड़क के कुत्तों में एक अच्छाई है. ये कभी घर के सामने या आस-पास गन्दगी नहीं फैलाते. पालतू कुत्ते सफ़ाई  पसन्द होते हैं और साफ़-सुथरी जगह पर ही निवृत होना पसन्द करते हैं. उनके मालिक भी जब साथ चलते हैं तो ये अन्दाज़ा लगाना मुश्किल हो जाता है कि कौन किसको टहला रहा है. कुत्ता चलता है तो ये चलते हैं, कुत्ता रुक जाये तो इनका सारा ध्यान उसके फ़ारिग होने की प्रक्रिया पर ही रहता है. भले ही वो ठीक आपके गेट के सामने हो. इसी चक्कर में मुझे पचीस हज़ार ख़र्च कर के सीसीटीवी लगवाना पड़ा ताकि कम से कम ये तो पता चल सके कि ये किस कुत्ते का काम है. 

मिश्र जी नहाने के लिये तौलिया लपेटे तैयार थे. एकाएक उन्हें याद आया कि गेट पर थोड़ी झाड़ू-बुहारू कर ली जाये. उसी अवस्था में वो झाड़ू ले कर गेट पर आ गये. गेट पर एक कुत्ता उनके ऊपर लपका, जिसकी तीव्रता को उन्होंने झाड़ू दिखा कर शान्त कर दिया. झाड़ू लगा कर वो नहाने घुस गये. नहा कर निकले ही थे कि कॉलबेल बज गयी. बाहर निकले तो पुलिस की गाड़ी खड़ी थी, जो उन्हें बैठा कर थाने ले गयी. किसी कुत्ता प्रेमी ने उनकी झाड़ू से कुत्ते को मारते हुये फ़ोटो खींच कर पुलिस में शिकायत कर दी थी. किसी तरह मामला निपटा कर मिश्र जी घर लौट तो आये पर रात भर दहशत में रहे कि कहीं कल के अख़बार में उनकी तौलिया पहने फोटो न आ जाये.

जब स्मार्ट वाच खरीद ही ली तो दस हज़ार स्टेप्स चलने की तमन्ना भी जागृत हो गयी. वाच पर पैसा ख़र्च किया था, तो घर से निकलना ज़रूरी हो गया. उन दिनों वाच नयी थी और उसका पैसा वसूलने के इरादे से जब भी मौका मिलता, मै सड़क पर होता. एक रात दस बजे मौका मिला. रूट थोडा लम्बा पकड़ लिया. ये एहसास जब हुआ तो विचार बना कि शॉर्टकट से निकल लिया जाये. रास्ता आधा हो जाता. गली में सन्नाटा पसरा था. स्ट्रीट लाईट्स जल रहीं थी. किसी प्रकार की कोई गतिविधि नहीं दिख रही थी. जल्दी वापस लौटने के इरादे से गली में 20-30 कदम ही बढ़ा होऊँगा कि एक मिट्टी का ढेर कुत्ते में तब्दील हो कर भौंकता हुआ मेरी ओर लपका. और देखते ही देखते और भी मिट्टी के ढेरों में जीवन आ गया. सर पर पाँव रख कर भागना क्या होता है, उस दिन मेरी समझ में आ गया. लम्बे रूट से भी जब तक घर नहीं पहुँच गया, दिल की धड़कन पर मेरा नियन्त्रण नहीं था. वो दिन है और आज का दिन, सुबह-दोपहर-शाम-रात जब भी टहलने निकलता हूँ, तो ढाई फ़िट की एक चमचमाती हुयी सुनहरे रंग की परदे की रॉड बैटन के रूप में मेरे हाथ में शोभायमान होती है. कुत्ता प्रेमी चमकती बैटन का उद्देश्य कुत्तों पर प्रहार के लिये कतई न समझें. ये इसलिये है कि कुत्तों को दूर से दिख जाये कि मेरे हाथ में कुछ है. पास आने पर कुत्ते ये न सोचें कि वर्मा जी भी कुत्तई कर गये. 

ये दुर्भाग्य ही है कि अल्पमत मुखर है और बहुमत शान्त. एक या दो प्रतिशत कुत्ता प्रेमियों की तुलना में कुत्ता पीड़ितों की संख्या बहुत ज्यादा है. लेकिन ये दो प्रतिशत लोग पूरे समाज को कुत्तों के प्रति दया का सन्देश दे रहे हैं. इनमें से अधिकांश माँसभक्षीयों का अन्य जीवों के प्रति पशु प्रेम नहीं उमड़ता. कुत्ता प्रेमियों से निवेदन है कि कुत्तों के मानवाधिकार के लिये बेशक नैशनल और इंटरनैशनल लेवल तक अवश्य लडें लेकिन उनके कल्याण के लिये कुछ करें. सिर्फ़ दिन में दो बार रोटी डाल कर कुत्ता प्रेम से मुक्त न हो जायें. उनके लिये शेल्टर होम बनायें. उनके भोजन, रहन-सहन, दवा-दारू का सम्पूर्ण ख्याल रखें. कुत्ता पीड़ित इस पुनीत कार्य के लिये, किसी प्रकार का धनावरोध नहीं आने देंगे. फिलहाल ये काम आप अपने घर के एक कमरे से आरम्भ कर सकते हैं. आपका प्रेम और हमारा जीवन दोनों सुरक्षित रहेंगे.

-वाणभट्ट

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

ब्रेन स्टॉर्मिंग

जब पुराने विचार चुक जायें

तो ज़रूरी है, ब्रेन स्टॉर्मिंग करायें


आउट ऑफ़ बॉक्स विचार न आ जायें

इसलिये घिसे-पिटे टाइम टेस्टेड

विचारकों को ही बुलायें

उनको मंच और माइक थमायें

मुशायरे की तर्ज़ पर 

मरहबा और मुकरर्र फरमायें


जब लोग वही पुराने होंगे

तो क्या ख़ाक नये फ़साने होंगे

वैसे भी समस्यायें जब वही हैं

लोग वही हैं, वही सोच है,

तो समाधान भी पुराने होंगे


उन्हीं को मथेगें, गढ़ेंगे कुछ नये शब्द

बनेंगे चैटजीपीटी पर पैराफ़्रेज़िन्ग से 

कुछ नये वाक्य

विचारों की आँधी में उड़ेंगे शब्दों के ग़ुबार 


चार दिन मन्थन के बाद

आँधियाँ बवंडर मचा कर

वापस लौट जायेंगी अपने दड़बों में


जब ग़र्द बैठेगी

तो काग़ज़ की चादरों पर 

करीने से शब्द बैठा दिये जायेंगे

जो दो-एक साल बाद फ़िर झाड़े जायेंगे


फ़िर होगी ब्रेन स्टॉर्मिंग इक अंतराल के बाद


- वाणभट्ट


रविवार, 27 जुलाई 2025

डीबीटी - 45

बात सन पचहत्तर-अस्सी के आस-पास की है. उन्नीस सौ सुधी पाठकों ने अपने आप जोड़ ही लिया होगा. क्योंकि अट्ठारह सौ या उससे पहले की बात होती तो बात लेखक सहित इतिहास में दफ़न हो चुकी होती. 

ये वो दौर था जब पिता जी मकान बनवा रहे थे, तो उनकी तमन्ना थी कि गेट कम से कम पाँच फिट चौड़ा होना चाहिये ताकि स्कूटर आसानी से अन्दर आ सके. और जैसे ठन्डे का मतलब कोकाकोला होता है, उस समय स्कूटर का मतलब 'हमारा बजाज' होता था. जिसका पेट एक तरफ़ इसलिये फूला होता था कि उधर इंजन होता था. दूसरी तरफ़ सिमिट्री देने के इरादे से एक डिक्की बना दी गयी थी, जिसमें गाडी के दस्तावेज़ और कुछ एक्स्ट्रा क्लच और ब्रेक वायर रखे होते थे. उस स्कूटर के मालिक को थोडा बहुत मेकैनिक वाला ज्ञान होना भी आवश्यक था, ताकि इमरजेंसी में वो कम से कम क्लच-ब्रेक वायर तो बदल सके, जो प्राय: महीने-दो-महीने में टूट जाते थे. रोज सुबह जब स्कूटर को स्टार्ट करना होता था तो उसकी आरती उतारने की एक पारंपरिक विधि हुआ करती थी. स्कूटर को कम से कम पाँच से छ: बार इन्जन की तरफ झुकाना पड़ता था. उसके बाद भगवान का नाम लेकर किक मारिये, तो स्कूटर एक बार में स्टार्ट हो जाता था. लोगों की आदत तो ऐसी पड़ गयी थी कि जब बीच में माउन्ट इंजन वाली लेम्ब्रेटा स्कूटर आयी, तो लोगों को उसे भी एक तरफ़ झुकाये बिना चैन नहीं पड़ता था. जब एग्रीकल्चरल इन्जीनियरिंग में टू-स्ट्रोक पेट्रोल इंजन के बारे में पढ़ा तब समझ आया कि 'बजाज' के इंजन में बिना एक तरफ़ झुकाये कार्बोरेटर तक तेल (पेट्रोल) नहीं पहुँचता था. बाद में भले बजाज ने अपने मॉडल इम्प्रूव कर लिये हों लेकिन स्कूटर को एक तरफ़ झुकाने की आदत हिंदुस्तान के डीएनए तक घुस गयी. आज भी किसी ऑफिस में फ़ाइल चलाना हो तो, जिसकी गरज़ हो, उसे झुकने-झुकाने से कोई परहेज नहीं रहता.

शाम को पार्क में खेल रहे बच्चों को इस आवाज़ का बेसब्री से इंतज़ार हुआ करता था. कुछ खाली बच्चे तो सुबह से ही इस आवाज़ का इंतज़ार करते थे. आवाज कुछ ऐसी थी मानो कोई कोलतार के खाली ड्रम को लुढ़काता हुआ चला आ रहा हो. भड़-भड़, खड़-खड़, भड़-भड़. बीच-बीच में घर्र-घर्र की आवाज़ कभी-कभी डॉमिनेट कर जाती. अगर घर्र घर्र की आवाज़ रुक गयी तो खड़-खड़, भड़-भड़ की आवाज़ भी बन्द हो जाती थी. बच्चे और खुश हो जाते कि आज मौका मिलना तय है. 

हिन्दुस्तान में सभी सरकारी विभागों और कुछ गैरसरकारी विभागों में ये सुविधा है कि यदि आप उस विभाग के कर्मचारी-अधिकारी हैं, तो उस विभाग की सेवायें या तो मुफ़्त मिलेंगी या सब्सिडाइज्ड रेट पर. टेलीफोन डिपार्टमेंट में जब आम आदमी के लिये फ़ोन पर ट्रंककॉल लगा कर बात करना मँहगा ऑप्शन था, उसी विभाग के सीनियर अधिकारी के पुत्र, और हमारे मित्र, अपने घर में उपलब्ध इस सुविधा का उपयोग हमारे हॉस्टल के मित्रों को निस्वार्थ भाव से मुहैया कराया करते थे. अलबत्ता तो उस समय के हमारे लोवर मिडल क्लास और आज के अपर-लोअर मिडल क्लास के खानदान में किसी के पास फोन था ही नहीं जो उस फ़्री सेवा का लाभ उठा पाता. रेलवे वालों को ट्रेन फ़्री, हवाई जहाज वालों के लिये हवाई जहाज फ़्री. उसी तरह पेट्रोलियम कम्पनियाँ अपने अधिकारियों को कार के लिये पेट्रोल/डीज़ल के लिये अलाउंस देती थीं. लेकिन उसके लिये जरूरी था, एक अदद कार का होना. 

पड़ोसियों का माथा तब ठनका जब मेहरोत्रा जी ने अपना गेट चौड़ा कराना शुरू कर दिया. मेहरोत्रा जी एक सरकारी अंडरटेकिंग पेट्रोलियम कम्पनी में अधिकारी थे. कंपनी प्रदत्त इस सुविधा यानि पेट्रोल अलाउंस के लिये मेहरोत्रा जी दिल्ली से एक पुरानी एम्बेसडर ख़रीद लाये क्योंकि कार का होना ज़रूरी था. उसका फ़र्स्ट-सेकेण्ड या थर्ड हैण्ड होना ज़रूरी नहीं था. जिस मोहल्ले में सब मिडिल क्लास हों, वहाँ अंडरटेकिंग कंपनी का आदमी अपने आप अपर मिडल क्लास हो जाता था. उनका गेट चौड़ा होना भी चाहिये था. मोहल्ले वालों का तो ये हाल था कि किसी की नयी स्कूटर या मोटर सायकिल आ जाये तो जब तक मिठाई न खा लें, जी हलकान किये रहते थे. लेकिन किसी का मन पुरानी कार के लिये मिठाई माँगने का न हुआ और न ही मेहरोत्रा जी ने कोई ऐसी पेशकश की. डीबीटी-45 उसी एम्बेसडर का नम्बर था. जो चलती कम थी भड़भड़ाती अधिक थी. 

अब चूँकि उसे अलाउंस वसूलने के इरादे से ही लिया गया था, इसलिये उसे रोज चलाने का प्रश्न नहीं उठता था. मेहरोत्रा जी ऑफिस स्कूटर से ही जाते और कार घर पर खड़ी-खड़ी मिडल क्लास मोहल्ले में उनका स्टेटस बढ़ाती रहती. कभी-कभी जब उन्हें सपरिवार कहीं निकलना हो, तो गाड़ी निकाली जाती थी. एक-आध महीने में एक-आध बार. आधी बार इसलिये लिखा है कि कई बार मेहरोत्रा जी स्टार्ट करके उसे गरगरा देते ताकि बैटरी चार्ज रहे. लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं था. कई बार बैटरी गरगराने से पहले ही डिस्चार्ज हो जाती. सो मोहल्ले में पार्क में खेल रहे बच्चों की सेवाओं की आवश्यकता होती थी. और बच्चे भी अपनी सेवायें देने को तत्पर रहते. ऐसा नहीं था कि मेहरोत्रा जी अपने एलाउंस का कुछ हिस्सा उनसे साझा करते हों. इसका कारण हम जैसे असामाजिक बच्चों को बहुत बाद में पता चला.  दरअसल उनकी दो लडकियाँ थीं, जिनकी झलक पाने के चक्कर में बच्चे शाम को पार्क में खेलते हुये, डीबीटी-45 के आने या जाने का इंतज़ार करते. यदि स्कूल न जाना हो तो कुछ बच्चे सुबह से ही पार्क की रौनक बढ़ाने में लग जाते, क्या पता कब बुलावा आ जाये. उन्हें मालूम था कि गाड़ी पूरी तरह धक्का परेड है. 

लेकिन ऊपर वाले ने भी पता नहीं क्या विधान बनाया है. किसी को ज्यादा देर तक खुश नहीं देख सकता. एक रात कुछ चोर आये और उस कार की सबसे नयी चीज़, टायरों को निकालने में देर लगती, इसलिये चारों पहिये ही खोल के चल दिये. चोर भी अपने फ़न में माहिर थे. किसी तरह का शोर न हो इसलिये पहले उन्होंने ईंटों का जैक बनाया, चारों पहियों के लिये और सारे पहिये खोल के चलते बने. अगले दिन सब लोगों ने देखा कि कार ईंटों पर खड़ी है. अड़ोसी-पड़ोसी भला अपना धर्म कहाँ छोड़ने वाले, चाहे उन्हें इस कार की मिठाई मिली हो या न मिली हो. सब एक-एक करके आये और सम्वेदना व्यक्त कर के गये कि चोर भी कितने गिर गये हैं. मेहरोत्रा जी ने भी कसम खायी कि पुरानी कार में नया पहिया और नया टायर नहीं लगवायेंगे. अलाउंस कार होने का मिलता है, कार चलने-चलाने का नहीं.

चोरों को उन अबोध बच्चों की हाय ज़रूर लगी होगी जो कार को धक्का दे कर ही खुश हो लेते थे.

-वाणभट्ट

वैधानिक चेतावनी: इस संस्मरण का किसी घटना-दुर्घटना से मिलना महज संयोग माना जाये.

रविवार, 22 जून 2025

विलेन

प्रिंसिपल साहब जब भी उसके सामने पड़ जाते, उसकी आदत थी कि पूरी विनम्रता और आदर के साथ हाथ जोड़ कर अभिवादन करना. वैसे वो सत्ता और शक्ति से दूर रहना पसन्द करता था. 

भाषा कोई भी हो, किस्सागोई का मज़ा जाता रहता, यदि कहानियों में विलेन न होते. किस्से-कहानियाँ हमेशा से मानव साहित्य का अभिन्न अंग रहे हैं. जब मनोरंजन के साधनों की कमी थी, तब भी कवियों-लेखकों का टोटा रहा हो, ऐसा नहीं लगता. लोगों में साहित्यिक सृजनशीलता और रचनात्मकता न होती तो, भारत में शायद वेद-पुराण-उपनिषद-धर्मग्रंथ न लिखे गये होते. अधिकतर भाष्य तो इसीलिये लिखे गये कि बड़े भाग्य से यदि मानव जीवन मिल ही गया है तो उसे जीना कैसे है. सही और सन्तुलित जीवनचर्या का पालन कर मानव स्वयं कैसे भगवानतुल्य जीवन जी सकता है. और विपरीत आचार-विचार पर चलने से वही मानव अमानुषिक व्यवहार कर दानव भी बन सकता है. किस्से-कहानियों में मानव और दानव के स्पष्ट अन्तर को दर्शाने के लिये, मानव को सद्गुणों, तो दानव को अवगुणों की प्रतिमूर्ति बना दिया जाता है. ताकि लोग बुराई के मार्ग पर चलने वाले का दुख:द अंत देख कर भलाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा लें. रामायण हो या महाभारत, एक तरफ़ महामानव था तो दूसरी तरफ़ महादानव. दोनों बराबर के शक्तिशाली, लेकिन एक सत्य और न्याय के पक्ष में तो दूसरा असत्य और अन्याय के. ये स्पष्ट विरोधाभास इसलिये भी किया जाता था कि लोग समझ सकें कि दुर्जन व्यक्ति दुर्जन ही रहता है और सज्जन अपनी सज्जनता का त्याग नहीं करते. अंत में चाहे कुछ भी हो जाये, विजय सदा सत्य और न्याय की होती है. 

जब से फिल्मों ने मानव जीवन में प्रवेश किया, किस्सा पढ़ने-सुनने-सुनाने वालों को एक नयी विधा मिल गयी. मुंशी प्रेमचन्द हों या शरत चन्द्र, उनके पात्रों को जीवन्त स्वरूप मिल गये. जिनके लिये पठन-पाठन थोडा दुष्कर कार्य था, उनके लिये 'बूढी काकी' को विज़ुअलाइज़ करना कठिन भी हुआ करता था. 'ईदगाह' पढ़ कर हामिद और उसकी दादी के दर्द का एहसास कराने के लिये चाहे लेखक ने कितना भी कलम तोड़ विस्तृत वर्णन किया हो, पाठक बिना कनेक्ट हुये उसका अनुभव नहीं कर सकता था. कहानी के मर्म को महसूस करने के लिये पात्रों की साइकोलॉजी में गहरे घुसना पड़ता था. तब जा कर कोई टैगोर-प्रेमचन्द-शरत-दोस्तवोस्की-टालस्टाय-गोर्की का मूल्याङ्कन कर पाता था. तब चलचित्र का प्रचलन कम था. किताबें ही आमोद-प्रमोद का साधन थीं. मूवी पिक्चर्स के आने के बाद पुस्तकों का उपयोग घटता गया. और आज ओटीटी और रील्स के आ जाने के बाद तो किताबों की ओर कोई देखना भी पसन्द नहीं कर रहा. लेकिन लिखने वाले हैं कि लिखने से बाज नहीं आ रहे. यदि कुछ नहीं बदला तो वो है, कहानियों के पात्रों का चरित्र. बिना हीरो, हिरोइन और विलेन के कहानी की कल्पना करना कठिन है. चाहे क्राइम थ्रिलर हो या लव स्टोरी, हीरो-हिरोइन के बाद सबसे मुख्य किरदार विलेन का ही होता है. बाकि सब को कैरेक्टर आर्टिस्ट और कॉमेडियन की श्रेणी में बाँट दिया जाता है. जो फिलर की तरह बीच बीच में अपना रोल निभाने आ जाते हैं. लेकिन वो मुख्य कहानी को प्रभावित नहीं करते. 

किस्सों और कहानियों के विलेन घोषित दुष्ट होते थे. कंस-दुर्योधन-रावण, सबको पता था कि वो गलत हैं, लेकिन यदि लेखक उन्हें बीच स्टोरी आत्मज्ञान से रियलाइज़ करा देता और वो सुधर जाते, तो ग्रन्थ लिखने का कोई औचित्य न रह जाता. इसलिये ये ऐसे पात्र थे, जो हारी हुयी बाज़ी को अंत तक निभाते गये क्योंकि कहानी में उनका किरदार ही ऐसा था. 

कमोबेश फिल्मों ने भी कहानियों के इस क्रम को बनाये रखा. प्राण-अजित-प्रेम चोपड़ा को फुल टाइम विलेन बना दिया गया. लोग हीरो-हिरोइन के नाम के साथ विलेन का नाम भी पता करके फिल्में देखने जाते. इन फिल्मों में सस्पेंस की कोई गुंजाइश न थी. कहानी भी दर्शकों को पहले से मालूम होती थी. जब सब कुछ सही चल रहा होगा, तभी विलेन की एंट्री होगी और वो सब कुछ तहस-नहस कर डालेगा, लेकिन कहानी का अन्त हीरो की विजय के साथ ही होगा. जब तक अंत सुखान्त न हो जाये, फ़िल्म ख़त्म नहीं होती थी. इसी चक्कर में कई बार फिल्में तीन घन्टे के ऊपर निकल जाया करती थीं. पब्लिक भी क्या करती, वास्तविक जीवन में सत्य, अहिन्सा और न्याय की विजय देख रही होती, तो निश्चय ही फिल्मों में अपना समय बर्बाद नहीं करती. उसकी कल्पनाओं को साकार कर-कर के देश में कितने स्टार-सुपरस्टार और मेगास्टार बन गये. अकेला आदमी जब दुष्टों के गिरोह को ख़त्म कर देता है, तो शोषित और असहाय लोगों को लगता है कि हीरो ने उनका बदला ले लिया. सीटी और तालियों से हॉल गूँज जाता. तीन घन्टे के लिये ही सही दर्शक अपने दुःख-दर्द भूल जाता. फ़िल्मों का एक निश्चित फॉर्मेट था. कुछ सीरियस, कुछ हास्य, कुछ करुणा, कुछ हिंसा के बीच आठ से दस गाने. उनमें वो अश्लील वाले गाने भी होते थे, जिन्हें कैबरे कहा जाता था. जिन फिल्मों में वैसे गाने नहीं होते थे, उन्हें पारिवारिक फिल्म बता कर प्रचार किया जाता था. जिस तरह वर्तमान में गानों का पिक्चराइज़ेशन होता है, उन्हें देख के लगता है कि अतीत के कैबरे भी बहुत शालीन हुआ करते थे.      

मसाला फिल्में देखते-देखते भी आदमी जल्दी ही बोर हो गया. उसको लगने लगा कि ये यथार्थ से कोसों दूर हैं. दर्शकों के इस ज्ञान के बाद, एक-एक कर के सभी स्टार फ्लॉप होते चले गये. साथ ही फिल्मों के कथानक और कलाकार अधिक वास्तविक होने लगे. एक दौर ऐसा आया जब ऐसी फ़िल्मों को आर्ट फ़िल्म या पैरलल सिनेमा तक घोषित कर दिया. इस युग ने बॉलीवुड में ऐसे-ऐसे हीरो-हिरोइन दिये, जिन्हें देख के लगता था कि ये हमारे पास-पड़ोस के चरित्र हैं. सब आम आदमी. रोल की अधिकता के हिसाब से किसी को हीरो मान लिया जाये तो मान लिया जाये, वरना उनका प्रयास होता था कि आम आदमी की जद्दो-जहद को उभारा जाये. आदमी कभी एक्सट्रीम का जीवन नहीं जीता. उसमें हीरो भी होता है और विलेन भी. गुण और अवगुण से मिल के बना है, आम आदमी. जो पुण्य भी करता है और पाप भी कर सकता है. क्योंकि वो आदमी है, कोई अवतार नहीं. आर्ट फ़िल्में अधिक रियलिस्टिक थीं. जिस आदमी को आप देवता की तरह मानते थे, वो ही कुछ ऐसा कर देता है कि आपको विलेन लगने लगता है. जबकि वो विलेन नहीं है, बस उसने अपने उद्देश्य या दृष्टिकोण की पूर्ति के लिये जो किया, वो आपके लाभ और लक्ष्य के विरुद्ध था. सिर्फ़ इसलिये उसे विलेन मान लेना भी उचित नहीं है. दूसरे के जूते में पैर रख कर देखेंगे तो विलेन भी इंसान लगेगा, जिसका विशेष परिस्थितियों में आपके लाभ की ओर ध्यान नहीं गया.   

इन फ़िल्मों के बदले भी बदले जैसे नहीं लगते थे. पुरानी फिल्में होतीं तो बन्दा जब तक विलेन को ठोंक-पीट के अपना प्रतिशोध पूरा न कर ले, दर्शकों को आनन्द नहीं आता था. अब के हीरो को मालूम है कि विलेन के पास पद है, शक्ति है, सत्ता है. जिसका दुरूपयोग करना उसका अधिकार इसलिये है कि वही उसका सत्य है. वो उसी सत्य को देख कर और उसी सत्य के लिये आगे बढ़ा है. सबके सच उनके अपने हैं. हमारा और दूसरे का दृष्टिकोण अलग इसलिये है कि हम एक ही तस्वीर को अलग-अलग कोण से देख रहे हैं. न कोई सही है, न गलत. सब सही हैं, अपनी-अपनी जगह. किसी के लिये हीरो, विलेन है तो किसी के लिये विलेन, हीरो. एक बॉस जब तक कुर्सी पर काबिज थे, रावण और दुर्योधन को जस्टिफ़ाई करते फिरते थे कि उसकी बहन और पिता के साथ अन्याय हुआ था. लेकिन जब कुर्सी से उतरे, तो रातों-रात गाँधी उनके आदर्श बन चुके थे. हमारा देश और धर्म, सभी को सुधरने के पर्याप्त मौके देता है. जब भी जग जाओ, आपका सवेरा आरम्भ. आपका दूसरे के जागने या सोने से कोई प्रयोजन नहीं है. सारा का सारा ज्ञान आपके स्वयं को जगाने के लिये है.

पद प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करने में प्रधानाचार्य की विवशता ये थी कि उन्हें, उन्हें लाभान्वित करना होता था, जो निरन्तर उनकी सेवा-टहल में लगे रहते थे. उसने उस प्रोजेक्ट को बनाने में बहुत मेहनत की थी. लेकिन प्रोजेक्ट आने के बाद प्रधानाचार्य महोदय ने उसे अपने एक विश्वासपात्र को पकड़ाना उचित समझा. ईश्वरीय न्याय का उन्हें भय होता तो वे ऐसा कदापि न करते. उसे भी यदि ईश्वरीय न्याय पर भरोसा होता तो वो इस बात का बुरा न मानता. अब जब प्रधानाचार्य महोदय कभी सामने पड़ जाते तो वैसे ही हाथ जोड़ कर अभिवादन करता, बस उसमें विनम्रता और आदर का भाव नदारद होता. 

आज की रियल लाइफ़ में विलेन और हीरो शायद ऐसे ही होते हैं. हर व्यक्ति किसी की कहानी में हीरो है, तो किसी और की कहानी में विलेन. 

-वाणभट्ट

पुनश्च: यदि मौका लगे तो नसीरुद्दीन शाह अभिनीत 'आधारशिला' देखने का प्रयास कीजियेगा. 

उपनिवेशवाद

हर देश-काल में ताकतवर लोग अपनी बात को ऐसे व्यक्त करते रहे हैं, जैसे वो पत्थर की लकीर हो. समय के साथ नये ताकतवर आते गये और नयी लकीरें खींचते ...