शनिवार, 22 मार्च 2025

मुर्गीदाना

किसी भी भाषा में यदि किसी मुहावरे की रचना हुयी है तो उसके पीछे देश-समाज का वर्षों का अनुभव निहित होता है. तभी तो मुहावरे एकदम टाइम टेस्टेड उदाहरण बन जाते हैं. आप सिर्फ़ उनका ज़िक्र कीजिये और लोग समझ जाते हैं कि आप कहना क्या चाहते हैं. हमारे देश में एक ऐसा ही मुहावरा है 'हारे को हरि नाम'. इस देश में साधू-संत ऐसे ही बहुतायत में नहीं पाये जाते. शायद लौकिक सफलता के लिये जिस साम-दाम-दण्ड-भेद की आवश्यकता होती है, वो सबके बस की बात नहीं है. इसलिये वो दुनिया जीतने से बेहतर स्वयं पर विजय प्राप्त करने के असम्भव से प्रयास में लग जाता है. इस प्रयास को इसलिये असम्भव कह रहा हूँ कि आत्मविजय पाने के लिये भी हम दुनिया के प्रपंच छोड़ने को तैयार नहीं हैं. पूर्व जन्मों के संयोग से जहाँ भी अवस्थित हैं, हम वहीं पर ज़िन्दगी का पूरा मज़ा लेते हुये परमानन्द का आनन्द लेना चाहते हैं. इस चक्कर में धोबी के गधे की तरह ना घर के बचते हैं ना घाट के. और जब अन्त समय सर पर आ कर खड़ा हो जाता है तो अन्तरात्मा कहती है कि दुविधा में दोऊ गये, माया मिली ना राम. माया तो वैसे भी महाठगिनी है, साथ तो सिर्फ़ राम ही रहते हैं. लेकिन पूरा जीवन माया जो नाच नचाती है, वो नाच ना होता, तो हम सब भी किसी अन्य जीव की तरह धरती पर आते और विचरण करके निकल जाते. 

अभी कुछ दिन पहले ही दुनिया की हैपीनेस इन्डेक्स की रिपोर्ट आई है. भारत 118 पायदान पर है. इस रिपोर्ट से ये भी पता लगा कि एक से एक आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े देश भी खुशहाली में हमसे आगे हैं, तो कम से कम मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. हमारे देश में कर्तव्य-ईमानदारी-सत्यनिष्ठा-नैतिकता-संस्कार जैसी बड़ी-बड़ी बातें, बचपन से घुट्टी में इस कदर पिलायी जातीं हैं कि जब भी हम किसी प्रकार के आनन्द के बारे में सोचते हैं तो लगने लगता है, कहीं कोई पाप तो नहीं करने जा रहे. और एक बार ये विचार आ गया तो आप, जिसको दुनिया आनन्द मानती है, का क्या ख़ाक वो मज़ा ले पायेंगे. एक तो हमारा बहुसंख्यक लोगों का धर्म ही ऐसा है, जो भोग से अधिक त्याग को तरजीह देता है. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि सनातन से विमुख होने और नये-नये सम्प्रदायों के उदय का यही मुख्य कारण है कि यहाँ तो व्यक्ति के लिये यम और नियम का पालन करना ही अत्यन्त कठिन है. और यदि आप ने उसका पालन कर लिया तो आप स्वार्थ से उपर उठ कर सम्पूर्ण जगत के हितार्थ काम करने लगेंगे. परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई. आपकी अपने व्यक्तिगत आनन्द की इच्छा ही समाप्त हो जायेगी. 

आप किसी से भी बात कीजिये, तो वो बतायेगा कि वो कितना भला आदमी है और घर-परिवार-समाज ने उसके भले होने का नाजायज़ लाभ उठाया है. उसके हिस्से तो त्याग ही आया. इसमें कोई शक भी नहीं है कि हम लोग वाकई भले लोग हैं. सामान्य तौर पर मेरा व्यक्तिगत अनुभव कहता है कि शुद्ध-स्वार्थी लोगों की संख्या हमारे यहाँ कम है. हम बिना नियम-कानून वाले सम्पूर्ण आज़ादी वाले एक ऐसे देश-समाज की परिकल्पना करते हैं - जहाँ गम भी न हो, आँसू भी न हो, बस प्यार ही प्यार पले. अब ऐसे युटोपियन समाज की कल्पना में जियेंगे तो दुखी तो रहना  ही पड़ेगा. गुलज़ार साहब से किसी ने पूछा कि कविताओं-ग़ज़लों में इतना दुःख क्यों भरा होता है. ऐसा जवाब कोई शायर ही दे सकता है - सुख फुलझड़ी की तरह होता है. आता है तो लगता है, बहुत ज़ल्दी ख़त्म हो गया. दुःख स्थायी और लम्बा लगता है, अगरबत्ती की तरह. जिसको समझ आ गया कि जीवन में हर चीज़ द्वैत में मिलती है, उसे सुख-दुःख भाव विह्वल नहीं कर सकता. समतल पर हम रहना नहीं चाहते. हम चाहते हैं सुखों का पहाड़ खड़ा करना. लेकिन भूल जाते हैं कि पहाड़ जितना ऊँचा होगा, बगल में खाई भी उतनी ही गहरी होगी. चूँकि मै स्वयं को आम भारतीयों की तरह ही एक आदर्शवादी भारतीय मानता हूँ, तो ये बता देना उचित होगा कि ये विचार स्वयंभू भगवान ओशो के तमाम चेलों में से किसी एक चेले के प्रवचन के माध्यम से मेरे कानों में पड़े थे. वर्ना मेरी क्या मजाल कि इतनी बड़ी बात कह या समझ भी सकूँ. 

जब व्यक्ति सफलता के शिखर पर होता है तो उसे ये कहने में कतई गुरेज नहीं होता कि सब कुछ उसने अपनी मेहनत के दम पर अर्जित किया है. और ख़ुदा न खास्ता यदि किसी कारण से व्यक्ति असफल हो जाये तो उसे ये कहने में देर नहीं लगती कि मेहनत तो बहुत की थी लेकिन भगवान् को मंज़ूर नहीं था. सफलता अहंकार को जन्म देती है जबकि विनय का उद्भव विफलता में निहित है. अहंकार के गुब्बारे में भरी हवा बस एक पिन की मोहताज होती है. फिर न गुब्बारा रहता है, न गुब्बारे का वज़ूद. भगवान् की विशेष कृपा से मै कुछ इमोशनल कवि हृदय व्यक्ति हूँ, इसलिये दूसरों के स्वाभिमान-अभिमान-अहंकार का मै बराबर ख्याल रखता हूँ. इसके लिये कभी-कभी आपको अपने स्वाभिमान का पायदान भी बनाना पड़ सकता है. दूसरों के अहम् का पोषण कवि टाइप के लोग ही कर सकते हैं, क्योकि उनमें दूसरों के दर्द को महसूस करने की विलक्षण प्रतिभा होती है. अपने अहम् का पोषित करने वाले भी अक्सर इन्हीं को इनकी औकात दिखाने का मौका नहीं चूकते. अपने कांफिडेंस को बढ़ने का सबसे आसान, सुगम और सटीक हथियार है, दूसरे के कांफिडेंस पर प्रहार. 

ऐसा नहीं है कि मेरा गुब्बारा कभी फूलता या फूला नहीं था. या आज भी कभी-कभी फूल नहीं जाता. फूलने और पिचकने की अनेक चक्रों से गुजरने के बाद ये एहसास हुआ कि गुब्बारे का वज़ूद बना रहे, ये अधिक आवश्यक है. दूसरे तो पिन लिये घूम ही रहे हैं. तेरहवीं पर पूड़ी का भोग लगाते हुये कहेंगे कि दूसरों के दुःख-दर्द से सरोकार रखने वाला एक भला आदमी नहीं रहा. इसलिये हवा कम कर ली लेकिन किसी दूसरे को हवा कम रखने की सलाह आजतक नहीं दी. आसमान में तैरते रंग-बिरंगे गुब्बारों का आनन्द आप तभी ले सकते हैं जब आप उनके नीचे और जमीन की सतह के करीब उड़ रहे हों. ये हर व्यक्ति की व्यक्तिगत यात्रा है जिसे उसे स्वयं तय करना है.   

इसी तरह दुनिया से पिटते-पिटाते जीवन के पचास पतझड़ पार कर लिये. ज़्यादातर जो लोग बसन्त व्यतीत करने की बात करते हैं. वो सम्भवतः वो लोग हों जिन्होंने जीवन का भोग किया हो. यहाँ तो लगता था कि आदर्शों की स्थापना और दुनिया सुधारने का सारा ठेका मेरे ही हिस्से आया. दुनिया का मज़ा लेना हो तो मीन-मेख निकालने की आदत से बचना चाहिये. ऐसे बहुत से उदहारण मिल जायेंगे जिन्होंने पेट भरने को अहमियत दी, भले दिमाग खाली रहा. अगले जन्म में भगवान् से भरा पेट और खाली दिमाग़ माँगूँगा (ये विचार भी मेरा नहीं है, कहाँ किससे उठाया है, याद नहीं. मेरे ब्लॉग के विचार प्रायः अपने नहीं होते. कहीं से पढ़ता हूँ, कहीं चेप देता हूँ, डिसक्लेमर के साथ). इन्होंने ज़िन्दगी का भरपूर आनन्द लिया और मुझे इस बात का एहसास दिलाने से कभी नहीं चूके कि इतना उठा-पटक करके तुम्हें क्या मिला. हम कहाँ तुम कहाँ. तब ऐसी स्थिति बन जाती है कि लगता है ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं. और यहीं से शुरू होती है आदमी की अन्तर्यात्रा. परमात्मा की खोज. 

इसके लिये सबसे ज़रूरी है किसी गुरु का होना. वही आपको भगवान से मिलवा सकता है. पण्डित-पुजारी हवन और पूजा तो करवा सकते हैं लेकिन भगवान से मिलने के लिये एक अदद गुरु का होना अति आवश्यक है. तमाम अध्यात्मिक चैनलों और यू-ट्यूब पर निर्झर झड़ रहे ज्ञान के कारण आज आपके लिये सुविधाजनक बाबा की खोज कोई बड़ा काम नहीं रह गया है. उन्नीस सौ चौंतीस में प्रकाशित 'अ सर्च इन सीक्रेट इण्डिया' के लेखक पॉल ब्रनटन को एक अध्यात्मिक गुरु की खोज में भारत का चप्पा-चप्पा छानना पड़ गया था. अब तो समस्या सेलेक्शन की है. चॉइस इतनी अधिक हैं कि आप की समझ नहीं आता किसे पकडें किसे छोडें. जब इस क्षेत्र में प्रवेश किया तो पता चला, चेला गुरु नहीं सेलेक्ट करता, गुरु चेला सेलेक्ट करता है और आप वहीं पहुँच जाते हैं, जो आपके लिए सबसे उचित है. पहले तो कई बाबाओं के प्रवचन यू-ट्यूब पर सुने गये. उनके कुछ टीवी प्रोग्राम्स देखे गये. सभी के प्रवचन एक से बढ़ कर एक. सभी अच्छी-अच्छी बातें करते. सबकी लम्बी-लम्बी फैन फालोइंग. सभी सोशल मीडिया पर 365 दिन 24/7 उपलब्ध. बाबाओं के अनुयायियों और मंदिरों-तीर्थों पर बढती बेतहाशा भीड़ देख कभी-कभी मुझे लगता कि जब सब लोग इतने अच्छे हैं, तो समाज में बढ़ते अपराध का ज़िम्मेदार कौन है. मंदिरों पर भीड़ बढ़ी है तो शराब के ठेकों पर भी भीड़ पहले से अधिक ही दिखती है. ये कहना बहुत कठिन हो गया है कि क्या सही है और क्या गलत. सही गलत का अंतरद्वंद जब हद से बढ़ गया तो एक बाबा को गुरु बना लेना मैंने उचित समझा. 

गुरु जी का आश्रम हमारे शहर के पास ही था बल्कि ये कहना ज़्यादा उचित होगा कि आश्रम शहर के अन्दर ही आ गया था. योग-ध्यान के लिये जितनी सुख-सुविधाओं की आवश्यकता होती है सब आश्रम में उपलब्ध थीं. गुरु जी के चेले अधिकांशतः शहरवासी ही थे. प्रतिकूल मौसम में उन्हें अत्यधिक ठण्ड या गर्मी बर्दाश्त नहीं होती थी. गुरु जी तो पच्चीस वर्ष हिमालय पर कठिन तपस्या करके आये थे. उन्हें मालूम था कि चेलों को समाज से नया-नया विमोह हुआ है. आश्रम में सुविधा न मिली तो ये पुन: माया-मोह के जाल में फँस जायेंगे. आश्रम में अवर्णनीय शांति थी. गुरु जी प्रवचन के बाद चेलों को गाइडेड मेडिटेशन करवाते. बताते दुनिया में सिर्फ़ मानव के पास ही प्रभु को खोज सकने की क्षमता है, लेकिन वे दुनियादारी को ही सच मान के बैठे हैं. जब ऊपर वाले की बे-आवाज़ की लाठी पड़ती है तो कुछ दिनों तक मंदिरों के चक्कर काटते फिरते हैं. बाद में वही ढाक के तीन पात. वृद्धावस्था में जब शरीर भी भोग में साथ देने से इन्कार कर देता है तो भगवान की याद आती है. क्या आप भगवान् को बासी फूल अर्पित करते हैं. तो भगवान को याद करने के लिये बुढ़ापे का इन्तजार क्यों. जितनी जल्दी आप अपनी अध्यात्मिक यात्रा आरम्भ करेंगे अगले जन्म में उसके आगे से यात्रा शुरू होगी. गुरु जी की वाणी में अपार स्नेह झलकता था. मानो वे इस यात्रा को इसी जन्म में पूरा करवा देंगे. 

एक दिन उन्होंने अपने प्रवचन में इस बात पर बल दिया कि सृष्टि के कण-कण में भगवान हैं. हम सभी भगवान के अंश हैं. सभी में प्रभु विद्यमान हैं. हमको सभी में ब्रह्म को देखने का प्रयास करना चाहिये. इंसान ही नहीं समस्त चर-अचर जगत प्रभु की ही कल्पना है और उस सर्वव्यापी प्रभु की कोई कृति विकृत कैसे हो सकती है. एक शिष्य ने पूछा भी कि जो लोग दुश्मनी निभाने का कोई मौका नहीं छोड़ते, जो दिन-रात अपमानित करने में लगे रहते हैं, उनसे कैसे निपटा जाये. गुरु ने मुस्कुरा कर कहा - तुममें भगवान का अंश है, पहले तो तुम्हें ये अनुभव करना होगा. सबमें ब्रह्म स्वरुप का दर्शन करो. कल्याण होगा. शिक्षक से तो चर्चा की जा सकती है लेकिन गुरु की बातें गूढ़ होती हैं. उन्हें आत्मसात करना पड़ता है.   

दो-तीन महीने ऐसे ही बीत गये होंगे. नया मुल्ला प्याज़ ज़्यादा खाता है. मै नियमानुसार हर रविवार आश्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा देता. लोग अपनी-अपनी समस्यायें गुरु जी से साझा करते और गुरु जी उनका निराकरण बताते. ये सब प्रवचन और मेडिटेशन सेशन के बाद होता था. जिसको जाना हो चला जाये लेकिन मुझे ये सेशन ज़्यादा इंटरेस्टिंग लगता. 

एक दिन उसी शिष्य ने पूछा - गुरुदेव आप के कहे अनुसार मैंने तो हर किसी में ब्रह्म का स्वरुप देखना आरम्भ कर दिया है लेकिन बाकी लोग तो और आक्रामक होते जा रहे हैं. पहले ही मै दुनिया में फिट नहीं हो पा रहा था अब तो लगता है दुनिया के बाहर ही हो गया हूँ. मेरे लिये तो हर व्यक्ति प्रभु का दिव्य रूप है. मै उन्हें ब्रह्म स्वरूप मान कर सहायता करता रहता हूँ, लेकिन वो लोग तो हमें ना-ना प्रकार से प्रताड़ित कर रहे हैंउन्हें मुझमें ब्रह्म क्यों नहीं दिखता. 

गुरु जी अपने चिरपरिचित अन्दाज़ में मुस्कुराये. बोले एक किस्सा सुनाता हूँ - एक बार एक व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक समस्या हो गयी. उसे लगता था कि वो मुर्गी का दाना है. जब भी कहीं बाहर निकलता तो जैसे ही कोई चिड़िया या मुर्गी सामने आ जाये, वो पैनिक हो जाता था और वापस घर में घुस जाता था. घर-बाहर-ऑफिस वाले सब परेशान. अच्छा-भला लम्बा-तगड़ा आदमी एक मुर्गी से डर रहा है. किसी ने सलाह दी कि किसी मानसिक रोग विशेषज्ञ के पास दिखाया जाये. डॉक्टर ने उसकी पूरी बात सुनी फिर उसे समझाया - देख भाई तेरे दो हाथ हैं, दो पैर हैं, दो कान हैं, एक नाक है, एक मुँह है. तू मुर्गीदाना थोड़ी न है. तू आदमी है. फिर उसकी पत्नी से बोला कि थेरेपी तब तक चलेगी जब तक ये समझ नहीं जाता कि ये मुर्गीदाना नहीं आदमी है. पत्नी रोज उसे ले कर आती. डॉक्टर रोज उसे यही बताता कि उसके दो हाथ हैं, दो पैर हैं, दो कान हैं, एक नाक है, एक मुँह है. वो मुर्गीदाना नहीं आदमी है. ऐसा करते-करते तीन महीने निकल गये. एक दिन वो आदमी आया और बोला - डॉक्टर साहब अब मुझे समझ आ गया कि मेरे दो हाथ हैं, दो पैर हैं, दो कान हैं, एक नाक है, एक मुँह है. मै मुर्गीदाना नहीं हूँ. मै आदमी हूँ. डॉक्टर बहुत खुश हुआ. उसने कहा अब तुम पूरी तरह स्वस्थ हो. जाओ अब नार्मल जीवन जियो. वो आदमी क्लिनिक से निकल गया. डॉक्टर अलगे पेशेंट को देखने में लग गया. इतने में वही आदमी दौड़ता हुआ आया और परदे के पीछे छुप के खड़ा हो गया. डॉक्टर परदे के पीछे गया और उससे पूछा कि क्या बात है जो यहाँ छिप के खड़े हो. वो आदमी बोला डॉक्टर साहब मै तो समझ गया कि मेरे दो हाथ हैं, दो पैर हैं, दो कान हैं, एक नाक है, एक मुँह है. मै मुर्गीदाना नहीं हूँ. मै आदमी हूँ. लेकिन जो बाहर मुर्गी घूम रही है उसे कौन बतायेगा कि मै मुर्गीदाना नहीं आदमी हूँ.

गुरु ने कहा - तुम्हारा भी यही हाल है. जब तक तुम्हें अपने ब्रह्म रूप पर विश्वास नहीं होगा तब तक दूसरे में ब्रह्म कैसे दिखेगा. सबसे आवश्यक है स्वयं के ब्रह्म होने पर विश्वास. 

-वाणभट्ट

2 टिप्‍पणियां:

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मुर्गीदाना

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