चाचा जी का चेम्बर बड़ा था और उसमें पड़ी एक बड़ी मेज के पीछे वो बैठे हुये थे. यूनिवर्सिटी अंग्रेज़ों के जमाने की थी. पुराने लोग, चाहे हमारे पूर्वज रहे हों या मुग़ल या अंग्रेज़, छोटा नहीं सोचते थे. इसीलिये मंदिर से बड़ा मंदिर का प्रांगण हुआ करता था. जितने बड़े विश्विद्यालय के भवन नहीं थे, उससे कहीं बड़ा उसका परिसर था. उसमें हॉकी, क्रिकेट और इनडोर या आउटडोर स्पोर्ट्स के लिये स्टेडियम तक की व्यवस्था थी. कैम्पस इतना बड़ा कि घुसने के बाद ग़ुम हो जाने का शुबहा बना रहता था.
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का प्रांगण भी ऐसा ही था कि वहाँ जाने का मन किया करता. उसके कारण वही थे, जिसके कारण लड़के हायर स्टडीज़ के लिये प्रेरित होते और कुछ बनने के सपने पाल बैठते हैं. और भी कई कारण हो सकते हैं लेकिन हम लोगों का प्रयोजन दूसरा था. मेरे एक मित्र की सम्भावित माशूका बॉटनी डिपार्टमेंट में दिखा करती थीं. पता नहीं माशूका महोदया को इस बारे में कुछ पता था भी या नहीं, लेकिन ये भाई साहब उस पर लट्टू हुआ करते थे. हम लोग बस दोस्ती निभाने के लिये साथ चले जाते थे कि भाई पिट-पिटा गया तो कम से कम घर तक तो पहुँचा ही देंगे. मेरा जाना इसलिये भी ज़रूरी हो जाता था कि मेरे एक बाल सखा के पिता जी उसी वनस्पति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर हुआ करते थे. हर बार उनसे मिलना जरूरी नहीं था, लेकिन कहीं गलती से किसी ने पूछ लिया कि दूसरे कॉलेज के हो कर यहाँ क्या कर रहे हो, तो जवाब थोड़ा ऑथेंटिक लगे कि चाचा जी से मिलने आये हैं. हालाँकि कभी किसी ने पूछा नहीं.
उस जमाने के बच्चे अंकल-आंटी शब्द से परहेज करते थे. इसका उपयोग कॉन्वेंटी बच्चों के लिये छोड़ रखा था. हिन्दी मीडियम का बच्चा, चाचा-ताऊ-मामा-बाबा-दादा से काम चला लेता था. अंकल बोलने पर चाचा जी टाइप के लोगों को अपनेपन की फीलिंग नहीं आती थी. और इसकी परिणति एक ज्ञान व्यापी लेक्चर से होती थी. मेरा तो घर का आना जाना था लेकिन साल-छः महीने में यूनिवर्सिटी में भी चाचा जी मिल लिया करता था. मित्र के चक्कर में ये फ्रिक्वेंसी थोड़ी बढ़ चली थी. धीरे-धीरे वो मेरे कई दोस्तों से वाकिफ़ भी हो गये थे.
उस दिन मैं अकेला ही चला गया उनसे मिलने. चाचा जी ने मुस्कराते हुये चुहल भरे अंदाज़ में पूछा - आज तुम्हारा दोस्त दिखायी नहीं दे रहा है. तब लगा कि हम बुज़ुर्गों को जितना बुज़ुर्ग समझते हैं, वो उतने होते नहीं. जब तक घाट-घाट के पानी न पी लो, उम्र बढ़ती कहाँ है. अपनी झेंप मिटाने के उद्देश्य से मैं मेज के दूसरी तरफ़ उनके चरणों में झुक गया. वो घुटना छूने वाला दौर भी न था. झुक के चरण छुओगे तो पीठ पर स्नेहिल स्पर्श के साथ आशीर्वाद भी मिलता था. चाचा जी ने उस बड़ी मेज की पहली तरफ़ मुझे बैठने की आज्ञा दी, जिसका ज़िक्र मैं पहले कर चुका हूँ.
मैंने उनको हृदय के पूर्ण अंतःकरण से बधाइयाँ अर्पित कीं. उनका बड़ा चेम्बर और बड़ी मेज देख कर मैं अभिभूत हुआ जा रहा था. उनके सहायक प्रोफेसर से प्रोफेसर बनने तक के दौर का साक्षी था, मैं. इंस्टिट्यूट से लौटते हुये अपनी काइनेटिक विश्वविद्यालय गेट के अन्दर घुसेड़ दी. शाम के साढ़े छः बजे रहे थे. पहले की बात होती तो शायद चाचा जी के मिलने की सम्भावना न होती, लेकिन अब बात अलग थी, शायद मुलाक़ात हो जाये. ख़बर मिली थी कि चाचा जी बॉटनी डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष बन गये हैं, तो उन्हें उन्हीं के चेम्बर में बधाई देने की इच्छा बलवती हो गयी. चाचा जी को विभागाध्यक्ष बने लगभग एक महीना हो चुका था. बैठने के बाद मैने पूछा - चाचा जी हेड बन कर कैसा लग रहा है.
चाचा जी मौन हो कर रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराते हुये मेरी ओर देखने लग गये. उन्हें मैंने बहुत करीब से देखा था. चाचा जी खुशमिज़ाज व्यक्ति थे. ज़िन्दगी जीने का अपना ही फ़लसफ़ा लिये, सम्पूर्ण निर्लिप्तता के साथ अब तक का जीवन जिया था, उन्होंने. उसी तरह मुस्कुराते हुये बोले - बेटा तुम तो मुझे बचपन से जानते हो. ईमानदारी से पढ़ते-पढ़ाते, ज़िन्दगी गुज़र गयी. लेक्चर लेना, प्रैक्टिकल कराना, और एक-दो छात्रों को गाइड करना. कभी ये देखने की कोशिश ही नहीं की कि दुनिया कहाँ जा रही है. बस अपने काम से काम. समय से आना समय से जाना. ज़रूरत हो तो कभी भी आओ कभी भी जाओ. ज़्यादा रोक-टोक थी नहीं. कितनी ईज़ी गोइंग लाइफ़ रही है. मैने पहले कभी नहीं देखा कि विभाग में क्या हो रहा है. वरांडे में रखे गमलों में पानी पड़ा है या नहीं. चपरासी ने मेरा कमरा खोल कर मेज साफ़ की या नहीं. सुराही और कूलर में पानी भरा या नहीं. अपनी सुराही लॉन वाले नल से भर के लाने में मुझे कभी संकोच नहीं हुआ. अब वो बात नहीं है. हर समय मुझे लगता है कि सबसे काम कराना अब मेरी जिम्मेदारी है. स्टाफ़ का हाल तो जानते ही हो, दिन भर कैंटीन में ही बैठा रहता है. यूनिवर्सिटी के कामों से हमेशा बचते रहते हैं ये लोग. अब डिपार्टमेंट के सामने का लॉन हो या विभाग का बोटैनिकल गार्डन, सब का ध्यान रखना पड़ता है. आज की जेनरेशन ऐसी नहीं रही है, जो सीनियरों का लिहाज करे. कोई काम बता दो तो इतना लटका देते हैं कि उससे अच्छा है, ख़ुद ही कर डालो. पहले बाक़ी लोग कब आते थे, कब जाते थे, इस पर कभी ध्यान नहीं दिया. अब हर समय यही ध्यान लगा रहता है, कौन कब आया, कब गया. मुझे तो दिन भर बैठना ही है. डीन और वीसी कब तलब कर लें, पता नहीं. कोई आये या न आये, मुझे तो यहाँ शाम तक रहना है. ख़ुद को कंट्रोल में रखना आसान है, लेकिन दूसरों पर कंट्रोल करने की तो कहीं ट्रेनिंग मिलती नहीं एकेडेमिक लोगों को. आजकल तो लोगों ने हेड के लिये अप्पलायी करना ही बन्द कर दिया है. जो सीनियर मोस्ट हो जाता है, उसी को चार्ज पकड़ा दिया जाता है. रोटेशन में है इसलिये अब तीन साल तो झेलना ही पड़ेगा. डेढ़-दो साल में जब तक तक सेट होंगे, चला-चली की बेला आ जायेगी. ख़ैर ये तो मालूम ही था कि एक दिन तो ऐसा आना ही है. अभी आदत नहीं है, धीरे-धीरे पड़ जायेगी. ज़िन्दगी क्या है, बस तजुर्बे और तजुर्बे. एक तजुर्बा और सही.
-वाणभट्ट
सच में,वरिष्ठ पद पर पहुंच कर निभाना बहुत कठिन हो जाता है
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया लेखन
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया। मज़ा आ गया।
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