मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

कद्दू में तीर

कद्दू में तीर 


बात उन दिनों की है जब मुझे नया-नया आत्म ज्ञान मिला कि अन्य नौकरियों की तरह शोध और शिक्षा अब शौक़ या हॉबी न रह कर नौकरी बन चुके हैं. जैसे की बहुत से ज्ञानीजन बता चुके हैं कि इन्टर के बाद सबसे इन्टेलीजेन्ट लोग इंजीनियरी या डॉक्टरी में प्रवेश ले लेते हैं. उसके बाद वाले आईएएस या एमबीए में सेलेक्ट हो जाते हैं. जिनके पास सामाजिक गतिविधियों के कारण पढने-लिखने का समय कम होता है, वो नेता बन सकते हैं और उनके नीचे आइएएस और इंजीनियर काम करते हैं. बीटेक या ग्रेजुएशन करते करते छात्र अक्सर इतना पक जाते हैं कि एक अदद नौकरी की तलाश शुरू कर देता है. खुद्दार टाइप के बच्चे ट्यूशन और छोटी-मोटी नौकरी करके अपनी पढायी जारी रखने का प्रयास करते हैं, ताकि पिता जी के बोझ को कुछ कम किया जा सके. वहीं कुछ बाप ऐसे भी होते हैं, जो बच्चों में ये विश्वास भरते हैं कि बेटा लौटना तो अशोक की लाट वाली नौकरी ले कर वर्ना घर में इतना पुदीना सूख रहा है कि तेरी सात पुश्तों को भी नौकरी करने की जरूरत नहीं पड़ने वाली. शायद ही किसी बाप ने सपने में भी बेटे को वैज्ञानिक बनाने का सपना पाला हो. और शायद ही कोई बेटा भी ऐसा हुआ हो जिसने वैज्ञानिक बनने की इच्छा दिखायी हो. जिन्हें ऐसा स्वप्न आया भी होगा तो उन्हें नासा और इसरो से कम का तो नहीं ही आया होगा. 

अक्सर एक अदद सरकारी नौकरी के प्रति अदम्य इच्छा शक्ति ही उच्च से उच्चतर शिक्षा कम्प्लीट कर लेने के लिये प्रेरित करती रहती है. जब तक नौकरी न मिल जाये, उच्च शिक्षा ज़माने में सर छुपाने का सबसे कारगर हथियार है. ग्रेजुएशन करके कोई गलती से गाँव-घर पहुँच गया तो सभी इष्ट-मित्र-ख़ैरख्वाह पूछ-पूछ के जीना हराम कर देते हैं कि बेटा आगे क्या करने का इरादा है. सो घर पर रह कर कॉम्पटीशन्स की तैयारी करना एक कठिन काम है. शहर में या घर से दूर रहिये तो बाप को भी बता सकते हैं कि बस दो नम्बर से मेन्स चूक गया. पिता जी को भी फ़ख्र करने का मौका मिल जाता है कि बेटा सिविल की तैयारी में जुटा है. कला संकाय वालों के पास तो बहुत ऑप्शन हैं. बीए, एमए करने के बाद एलएलबी-एलएलएम करने की गुंजाईश बची रहती है. लेकिन विज्ञान संकाय वाले बच्चों के पास पीएचडी का ही स्कोप बचता है. ऐसा नहीं कि उन्हें एलएलबी करने की मनाही है. लेकिन टू द पॉइन्ट और पूर्णतः सही या गलत उत्तर देने वाले बच्चों के लिये बेवजह भाँजना थोड़ा कठिन तो है. जबकि वहाँ का सिद्धांत है कि कॉपी पर लिखोगे नहीं तो एग्ज़ामिनर नम्बर कैसे देगा. इसलिये लिख के ज़रूर आना. खेत पूछे तो खलिहान लिखना लेकिन कागज़ कोरे मत छोड़ना. बी और सी कॉपी ले लोगे तो अच्छे मार्क्स भी मिल सकते हैं. बहुत से लोग कॉम्प्टिशन्स की तैयारी में पीएचडी तक कर डालते हैं. शोध शुरू करने से पहले ये भी शोध किया जाता है कि किस विश्वविद्यालय का कौन सा एडवाइजर टाइम से डिग्री दिलवा सकता है और कौन शोध में इतना डूब जाता है कि उसे आपकी डिग्री की चिन्ता ही नहीं रहती. वैसे भी डिग्री जब आपकी है तो किसी और को भला क्यों चिन्ता होने लगी.

और अब जब शोध नौकरी बन गया है तो आइन्स्टाइन-एडिसन-न्यूटन की तरह मनमर्जी से शोध नहीं कर सकते. ऑफिस टाइम में अगर आप पेंड के नीचे झपकी ले रहे हो तो कोई भी आपकी फोटो निकाल के बॉस को प्रेषित कर सकता है. और गलती से सेब आपके ऊपर गिर भी जाता तो आप हडबडा कर ऑफिस की ओर भागेंगे या ये सोचेंगे कि सेब क्यों गिरा. शुक्र मनाते कि सेब न गिरता तो पता ही न चलता कि शाम होने को आयी. नौकरी के अपने नियम हैं. यहाँ ना-करी नहीं कर सकते. बॉस इज़ ऑलवेज राईट का सिद्धांत भी चलता है. अन्य नौकरी की तरह यहाँ भी तेल-मालिश और बटर-पॉलिश प्रमोशन के अमोघ अस्त्र हैं. जब पहली बार प्राइवेट नौकरी ज्वाइन की तो फैक्टरी मैनेजर ने वेलकम करने के लिये कमरे में बुलाया और डूज़ और डोंट्स की एक लिस्ट पकड़ा दी. काम वेल डिफाइंड था. जब शोध संस्थान पहुँचा तो बॉस ने वेलकम करते हुये कहा कि वर्मा तुम क्या करना चाहते हो. मेरे अंडर में काम करने वालों को काम करने की पूरी छूट है. जो चाहे करो मेरा पूरा सपोर्ट रहेगा. तब से हर हफ्ते में एक-दो प्रोजेक्ट बना कर बॉस से मिलता. और बॉस के पास कई तर्क होते - इस काम के लिये यहाँ सुविधा नहीं है, ये काम बहुत ही कठिन है, अभी तुम कर नहीं पाओगे और सबसे अच्छा तर्क था कि यदि ये हो सकता होता तो अमरीका-जापान वाले कर चुके होते. बॉस चूँकि सदैव सही होते हैं इसलिये मै फिर अगले हफ्ते मिलने का वादा लेकर विदा हो लेता. और अगले मिलन में मेरे दिल में उठ रहे यूरेका वाले भाव की अच्छी तरह से बत्ती बनायी जाती और डस्टबिन के हवाले कर दी जाती. अगली बार जब मै गया तो उनके चेहरे पर कुछ निश्चयात्मक भाव पहले से व्याप्त था. लेकिन उन्होंने मेरे प्रोजेक्ट को पूरे गौर से सुना. लेकिन उस पर कोई कमेन्ट नहीं किया. बल्कि राय दी कि यदि मै आटा चक्की पर काम करूँ तो कैसा रहेगा. मै हतप्रभ सा अपलक नेत्रों से उनके मुखारबिन्दु की ओर देखता रह गया. बाद में पता चला कि उन्होंने उसे घूरने की संज्ञा दे दी. बहरहाल वो मेरे लिये पहली सीख थी कि सजेशन्स नीचे से ऊपर नहीं जाते, ऊपर से जो इंस्ट्रकशंस आयेंगे उन्हीं को फ़ॉलो करना है. सही भी है. बॉस कौन है, ये हमेशा याद रखना चाहिये. बॉस वहाँ तक देख सकता है, जहाँ तक हम सोच भी नहीं सकते.      

अब चूँकि ये नौकरी है इसमें प्रमोशन के लिये कुछ शर्तें भी ज़रूर होंगी. उसमें से एक शर्त थी कि काम चाहे आप कुछ भी कर लीजिये, प्रमोशन के लिये एक पीएचडी की डिग्री होनी ही चाहिये. दिल का तो काम ही है कि रोज कोई ख्वाहिश, कोई तमन्ना पैदा की जाये. तब तक बीवी-बच्चों की ओर से कुछ-कुछ निपट चुके थे, तो सोचा कैरियर की ओर भी ध्यान दे लिया जाये. पीएचडी करने से पहले वाली खोज शुरू की गयी कि किस विश्वविद्यालय में किस प्रोफेसर के अन्तर्गत शोध किया जाये ताकि तीन साल की डिग्री तीन साल में ही मिल जाये. अब मै इन सर्विस कैंडिडेट था इसलिये स्टडी लीव में ही काम खत्म करना आवश्यक था. जब रैगिंग का दौर चला करता था, सीनियर्स और जूनियर्स के रिश्ते बने रहते थे. अमुक युनिवर्सिटी में अमुक प्रोफ़ेसर बहुत ही सीधे और सहज स्वभाव के हैं. तीन साल में यदि लड़का डिग्री नहीं भी करना चाहे तो वो धक्का लगा कर बाहर करवा ही देते हैं ताकि उनका रिकॉर्ड खराब न हो. वो ईमेल और डब्ल्यु डबल्यु डब्ल्यु डॉट इन वाला ज़माना तो था नहीं कि मुलाकात फिक्स करके निकलते. अगले ही मौके पर मै उनके सामने प्रस्तुत था.

गुरु जी में गुरु के सारे लक्षण थे. चेहरे पर अन्तस का तेज दैदीप्यमान था. इतनी सहृदयता से मिले कि मेरी अन्तरात्मा कहने लगी गर फ़िरदौस डिग्री करनी है तो बस यहीं अस्तो, यहीं अस्तो, यहीं अस्तो. मै अपने ढेर सारे प्रोजेक्ट प्लान्स ले कर इस उम्मीद में गया था कि किसी न किसी पर तो प्रोफ़ेसर साहब मान ही जायेंगे. उन्होंने ने भी उतने ही गौर से सुना जितनी उत्सुकता से मै बता रहा था. सारी बातें सुनने कर बाद उन्होंने गुरु-गंभीर आवाज़ में बोलना शुरू किया. देखो बेटा तुम लोग यंग हो, अभी बहुत कुछ करना चाहते हो लेकिन समय सीमित है. तुम्हारी तो नौकरी ही शोध की है, और काम करने के लिये पूरी ज़िन्दगी पड़ी है. मेरा कन्सर्न ये है कि तुम तीन साल में डिग्री लो और यहाँ से चले जाओ. तुम्हारे सारे के सारे काम अप्प्लाइड और सोल्यूशन ओरियेंटेड हैं. मै हमेशा पाथब्रेकिंग काम करता हूँ. एकदम नया एरिया खोजता हूँ और उस पर काम शुरू कर देता हूँ. जब तक दूसरों का ध्यान उधर जाता है और वो उस एरिया में काम शुरू कर दें, उससे पहले मै नया पाथ ब्रेक करने में लग जाता हूँ. मान लो तुमने कोई मशीन बनाने का प्रयास किया तो दो बातें होंगी. या तो मशीन चलेगी, या नहीं चलेगी. चल गयी तो ठीक, लेकिन नहीं चली तो तुम्हारी डिग्री लटक जायेगी. थोडा आध्यात्मिक होते हुये उन्होंने बोलना जारी रखा. शोध आत्मा-परमात्मा की तरह होना चाहिये. या तो आत्मा को पता हो कि उसने क्या किया या परमात्मा को. अप्प्लाईड काम चाहे कितना भी उपयोगी हो, हाई रेटिंग के जर्नल्स में छापना मुश्किल हो जाता है. जब कि अबूझ शोधपत्र बहुत ही अच्छी रेटिंग पाते हैं. ऐसे शोध से सदैव बचना चाहिये जिसका जवाब आपसे हाँ या ना में माँगा जाये. जवाब के बदले में  आप और दस सवाल पैदा कर दें. फ्यूचर रिसर्च के क्षेत्र आइडेंटिफाई करना भी शोध का एक प्रमुख लक्ष्य होता है. समस्या ऐसी होनी चाहिये, जिस पर सारी दुनिया काम कर रही हो, पर कर कोई कुछ भी न पा रहा हो. समाधान के चक्कर में कभी पड़ना ही नहीं चाहिये. समस्या खत्म हो गयी तो तुम करोगे क्या. इतिहास साक्षी है कि समस्यायें वहीं की वहीं हैं, कितने ही शोधकर्ता आये और आ कर चले गये. हाँ ये बात अलग है कि अब समाधान खोजने के लिये शोध पर खर्च बढ़ते जा रहे हैं. क्योंकि उच्च रेटिंग के जर्नल में छापने के लिये काम उन्नत तकनीकों और यन्त्रों द्वारा करना पड़ता है, इसलिये शोध का ख़र्च बढ़ना लाज़मी है. समाधान न उनको मिलना है, न तुमको मिलेगा. सब कद्दू में तीर मार रहे हैं, तुम भी मारो. न उनका तीर लगेगा, न तुम्हारा. अलबत्ता तुम्हारी पीएचडी समय पर ज़रूर हो जायेगी. भाव विह्वल हो कर मैंने उनके चरणों की ओर हाथ बढ़ाना चाहा लेकिन उन्होंने मुझे गले से लगा लिया. 

कृष्ण ने जैसे महाभारत काल में अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी थी, वैसे ही मेरे ज्ञान चक्षु खुलते जा रहे थे. हर कोई हाथ में धनुष लिये कद्दू पर निशाना साधता हुआ दिखायी दे रहा था.

-वाणभट्ट 

4 टिप्‍पणियां:

  1. यथार्थ और उच्चकोटि का व्यंग्य, सच कहा आपने कद्दू में तीर ही मार रहे है।लेख के लिए बधाई👏👏💐🙏🙏

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  2. हर कोई हाथ में धनुष लिये
    कद्दू पर निशाना साधता हुआ
    दिखाती दे रहा था.

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  3. शानदार,पढ़ी और
    पढ़ने की अभिलाषा है
    सादर

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