बदला
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. ऐसा कोई और तो कहने से रहा, क्योंकि किसी और प्राणी ने भाषा का इस कदर विकास नहीं किया कि प्यार और तिरस्कार को शब्दों में व्यक्त कर पाये. उस पर ऊपर वाले ने वॉयेस मोड्युलेशन और फेस एस्प्रेशन की एडिशनल सुविधा दे रखी है. शब्दों के चयन से उसी बात को आप खट्टे और मीठे दोनों तरह से कह सकते हैं. लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि यदि दूसरे प्राणी भी इंसान की तरह बोल पाते, तो इतना तो ज़रूर कहते कि मनुष्य एक असामाजिक प्राणी है. प्रकृति की हर व्यवस्था प्रकृति को सिंचित और पोषित कर रही है. लेकिन ऊपर वाले की सर्वोत्कृष्ट रचना, मनुष्य, सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लाभ में लगा है. चूँकि अधिकांशतः प्राणी शायद ज़्यादा दूर की नहीं सोच पाते, इसलिये उन्हें भूख और प्यास से ज़्यादा सोचने की जरूरत नहीं पडती. न उनके पास इतना दिमाग कि चेस खेलें या खामख्वाह का लोड झेलें. इसी कारण अन्य प्राणियों में उन सभी मानवोचित गुणों का सर्वथा अभाव है, जिनके कारण मानव ने अपना और अपने समाज का सत्यानाश कर रखा है. मानवोचित गुण हैं - काम-क्रोध-लोभ-मोह-इर्ष्या-द्वेष. सात्विक टाइप के लोग इन्हें अवगुण की संज्ञा दे सकते हैं. लेकिन शास्त्रों के अनुसार जिन बातों को गुण माना गया है, उन्हें विकसित करना पड़ता है, चाहे संस्कार के माध्यम से, चाहे नियम-कानून से. यदि मनुष्य का बस चले तो उसे हर बंधन से आज़ादी चाहिये. हर व्यक्ति सत्ता के प्रति इसीलिये आकर्षित होता है कि उसे दूसरों की अपेक्षा नियम तोड़ने की ज़्यादा छूट मिल जाये. सेवा के उद्देश्य से जो सत्ता में आता है, वो लीडर बन जाता है. लेकिन देश की शक्की जनता को दाल में काला खोज निकालने की वंशानुगत बीमारी है.
मनुष्य को सामाजिक तो तब माना जाये जब कोई संस्कार न सिखाया गया हो. न कोई नियम-कानून की पोथी हो. और वो मिल-जुल के रह रहा हो. लेकिन मानवता में ऐसे उदाहरण खोज पाना असंभव सा है. एक समाज में भी कुछ व्यक्ति समाज को अपने हिसाब से हाँकने के प्रयासों में लगे रहते हैं. यदि एक समाज किसी के नेतृत्व को स्वीकार कर भी ले, तो वो समाज दूसरे समाज पर विजय पाने को आतुर हो जाता है. तुर्रा ये है कि तमाम इंसानी खून बहाने वाली कौमें भी ख़ुद को सामाजिक बताने से गुरेज नहीं करतीं. सामाजिकता क्या होती है, ये छोटे-छोटे जीवों जैसे चीटियों-मधुमक्खियों-दीमकों में सहजता से दिख जाता है. सब एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और मिल-जुल कर काम करते हैं. लेकिन इंसान में इस फ़ितरत को खोजना पड़ता है. नैसर्गिक रूप से मनुष्य असामाजिकता से ओत-प्रोत है. इतने नियम-कानून बनाने के बाद, उनका अनुपालन कराने के लिये कितने ही सरकारी विभाग बनाने पड़े हैं. वहाँ भी हर जगह समाज का ही प्रतिबिम्ब दिखायी देता है. सब राजा बने घूम रहे हैं, तो काम उतना ही होगा जितने में नौकरी चलती रहे. व्यक्तिगत हित और स्वार्थ जब हावी हो जाते हैं, सारा विभाग अपनी-अपनी स्वार्थ सिद्धि में लग जाता है. और लगे भी क्यों न. यदि निस्वार्थ सेवा करेगा तो यही जालिम ज़माना, उसको मिसफिट बता देगा. बच्चा है, आदर्शवादी बना फिरता है. पता नहीं दुनियादारी कब सीखेगा.
सरकार की बात तो तब की जाये जब परिवार-पास-पडोस-यार-दोस्त का हाल कुछ अलग हो. सामाजिक बनने के चक्कर में सबको लगता है कि निभा तो बस वो ही रहा है, बाक़ी तो सब उसका फ़ायदा उठा रहे हैं. दरअसल जैसे दुनिया में दो वर्ग हैं गरीब और अमीर, वैसे ही इंसानों में भी दो कैटेगरी है - दिल वाले और दिमाग वाले. दिमाग वालों को अपने दिमाग पर गुरुर है तो दिल वाले ज़िन्दगी को अपने अंदाज़ में ही जिये जा रहे हैं. अपने-अपने फ़ायदे के चक्कर में समाज की ऐसी की तैसी हुयी पड़ी है. किसी को कुछ भौतिक लाभ हो तो समझ भी आता है. लेकिन रहीम दास जी के अनुसार संसार में बहुत वेरायटी के लोग भरे पड़े हैं. सिर्फ़ दूसरों पर अपना रुतबा कायम रहे, इस कारण भी कई लोग सुपीरियोरिटी काम्प्लेक्स से पीड़ित हैं. एक जमाना था जब आय कम हुआ करती थी, तो सबको सबकी जरूरत पड़ ही जाती थी. जब से आदमी को उसकी आवाश्यकता और औकात से ज़्यादा तनख्वाह मिलने लगी है, वो बस दूसरों को देखने-दिखाने में लगा हुआ है. कारें बदल रहा है. प्रॉपर्टी बना रहा है. घोड़े तो इतने हैं नहीं कि रेस खेलें, तो शेयर में भी सट्टा लगा रहा है. सेंसेक्स का उफ़ान किसी भी तरह से जीडीपी में ग्रोथ से मिलान नहीं कर रहा है. लेकिन जुआ खेलने का मज़ा ही तब है जब मनी सरप्लस हो. मुजफ्फ़र अली की तर्ज़ पर कि 'जीत गये तो क्या कहना, हारे भी बाज़ी मात नहीं'.
एमआईजी और एलआईजी मकानों में भी अब महाराजा गेट लगता है ताकि बोलेरो खड़ी की जा सके, तो देश की आर्थिक उन्नति का सहज पता लग जाता है. स्थिति ये है कि - मै भी रानी तू भी रानी कौन भरेगा पानी. समाज की बात वही लोग कर रहे हैं, जिन्हें समाज से कुछ निकालना है. बाक़ी अपनी पे-पैकेज और बैंक बैलेंस देख-देख के झूम रहे हैं. सामाजिकता बस पीने-पिलाने तक सीमित रह गयी है. यदि आप को ऐसे कोई शौक नहीं हैं, जिसे दुनिया व्यसन कहती है, तो आपसे ज़्यादा असामाजिक कोई नहीं है. बिना पिये-पिलाये समाज और रिश्तेदारी निभाने का सारा बोझ आजकल विदेशी कन्धों पर है. कभी-कभी तो लगता है कि यदि ये फ़ेसबुक-वाट्सएप्प-ट्विटर न होता तो शायद हमारे अन्दर जो बची-खुची सामाजिकता है, वो कब की दम तोड़ चुकी होती. एक ज़माना था, जब पडोसी के घर फोन आता था, अब सब डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डॉट कॉम की तरह दस अंकों का मोबाइल लिये घूम रहे हैं. हर व्यक्ति हर समय उपलब्ध है. कभी-कभी तो ऐसी स्थितियां बन जातीं हैं कि उठाना नहीं चाहते लेकिन उठाना पड़ता है क्योकि अगले ने आपको वाट्सएप्प पर ऑन लाइन देख रखा है. उसे ये तो पता नहीं कि आप मोबाइल लेकर किस अवस्था में कहाँ बैठे हैं. गूँजती आवाज़ सुन कर वो गेस कर ले तो बात अलग है.
हमारी जेनरेशन वाले वो दिन नहीं भूले होंगे जब इमेल शुरू हुआ था. दिन में दस मेल इधर-उधर आते-जाते थे. क्या खाया, क्या पहना. फिर मोबाइल आया. इनकमिंग के भी पैसे थे, तो जनाब मिस्ड कॉल की भाषा बना ली गयी थी. शनै-शनै कॉल्स फ्री हो गयीं लेकिन बात करने के लिये बातें ही खत्म हो गयीं. अब रिश्तेदारों से ये पूछने का रिवाज़ नहीं बचा कि खाने में क्या बना है और कल कौन सी पिक्चर देखी. फ़ेसबुक पर कढ़ी की फोटो लगी होगी या स्टेटस पर वाचिंग बागी-3 पड़ा होगा. मुस्कुराती हुयी ऐसी फ़ोटोज़ जैसे दुनिया के रंज-ओ-ग़म से इनका सबाका नहीं पड़ा. होटल और टूरिस्ट स्पॉट के बेफिक्रे अंदाज़ अब बताने की बात नहीं, दिखाने की चीज़ें बन गये हैं. और वैसे भी किस-किस को बतायें कि हम देशाटन के लिये निकले हैं. जो उमस और गर्मी में पड़े हैं, थोडा उन्हें और सुलगा दो. यहीं पर एहसास हुआ कि सामाजिकता की आड़ में मनुष्य घनघोर असामाजिक प्राणी है. दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता साबित करने और उन्हें नीचा दिखाने की होड़ सी लगी हुयी है.
पहले ज़माना था कि यार-दोस्त-नाते-रिश्तेदार गाहे-बगाहे मिल ही जाते थे. तो अपनी नाराज़गी-गिले-शिकवे आमने-सामने निपटाते थे. प्रेम यदि गहरा हो तो नौबत जूतम-पैजार तक आ जाती थी. एक-दूसरे की माँ-बहनों को इज्ज़त से याद कर लिया जाता था. ख़ासियत ये कि हर व्यक्ति अपनी जगह सही है और दूसरा जैसे, हाल ही में दिवंगत हुये युसूफ़ खान की फ़िल्म 'राम और श्याम' का विलेन 'प्राण' है. मौका मिला है तो खरी-खरी सुना दो. कुछ लोगों का तो मानना है कि जहाँ प्यार होगा वहीं तो तकरार होगी. प्रेम प्रदर्शन का एक स्टैण्डर्ड विधान है कि रुठिये-मनाइये. चूँकि हर जगह तो प्रेम हो नहीं सकता इसलिये कुछ गुंजाईश अगले को ठोंक-पीट कर सही करने की भी बन जाती है. जैसे-जैसे सभ्य बनने और दिखने का प्रचलन बढ़ा है, लोग मनोभावों को दिल में दफ़न करने का प्रयास करते हैं. शायद यही वजह है कि भारत में दिल के मरीज़ अन्य देशों की तुलना में अधिक पाये जाते हैं.
अस्सी के दशक में एक फ़िल्म आयी थी 'आधारशिला'. नसीरुद्दीन शाह और अनीता कंवर अभिनीत उस फ़िल्म में बदला लेने का एक अजीब-ओ-ग़रीब तरीका फिल्माया गया था. विलेन का रोल उस समय के आकाशवाणी के हिंदी न्यूज़ रीडर देवकी नंदन पाण्डेय जी द्वारा निभाया गया था. वो आर्ट मूवीज़ का दौर था. विलेन एक इस्टेब्लिशड फ़िल्म डायरेक्टर है. नसीर उसके पास अपनी एक स्टोरी लेकर जाते हैं. नसीर फ़िल्म इन्सटीटयूट से नये-नये निकले हैं. वो नसीर को बहुत चक्कर कटवाता है. हर बार वो नसीर से पूछता है - पानी तो पियोगे. नसीर हर बार पानी पीता है. विलेन तो विलेन, वो नसीर की स्टोरी चुरा लेता है. आखिरी बार जब नसीर जाता है तो फिर वो पानी ऑफ़र करता है. कोई आम फ़िल्म होती तो हीरो विलेन को हुर देता लेकिन आर्ट फ़िल्म थी. नसीर ने देवकी साहब की आँखों में आँखें डाल कर ऐसे घूरा जैसे कच्चा चबा जायेगा. और पानी के लिये - 'नहीं' बोल कर चल देता है. उसके बाद क्या हुआ ये जानने के लिये आपको फ़िल्म देखनी चाहिये. बदला लेने का ये सभ्य तरीका लोगों को बहुत अच्छा लगा.
लेकिन तब मिलना-जुलना हो जाया करता था. अब जमाना फेसबुक-वाट्सएप्प का है. मिलने की रही सही गुंजाईश चीनी वायरस के कारण और भी कम हो गयी. अब आमना-सामना तो होने से रहा पर अपनी असामाजिकता से आदमी बाज तो आने से रहा. वो यहाँ भी दूसरे पर सुपीरिओरिटी स्थापित करने, नाराज़गी ज़ाहिर करने और बदला लेने के तरीक़े ईज़ाद कर रहा है. सामाजिक है इसलिये फेसबुक और वाट्सएप्प पर दखल ज़रूर रखता है. इस तरह के अन्य एप्लीकेशनस भी इसी उम्मीद से डेवेलप किये जा रहे हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है. लेकिन ऐसा है नहीं. दिन में दो बार वो किसी न किसी से न लडे, तो बहुत सम्भावना है कि रेड लाईट पर ट्रैफिक पुलिस से ज़रूर लड़ जायेगा. आगे वाली गाड़ी का होंकिंग करके चलना मुश्किल कर देगा. किसी सायकिल वाले को घूरेगा. सोशल मीडिया भड़ास निकलने के लिये उचित स्थान नहीं है क्योंकि यहाँ आपको अपने शिक्षित और सभ्य बने रहने का दिखावा करते रहना पड़ता है. जमाना कितनी भी तरक्की कर ले, नाज़-नख़रे वही पुराने रहेंगे. अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने का एक नया ट्रेन्ड विकसित हुआ है. आप कहीं घूम कर आये और फ़ेसबुक पर दुनिया के सबसे सुखी इंसान के रूप में आपने फोटो चेप दी. और इंतज़ार शुरू कर दिया कि सारे इष्ट-मित्र इसे देखें, कुछ लाइक और कमेन्ट भेजें. लेकिन आदमी तो पैदायशी असामाजिक है, उसे आपकी ख़ुशी से क्या सरोकार.
शर्मा जी करोना लॉकडाउन के बाद मनाली निकल लिये. गलती से मिस्टेक ये हो गयी कि अपने परम मित्र वर्मा जी को बताना भूल गये. आनन-फानन में बच्चों ने प्रोग्राम बना लिया. वर्मा जी कानपुर की गर्मी से त्रस्त हुये बैठे थे, जब शर्मा जी ने खनकती आवाज़ में मनाली से फोन किया. यार वर्मा, तुम वहाँ कानपुर में क्या कर रहे हो. यहाँ आ जाओ मनाली एकदम जन्नत बना हुआ है. वर्मा जी अब क्या बोलते. यही बात शर्मा ने जाने से पहले कही होती, तो वो भी साथ लग लेता. गुस्सा तो बहुत आया लेकिन सभ्यता का तकाज़ा था, कुछ कह नहीं सका. शुभ यात्रा टाइप का सन्देश वाट्सएप्प पर भेज दिया. उधर शर्मा मनाली की वादियों में खोया हुआ था या कुछ नेटवर्क का इशू. मैसेज का जवाब देना भूल गया. वर्मा का गुस्सा दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था. ये बहुत गलत बात की है शर्मा एक तो बिना बताये निकल गया और ऊपर से मेरी विशेज़ का जवाब भी नहीं दे रहा. चार दिन के बाद शर्मा ने लद्दाख़ से पास से अपनी कई बर्फ़ीली फोटोज़ फेसबुक पर चेप दीं.
सोशल मीडिया के बीमारों का हाल क्या कहें. फ़ेसबुक और वाट्सएप्प का स्टेट्स देखे बिना ऐसे बेचैनी होने लगती है जैसे 'जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली'. कुछ मरीज़ों का हाल तो ऐसा है कि हाथ के कम्पवात को रोकने के लिये डॉक्टर दिन में तीन बार या एसओएस पर्चे पर लिख के देते हैं. बड़ी मानसिक बीमारी से बचने के लिये, ये बिना दवाई का इलाज है. ज़्यादा बिगड़े केसेज़ में, सोशल मिडिया की लत छुडाने के लिये तीन महीने का विपश्यना कोर्स भी रिकमेन्ड करना पड़ रहा है. शर्मा की ठंडी ठंडी पिक्चर्स देख कर, जुलाई की उमस भरी गर्मी में झुलस रहे वर्मा का तो रोम-रोम जल उठा. उसने हर फोटो को एन्लार्ज करके देखा. बर्फ़ की ठंडी तासीर को अपनी रूह में लेने की भरपूर कोशिश की. लेकिन सोलह डिग्री पर एसी चलाने के बाद भी पहाड़ की उन्मुक्त हवा के ख्याल ने आग में घी का काम किया. मन ही मन उसने शर्मा से बदला लेने की ठान ली.
और वो उन फ़ोटोज़ को बिना लाइक और कमेन्ट किये अगली पोस्ट्स की ओर बढ़ गया.
दीवानों की नगरी में कुछ यार भी बसते हैं,
रखते हैं ताल्लुक भी, आवाज़ भी कसते हैं - दिनेश ठाकुर
- वाणभट्ट