शनिवार, 31 जुलाई 2021

 फटा जूता

इस चित्र को देख कर कतिपय ये लगता है कि कलम का धुरन्धर पुरोधा अपने जीवन में कितना सीधा और सरल रहा होगा. प्रेमचन्द जी की इस दुर्लभ फोटो पर परसाई जी का एक लेख भी है 'प्रेमचन्द के फटे जूते'. जिसमें उन्होंने मुंशी जी की सादगी का भव्यता से वर्णन किया है. वो हर घन्टे सेल्फी खींचने का ज़माना तो था नहीं. एक्स-रे की तरह फोटो प्लेट्स लगा करती थीं. कैमरा ऐसा कि जिसमें फ़ोटोग्राफ़र का पूरा धड़ घुस जाता था. कैमरे से चिड़िया निकलती थी और गलती से आपने चिड़िया नहीं देखी तो तय था कि फ़ोटोग्राफ़र आपको खा जाने वाली निगाहों से घूरेगा. उसकी एक प्लेट जो ख़राब हो गयी. फ़ोटोग्राफ़र के यहाँ टाई-कोट-कंघी-पाउडर सब उपलब्ध रहता था. स्टूडियो में वातानुकूलन की व्यवस्था नहीं हुआ करती थी. यकीनन उस दौर में फ़ोटो खिंचाना एक बड़ा इवेन्ट हुआ करता था. आज भी लोग कैमरे के आगे अपना सबसे अच्छा स्वरुप दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं. जिसके जबड़ों में मुस्कुराने से मोच आ जाती हो, वो भी फेसबुक पर अपनी मनमोहिनी मुस्कान बिखेरने को आतुर दिखायी देता है. प्रेमचन्द जी की ये फ़ोटो निश्चित रूप से स्टूडियो की तो नहीं होगी. वर्ना बैकग्राउंड में ताजमहल बना होता. कोई फ़ोटोग्राफ़र मित्र जो इनकी लेखनी का फैन रहा  होगा, उसने इनसे बहुत मिन्नतें करके भाभी जी के साथ पहले और शायद आख़िरी इस चित्र के लिये राजी किया होगा. जैसे सब लोग सबसे अच्छी पोशाक विशेष अवसरों के लिये बचा के रखते हैं, उम्मीद है मुंशी जी ने भी अपने सबसे अच्छे कपड़ों को धारण किया हो. ये उनके सबसे पसन्दीदा जूते रहे होंगे, जो कभी नये होंगे लेकिन बाबू जी ने उन्हें पहन - पहन के घिस मारा होगा. उन्हें शायद ये आभास नहीं रहा होगा कि फोटो में लोगों का ध्यान उनके चेहरे से ज़्यादा जूते पर जायेगा. उन्हें उम्मीद रही होगी कि फ़ोटोग्राफ़र ने जिस तरह फोटोशॉप करके ब्लैक एन्ड वाईट फोटो को कुछ कलर कर दिया है, उनके जूतों पर भी कुछ मुलम्मा चढ़ा देगा. या उन्हें लगा होगा की फोटो तो सिर्फ़ ऊपर की ही ली जायेगी. लेकिन यदि ऐसा अंदेशा होता तो वो जूता पहनते ही क्यों. अतः ये निष्कर्ष निकालना ज़्यादा उचित है कि उनके पास इससे अच्छे जूते नहीं थे, जो कि किसी भी कवि या लेखक की लेखन से अर्जित आय का द्योतक है. बहरहाल परसाई जी ने इस फोटो के बारे में लिख कर अपनी रचना को अमरत्व प्रदान कर दिया. जूतों की कमी उस ख्यातिलब्ध लेखक को अपनी निश्छल मुस्कराहट बिखेरने से नहीं रोक पायी. 

चीफ़ साहब ऑफिस के लिये तैयार हो रहे थे. बहुत सोचते-समझते हुये उन्होंने अपनी पुरानी घिसी हुयी पैंट और शर्ट निकाल ली. फ़ील्ड में तो एक दिन में ही कपड़ों का कबाड़ा निकल जाता है. फिर बारी थी जूतों की. कभी-कभी उबड़-खाबड़ जगहों पर पूरा दिन टहलना पड़ जाता था. सो उन्होंने फटने की कगार तक पहुँच चुके जूतों को इस उम्मीद में उठा लिया कि ये फटे तो फिर नया जूता पहनना शुरू किया जाये. आज उन्हें साईट पर भी जाना था, इसलिये जितना सम्भव था उतनी सिम्पल वेशभूषा में रहना ही श्रेयस्कर. ऐसा नहीं था कि उनके वार्डरोब में नये कपड़ों-जूतों की कमी हो. लेकिन आदत से मजबूर उन्हें लगता था कि ऑफिस के लिये नये कपडे ख़राब करने का कोई मतलब नहीं है. पर्सनालिटी से सम्बंधित एक जर्नल के में छपे शोधपत्र के अनुसार जूतों का पहले इम्प्रेशन में अहम् रोल होता है. पता नहीं ऑथर्स क्या कहना चाहते हैं कि इन्सान चेहरे से पहले जूता देखना पसन्द करता है. शोधपत्र कोई वेद-पुराण तो हैं नहीं कि उनके औचित्य पर कोई प्रश्न कर सके. आज के विद्वान जो अंग्रेजी में बोल-लिख दें, वही ज्ञान है. ऐसा नहीं मानने पर आपका अज्ञान परिलक्षित होता है.

चीफ़ साहब उस ज़माने के इंजीनियर थे जब कम्प्यूटर साइंस और इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी जैसी कोई ब्रांच नहीं होती थी. जब टॉप रैन्कर्स द्वारा सिविल ख़त्म हो जाती थी, तब इलेक्ट्रिकल और मेकैनिकल का खाता खुलता था. इंजीनियरिंग में सेलेक्शन के साथ ही रोजगार की गारेंटी हो जाती थी और सिविल इंजीनियरिंग के साथ सात पुश्तों के भरण-पोषण की आस बंध जाती थी. 'नमक का दरोगा' में वंशीधर के पिता के माध्यम से मुंशी जी ने उपरी आय को बहता स्रोत बताने में उस समय गुरेज नहीं किया तो अधिकांश छात्रों के सिविल प्रेम को सिर्फ देश निर्माण से जोड़ कर देखना कहाँ तक उचित होगा, ये बात मै अपने प्रबुद्ध पाठकों पर छोड़ता हूँ. गजटेड क्लास वन से नौकरी शुरू करके चीफ़ के रुतबे तक पहुँचना कोई हँसी-खेल तो था नहीं. सिस्टम में सिस्टम के हिसाब से फिट होना पड़ता है तब जा कर आउटस्टैंडिंग माना जाता है. कुछ लोग तो वार्षिक मूल्याङ्कन में उत्कृष्ट ग्रेड के लिये बॉस के चेम्बर के बाहर ही खड़े रहते हैं. कम्पटीशन ये रहता है कि यदि बॉस ने घंटी मारी तो चपरासी से पहले कौन पहुँचता है. अंग्रेजों के द्वारा इसे ही आउटस्टैंडिंग की संज्ञा दी गयी होगी - द पर्सन हू इज़ स्टैंडिंग आउट (ऑफ़ द रूम). इसके लिये तब तक सुर मिलाना पड़ता था जब तक मेरा और तुम्हारा सुर हमारा न बन जाये.         

प्रेमचन्द के लिये मज़बूरी थी कि उनके पास जो कपड़े थे, उन्हीं में वो सहज महसूस करते थे. फ़ैमिली फ़ोटो उन्हीं के हाथ आती जो उनको भली-भाँती जानते होंगे. अब घर की और उनकी माली हालात अपनों से कहाँ छिपी होती. पूर्णमासी के चाँद पर निर्भर न करने वाले चीफ़ साहब के केस में ऐसा न था. उन्हें दिखाना था कि इतने वरिष्ठ पद पर पहुँचने के बाद भी वो जमीन से जुड़े सादगी पसन्द इंसान हैं. उनके पास नियमित आय का बहता झरना तो था लेकिन उन्हें ऐसा प्रयास करना पड़ता था कि इष्ट-मित्रों को उनकी माली हालात पर शक़ बना रहे. इसीलिये उन्होंने तनख्वाह बढ़ने के बाद भी पुरानी मारुती 800 का पिंड नहीं छोड़ा था. सरकारी काम के लिये सरकार प्रदत्त वाहन मिला ही हुआ था. धन-दौलत अलमारियों में भरी रहे तो कॉन्फिडेंस बना रहता है. हर शहर में एक-दो मकान या प्लाट इसलिये जरूरी होता है कि हारी-बिमारी में काम आयेगा. इसलिये उनका फटीचर अन्दाज़ वैसे ही था जैसे शायरों ने सादगी को क़यामत की अदा बता रखा है. घिसे कपड़े और फटे जूते उनका मेकअप था, जिससे लोग असलियत को न भाँप पायें और यदि वो कहें कि उन सा ईमानदार व्यक्ति न धरा पर हुआ न होगा, तो लोगों को संशय बना रहे. 

मौका-ए-वारदात अर्थात साइट पर ठेकेदार अपनी एसयूवी लेकर पहले से ही मौज़ूद हो गया था. पता नहीं उसे कैसे पहले से ही पता चल जाता है कि साहब की गाड़ी आज किस दिशा में जायेगी. लिंटर की शटरिंग को खोला गया तो हॉल की छत बीच में विनम्रता से कुछ झुक सी गयी. चीफ़ साहब को समझते देर नहीं लगी की स्ट्रक्चरल डिज़ाइन में कुछ ज़्यादा ही छेड़-छाड़ हो गयी है. थोड़ी बहुत गुंजाईश तो हमेशा रहती है, लेकिन इतनी बड़ी गलती उनको बर्दाश्त नहीं थी. वो ठेकेदार पर बरस पड़े. उनके अन्दर का नौकरी करने वाला कर्मठ और ईमानदार अधिकारी जाग गया था. उन्होंने खरी-खरी सुना डाली. लेकिन आवेश में वो कुछ ऐसा बोल गये जो ठेकेदार को बुरा लग गया. वो भी तैश में आ गया - आप तब से बोले जा रहे हो मै सुन रहा हूँ. मेरे सामने ज़्यादा ईमानदारी का राग मत अलापो. मेरा सारा पैसा वाईट है जो डिपार्टमेंट ने मेरे एकाउन्ट में डाला है. मै एसयूवी भी लूँगा और ठसक से मँहगे कपड़े भी पहनूँगा. तुम दिखाते रहो अपनी दरिद्रता फटे जूतों में. 

हर विभाग में कुछ आउटस्टैंडिंग लोग होते हैं जो स्थिति की नज़ाकत देखते हुये नरम-गरम हो लिया करते हैं. कुछ लोग ठेकेदार पर पिल पड़े. कुछ ठन्डे के इंतजाम में लग गये. हजारों सालों की ग़ुलामी करने के बाद भी जिस देश में समझदार लोग अभी भी बहुतायत में हों, वहाँ मामला रफ़ा-दफ़ा होते देर नहीं लगती. तय हुआ कि बीच में एक बीम दे दो और फाल्स रुफिंग से तो सब छिप ही जाना है. 

-वाणभट्ट 

रविवार, 25 जुलाई 2021

 जब मै जीता हूँ तो कहते हैं कि मरता ही नहीं, जब मै मरता हूँ तो कहते हैं कि जीना होगा 


प्रबुद्ध पाठकों, आप को लग रहा होगा कि किसी लेख का शीर्षक इतना बड़ा हो सकता है क्या. तो वाणभट्ट का कहना है कि - क्यों नहीं. जब एक से एक वाहियात विज्ञापन पेश हो सकते हैं, तो ऐसा वाहियात शीर्षक क्यों नहीं. आज रविवार का 'हिन्दुस्तान' सुबह हाथ में आया ही था कि पूरे फ्रन्ट पेज पर छपा विज्ञापन आँखों के सामने छा गया- 

आरक्षण नहीं तो गठबंधन नहीं

गौर करने की बात ये है कि 'टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' जो साथ ही आया था, उसमें ऐसा कोई इश्तेहार नहीं था. चुनाव की आहटें सुनाई देने लगीं हैं. जो लोग अब तक सत्ता के साथ बंधे हुये थे, उनके लिये भी अपनी रोटी सेंकने मुफ़ीद समय है. हल्ला मचाते रहो नहीं तो अपना ही वोट बैन्क सरक जायेगा. क्योंकि सारा का सारा चुनावी गणित जात-पात-सम्प्रदाय पर केन्द्रित है. जातिवादी नेताओं की विशेषता है कि उन्हें कम से कम अपनी बिरादरी के वोटों का ध्रुवीकरण करके रखना है. जब समाज संगठित होगा तभी बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ इन नेताओं को कुछ तवज्जोह देंगी. तो ये भैया लोग अपने वर्ग में ये सन्देश देने में लगे रहते हैं कि आपकी आवाज उठाने वाला सिर्फ़ मै ही हूँ. कहीं इधर-उधर दिमाग लगाया तो जैसे आज तक पिछड़े बने रहे, वैसे ही बने रहोगे. अमूमन व्यक्ति को अपने लिये ज़्यादा कुछ नहीं चाहिये होता. उसकी तो जैसे-तैसे कट गयी. लेकिन अपनी संतानों के लिये उसे संघर्ष करने में कोई गुरेज भला क्यों हो सकता है. अपने बेटे और बेटों के बेटे लाट-गवर्नर बन के घूमें इस स्वप्न को देखने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन इक्कीसवीं सदी में इस सपने की पूर्ति के लिये बीसवीं सदी का सस्ता-सुन्दर-टिकाऊ और टाइम टेस्टेड तरीका कहाँ तक उचित है, ये सोचनीय है और शौचनीय भी. 

हिन्दुस्तान के महापुरुषों ने सत्ता में बने रहने के लिये जातिगत व्यवस्था को हथकण्डे के रूप में अपनाया. भुनाया कहना, शायद ज़्यादा उपयुक्त हो. ये ऐसा चेक था और है जिसके बाउंस होने की सम्भावना न के बराबर है. प्रत्याशियों के चयन में प्रत्येक क्षेत्र में जाति-सम्प्रदाय की बहुलता को विशेष तरजीह दी जाती है. और स्वतन्त्र भारत की परतन्त्र मानसिकता वाली जनसंख्या ने ऐसे प्रत्याशियों को कदाचित ही अस्वीकार किया हो. ऐसा आज भी हो रहा है. सत्ताधारी पार्टियाँ ये दावा करती हैं कि उन्होंने देश-प्रदेश में ज्ञान की गंगा बहाने के लिये अनेकानेक विद्यालय-विश्वविद्यालय खोल डाले. शिक्षा का स्तर कितना बढ़ा या घटा ये कवेश्च्नेबल है. प्राइवेट कम्पनीज़ में अनाप-शनाप तनख्वाह के बावज़ूद सरकारी और स्थायी नौकरियों के प्रति युवाओं का आकर्षण आज भी बना हुआ है. प्राइवेट की देखा-देखी सरकार को भी वेतनमान में निरन्तर इज़ाफा करते रहना पड़ता है.

हिन्दू होने के कारण जातिगत आरक्षण का लाभ जिन हिन्दुओं को मिल रहा है, वही लोग उस हिन्दू धर्म को सुबह-शाम, सोते-जागते बल भर के कोसते रहते हैं. यदि हिन्दू धर्म के मूल में जायें तो यहाँ कर्म की प्रधानता रही है. अगला जन्म इस जन्म के कर्मों का अर्जन है. इसलिये ऊपर वाले ने जिस जगह जहाँ प्लेस किया है, उसके अनुसार कर्म कीजिये, ऊपर वाला हिसाब रखेगा और अगले जन्म में कर्मानुसार प्लेस कर देगा. बहुत ही सीधी, सरल और सच्ची संकल्पना है. मुझे तो नहीं याद की मैंने ईश्वर से इसी धर्म-कुल-जाति में जन्म लेने की अभिलाषा व्यक्त की हो. जिसको जहाँ पैदा होना था, वहीं पैदा हुआ. इसमें किसी और का दोष नहीं है. जन्म में किसी का किसी प्रकार से कोई दोष नहीं हो सकता है. जाति-सम्प्रदाय की बात क्या करनी, अपना लिंग तक कोई चयन नहीं कर सकता. इंसानी फ़ितरत है अन्तर क्रियेट करने की. जाति-सम्प्रदाय न होते तो भी स्त्री-पुरुष का विभेद कर देता. और यहाँ भी अन्याय की गाथाएं लिख मारता. आत्मा में इस तरह का कोई विभाजन नहीं है. पैदा होने से पहले आत्मा की कोई जाति या सम्प्रदाय नहीं होता. हिन्दू को वैसे भी धर्म से ज़्यादा जीवन पद्यति मानना अधिक उचित है. एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में जन्मे सभी लोग हिन्दुस्तानी या हिन्दू हो सकते हैं. इसी कारण सम्प्रदाय बदलने के बाद बावज़ूद पूजा पद्यति भले बदल गयी हो लेकिन जातियाँ नहीं बदल पायीं. आत्मा के हाथ में जाति या सम्प्रदाय चुनने का कोई प्रावधान हो ऐसा किसी वेद वेत्ता या धर्म के ज्ञाता ने कदापि न कहा होगा. 

यदि अनादी काल से ये वर्ण व्यवस्था थी तो फिर बड़े-बड़े पीर-फ़क़ीर, जिनसे भारत माता का इतिहास भरा पड़ा है, वो भी अपनी जाति पर हुये अन्याय का  बखान अपने दोहों-चौपाइयों में कर रहे होते. साहित्य में सदैव समाज परिलक्षित होता रहा है. हिन्दू धर्म, जिसे सनातन कहना अधिक उचित है, में पण्डितों की भूमिका को बहुत ही नकारात्मक तरीक़े से दिखाया जाता है. जबकि पण्डित जी भरण-पोषण के लिये , दान-दक्षिणा पर ही निर्भर रहते थे. यानि समाज में उससे अधिक धनवान और समृद्ध लोग अवश्य रहे होंगे. राजा-महाराजा काल में हो सकता है किसी-किसी पंडित को उनके धर्म-ज्ञान से प्रभावित हो कर राज-पुरोहित की पदवी मिल जाती हो लेकिन सभी पण्डित समृद्ध रहे हों ऐसा नहीं होगा. हाँ ऐसा ज़रूर हुआ होगा कि जब सरकारी नौकरियों का प्रावधान किया गया हो तो उस समय के पढ़े-लिखे लोगों को प्राथमिकता मिल गयी हो. हजारों सालों के समृद्ध भारत के इतिहास में जाति-व्यवस्था की चर्चा कम ही देखने-सुनने-पढ़ने को मिलती है. जबकि समस्त विश्व का इतिहास सक्षम लोगों द्वारा अक्षम लोगों पर अन्याय से भरा हुआ है. सक्षम लोग पद-धन-बल-बुद्धि का उपयोग इस धरा का भोग करने में लगाते रहे हैं. आज भी लगा रहे हैं. लोग कानून और न्याय की दुहाई देते रहते हैं और ताकतवर लोगों के हाथ से अन्याय हो जाने को लोग सहजता से स्वीकार कर लेते हैं. जान है तभी तो जहान है. 'वीर भोग्या वसुन्धरा' के द्वारा कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि दक्षता, निपुणता और शक्ति के माध्यम से समृद्ध लोग ही धरती का भोग करते हैं. ये बात आज भी सब ओर दिखायी देती है. जिनके पास भी कोई दक्षता या निपुणता है, उनके गुण ग्राहकों की संख्या कभी कम नहीं रहती. दक्षता बिना पुरुषार्थ के, न द्वापर युग में संभव थी, न आज. एक ही परिवार में पैदा हुये दो भाइयों में एक अधिक समृद्ध सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये है कि उसने दूसरे से ज़्यादा मिड-नाईट ऑयल जलाया है. माता-पिता के लिये दोनों बच्चे बराबर हैं, शिक्षा-दीक्षा भी बराबर दी है, लेकिन अन्तर सिर्फ़ पुरुषार्थ का है. 

मेरा बस चलता तो मै किसी धन्नासेठ के घर पैदा होता लेकिन कर्म फल के अनुसार जन्म मुझे माध्यम वर्ग के एक परिवार में मिला. लेकिन परिवार ऐसा जिसकी नींव सत्य और इमानदारी पर टिकी थी. मुझे नहीं ज्ञात कि मेरे माता-पिता ने किसी बात के लिये झूठ बोलने के लिये प्रेरित किया हो. इसलिये सच बोलने में मुझे कभी किसी प्रकार की दिक्क़त नहीं हुयी. बदलते परिवेश में कभी-कभी सच बोलने से अच्छा चुप रह जाना लगता है लेकिन उसका असर भी स्वास्थ्य पर रिफ्लेक्ट होता है. एक बात तो बताना मै भूल ही गया, सन पैंसठ में मेरा जन्म इलाहाबाद, जो अब प्रयागराज है, में हुआ था, जिसे हर मामले में एक शहर की संज्ञा दी जा सकती है. बाबा की असमय मृत्यु के कारण पिता जी को अपनी पढ़ाई की फ़ीस ट्यूशन करके निकालनी पड़ती थी. नौकरी लगने के बाद उन्होंने अपने अन्य भाइयों के साथ मेरी माता जी को भी पढने-पढ़ाने और अपने पैरों पर खड़े होने में सहयोग किया. आज  जब कोई मुझसे पूछता है कि कौन से वर्मा हो तो लगता है इसकी शिक्षा व्यर्थ चली गयी.

शहर में रहने के कारण मुझे नहीं ध्यान कि कभी मेरे घर या स्कूल में जात-पात की बात हुयी हो. राजकीय विद्यालय में एक कक्षा में सौ-सवा सौ बच्चों के 6-8 सेक्शन हुआ करते थे. वहाँ भी कभी इन बातों का ज़िक्र होता हो, ऐसा नहीं था. जब बोर्ड का फॉर्म भर रहे थे, तब मुझे पता चला कि सिख, बौद्ध और जैन, हिन्दू से अलग सम्प्रदाय हैं. ऐसा नहीं है कि हिन्दू और मुसलमान का फ़र्क हमें न मालूम रहा हो. दंगे हमेशा नखास कोना से शुरू होते थे और जब तक मिलिट्री नहीं लग जाती थी, शांत नहीं होते थे. हिन्दुओं में इतने वैरायटी के हिन्दू होते हैं, ये तो तब पता चला जब इंजीनियरिंग के एंट्रेंस में बैठने का मौका लगा. साथ में पले-बढे-खेले मित्र अचानक शोषित और पीड़ित हो गये. जिन मित्रों के बैट-बॉल के कारण उन्हें तीन बार आउट करना पड़ता था. जिनसे इन्द्रजाल कॉमिक्स माँग कर हम लोग गर्मी की छुट्टियाँ काटा करते थे. जिन्होंने हाईस्कूल और इन्टर में मेरिट में स्थान बनाया. जिस ऑफिस में मेरे पिता जी क्लर्क और उनके पिता जी गज़टेड ऑफिसर हुआ करते थे, सब वंचितों में शामिल हो गये. तब हमें शायद आरक्षण व्यवस्था का एहसास हुआ लेकिन हम लोगों की मित्रता यथावत कायम रही और कायम है आज भी. जाति हमारे बीच कभी दीवार नहीं बन सकी. शिक्षा का उद्देश्य ही मानवीय प्रवृत्तियों से मुक्ति में निहित है. इतनी सब बातों का लब्बोलाबाब ये है कि शिक्षित और शहरी होने के नाते मुझे जाति व्यवस्था का वो विद्रूप रूप नहीं देखने को मिला जिसके कारण आरक्षण को जस्टिफाई किया जाता रहा है. 

आज यदि जातिगत सामाजिक खाई स्पष्ट रूप से दिखाई देती है तो उसका दोष शिक्षा और रोजगार में आरक्षण को दिया जा सकता है. समाज कभी बराबर नहीं होता, न होगा. समृद्ध और सम्पन्न लोग हमेशा रहेंगे. कोई देश या काल वर्ग विसंगतियों से अछूता नहीं रहा है. अमीर-गरीब, सबल-निर्बल उसी तरह होते हैं जैसे सुख और दुःख. दोनों साथ रहेंगे और एक दूसरे के पूरक बन कर. विपन्न लोगों को भरण-पोषण के लिये उन पर आश्रित रहना होगा. आर्थिक-शारीरिक-सामाजिक रूप से सम्पन्न लोगों ने ही समाज के उत्थान में योगदान किया है. ये लोग सभी जाति-धर्म के थे लेकिन जाति-धर्म से दायरे में कभी नहीं बँधे. बिजनेस हो या नौकरी. टॉप पर जगह कम होती है. जो वहाँ पहुँचा है, वो हमसे अधिक पुरुषार्थी रहा है, ऐसा हमेशा होता आया है. इस जाति व्यवस्था के राजनीतिकरण के पीछे एक अदद नौकरी की इच्छा से ज़्यादा कुछ नहीं है, जो पुश्त-दर-पुश्त बरकरार रहे. विशेष बात ये है कि जो नेता इन मुद्दों को उछालते हैं, उन्हें न तो पढ़ना है न नौकरी करनी. बस बिरादरी में हनक बनी रहनी चाहिये. मुगलों और अंग्रेजों के ज़माने में आरक्षण कभी मुद्दा नहीं बन पाया, शायद तब शाही और सरकारी नौकरियों में गुणवत्ता पर जोर रहा होगा. आज़ादी के बाद का सारा इक्वेशन वोट साधने और सरकार बनाने में लग गया. हिन्दुओं का विभाजन और आरक्षण शायद इसी की पैदाइश है. मौलवी और पादरी हर घर में घुस गये, और हिन्दुओं ने जाति और वर्ण व्यवस्था के नाम पर पण्डितों के साथ-साथ धर्म को भी घर के बाहर कर दिया. इसी का नतीजा है कि हर कोई सनातन धर्म पर अपने विचार रखने को स्वतन्त्र है. इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिये कि वंचितों को बराबर का अधिकार और सम्मान मिलना चाहिये लेकिन समाज में ऐसे पुरुषार्थियों की कमी नहीं है जिन्होंने विपन्नताओं के बावज़ूद इतिहास बनाया है. एक ही समाज में इतना विद्वेष तब देखने को मिल रहा है जब आधे से अधिक जीवन व्यतीत हो चुका है. कितने ही अक्षम, सक्षम बन चुके हैं.  

आज के विज्ञापन में मेरे विचारों को झकझोर दिया. हम आगे जा रहे हैं या आज भी अपने अतीत का सलीब को ढोने के लिये प्रयत्नशील हैं. ये ऐसा मुद्दा है जिस पर डिबेट होनी चाहिये और चलती रहनी चाहिये. यहाँ सहमति और असहमति का प्रश्न नहीं है. जिस तरह सक्षम लोगों ने स्वेच्छा से गैस सब्सिडी छोड़ दी, वैसे ही लोगों को इस विषय पर भी विचार करना चाहिये ताकि उन्हीं के वर्ग के अन्य लोगों को आरक्षण का लाभ मिल सके. जिन जख्मों को वक्त भर रहा था, उसे कुरेद-कुरेद कर हरा रखना आज की राजनैतिक आवश्यकता हो सकती है, लेकिन ये देशहित में भी हो, ज़रूरी नहीं. इसीलिये मै ये कहने को विवश हूँ कि: जब मै (जातिगत व्यवस्था) जीता हूँ तो कहते हैं कि मरता ही नहीं, जब मै मरता हूँ तो कहते हैं कि जीना होगा. 

-वाणभट्ट 

रविवार, 18 जुलाई 2021

 बदला 


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. ऐसा कोई और तो कहने से रहा, क्योंकि किसी और प्राणी ने भाषा का इस कदर विकास नहीं किया कि प्यार और तिरस्कार को शब्दों में व्यक्त कर पाये. उस पर ऊपर वाले ने वॉयेस मोड्युलेशन और फेस एस्प्रेशन की एडिशनल सुविधा दे रखी है. शब्दों के चयन से उसी बात को आप खट्टे और मीठे दोनों तरह से कह सकते हैं. लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि यदि दूसरे प्राणी भी इंसान की तरह बोल पाते, तो इतना तो ज़रूर कहते कि मनुष्य एक असामाजिक प्राणी है. प्रकृति की हर व्यवस्था प्रकृति को सिंचित और पोषित कर रही है. लेकिन ऊपर वाले की सर्वोत्कृष्ट रचना, मनुष्य, सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लाभ में लगा है. चूँकि अधिकांशतः प्राणी शायद ज़्यादा दूर की नहीं सोच पाते, इसलिये उन्हें भूख और प्यास से ज़्यादा सोचने की जरूरत नहीं पडती. न उनके पास इतना दिमाग कि चेस खेलें या खामख्वाह का लोड झेलें. इसी कारण अन्य प्राणियों में उन सभी मानवोचित गुणों का सर्वथा अभाव है, जिनके कारण मानव ने अपना और अपने समाज का सत्यानाश कर रखा है. मानवोचित गुण हैं - काम-क्रोध-लोभ-मोह-इर्ष्या-द्वेष. सात्विक टाइप के लोग इन्हें अवगुण की संज्ञा दे सकते हैं. लेकिन शास्त्रों के अनुसार जिन बातों को गुण माना गया है, उन्हें विकसित करना पड़ता है, चाहे संस्कार के माध्यम से, चाहे नियम-कानून से. यदि मनुष्य का बस चले तो उसे हर बंधन से आज़ादी चाहिये. हर व्यक्ति सत्ता के प्रति इसीलिये आकर्षित होता है कि उसे दूसरों की अपेक्षा नियम तोड़ने की ज़्यादा छूट मिल जाये. सेवा के उद्देश्य से जो सत्ता में आता है, वो लीडर बन जाता है. लेकिन देश की शक्की जनता  को दाल में काला खोज निकालने की वंशानुगत बीमारी है. 

मनुष्य को सामाजिक तो तब माना जाये जब कोई संस्कार न सिखाया गया हो. न कोई नियम-कानून की पोथी हो. और वो मिल-जुल के रह रहा हो. लेकिन मानवता में ऐसे उदाहरण खोज पाना असंभव सा है. एक समाज में भी कुछ व्यक्ति समाज को अपने हिसाब से हाँकने के प्रयासों में लगे रहते हैं. यदि एक समाज किसी के नेतृत्व को स्वीकार कर भी ले, तो वो समाज दूसरे समाज पर विजय पाने को आतुर हो जाता है. तुर्रा ये है कि तमाम इंसानी खून बहाने वाली कौमें भी ख़ुद को सामाजिक बताने से गुरेज नहीं करतीं. सामाजिकता क्या होती है, ये छोटे-छोटे जीवों जैसे चीटियों-मधुमक्खियों-दीमकों में सहजता से दिख जाता है. सब एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और मिल-जुल कर काम करते हैं. लेकिन इंसान में इस फ़ितरत को खोजना पड़ता है. नैसर्गिक रूप से मनुष्य असामाजिकता से ओत-प्रोत है. इतने नियम-कानून बनाने के बाद, उनका अनुपालन कराने के लिये कितने ही सरकारी विभाग बनाने पड़े हैं. वहाँ भी हर जगह समाज का ही  प्रतिबिम्ब दिखायी देता है. सब राजा बने घूम रहे हैं, तो काम उतना ही होगा जितने में नौकरी चलती रहे. व्यक्तिगत हित और स्वार्थ जब हावी हो जाते हैं, सारा विभाग अपनी-अपनी स्वार्थ सिद्धि में लग जाता है. और लगे भी क्यों न. यदि निस्वार्थ सेवा करेगा तो यही जालिम ज़माना, उसको मिसफिट बता देगा. बच्चा है, आदर्शवादी बना फिरता है. पता नहीं दुनियादारी कब सीखेगा.

सरकार की बात तो तब की जाये जब परिवार-पास-पडोस-यार-दोस्त का हाल कुछ अलग हो. सामाजिक बनने के चक्कर में सबको लगता है कि निभा तो बस वो ही रहा है, बाक़ी तो सब उसका फ़ायदा उठा रहे हैं. दरअसल जैसे दुनिया में दो वर्ग हैं गरीब और अमीर, वैसे ही इंसानों में भी दो कैटेगरी है - दिल वाले और दिमाग वाले. दिमाग वालों को अपने दिमाग पर गुरुर है तो दिल वाले ज़िन्दगी को अपने अंदाज़ में ही जिये जा रहे हैं. अपने-अपने फ़ायदे के चक्कर में समाज की ऐसी की तैसी हुयी पड़ी है. किसी को कुछ भौतिक लाभ हो तो समझ भी आता है. लेकिन रहीम दास जी के अनुसार संसार में बहुत वेरायटी के लोग भरे पड़े हैं. सिर्फ़ दूसरों पर अपना रुतबा कायम रहे, इस कारण भी कई लोग सुपीरियोरिटी काम्प्लेक्स से पीड़ित हैं. एक जमाना था जब आय कम हुआ करती थी, तो सबको सबकी जरूरत पड़ ही जाती थी. जब से आदमी को उसकी आवाश्यकता और औकात से ज़्यादा तनख्वाह मिलने लगी है, वो बस दूसरों को देखने-दिखाने में लगा हुआ है. कारें बदल रहा है. प्रॉपर्टी बना रहा है. घोड़े तो इतने हैं नहीं कि रेस खेलें, तो शेयर में भी सट्टा लगा रहा है. सेंसेक्स का उफ़ान किसी भी तरह से जीडीपी में ग्रोथ से मिलान नहीं कर रहा है. लेकिन जुआ खेलने का मज़ा ही तब है जब मनी सरप्लस हो. मुजफ्फ़र अली की तर्ज़ पर कि 'जीत गये तो क्या कहना, हारे भी बाज़ी मात नहीं'. 

एमआईजी और एलआईजी मकानों में भी अब महाराजा गेट लगता है ताकि बोलेरो खड़ी की जा सके, तो देश की आर्थिक उन्नति का सहज पता लग जाता है. स्थिति ये है कि - मै भी रानी तू भी रानी कौन भरेगा पानी. समाज की बात वही लोग कर रहे हैं, जिन्हें समाज से कुछ निकालना है. बाक़ी अपनी पे-पैकेज और बैंक बैलेंस देख-देख के झूम रहे हैं. सामाजिकता बस पीने-पिलाने तक सीमित रह गयी है. यदि आप को ऐसे कोई शौक नहीं हैं, जिसे दुनिया व्यसन कहती है, तो आपसे ज़्यादा असामाजिक कोई नहीं है. बिना पिये-पिलाये समाज और रिश्तेदारी निभाने का सारा बोझ आजकल विदेशी कन्धों पर है. कभी-कभी तो लगता है कि यदि ये फ़ेसबुक-वाट्सएप्प-ट्विटर न होता तो शायद हमारे अन्दर जो बची-खुची सामाजिकता है, वो कब की दम तोड़ चुकी होती. एक ज़माना था, जब पडोसी के घर फोन आता था, अब सब डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डॉट कॉम की तरह दस अंकों का मोबाइल लिये घूम रहे हैं. हर व्यक्ति हर समय उपलब्ध है. कभी-कभी तो ऐसी स्थितियां बन जातीं हैं कि उठाना नहीं चाहते लेकिन उठाना पड़ता है क्योकि अगले ने आपको वाट्सएप्प पर ऑन लाइन देख रखा है. उसे ये तो पता नहीं कि आप मोबाइल लेकर किस अवस्था में कहाँ बैठे हैं. गूँजती आवाज़ सुन कर वो गेस कर ले तो बात अलग है. 

हमारी जेनरेशन वाले वो दिन नहीं भूले होंगे जब इमेल शुरू हुआ था. दिन में दस मेल इधर-उधर आते-जाते थे. क्या खाया, क्या पहना. फिर मोबाइल आया. इनकमिंग के भी पैसे थे, तो जनाब मिस्ड कॉल की भाषा बना ली गयी थी. शनै-शनै कॉल्स फ्री हो गयीं लेकिन बात करने के लिये बातें ही खत्म हो गयीं. अब रिश्तेदारों से ये पूछने का रिवाज़ नहीं बचा कि खाने में क्या बना है और कल कौन सी पिक्चर देखी. फ़ेसबुक पर कढ़ी की फोटो लगी होगी या स्टेटस पर वाचिंग बागी-3 पड़ा होगा. मुस्कुराती हुयी ऐसी फ़ोटोज़ जैसे दुनिया के रंज-ओ-ग़म से इनका सबाका नहीं पड़ा. होटल और टूरिस्ट स्पॉट के बेफिक्रे अंदाज़ अब बताने की बात नहीं, दिखाने की चीज़ें बन गये हैं. और वैसे भी किस-किस को बतायें कि हम देशाटन के लिये निकले हैं. जो उमस और गर्मी में पड़े हैं, थोडा उन्हें और सुलगा दो. यहीं पर एहसास हुआ कि सामाजिकता की आड़ में मनुष्य घनघोर असामाजिक प्राणी है. दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता साबित करने और उन्हें नीचा दिखाने की होड़ सी लगी हुयी है. 

पहले ज़माना था कि यार-दोस्त-नाते-रिश्तेदार गाहे-बगाहे मिल ही जाते थे. तो अपनी नाराज़गी-गिले-शिकवे आमने-सामने निपटाते थे. प्रेम यदि गहरा हो तो नौबत जूतम-पैजार तक आ जाती थी. एक-दूसरे की माँ-बहनों को इज्ज़त से याद कर लिया जाता था. ख़ासियत ये कि हर व्यक्ति अपनी जगह सही है और दूसरा जैसे, हाल ही में दिवंगत हुये युसूफ़ खान की फ़िल्म 'राम और श्याम' का विलेन 'प्राण' है. मौका मिला है तो खरी-खरी सुना दो. कुछ लोगों का तो मानना है कि जहाँ प्यार होगा वहीं तो तकरार होगी. प्रेम प्रदर्शन का एक स्टैण्डर्ड विधान है कि रुठिये-मनाइये. चूँकि हर जगह तो प्रेम हो नहीं सकता इसलिये कुछ गुंजाईश अगले को ठोंक-पीट कर सही करने की भी बन जाती है. जैसे-जैसे सभ्य बनने और दिखने का प्रचलन बढ़ा है, लोग मनोभावों को दिल में दफ़न करने का प्रयास करते हैं. शायद यही वजह है कि भारत में दिल के मरीज़ अन्य देशों की तुलना में अधिक पाये जाते हैं. 

अस्सी के दशक में एक फ़िल्म आयी थी 'आधारशिला'. नसीरुद्दीन शाह और अनीता कंवर अभिनीत उस फ़िल्म में बदला लेने का एक अजीब-ओ-ग़रीब तरीका फिल्माया गया था. विलेन का रोल उस समय के आकाशवाणी के हिंदी न्यूज़ रीडर देवकी नंदन पाण्डेय जी द्वारा निभाया गया था. वो आर्ट मूवीज़ का दौर था. विलेन एक इस्टेब्लिशड फ़िल्म डायरेक्टर है. नसीर उसके पास अपनी एक स्टोरी लेकर जाते हैं. नसीर फ़िल्म इन्सटीटयूट से नये-नये निकले हैं. वो नसीर को बहुत चक्कर कटवाता है. हर बार वो नसीर से पूछता है - पानी तो पियोगे. नसीर हर बार पानी पीता है. विलेन तो विलेन, वो नसीर की स्टोरी चुरा लेता है. आखिरी बार जब नसीर जाता है तो फिर वो पानी ऑफ़र करता है. कोई आम फ़िल्म होती तो हीरो विलेन को हुर देता लेकिन आर्ट फ़िल्म थी. नसीर ने देवकी साहब की आँखों में आँखें डाल कर ऐसे घूरा जैसे कच्चा चबा जायेगा. और पानी के लिये - 'नहीं' बोल कर चल देता है. उसके बाद क्या हुआ ये जानने के लिये आपको फ़िल्म देखनी चाहिये. बदला लेने का ये सभ्य तरीका लोगों को बहुत अच्छा लगा. 

लेकिन तब मिलना-जुलना हो जाया करता था. अब जमाना फेसबुक-वाट्सएप्प का है. मिलने की रही सही गुंजाईश चीनी वायरस के कारण और भी कम हो गयी. अब आमना-सामना तो होने से रहा पर अपनी असामाजिकता से आदमी बाज तो आने से रहा. वो यहाँ भी दूसरे पर सुपीरिओरिटी स्थापित करने, नाराज़गी ज़ाहिर करने और बदला लेने के तरीक़े ईज़ाद कर रहा है. सामाजिक है इसलिये फेसबुक और वाट्सएप्प पर दखल ज़रूर रखता है. इस तरह के अन्य एप्लीकेशनस भी इसी उम्मीद से डेवेलप किये जा रहे हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है. लेकिन ऐसा है नहीं. दिन में दो बार वो किसी न किसी से न लडे, तो बहुत सम्भावना है कि रेड लाईट पर ट्रैफिक पुलिस से ज़रूर लड़ जायेगा. आगे वाली गाड़ी का होंकिंग करके चलना मुश्किल कर देगा. किसी सायकिल वाले को घूरेगा. सोशल मीडिया भड़ास निकलने के लिये उचित स्थान नहीं है क्योंकि यहाँ आपको अपने शिक्षित और सभ्य बने रहने का दिखावा करते रहना पड़ता है. जमाना कितनी भी तरक्की कर ले, नाज़-नख़रे वही पुराने रहेंगे. अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने का एक नया ट्रेन्ड विकसित हुआ है. आप कहीं घूम कर आये और फ़ेसबुक पर दुनिया के सबसे सुखी इंसान के रूप में आपने फोटो चेप दी. और इंतज़ार शुरू कर दिया कि सारे इष्ट-मित्र इसे देखें, कुछ लाइक और कमेन्ट भेजें. लेकिन आदमी तो पैदायशी असामाजिक है, उसे आपकी ख़ुशी से क्या सरोकार. 

शर्मा जी करोना लॉकडाउन के बाद मनाली निकल लिये. गलती से मिस्टेक ये हो गयी कि अपने परम मित्र वर्मा जी को बताना भूल गये. आनन-फानन में बच्चों ने प्रोग्राम बना लिया. वर्मा जी कानपुर की गर्मी से त्रस्त हुये बैठे थे, जब शर्मा जी ने खनकती आवाज़ में मनाली से फोन किया. यार वर्मा, तुम वहाँ कानपुर में क्या कर रहे हो. यहाँ आ जाओ मनाली एकदम जन्नत बना हुआ है. वर्मा जी अब क्या बोलते. यही बात शर्मा ने जाने से पहले कही होती, तो वो भी साथ लग लेता. गुस्सा तो बहुत आया लेकिन सभ्यता का तकाज़ा था, कुछ कह नहीं सका. शुभ यात्रा टाइप का सन्देश वाट्सएप्प पर भेज दिया. उधर शर्मा मनाली की वादियों में खोया हुआ था या कुछ नेटवर्क का इशू. मैसेज का जवाब देना भूल गया. वर्मा का गुस्सा दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था. ये बहुत गलत बात की है शर्मा एक तो बिना बताये निकल गया और ऊपर से मेरी विशेज़ का जवाब भी नहीं दे रहा. चार दिन के बाद शर्मा ने लद्दाख़ से पास से अपनी कई बर्फ़ीली फोटोज़ फेसबुक पर चेप दीं.   

सोशल मीडिया के बीमारों का हाल क्या कहें. फ़ेसबुक और वाट्सएप्प का स्टेट्स देखे बिना ऐसे बेचैनी होने लगती है जैसे 'जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली'. कुछ मरीज़ों का हाल तो ऐसा है कि हाथ के कम्पवात को रोकने के लिये डॉक्टर दिन में तीन बार या एसओएस पर्चे पर लिख के देते हैं. बड़ी मानसिक बीमारी से बचने के लिये, ये बिना दवाई का इलाज है. ज़्यादा बिगड़े केसेज़ में, सोशल मिडिया की लत छुडाने के लिये तीन महीने का विपश्यना कोर्स भी रिकमेन्ड करना पड़ रहा है. शर्मा की ठंडी ठंडी पिक्चर्स देख कर, जुलाई की उमस भरी गर्मी में झुलस रहे वर्मा का तो रोम-रोम जल उठा. उसने हर फोटो को एन्लार्ज करके देखा. बर्फ़ की ठंडी तासीर को अपनी रूह में लेने की भरपूर कोशिश की. लेकिन सोलह डिग्री पर एसी चलाने के बाद भी पहाड़ की उन्मुक्त हवा के ख्याल ने आग में घी का काम किया. मन ही मन उसने शर्मा से बदला लेने की ठान ली. 

और वो उन फ़ोटोज़ को बिना लाइक और कमेन्ट किये अगली पोस्ट्स की ओर बढ़ गया. 

दीवानों की नगरी में कुछ यार भी बसते हैं,
रखते हैं ताल्लुक भी, आवाज़ भी कसते हैं - दिनेश ठाकुर 

- वाणभट्ट 

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...