एक पे एक : फ्री
पूरा का पूरा अख़बार अटा पड़ा था सेल के विज्ञापनों से। नवरात्रि क्या शुरू हुयी लोगों के लिये लुभावने प्रोडक्ट्स के साथ अमेज़न और फ्लिपकार्ट जैसी ऑनलाइन कम्पनियाँ जुट गयीं हैं। एक से एक लार टपकाऊ ऑफर्स ले कर। दाम इतने कम कि खरीदने का मन न भी हो तो लोग दो-चार चीज़ें खरीद ही डालें। लोगों की तमन्नायें उफान मारने लगती हैं इतने सस्ते दाम देख कर। लगता है जैसे श्राद्ध के समय में अपनी इच्छाओं को जबरदस्ती कंट्रोल किये हुये थे। अब मौका लगा है तो पूरा बाज़ार घर में घुसा पड़ रहा है। मार्किट का हाल भी ऑनलाइन मार्किट से अलग नहीं है। त्योहारों की धूम हर तरफ दिखाई दे रही है। देवी का दरबार सजाने, व्रतों को उत्सव में तब्दील करने की होड़ शुरू हो गयी है। हर कोई सस्ते और अच्छे माल को अविश्वसनीय मूल्य पर बेचने को आमादा है। मानों ग्राहक के भले के लिये सब के सब घाटा उठाने तो तत्पर हैं। ऐसा कभी हुआ है, जो अब होगा। जो लोग मन्दी का सियापा पीटते नहीं अघा रहे थे, उनके लिये दुःखख़बरी है कि बाज़ार से मन्दी दिवाली तक के लिये गायब होने वाली है। लोग घरों का रंग-रोगन करायेंगे, सोने-चाँदी-जवाहरात खरीदेंगे और पटाखों में आग लगाने के पिछले सब रिकॉर्ड ध्वस्त कर देंगे। जिन्हें ये सिद्ध करने की अदम्य लालसा है कि वाकई मन्दी छायी है वो पर्यावरण प्रदुषण का सहारा लेकर बंद कमरों में एक रुपये बोर्ड वाला जुआ खेल कर अपने ग़म को कम कर सकते हैं।
जब पण्डित दीना नाथ शर्मा के यहाँ तीसरी लड़की हुयी तो उन्हें तृप्ति का एहसास होने लगा। पहली में लगा था कि प्रीति का फल है तो नाम रखा प्रीति। बेटे के प्रयास में जब दूसरी लड़की ने जन्म लिया तो उन्होंने उसे अपना बेटा मान लिया। सोचा अब ये ये ही मेरा यश और कीर्ति बढ़ायेगी, सो उसके नाम में भी कोई दिक्कत नहीं हुई। नाम रखा गया कीर्ति। लेकिन लड़के की ख़्वाहिश का क्या किया जाये, इस चक्कर में तृप्ति भी आ गयीं। चौथे और पाँचवें के लिये पंडिताइन ने विद्रोह कर दिया वर्ना पण्डित जी कहाँ मानने वाले थे। हिन्दुस्तानी माँ-बाप की सोच कितनी संकुचित होती है कि उन्हें एक बेटा सिर्फ इसलिए चाहये जो बुढ़ापे की लाठी बन जाये। जब चार-छः का ज़माना था तब बात और थी एक-आध बच्चा अपने निखट्टूपन के कारण माँ-बाप के पास रह जाया करता था। और माँ-बाप उसमें बिना उसकी मर्ज़ी के श्रवण कुमार देखना शुरू कर देते थे। बाकी भाई-बहन दूर से श्रवण कुमार को राय दिया करते कि माँ-बाप की देखभाल कैसे करनी है। अमूमन ये निखट्टू घर का छोटा बेटा हुआ करता था। मशहूर शायर जनाब मुनव्वर राणा तो यहाँ तक कह गये -
किसी के हिस्से में मकां आया किसी के हिस्से दुकां आयी
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में माँ आयी
बहरहाल जब शर्मा जी के घर तीसरी बेटी का पदार्पण हो गया, तो पहले उनसे ज़्यादा चिन्ता उनके पडोसी-नाते-रिश्तेदारों को हुयी। तीन-तीन लड़कियों को कैसे निपटायेंगे। वो ज़माना और था, तब लोग प्रेम प्रदर्शन पीठ पीछे और ताने मुँह पर दिया करते थे। लोगों के उन्नत विचार सुन-सुन के शर्मा जी डिप्रेशन की हद तक दुःखी हो गये। यही प्लानिंग करने में लगे रहते कि कैसे तीन-तीन लड़कियों की परवरिश करेंगे। इससे भी ज़्यादा चिन्ता उन्हें उनके शादी-विवाह की होती। सोच-सोच के हर तरफ़ अँधेरा-अँधेरा दिखायी देता। लेकिन बिटिया की छट्ठी आते-आते में शर्माइन में गज़ब की हिम्मत आ गयी थी। षष्ठी पूजन उन्होने पूरे विधी-विधान के साथ किया। उन्होंने पण्डित जी से साफ-साफ कह दिया बेटी का जन्म भी पूरे धूम-धाम के साथ मनायेंगे। बेटी हो या बेटा माँ लिये दोनों बराबर हैं। उठो और सब इष्ट मित्र और रिश्तेदारों को बारहवें दिन पर होने वाले बेटी के नामकरण संस्कार के लिये आमंत्रित करके आओ। दमयन्ती का ऐसा स्वरुप पण्डित दीना नाथ को पहले कभी देखने को नहीं मिला था। फोन-मोबाइल का समय तो था नहीं। थोड़ा बहुत ना-नुकुर करके पण्डित सबको आमंत्रित करने निकल गये। ये बात अलग है कि जहाँ भी गये लोग उनसे अपनी सम्वेदनायें व्यक्त करने से नहीं चूके। पंडिताइन ने अपनी बेटी के नामकरण संस्कार उसी हर्षोल्लास से मनाया जैसे पहली दो बेटियों का मनाया था।
हिन्दुस्तान में बेटियाँ होने के कुछ फायदे भी हैं। यदि आपके पास एक अदद नौकरी है और उसमें ऊपरी आय की कुछ भी गुंजाइश है तो आपको खुलकर भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस मिल जाता है। यहाँ अपनी आय से तो किसी का पेट भरता नहीं। मुंशी प्रेमचन्द के समय से लोग बहते झरने की तलाश में लगे रहते। माल-गोदाम में नौकरी करते हुये पण्डित दीना नाथ के पास इसकी पूरी सहूलियत थी। तीसरी बेटी के बाद वो कुछ विरक्त से हो गये थे। घर-परिवार में मन न लगता। उनका बस चलता तो वो दिन-रात गोदाम में ही पड़े रहते। माल जमा और निकासी पर उगाही फिक्स थी। ईमानदारी इतनी कि पाई-पाई का हिसाब होता, जो हिसाब से ऊपर से नीचे तक बँटता। अपनी इस ईमानदारी की धाक पण्डित जी ने ऊपर तक जमा रखी थी। दमयन्ती अपनी बेटियों में व्यस्त हो गयी। उसका उद्देश्य था उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाना, जो उसे नहीं मिल पायी थी, और बेटियों को अपने पैरों पर खड़ा करना। बेटियों ने भी उसे निराश नहीं किया।
शर्मा जी जितने सीनियर होते जा रहे थे, घर में मुनाफ़ा बढ़ता जा रहा था। बेटियों की परवरिश में पैसा कभी आड़े आया हो ऐसी स्थिति कभी नहीं आयी। कालांतर में तीनों बेटियाँ अपने-अपने पैरों पर खड़ी हो गयीं। शर्मा जी को सुयोग्य वर की तलाश में ज़्यादा घूमना भी नहीं पड़ा। लड़कियां स्वयं सम्पन्न और समृद्ध थीं इसलिये दहेज की जिस चिन्ता में शर्मा जी आकण्ठ भ्रष्टाचार में लिप्त रहे, वो धरा का धरा रह गया। विधि का विधान है समय के साथ शर्मा जी रिटायर हो गये। अब घर पर रहना मज़बूरी बन गया था। दिन-रात गोदाम के काम में व्यस्त रहने के कारण इष्ट-मित्र भी छिटक चुके थे। लेकिन वो नाते-रिश्तेदार ही क्या जो वक़्त-बेवक़्त आपको आपकी बेबसी याद दिलाने से बाज आ जायें। कभी-कभार अपना स्नेह दिखाने आ जाते। "कोई बेटा होता तो बुढ़ापे में ख्याल रखता।" " मैंने तो एक बेटे को इसीलिये दुकान खुलवा दी कि साथ रहेगा और बुढ़ापे में सेवा करेगा।" "आप लोगों का बुढ़ापा कैसे कटेगा कोई देखने वाला भी तो नहीं है।" लोगों ने इतनी सहानुभूति जताई कि शर्मा जी एक बार फिर से डीप डिप्रेशन में चले गये। उन्हें लगता कि काश मेरे भी एक बेटा होता जो बुढ़ापे की लाठी बनता। अभी तो हाथ पैर चल रहे हैं। कहीं कुछ हो गया तो कौन हमारी देखभाल करेगा। शर्माइन बहुत समझाती कि आप हिम्मत मत हारिये। लेकिन उनकी हिम्मत जवाब दे जाती। डिप्रेशन बढ़ता ही जा रहा था। तब दमयन्ती ने बड़ी बेटी प्रीति से अपनी परेशानी का ज़िक्र किया।
वो अगले ही दिन अपने पति साथ घर आ गयी। मै आप लोगों को ऐसे कैसे छोड़ सकती हूँ। सामान बांधिये और चलिये मेरे साथ। बेटी के ससुराल में जा के रहना उन्हें किसी भी प्रकार अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन दामाद जी भी पीछे पड़ गये। अब ज़माना बदल गया है आप लोग भी कितनी पुरानी बातें कर रहे हैं। बेटे और दामाद में अब कोई अन्तर नहीं है। उनके बहुत समझाने पर पंडित और पण्डिताइन, प्रीति के घर चले गये। नाती-नातिनों के साथ रह कर न सिर्फ़ डिप्रेशन दूर हुआ बल्कि सही अर्थों में उनके दिन बहुर गये। जैसे उनके दिन बहुरे वैसे उनके दिन भी बहुर पायेंगे जिनको अपने बेटों पर कभी नाज़ हुआ करता था, थोड़ा डाउटफुल है। तीनों बेटियों ने ये निर्णय लिया कि साल के तीन-तीन महीने सब पापा-मम्मी को अपने-अपने पास रखेंगे चौथे क़्वार्टर में यदि उनकी इच्छा हो तो इलाहाबाद के अपने मकान की साफ़-सफ़ाई करवा आया करें। बेटियों के समूह के आगे किस दामाद की हिम्मत कि चूँ कर सके। आज शर्मा जी से सुखी शायद ही कोई हो। साल भर नये-नये स्थान का ससम्मान भ्रमण।और क्या चाहिये था इस बढ़ती उम्र में।
लगभग साल भर पूरा करके शर्मा जी घर लौटे हैं। पास-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार, जिनको ताने न मार पाने के कारण अपच सी हो रही थी, मिलने पहुँच गये। सब उम्र के उसी दौर में थे। सबके पास बेटे-बहु होने का संतोष तो था लेकिन उतनी ख़ुशी नहीं थी जितनी पण्डित जी के चेहरे से छलकी पड़ रही थी। पंडित-पंडिताइन का प्रफुल्लित चेहरा देख कर वे लोग थोड़ा सदमे में आ गये। उन्होंने इस ख़ुशहाली का राज़ जानना चाहा तो पण्डित जी ने भी अपनी ख़ुशी छिपाने का प्रयास नहीं किया। किसी मजे हुये सेल्समैन की तरह बत्तीसी निकालते हुये बोले "भैया देखो, एक बहु के साथ एक बेटा हाथ से गया समझो, लेकिन एक बेटी के साथ एक दामाद फ्री। इसलिये बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ।"
-वाणभट्ट