गुरुवार, 29 मई 2014

पुरवा बयार

पुरवा बयार

शर्मा जी की उम्र पचास के अल्ले-पल्ले रही होगी। मोहल्ले के इको पार्क वॉकर्स क्लब के संस्थापक सदस्य। बहुत ही नियमित।  बहुत ही जिंदादिल। मँहगे हेयर डाई से बालों को रंग के अपनी उम्र के आधे ही जान पड़ते। मुझे मिला कर कुल जमा दस लोगों को अपनी प्रेरणा से जोड़ रक्खा था। ट्रैक पर टहलने के बाद सभी मिल के योग (योगा) करते फिर लाफ्टर सेशन शुरू होता। पूरा एक घंटे का पैकेज है। पार्क में आना उतना ही अनिवार्य है जितना दफ्तर जाना। अटेंडेंस रजिस्टर तो नहीं था पर न आना बहुत मंहगा पड़ता। एक दिन भी कोई चूक गया तो तय है कि पेनल्टी के रूप में उसके घर सब चाय पीने जायेंगे। और कोई शरीफ आदमी सिर्फ चाय तो पिलाएगा नहीं कुछ खिलायेगा भी। ये दो तरफ़ा टैक्टिस बहुत कारगर रही। पार्क नहीं आये तो दोस्त हाल लेने घर पहुँच जायेंगे। और जिस बीवी को सुबह-सुबह बिस्तर से उठ कर चाय बनानी पड़ेगी, वो अगले दिन खुद अलार्म लगा के उठेगी और आपको ठीक समय पर घर के बाहर कर देगी। इस तरह हमारा क्लब कई वर्षों से फल-फूल रहा है। शर्मा जी शारीरिक रूप से बिलकुल स्वस्थ थे और मानसिक रूप से और भी ज्यादा। देखने में पचीस के लगते पर दिल बीस का ही था। लाफ्टर सेशन के लिए अलग से तैयारी करके आते थे। अपने क्रैकिंग जोक्स से सबका जीना मुहाल कर देते। हमेशा हंसने-हंसाने को तत्पर रहते।

जाड़ा-गर्मी-बरसात शर्मा जी को हमने कभी पार्क में नदारद नहीं पाया। लिहाजा हमें उनके घर कभी चाय पीने का सौभाग्य नहीं मिला। नमक मिर्च के साथ बताने वाले बताते हैं कि शर्मा जी ने लव मैरिज की थी। और उनकी पत्नी, यानि हमारी भाभी जी, अपने दिनों में अनिन्द्य सुंदरी हुआ करतीं थीं। अफसर से शादी के बाद नियमित खान-पान से इंशा-अल्ला उनका स्वास्थ्य आवश्यकता से अधिक भरा-पूरा हो गया था। उम्र का असर शर्मा जी की ही तरह उन पर भी हावी नहीं हुआ था। आदमी वही जवान है जो उम्र को मानसिक रूप से दरकिनार कर दे। लिहाजा उन्हें हर आने-जाने वाले पर शक़ रहता कि उसके इरादे गलत हैं। और शर्मा जी के टहलने वाले दोस्तों पर तो उन्हें कतई विश्वास नहीं था। टहलने वाले सर्किल का तो स्टेटस भी नहीं पता। अफसर है, क्लर्क है या चपरासी। शर्मा जी की नियमितता का शायद ये भी एक कारण रहा हो। शर्मा जी तन-मन दोनों से जवान थे, जबकि उनकी पत्नी मन से पूर्णतः युवा। उनसे मिलने की सभी की इच्छा मन ही मन बनी रहती पर शर्मा भूले से भी किसी को अपने घर आने का न्योता न देता। 

चाय की पेनल्टी से बचने का एक मात्र तरीका था - मास बंक। किस किस के घर जा पाएंगे शर्मा जी। ये भी हो सकता है कि हमारे बीच का कोई जासूस शर्मा जी को मास बंक की खबर कर देता हो और वो भी छुट्टी मार लेते हों। कुछ लोगों ने सन्डे ऑफ़ का सिस्टम बना रक्खा था। उन्हें सन्डे एग्जम्प्टेड था। पर आज सन्डे नहीं था। न ही कोई मास बंक का फरमान था। मै यथा समय ठीक साढ़े पांच बजे उद्यान में था। पार्क में मेरे अलावा सिर्फ शर्मा जी ही पहुँच पाये थे। बाकी सबने गच्चा दे दिया। पहले से बता दिया होता तो मै भी फरलो मार लेता। ये भाईसाहब अमूमन सबसे जल्दी आ जाया करते थे। इस समय टहलने के बाद प्राणायाम में लगे हुए थे। मेरे पार्क में एंट्री लेते ही उन्होंने धीमे स्वर में हरि-ओम की आवाज़ लगाई। उनकी आवाज़ से गर्मजोशी गायब थी।

मुझे शक हुआ कि हो न हो कुछ गड़बड़ है। लगता है शर्मा जी की तबियत ठीक नहीं है। मुझे लगा उन्हें आत्मीयता की ज़रूरत है। पार्क में कोई अन्य मित्र दिख भी नहीं रहा था। सो टहलने का कार्यक्रम स्थगित करके मैंने पूरी गर्मजोशी से पूछा - शर्मा क्या बात है, बड़े बुझे-बुझे से लग रहे हो। वो एक ठंडी आह भर के चुप लगा गये। थोड़ा और कुरेदा तो बोले कुछ नहीं यार जब पुरवा हवा चलती है तो पूरे बदन में हल्का-हल्का दर्द रहता है। पुरानी चोटें फिर से हरी हो जातीं हैं। एक सिसकारी के साथ वो फिर चुप हो गए। उनका ध्यान आज प्राणायाम में नहीं लग रहा था। मुझे लगा राख में कहीं अंगार छिपा है। बोला - पुरवा तो सबके लिये है। हाँ थोड़ा आलस्य ज़रूर लगता है शायद इसीलिए आज अनुपस्थिति ज़्यादा है। पर घर के अंदर एसी में सोने वालों पर भला पुरवा क्या असर करेगी। आपको कौन सी चोट लग गयी शर्मा जी। शर्मा जी मेरे अतिक्रमण पर थोड़ा बुरा सा मान गये। लेकिन बड़ी शराफत से बोले वर्मा जी आज चलता हूँ, कल मिलूंगा। और वो बिना हँसे-हँसाये, मेरे अंदर जिज्ञासा का तूफ़ान खड़ा करके पार्क से निकल लिये। जिसका शीघ्र निवारण होना ज़रूरी था। लिखने वाले को तो बस लिखने का मसाला चाहिये। कोई सुख में हो या दुःख में लेखक अगर अपने स्वार्थ से उबर जाए तो कितनी ही कहानियां अनकही रह जाएँ।  

शर्मा जी के एक पुराने मित्र जो हमारे वॉकर क्लब के सदस्य भी थे वही मेरी शंका का समाधान कर सकते थे। रास्ता थोड़ा लम्बा था पर आज टहलना भी तो नहीं हुआ था। मिश्रा जी ने सोचा आज वर्मा जी अकेले ही पेनल्टी वसूल करने कैसे आ गये। जब हम ड्राइंग रूम में चाय का इंतज़ार कर रहे थे, मैं अपनी जिज्ञासा पर ज़्यादा संयम न रख सका। तुरंत मुद्दे पर आ गया। यार शर्मा आज बड़ा सेंटी सा लग रहा था कह रहा था पुरवा हवा चलती है तो बदन टूटता है। मिश्रा थोड़ा संजीदा हो गया फिर बोला यार मै शर्मा को बचपन से जानता हूँ। शुरू से ही बहुत ही हृष्ट-पुष्ट सुन्दर और स्मार्ट बंदा है। कालेज के दौरान इसे इश्क का रोग लग गया। जिस लड़की से लगा वो इससे भी ज्यादा सुन्दर थी लेकिन इसे घास भी नहीं डालती थी। उसकी अपनी सीमाएं थीं जात-बिरादरी की। भाईसाहब उसकी राह में मारे-मारे फिरा करते। जाति और सम्प्रदाय के हिसाब से तो दोनों में जो अंतर था वो शायद पट भी जाता पर स्टेटस का फ़र्क पाटने के लिये लड़की वाले राजी नहीं थे। लिहाज़ा एक दिन इनको बुरी तरह पीट-पाट के रेलवे ट्रैक पर डाल आये। किस्मत अच्छी थी जो किसी की नज़र पड़ गयी और ये बच गये। कालान्तर में शर्मा जी एलआईसी में अफसर बने और उसी लड़की ने घर से भाग कर इनसे शादी की। घर-समाज सबने लड़की का बहिष्कार कर दिया। शर्मा जी ने भी अपने-पराये सबसे जम के मोर्चा लिया। इसीलिए शर्मा के घर बाहरी लोगों का आना-जाना कम है और घर वाला तो न कोई इनका है न उनका। लोग इनके बारे में न जाने क्या-क्या कयास लगाया करते हैं। पर इन दोनों की दुनिया अलग है जिसमें ये मग्न रहते हैं। वॉकर्स ग्रुप और ऑफिस यही शर्मा का बाह्य दुनिया से संपर्क है। मेरा तो घर का आना जाना है। कभी तुम्हें शर्मा के यहाँ चाय पिलवाता हूँ। इसकी बीवी बहुत ही ज़हीन  है। दोनों में गज़ब का सामंजस्य है। इन्होने शादी तो की लेकिन आज तक ये लोग अपने-अपने धर्म पर कायम हैं। 

हमारी चाय आ गयी थी। पुरवा हवा की जो तफ्तीश मुझे मिश्रा के यहाँ तक खींच लायी थी। वो पूरी हुयी। भिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे के धर्म का आदर करें, यही धर्म है। मेरा अपना मानना है धर्म के अलावा जो कुछ भी है वो अधर्म है। मजहब-पूजा पद्यति कितनी भी अलग हो लेकिन धर्म तो धर्म ही रहेगा। सर्वधर्म-समभाव सिर्फ नारे की चीज़ नहीं है। शर्मा दम्पति इसका एक जीवंत उदाहरण हैं। उनके प्रति आदर का उदगार है मेरा ये लेख। प्रभु हमारे देश वासियों को ऐसी ही सन्मति प्रदान करे। 

बाहर पुरवा अपने उफान पर थी। मेरे लिए ये ताज़ी बयार का झोंका था।      

- वाणभट्ट 

15 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (30.05.2014) को "समय का महत्व " (चर्चा अंक-1628)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. दो धर्म के लोग जब पारिवारिक जीवन शुरू करते हैं तो सामजिक, पारिवारिक और निजी तौर पर कई तरह से सामंजस्य करने की ज़रुरत तो होती है.समाज में ऐसे बहुत कम ही लोग होते हैं जो इन्हें सहृदयता दिखाते है. आपका आह्वान अच्छा है.

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  3. behtareen rachna ..............
    yha bhi padhare...
    http://anandkriti007.blogspot.com

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  4. शर्माजी का पुरवा से उदास होने का रहस्य पता लग गया। पर दोस्तों से कन्नी काटना...........आजकल कौन ये सब मानता है।

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    1. जब से तनख्वाहें मोटी हुयी हैं कार और टी वी बड़े हो गए हैं...और दिल छोटे...महानगरों का कल्चर छोटे शहरों तक आ गया है...
      बकौल बशीर बद्र -
      कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
      ये नए मिज़ाज का शहर है जरा फैसले से मिला करो...

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  5. बयार ताजी हे होगी सरजी लेकिन ये बयार अमूमन एक तरफ़ा ही चलती है, हो सकता है इस लगने में मेरा कम्यूनल होना भी एक मायना रखता हो।

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  6. ऐसी शुरुआत हो सके तो ये एक अच्छी बात है ... पर अक्सर ऐसा होता नहीं है ... जितने ज्यादा युद्ध धर्म के नाम पर हुए हैं उतने किसी और बात के लिए नहीं आज तक ...

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  7. सार्थक पोस्ट...एक धर्म है तो मानवता का , उसे ही मान लें तो काफी है ....आपके विचारों से पूर्ण सहमति

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  8. ऐसी शुरुआत अगर होती है तो अच्छा ही है

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  9. इन्सानियत से बढ - कर कोई धर्म नहीं होता । सुन्दर - रचना ।

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  10. बहुत ही सुंदर रचना।धर्म में कर्म का महत्व व्यक्तित्व के चहुमुखी विकास और सामंजस्य के लिए आवश्यक है।प्रसून जी,ऐसे ही लिखते रहिये

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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