सहअस्तित्व
जीवन है
किसी भी तरह की
मुक्ति के विरुद्ध
इस काल्पनिक लालसा ने
कर दिया चिंतन
अवरुद्ध
हर कोई चाहता है मुक्ति
बंधन से मुक्ति
उत्तरदायित्वों से मुक्ति
पर क्या सम्भव है जीवन
बिन
बन्धन
सहअस्तित्व है आधार जीवन का
सामंजस्य है विपरीत ध्रुवों का
द्वैत
ही तो है
सर्वत्र व्याप्त
तप्त सूर्य और शीतल धरा
चुम्बक का उत्तरी-दक्षिणी सिरा
धनावेश-ऋणावेश
सकारात्मक-नकारात्मक
परमाणु का इलेक्ट्रॉन-प्रोटॉन
सभी पदार्थ में है अणुओं का बंधन
अलग है फ्री रेडिकल्स की कथा
अल्पायु है,
चिपक लिया यदि कोई खाली मिला
सन्यासी ने जाते हुये
न देखा मुड़ के
सन्यास भी मिलता है
किसी अज्ञात से जुड़ के
अद्वैत है
तो द्वैत भी है
दो है तभी अलग हैं
तभी जुड़ेंगे
अद्वैत बनेगा
अकेले को सदैव खोज रहेगी
जो केवल मिल के ही पूरी होगी
विपरीत में है नैसर्गिक सामंजस्य
एक-दूसरे के पूरक
सबकी प्रकृति है पृथक
फिर क्यूँ भटकते हैं मुक्ति के लिए
जो बँट रही है अनायास
और
मिल जाती है बिन प्रयास
दृष्टि न कर सकेगी श्रवण
स्वाद-सुगंध के लिए हैं भिन्न अंग
सहअस्तित्व के लिये नहीं आवश्यक युद्ध-वृत्ति
गढ़ रक्खी है प्रकृति ने,
सहज प्रवृत्ति
सामाजिक विषमताओं
और
अधिकार के लिये
तो युद्ध होना चाहिये
पर श्रेष्ठता को मापना
अब बंद होना चाहिये
मुक्ति में नहीं है जीवन
किन्तु
बंधन से ही मुक्ति है सम्भव
दूसरे के बिना पूरक,
आधा और एकाकी है,
है ना!!!
- वाणभट्ट
जीवन है
किसी भी तरह की
मुक्ति के विरुद्ध
इस काल्पनिक लालसा ने
कर दिया चिंतन
अवरुद्ध
हर कोई चाहता है मुक्ति
बंधन से मुक्ति
उत्तरदायित्वों से मुक्ति
पर क्या सम्भव है जीवन
बिन
बन्धन
सहअस्तित्व है आधार जीवन का
सामंजस्य है विपरीत ध्रुवों का
द्वैत
ही तो है
सर्वत्र व्याप्त
तप्त सूर्य और शीतल धरा
चुम्बक का उत्तरी-दक्षिणी सिरा
धनावेश-ऋणावेश
सकारात्मक-नकारात्मक
परमाणु का इलेक्ट्रॉन-प्रोटॉन
सभी पदार्थ में है अणुओं का बंधन
अलग है फ्री रेडिकल्स की कथा
अल्पायु है,
चिपक लिया यदि कोई खाली मिला
सन्यासी ने जाते हुये
न देखा मुड़ के
सन्यास भी मिलता है
किसी अज्ञात से जुड़ के
अद्वैत है
तो द्वैत भी है
दो है तभी अलग हैं
तभी जुड़ेंगे
अद्वैत बनेगा
अकेले को सदैव खोज रहेगी
जो केवल मिल के ही पूरी होगी
विपरीत में है नैसर्गिक सामंजस्य
एक-दूसरे के पूरक
सबकी प्रकृति है पृथक
फिर क्यूँ भटकते हैं मुक्ति के लिए
जो बँट रही है अनायास
और
मिल जाती है बिन प्रयास
दृष्टि न कर सकेगी श्रवण
स्वाद-सुगंध के लिए हैं भिन्न अंग
सहअस्तित्व के लिये नहीं आवश्यक युद्ध-वृत्ति
गढ़ रक्खी है प्रकृति ने,
सहज प्रवृत्ति
सामाजिक विषमताओं
और
अधिकार के लिये
तो युद्ध होना चाहिये
पर श्रेष्ठता को मापना
अब बंद होना चाहिये
मुक्ति में नहीं है जीवन
किन्तु
बंधन से ही मुक्ति है सम्भव
दूसरे के बिना पूरक,
आधा और एकाकी है,
है ना!!!
- वाणभट्ट
हर दिन लगता है कि कुछ और खोजना है।
जवाब देंहटाएंसुंदर !
जवाब देंहटाएंसहअस्तित्व के लिये नहीं आवश्यक युद्ध-वृति ...बिलकुल सच लिखा है. सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक और गहन अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंमुक्ति तो सूर्य पृथ्वी को भी नहीं ... इश्वर को भी नहीं ... मनुष्य को भी नहीं ...
जवाब देंहटाएंफिर इसकी बात भी तो बंधन है ...
इसीलिये सहअस्तित्व की बात हो रही है...बन्धन की...मुक्ति की नहीं...
हटाएंकितना सुंदर सन्देश है .... शांतिपूर्ण सहअस्तित्व ही आधार हो सकता है ....
जवाब देंहटाएंप्रतिदिन है एक नया सवेरा ।
जवाब देंहटाएंरात ले गई तमस अन्धेरा ॥
इस सत्य को जानने के बाद भी किस अहंकार की घोषणा में सब लगे रहते हैं ?
जवाब देंहटाएंसत्य वचन...विषमतायें मानव निर्मित हैं...इन्हें तो दूर होना ही चाहिये...सारी लड़ाई अहम् की है...हर कोई लगा है अपने अहम् के पोषण में...
हटाएंबंधनों में जीवन है ....और मुक्ति में कुछ नहीं !!
जवाब देंहटाएंये बात गुरुदेव आपने काफ़ी पहले कह दी थी...मेरी ट्यूब अभी जली है...
हटाएंgahan v arthpoorn abhivyakti .aabhar
जवाब देंहटाएंमुक्ति और बंधन पर मंथन तो सनातन काल से है... ये चलता रहेगा...
जवाब देंहटाएंपोस्ट यकीनन बेहद उम्दा है...
मुक्ति में नहीं है जीवन किन्तु
जवाब देंहटाएंबंधन से ही मुक्ति है सम्भव...!
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बिलकुल सच लिखा है. सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंपर क्या सम्भव है जीवन
जवाब देंहटाएंबिन
बन्धन
बिलकुल सच लिखा है. सुन्दर रचना.