मंगलवार, 1 जनवरी 2013

बरह्मन की दुआ

बरह्मन की दुआ 

इक बरह्मन कब से कह रहा है 
कि ये साल अच्छा है

हर साल की तरह
चलो मान लो 
इस साल भी सही
जब इतने सालों से मानते आये हो

सकारात्मक दृष्टिकोण रखना है ज़रूरी
इसलिए भी
और
बीती बातों का मर्सिया कब तक पढ़ा जाए  
इसलिए भी

इसलिए भी कि जीने की वज़ह तो है तलाशनी ही
इतिहास को दफ़न करके ही
उसके ऊपर होगी ईमारत खड़ी
सुनहरे भारत के भविष्य की

भावनाओं से देश नहीं चलता
इसलिए ज़रूरी है आवाम की आवाज़ की कुचलना
हमने जिन्हें चलना सिखाया
कैसे सौंप दें उन्हें सत्ता
अभी अपरिपक्व है नादान है
उन्हें सियासत का क्या पता

सियासत राज करने के लिए है
या सेवा करने के लिए
यहाँ सियासत सिर्फ सियासत के लिए है
इसलिए भी ज़रूरी है नए विचार
नयी सोच
नए ज़ज्बे को क़त्ल कर देना

एक अन्ना
एक केजरीवाल
एक दामिनी
जिन्हें हम जानते हैं
देश को हिला के रख दें
ये भी मानते हैं
पर इतने सालों में हमने ये सिस्टम बनाया है
जिसमें भ्रष्ट से भ्रष्टतम के सर पर
संरक्षण का साया है  

चंद लोगों पर कैसे छोड़ दें देश को
हमें लगे 400 साल अंग्रजों से छुड़ाने में देश को
अभी हमारे तो 60 साल ही हुए हैं
इस संग्राम में अभी सिर्फ कुछ ही सेनानी हुए हैं
अब तो दमन की ताक़त भी है अपने हाथ में
किसे किससे बचाओगे
कब तक खुद बच पाओगे 

इतिहास सबक तो वो सीखें जिन्हें सुधरना है
हमें तो एक नया इतिहास लिखना है
अग्रेजों से लड़ना आसान था
अब देश को हमसे लड़ना है

बड़ी मुश्किल से तो हमने आत्मा को मारा है
बड़ी मुश्किलों से अपने जमीर को धिक्कारा है
अब उसे मत जगाओ
अपनी नज़रों में हम हैं नहीं गिरने को तैयार
भले ही करने पड़ें कितने भी अत्याचार

सिस्टम को बनाया है,
सिस्टम ने, सिस्टम के द्वारा, सिस्टम के लिए,
इसलिए इस सिस्टम के वास्ते
देश के वास्ते
देश की जनता के वास्ते
इसे मत छेड़ो
जैसे अब तक चलता था वैसे ही चलने दो

इतने साल आये और चले गए
पिछले दो साल साठ सालों पर भारी रहे 
ये कैसा चमत्कार है 
आन्दोलनकारियों का अज़ब वार है
लाखों की भीड़ बिन नेता के 
अपना हक मांगने को तैयार है 

अब भी वक्त है देश एक नए मुकाम को बढ़ रहा है 
देश की ईमारत की नीव के नीचे दफना दो 
अपनी आत्मा को, ज़मीर को 
पर मत रोको इस तरक्की की रफ़्तार को 
जनता अराजक हो उठी है 
सब समाधान सडकों पर ढुंढती है
भला ऐसे कोई व्यवस्था चलती है

पर मुझे इस साल बरह्मन की वाणी सच लगती है 
ये गुजरे कुछ साल बस इसका आगाज़ था
जनता के लिए जनता के द्वारा ही 
सारा नियम कानून निश्चित होगा 
जनता की आवाज़ ही तोड़ेगी तुम्हारी तन्द्रा
देश के नवजवानों की है अब टूटी निद्रा

यही संकेत है कि बरह्मन का कहा सच होगा 
देश के बारे में जो सोच सकें ये देश उनका होगा 
हर नस्ल अपनी पिछली नस्ल से उन्नत रही है
बुजुर्गों को इस बात की बेचैनी क्यों हो रही है

सौंप के देखो इस देश को ज़ज्बों को, जोश को
आन्दोलन दशकों और शताब्दियों में नहीं, वर्षों में होते हैं
नयी उम्र की नयी फसल ने देश को झकझोरा है 
परिवर्तन की बयार ने सबको जोड़ा है 

अब तो हट जाओ कि जनता आती है 
कम से कम 2013 में जो सवेरा हुआ है 
सिर्फ दिल के खुश रखने को नहीं 
किसी सकारात्मक बदलाव के लिए हुआ है

- वाणभट्ट  

6 टिप्‍पणियां:

  1. अंग्रेजों से छुड़ाना आसन था देश को,पर खुद से इसे कैसे बचाएं !!! विकृति ही विकृति है :(
    ब्रह्मन की बात या कहें दुआ - सच हो

    जवाब देंहटाएं
  2. अब तो हट जाओ कि जनता आती है
    कम से कम 2013 में जो सवेरा हुआ है
    सिर्फ दिल के खुश रखने को नहीं
    किसी सकारात्मक बदलाव के लिए हुआ है ...

    आमीन ... काश की ये सवेरा बदलाव ले के आए ...
    आपको २०१३ की मंगल कामनाएं ...

    जवाब देंहटाएं
  3. समीक्षात्मक एवं आशावादी कविता...मन को छूने वाली....

    जवाब देंहटाएं

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