गुरुवार, 7 मार्च 2013

जेनेटिक मैनिपुलेशन

जेनेटिक मैनिपुलेशन 

साथियों पिछले कुछ साल मुझे ऐसे लोगों के साथ रहने का सौभाग्य मिला जो भगवान तो नहीं पर लगभग भगवान ही हैं। जिन्होंने पूरी दुनिया की खाद्य चीजों की नस्ल सुधारने का ठेका ले रक्खा है। सामान्य भाषा में आप इन्हें ब्रीडर कह सकते हैं। ब्रीडिंग यानि कि एक ऐसा विज्ञान जो भगवान की बनायीं इस धरती पर अपना योगदान देकर उपलब्ध वनस्पतियों/पशु/पक्षियों को संवर्धित कर रहा है। ताकि कोई भूखा न मरे, और मरे तो खा-खा के। (बतर्ज़ : धर्मेन्द्र की किसी फिल्म में विलेन बोलता है मै तुम्हें ऐसी जगह मारूंगा जहाँ पानी भी न मिलेगा। इस पर अपने धरम पा जी की रिप्लाई थी "और मै तुम्हें पानी पिला-पिला के मारूंगा)। इसीलिए इस कौम को लगभग भगवान मानना ज़रूरी भी है और मज़बूरी भी है। क्योंकि भूखे भजन न हो हिं गोपाला।

भगवान तो आवश्यकता अनुसार फल, फूल, पेड़, पौधे, पशु, पक्षी और उनकी जितनी आवश्यक थीं, प्रजातियाँ बना कर, संतुष्ट हो गए। पर ये कौम भगवान की इस बायोडाइवर्सिटी से भरी दुनिया में रोज नयी डाईवर्सिटी पैदा कर रही है। नयी-नयी किस्में दिए जा रही है या देने को तत्पर है। हमारे पुरखों ने तो उपलब्ध समस्त वनस्पतियों-प्राणियों में से उपयोग कारक चीजों को ग्रहण कर ही लिया था। अपने पुरखों ने ये बताया की चिरौंजी कहाँ मिलती है या पुदीने में क्या गुण होते हैं। कडुआ खीरा भले खा लो पर कड़वी ककड़ी और लौकी कतई नहीं। लवण भास्कर चूर्ण में क्या-क्या इनग्रेडीएन्ट पड़ते हैं। मेथी के गुण के क्या होते हैं उन्होंने खोज निकला था। दाल, चावल, गेहूँ, पपीता खरबूजा, तरबूजा, कटहल, कुंदरू क्या-क्या क्या खाया जा सकता है, मेरे विचार से ये जान पाना ही अपने आप में एक बड़ा विज्ञान रहा होगा. इसके लिए हम अपने पूर्वजों के ऋणी रहेंगे।

पर इन भाइयों ने जब से धरा को अवतरण लिया है, इन्होने पुरखों के द्वारा आइडेंटीफाइड सभी चीजों को और भी अधिक संवर्धित करने का बीड़ा उठा रक्खा है। तुर्रा ये कि जनसंख्या बेतहाशा बढ़ रही है, उसे खिलाने के लिए भोजन तभी आएगा जब अधिक उत्पादन वाली प्रजातियों का विकास होगा। सो भाई लोग क्या बछड़ा, क्या मुर्गी, क्या पालक, क्या मूली सबकी नस्ल सुधारे जा रहे हैं। रोज रोज नयी नयी प्रजातियों की बाढ़ आ गयी है. कुम्भ के मेले में देसी गाय के बछड़े के दान का प्रयोजन किया जाता है. पर अब की इस वर्ण-संकर व्यवस्था में गोपालकों की चांदी हो गयी। देसी बछड़ा ४० से ५० हज़ार रुपये में बिका है और एक ही बछड़ा कई बार बिका. इतने वर्षों में कोई नयी खाद्य फसल, फल/फूल या सब्जी तो नहीं खोजी गयी, पर अपने पुरखों के द्वारा खोजी गयी चीजों की नस्ल को सुधार ज़रूर दिया। जिनकी नहीं सुधार पाए भविष्य में उन सभी की नस्ल सुधारने का दावा भी किया जा रहा है. अधिक लवण और अधिक भास्कर वाली प्रजातियों का चयन संभवत: आसन प्रक्रिया होती बनिस्पत ऐसी प्रजाति विकसित करने की जिसमें लवण और भास्कर की मात्र बढा दी जाये। अब इन्हें कौन समझाए। और हम रोकने वाले होते भी कौन हैं।   

ऐसी प्रजातियों का विकास हो चुका है या किया जा रहा है जो सूखे में भी जी सकें और मौसम की मार को हंसते हंसते झेल जायें। बढ़ती हुई आबादी का हौव्वा बनाया गया है. भाई उत्पादन नहीं बढेगा तो सब के सब भूखे मर जायेंगे। इस लिए अधिक उत्पादन वाली प्रजातियों का विकास ज़रूरी है। इन पर न तो बिमारियों का असर होगा न ही कीट-पतंगों का। हर आदमी के हिस्से में समुचित मात्र में खाना होगा तभी सभी स्वस्थ और खुशहाल रहेंगे। बकौल किसी शायर "भूख के मारे कोई बच्चा नहीं रोएगा, चैन की नींद हर इक शख्स यहाँ सोयेगा"। लेकिन आखिर में शायर पेसीमिस्ट हो गया और कहता है "दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है". क्योंकि जब मै अपने इर्द-गिर्द फटी पड़ रही तोंदों और खाना पचाने के लिए दौड़ते लोगों को देखता हूँ। भारी फ़ीस दे कर डाक्टरों के यहाँ लगी अंतहीन लाइनों को देखता हूं। बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमते डायनासोर सरीखे लोगों के देखता हूँ। तो महसूस करता हूँ, खाने की कमी नहीं है। हाँ दूसरे का हिस्सा भी खा जाने की होड़ साफ़ दिखाई देती है। प्रकृति ने आवश्यकता के हिसाब से सब दिया है पर लालच के हिसाब से नहीं। ऐसा मै नहीं कहता हमारे महापुरुषों ने कहा है और कईयों ने इसे दोहराया है। ये बात समझनी ज़रूरी है।

अभी आप तोंद पर टैक्स रख दीजिये देखिये, खाने की उपलब्धता बढ़ती है या नहीं। मेरे एक जापान रिटर्न मित्र ने बताया की वहां बॉडी मास इंडेक्स के हिसाब से बीमा का प्रीमियम रक्खा जाता है। यदि वो गड़बड़ाया तो आपको जेब ढीली करनी पड़ सकती है। वहां बिना इंश्योरेंस के डॉक्टर की फ़ीस भी देना शायद मुमकिन नहीं है और डॉक्टर के पर्चे के बिना दवाई तो खैर मिलने से रही। यहाँ एक भाई साहब इसी चक्कर में गुजर गए कि वो सूखी रोटी नहीं खा सकते थे और ओपन हार्ट सर्जरी मात्र पचास हज़ार में हो जाती है। दूसरी सर्ज़री में किस्मत उनके साथ नहीं थी।   

ये मेरा सौभाग्य रहा है की मुझे धरती के भगवानों के बीच रहने और उनके पावन विचार जानने-सुनने-समझने का अवसर मिला। एक भाई का विचार था कि जेनेटिक मैनिपुलेशन से ऐसी प्रजाति विकसित की जा सकती है जो हेलिकोवर्पा का दांत तोड़ने में कामयाब होगी। एक ने फ़रमाया कि मै ऐसी प्रजाति विकसित करूँगा जो धरती के बढ़ते तापमान से बेअसर रहे। एक ने कहा की मेरी प्रजाति कम पानी में भी अच्छी पैदावार देगी। यहाँ ख़ास बात ये है कि हर कोई अलग-अलग प्रजाति के सुधार में लगा है। एक ही वैरायटी में ये सारी कोशिशें नहीं की जा रही हैं। एक भाई ने तो छोटी पादप संरचना के पौधे को ऊँचा करने का बीड़ा सिर्फ इसलिए उठा लिया है कि कम्बाइन हार्वेस्टर गेंहूँ की फसल के हिसाब से बनाये गए हैं। मुझ नाचीज़ के मुंह से ये निकल गया कि भाई पौधे को ऊँचा करना आसन है या कम्बाइन को नीचा करना। भाई ने मुझे ऐसा घूरा जैसे कच्चा चबा जायेंगे। खैर मुझे ही अपनी नज़रें चुरानी पड़ गयीं। संभवत: हम हर समस्या का इलाज़ जेनेटिक इम्प्रूवमेंट में खोज रहे हैं। यदि ऐसा ही संभव है तो मेरे विचार से शुरुआत तो आदमी से होनी चाहिए क्योंकि अधिकांश समस्या की जड़ तो खुद इंसान ही है। कुछ साइंस फिक्शनस और फेंटेसीज़ में ऐसा जिक्र ज़रूर हुआ है। क्या अच्छा होता जो हम ईमानदार-देशभक्त-सत्यनिष्ठ लोगों को भी ब्रीड कर पाते।  

इस धरती पर अवतरित हुए मुझे भी लगभग पचास वर्ष हो चुके है। और मै अब तक के तजुर्बे से ये मानता हूँ कि जिंदगी नयी नयी चुनौतियाँ लाती है और कभी भी दो समय पर दो चुनौतियाँ एक सी नहीं होती। हर चुनौती पिछले से बड़ी और भयावह महसूस होती है। पर सही प्रबंधन ज्ञान से हमारे पुरखों ने उन्हें सुलझाया है। अभी भी अगर हजारों प्रजातियाँ इस धरती पर है, तो ये सिद्ध होता है की कोई भी नस्ल एक्सटिंकट होना नहीं चाहती और कहीं न कहीं वो संरक्षित और फल-फूल रही है। इन्हीं को एक्सप्लोर किया जाना है और किया भी जा रहा है। जिस प्रकार हर फूल की अपनी अलग रंग-रूप-सुगंध है वैसे ही हर प्रजाति की अपनी विशेषता होती है। इसका आदर किया जाना चाहिए। इंसान के रंग-नस्ल भेद को लेकर तो लोग जागरूक हो रहे हैं पर फसलों, पेंड़, पौधों, पशुओं में ये वर्ग बनाया जा रहा है। एक ही क्षेत्र के लिए २५ लोगों की २५ प्रजातियाँ हैं और हर किसी में कुछ न कुछ ख़ास है पर सिर्फ एक में सब कुछ नहीं है। शायद हो भी नहीं सकता।             

भारत में नदियों का एक व्यापक संजाल है जिसका दोहन अभी भी सम्पूर्ण रूप से नहीं हो पाया है। जितनी उर्जा, समय और धन हम प्रजातियों के विकास पर कर रहे हैं उसका कुछ अंश भी अगर जल के समुचित उपयोग पर किया जाए तो हम अधिक से अधिक असिंचित क्षेत्र को सिंचित क्षेत्र में परिवर्तित कर सकते हैं। सूखे और जलवायु परिवर्तन के विपरीत असर को निष्प्रभावी करने के लिए नदीय जल का उचित प्रबंधन हमारी खाद्य सुरक्षा पर धनात्मक दूरगामी परिणाम देगा। विभिन्न चुनौतियों/परिस्थितियों के लिए उचित प्रजातियों का चयन और उनके प्रबंधन से उत्पादन, उत्पादकता और गुणवत्ता को आसनी से सुधारा जा सकता है. सिर्फ उत्पादन बढ़ाने से ही काम ख़त्म नहीं हो जाता। आवश्यकता होती है कटाई के उपरांत फसल की समुचित भण्डारण और प्रसंस्करण की। बिना जिसके खेत से उत्पादित खाद्य सामग्री भोजन के रूप में  थाली तक नहीं पहुँच सकती। आवश्यकता है तो सही सोच और समग्र दृष्टि की।

- वाणभट्ट  

6 टिप्‍पणियां:

  1. इतने वैचारिक ढंग हमारे कुछ किया नहीं जाता ....संसाधन कुछ लगा हैं और योजनायें कुछ और .....

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  2. लेख अच्छा लगा। सत्य कहने का साहस सराहनीय है। डाइवर्सिटी जान है भारत की सान है । अज्ञानता व मूर्खता से दुर्दसा हो रही है जो करने वालो को ह़ी मुस्किल पैदा करेगी। मानव डाइवर्सिटी का विचार अच्छा है । प्रोसेसिंग का जमाना है पर ब्रीडर दीवाना है फिर कहाँ निकलोगे । प्रयास निकलने का अच्छा है और प्रस्तुत विचार को मूर्त रूप लेने में दसको लगेंगे ।

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  3. आवश्यकता है तो सही सोच और समग्र दृष्टि की।
    सच कहा आपने

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  4. कई बार लगता है भगवान से सभी प्रजातियों में सिर्फ इंसान को दिमाग दे के गडबड कर दी ... सभी अब भगवान बनना चाहते हैं ... अपने ही लिए बस काम करना चाहते हैं ... ऊपर वाले पे भरोसा खत्म ... आने वाले भविष्य की कल्पना कर के सोचो तो लगता है पता नहीं क्या होगा ...

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  5. सहज और सरल वाले काम करें तो इन्हें विद्वान कौन मानेगा भाईजी?

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  6. होली की हार्दिक शुभकामनायें!

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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