बुद्ध-भाव
वो मुड़ा। उसके चेहरे पर बुद्ध-भाव था।
जामनगर स्टेशन पर मै दिल्ली जाने वाली ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था। यू पी के स्टेशनों के विपरीत गुजरात के प्लेटफ़ॉर्म पर भीड़ कम हुआ करती है। दुकानें सजी हुईं पर उनपर भीड़ नदारद। वेण्डर ज्यादा लोग कम। पुरसुकून की स्थिति में मै ट्रेन के टाइम पर स्टेशन आ चुका था। पर भारतीय रेल की अपनी सार्वभौमिक विशेषताएं हैं, जो देश-काल से प्रभावित नहीं होतीं। ट्रेन दो घंटे लेट थी। किताबें मेरी यात्रा का सहज हिस्सा हैं और ऐसी ही परिस्थितियों के लिए इनका साथ होना ज़रूरी भी है।
एक खाली पड़ी बेंच पर मै अधलेटा सा बैठ गया। बैग का सहारा लेकर। असगर वजाहत की एक किताब मेरे हाथों में थी। मुझे लेखन में जब तक लेखक का अक्स नज़र ना आये, पढ़ने का मज़ा नहीं आता। और ये जनाब पूरे दिल और शिद्दत से लिखते हैं। शैली भी रोचक और कथ्य भी। "मै हिन्दू हूँ" की कहानियों में मै खोया हुआ था कि बगल में एक किशोर ने अपना बैग रखते हुए कहा "अंकल कहाँ जाना है आपको।" अमूमन तो मै यात्रा में बोलता नहीं। पर बच्चे के चेहरे पर एक आकर्षण था। "बेटा मै दिल्ली जा रहा हूँ वहां से कानपुर जाना है।"
उस लड़के ने मुड़ कर गुजराती में अपने माँ-बापू को बताया ये अंकल भी कानपुर जा रहे हैं। पूरा परिवार मेरे पास आ गया। उसकी एक छोटी बहन भी थी जो 10वीं में पढ़ रही थी। पिता ने बहुत ही गर्व से बताया मेरा लड़का देश के सर्वोच्च तकनीकी संस्थान आई आई टी, कानपुर में दाखिला लेने जा रहा है। आप भी क्या कानपुर के रहने वाले हैं। कैसा शहर है, कैसे लोग हैं। आदि-आदि प्रश्न। मेरा लड़का तो अभी बहुत छोटा है। पहली ही बार में सेलेक्ट हो गया। घर से इतनी दूर पहली बार जा रहा है। बड़ी चिंता हो रही है।
मैंने अपने कनपुरिया ज्ञान को कायम रखते हुए आई आई टी की शान में कसीदे पढ़ दिए। अरे एकदम अंतर्राष्ट्रीय संस्थान है। आपको बिल्कुल चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। वहां बच्चे पढाई में रमे रहते हैं। सिर्फ ज्ञान की चाह वाले ही वहां पहुँच पाते हैं। आपका बेटा तो लाखों में एक है तभी वहां पहुँच पाया।
पिता, माँ व बहन सभी अपनी-अपनी जिज्ञासा को शांत कर लेना चाहते थे। परन्तु बच्चे को कोई कौतुहल नहीं था। वो मुस्कराता हुआ सब बातें सुन रहा था। माँ-बहन अपनी संवेदनाओं को छिपा कर शांत बने रहने का भरसक प्रयास कर थीं। पिता ऊपर से सहज बने हुए थे। मुझे पढाई के लिए पहली बार घर छोड़ते हुए जो एहसास हुआ था। देश के इस कोने से इतर नहीं था। माँ-पिता-बहन का वो चेहरा भुलाने में दशकों गुज़र गए। पर अभी भी वो दृश्य जेहन में ताज़ा है। आज वो दृश्य पुनर्जीवित हो गया।
दो-ढाई घंटे कब बीत गए पता ही नहीं चला। तभी ट्रेन आने की घोषणा हुई। असुविधा के लिये औपचारिक खेद भी व्यक्त हुआ। माँ की आँखे डबडबा आयीं। बेटी, माँ की ओर देख कर उसके दर्द को समझने का प्रयास कर रही थी। पिता ट्रेन आने की दिशा में शून्य सा ताक रहा था। बेटा अन्यमनस्क सा ट्रेन जाने वाली दिशा में निहार रहा था।
ट्रेन ने प्लेटफोर्म के बायें सिरे से प्रवेश किया।
माँ की सब्र का बाँध टूट चूका था। उसकी आँखों से आंसू झर-झर बहने लगे। बहन की आँखें नम हो आयीं थीं। उसने मुंह को रुमाल से दबा लिया पर उसकी सिसकी बरबस बाहर निकल ही गयी। पिता मिनरल वाटर की बोतल लेने के बहाने दृश्य से बाहर हो गए थे।
हमारा कोच अलग था। ट्रेन के रुकते ही हम फिर अजनबी हो गए थे। मै अपने कोच की ओर बढ़ चला था।
ट्रेन चलने में देर लग रही थी। मै प्लेटफ़ॉर्म पर उतर आया चहल-कदमी के इरादे से या पुनः उस परिवार को देखने, कह नहीं सकता।
माँ-बेटी एक-दूसरे को गले लगाये जार-जार रो रहीं थीं। पिता उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा था कि कौन सा बेटा परदेश जा रहा है। बेटा भावहीन सा गेट पर खड़ा था। पिता ने उसे अन्दर जाने का इशारा किया। अन्दर जाते-जाते वो मुड़ा। उसके चेहरे पर बुद्ध-भाव था।
ज्ञान की तलाश में घर तो छोड़ना ही पड़ता है। बुद्ध वापस आने के लिए घर नहीं छोड़ते।पिता को मालूम है।
- वाणभट्ट
वो मुड़ा। उसके चेहरे पर बुद्ध-भाव था।
जामनगर स्टेशन पर मै दिल्ली जाने वाली ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था। यू पी के स्टेशनों के विपरीत गुजरात के प्लेटफ़ॉर्म पर भीड़ कम हुआ करती है। दुकानें सजी हुईं पर उनपर भीड़ नदारद। वेण्डर ज्यादा लोग कम। पुरसुकून की स्थिति में मै ट्रेन के टाइम पर स्टेशन आ चुका था। पर भारतीय रेल की अपनी सार्वभौमिक विशेषताएं हैं, जो देश-काल से प्रभावित नहीं होतीं। ट्रेन दो घंटे लेट थी। किताबें मेरी यात्रा का सहज हिस्सा हैं और ऐसी ही परिस्थितियों के लिए इनका साथ होना ज़रूरी भी है।
एक खाली पड़ी बेंच पर मै अधलेटा सा बैठ गया। बैग का सहारा लेकर। असगर वजाहत की एक किताब मेरे हाथों में थी। मुझे लेखन में जब तक लेखक का अक्स नज़र ना आये, पढ़ने का मज़ा नहीं आता। और ये जनाब पूरे दिल और शिद्दत से लिखते हैं। शैली भी रोचक और कथ्य भी। "मै हिन्दू हूँ" की कहानियों में मै खोया हुआ था कि बगल में एक किशोर ने अपना बैग रखते हुए कहा "अंकल कहाँ जाना है आपको।" अमूमन तो मै यात्रा में बोलता नहीं। पर बच्चे के चेहरे पर एक आकर्षण था। "बेटा मै दिल्ली जा रहा हूँ वहां से कानपुर जाना है।"
उस लड़के ने मुड़ कर गुजराती में अपने माँ-बापू को बताया ये अंकल भी कानपुर जा रहे हैं। पूरा परिवार मेरे पास आ गया। उसकी एक छोटी बहन भी थी जो 10वीं में पढ़ रही थी। पिता ने बहुत ही गर्व से बताया मेरा लड़का देश के सर्वोच्च तकनीकी संस्थान आई आई टी, कानपुर में दाखिला लेने जा रहा है। आप भी क्या कानपुर के रहने वाले हैं। कैसा शहर है, कैसे लोग हैं। आदि-आदि प्रश्न। मेरा लड़का तो अभी बहुत छोटा है। पहली ही बार में सेलेक्ट हो गया। घर से इतनी दूर पहली बार जा रहा है। बड़ी चिंता हो रही है।
मैंने अपने कनपुरिया ज्ञान को कायम रखते हुए आई आई टी की शान में कसीदे पढ़ दिए। अरे एकदम अंतर्राष्ट्रीय संस्थान है। आपको बिल्कुल चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। वहां बच्चे पढाई में रमे रहते हैं। सिर्फ ज्ञान की चाह वाले ही वहां पहुँच पाते हैं। आपका बेटा तो लाखों में एक है तभी वहां पहुँच पाया।
पिता, माँ व बहन सभी अपनी-अपनी जिज्ञासा को शांत कर लेना चाहते थे। परन्तु बच्चे को कोई कौतुहल नहीं था। वो मुस्कराता हुआ सब बातें सुन रहा था। माँ-बहन अपनी संवेदनाओं को छिपा कर शांत बने रहने का भरसक प्रयास कर थीं। पिता ऊपर से सहज बने हुए थे। मुझे पढाई के लिए पहली बार घर छोड़ते हुए जो एहसास हुआ था। देश के इस कोने से इतर नहीं था। माँ-पिता-बहन का वो चेहरा भुलाने में दशकों गुज़र गए। पर अभी भी वो दृश्य जेहन में ताज़ा है। आज वो दृश्य पुनर्जीवित हो गया।
दो-ढाई घंटे कब बीत गए पता ही नहीं चला। तभी ट्रेन आने की घोषणा हुई। असुविधा के लिये औपचारिक खेद भी व्यक्त हुआ। माँ की आँखे डबडबा आयीं। बेटी, माँ की ओर देख कर उसके दर्द को समझने का प्रयास कर रही थी। पिता ट्रेन आने की दिशा में शून्य सा ताक रहा था। बेटा अन्यमनस्क सा ट्रेन जाने वाली दिशा में निहार रहा था।
ट्रेन ने प्लेटफोर्म के बायें सिरे से प्रवेश किया।
माँ की सब्र का बाँध टूट चूका था। उसकी आँखों से आंसू झर-झर बहने लगे। बहन की आँखें नम हो आयीं थीं। उसने मुंह को रुमाल से दबा लिया पर उसकी सिसकी बरबस बाहर निकल ही गयी। पिता मिनरल वाटर की बोतल लेने के बहाने दृश्य से बाहर हो गए थे।
हमारा कोच अलग था। ट्रेन के रुकते ही हम फिर अजनबी हो गए थे। मै अपने कोच की ओर बढ़ चला था।
ट्रेन चलने में देर लग रही थी। मै प्लेटफ़ॉर्म पर उतर आया चहल-कदमी के इरादे से या पुनः उस परिवार को देखने, कह नहीं सकता।
माँ-बेटी एक-दूसरे को गले लगाये जार-जार रो रहीं थीं। पिता उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा था कि कौन सा बेटा परदेश जा रहा है। बेटा भावहीन सा गेट पर खड़ा था। पिता ने उसे अन्दर जाने का इशारा किया। अन्दर जाते-जाते वो मुड़ा। उसके चेहरे पर बुद्ध-भाव था।
ज्ञान की तलाश में घर तो छोड़ना ही पड़ता है। बुद्ध वापस आने के लिए घर नहीं छोड़ते।पिता को मालूम है।
- वाणभट्ट
वापस आने के लिए, नहीं निकलते बुद्ध ।
जवाब देंहटाएंमात-पिता फिर भी करें, कोशिश परम विशुद्ध ।
कोशिश परम विशुद्ध, सकल सुविधा दिलवाते ।
करें भागीरथ यत्न, ज्ञान की गंगा लाते ।
पाता जीवन श्रेष्ठ, लगा सुत पाठ-पढ़ाने ।
परदेशी व्यवहार, नहीं अब वापस आने ।
आपने अपनी स्वतःस्फूर्त रचना से अभिभूत कर दिया...धन्यवाद...
हटाएंअन्तिम पंक्तियां बेहद सशक्त ... आभार
जवाब देंहटाएंजीने के लिए सारे दृश्य एक साथ प्रस्फुटित होते हैं ...
जवाब देंहटाएंज्ञान के लिए घर छोडना ही पड़ता है ... बुद्धत्व भाव ... बहुत अच्छा लगा यह शब्द ।
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारा संस्मरण, सौंधा सौंधा सा|
जवाब देंहटाएंलडके के चेहरे पर बुध्द भाव था । बुध्द वापस आने के लिये घर नह छोडते । सही चित्रण और सही निष्कर्ष । रोचक प्रसंग ।
जवाब देंहटाएंसर बहुत ही उम्दा पोस्ट ब्लॉग पर आगमन के लिए आभार |
जवाब देंहटाएंऐसी परिस्थितियों से हम भी गुज़र चुके हैं। अब तो घर से दूर रहने की आदत-सी हो चुकी है।
जवाब देंहटाएंप्यार इसे कहते है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया..
जवाब देंहटाएंबुद्ध की पहचान हुई !
wah.....kya likhe hain.....
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अंत.. खूबसूरत तरीके से भावों को व्यक्त किया है आपने..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा..
ज्ञान की तलाश में घर तो छोड़ना ही पड़ता है। बुद्ध वापस आने के लिए घर नहीं छोड़ते।पिता को मालूम है।
जवाब देंहटाएंyahi to saar hai:)
बुद्ध वापस आने के लिए घर नहीं छोड़ते।पिता को मालूम है।
जवाब देंहटाएंSACH KAHA
सारगर्भित प्रसंग .......
जवाब देंहटाएंInsaan aur chidiya mein pehle fark tha ab nahin raha...ab insan bhi udhta hai aur ek baar ghosala chhod de toh phir....aur kya kehna hai.
जवाब देंहटाएंNeelesh
आपका उस बुद्ध बालक से मिलना ही अहम् घटना हे ऐसे ज्ञान से क्या लाभ जो अपनों से ही दूर कर दे बुद्ध दूर जाकर भी पास थे परन्तु आई आई टी के बुद्ध तो दूर और सदूर हो जाते है
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