रविवार, 30 अक्टूबर 2011

कलम जवाब देती है...

कलम जवाब देती है...

क्या-क्या लिखवाना चाहते हो तुम
मुझसे


देश और दुनिया की तुमको है 
क्या पड़ी 
अपनी-अपनी देखो, और देखो
कितनी सुखद है ज़िन्दगी

कितना घिसते हो मुझको
सिवाय मुझे बदलने के
और मिलता है 
क्या तुमको

कुछ भी तो नहीं बदला
कितना लिखा तुमने
न्याय और अन्याय पर
दरकते विश्वासों और 
समाजी सियासत पर
और हर बार थक के बैठ गए
कि अब नहीं उठाऊंगा लेखनी
फिर भी मेरा साथ नहीं छोड़ पाए
अपने ज़ज्बात नहीं छोड़ पाए

अब भी 
मुझे छाती से लगाये घूमते हो
ज़माने के गम दिल में समाये घूमते हो
दिल की धड़कन और 
बी.पी. बढ़ाये घूमते हो 

कभी मेरा भी ख्याल करो
मेरे भी कुछ ख्वाब हैं
कुछ कल्पनाएँ हो आसमानी 
लिखूं मै भी कुछ रूमानी

पर हर बार 
तुम हो कि उतर आते हो
यथार्थ के धरातल पे 
बिना मेरी परवाह किये 
डूब जाते हो दुनिया कि हलचल में 

माना
तुम्हारे दिल का गुबार है
मुझे क्या, मेरी मर्ज़ी के बिना 
मेरे साथ ये तो बलात्कार है
है ना...

- वाणभट्ट 

14 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है लिखते भी हो और ताने भी मारते हो, आखिर भट्ट साहब जो है।

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  2. कुछ भी तो नहीं बदला
    कितना लिखा तुमने
    न्याय और अन्याय पर
    दरकते विश्वासों और
    समाजी सियासत पर...main aahat tum aahat .... mila kya hai

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  3. बात तो कलम की सही है|

    बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|

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  4. लेखनी के मध्यम से दर्द को खूब उभारा है ..

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  5. शायद यह लेखनी नहीं कवि के मन के ही विचार हो सकते हैं। जिस दिन लेखनी थम गई संसार तो नष्ट ही समझो।

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  6. मनोज जी, यकीन मानिये ये राय मेरी लेखनी की है...जो आजकल डिप्रेशन में है...

    किसी ने फ़रमाया था...

    कलम के सिपाही सो गये
    तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे...

    बेचें तो बेचें मेरी बला से...यही लेखनी कहना चाहती है...

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  7. माना कि दर्द बहुत है पर इसके इतर भी बहुत कुछ है . आशा है कि जल्द ही डिप्रेशन से बाहर आ जायेगी आपकी कलम.

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  8. चलिये .इसी बात पर एक रूमानी कविता हो जाये. लेखनी भी खुश

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  9. लेखनी फिर भी साथ नहीं छोडती ..

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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