रविवार, 20 मार्च 2011

आरक्षण, हमहू का!

आरक्षण, हमहू का!


तुम कहबो की होली वाले दिन इ आरक्षण का मुद्दा कौन उठाय दिहिस. तो भैया का बताई की बाते कुछ ऐसी है. हमार बेटौना को दिल्ली से आवै को रहा सो पता चला लोग ट्रेनवा छेकाए बैठे हैं. भैया इहाँ कम्पटीशन छिडल बा की कौन कित्ता जाहिल हौवे. तो हम बताए दे रहे हैं की हमार कौम से जियादा तो अंडमान के आदिवासीयो  भी जाहिल नहीं हैं. अगर आरक्षण का यही क्रैटेरिया  है तो हमका तो बिना आन्दोलन के आरक्षण दे देवे को चाहि. अपनी जहालत का नमूना देवे बरे ट्रेन और बस रोकै की कौनो जरुरत नाहीं है. हम लोग ठहरे खानदानी जाहिल और निपट गंवार अगर आरक्षण देवे को है, तो हमार इच्छा है की सबसे पहले आरक्षण हमार कौम को ही मिले के चाहि. 

पढ़े - लिखे हमरी बिरादरी में अज्ञानी की निशानी है. जब हमरे पिताश्री हमका सांड सम्हाले की ट्रेनिंग दे रहे थे तो समझात रहे कि इ गैया - वैया के चक्कर में नाहीं पडबे के चाही. जौन सांड सम्हाल लिहिस समझो दुनिया सम्हाल लेई. सो भैया स्कूल किताब से उन्हें परहेज रहल और हमहू सुसुर कब पढ़े के चाहत रहे. लिहाज़ा पढाई-लिखाई से हमरा वास्ता अकल और भैस का ही रहल. एक गो मेहरारू मिल गइल उससे चार गो लौंडा पैदा भइल. बादे में इक लोंडिया भी भइल पर ओकर महतारी हमका बताइस कि लौंडा है, इस लिए ससुरी बच गइल. बाद में पता चलल कि लौंडिया है तो ओकी महतारी के मार-मार के भुरकस भर देहली. पर तब तक वो चार साल कि हो गयी रहल. ई हमार अम्मा और मेहरारू की चाल रहल जौन बिटियव़ा जी गइल वर्ना हमरे सात पुश्तन में सिर्फ बेट्वन के राज रहल. अईसन हमार बाबा कहत रहेन. 

आपन पिता जी कि इच्छा अनुसार लौंडन को स्कूल भेजबे नाहीं किये. छोटकौना और बिटिया पता नाहीं कब सरकारी स्कूल में भर्ती लई लिहेन हमका पतो नहीं चलिस. ओही नालायकव़ा  आज आवै को रहा. दिल्ली में नौकरी करत है. शहरी लौंडिया से शादी किहिस है. पूरी मेम है. बाकी तीन तो मुस्टंड सांड अस गौवां भर में टहरत फिरत हैं. गाँव कि गैयन भी डेरात हैं. बड़ी मुश्किल से एक का बियाह निपटाया तो ससुरी बस लौंडिया ही जने जानत रही. दुई साल पहरे जब ससुरी को मइके पहुंचाय आये तो अकल ठिकाने लग गइल. अब ससुरी ने लौंडा दिया है. बुढ़ापे में पोते कि खबर मिल गई अब मरबे में कौनो कष्ट नाहीं होई. 

हमार तो बस खेती-बाड़ी में गुजर गई पर अब तो सरकार नौकरी देत है, अपने देश में पैदा हर इंसान को. और सरकार तो हमही तो बनात हैं तो हमरा बेटौना के बेटौना के सरकारी नौकरी तो मिले के चाहि. हमका अपने बेटौना के बेटौना कि फिकिर होई गइल. नौकरी के लिए तो पढ़े के पड़ी, पर ई काम तो हमार सात पुश्तन ने नहीं किया (छोटके बेटवा को छोड़ के), तो क्या. हम बेटौना के बेटौना को पढ़ईबे. पढावे के का है स्कूल में नमवा लिखा देबे. जैसन हमार छोटकू पढ़ लिहिस, सरवा भी पढ़ लेई. ओकरे बाद अगर आरक्षण मिल जाई तो हमार बेटौना के बेटौना भी कलेक्टर बन जाई और नीली बत्ती की गाड़ी में घूमी. हमका इंजिनियर और डाक्टर नहीं बनाना, कलेक्टर ही ठीक रही. जब सरकार से मिले के है तो सबसे ऊँची कुर्सी ही चाही.            
  
जाहिल पन में हम्हन बस्तर के अदिवासियन से आगे ही होइबे. हमार लौंडे जितना देसी बनावे में माहिर हैं, उससे ज्यादा ओके चदावे में उस्ताद हैं. शहर के लौंडे तो दिन रात एक करके पढ़े पड़े हैं और हमार लौंडे खा-खा के सांड हो रहे हैं. ऐसा नहीं है हमरे पास पैसा नहीं है. जबसे बाई-पास रोड बनी है और हमारे खेतन पर ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें बनीं हैं हमहू धन्ना सेठ की औलाद हो गए हैं. सबसे पहले तो एक राइफल खरीदी फिर एक बोलेरो. इससे बड़ी धाक रहती है हम जाहिलों पर. लौंडे जौन देसी पिया करत रहेन अब विदेसी पियत हैं. हमहू अब हुक्का छोड़ कर सिगरेट पियत हैं. पर पढ़े-लिखे कि बात हमार समझ से बाहेर है. जब से आरक्षण का पता लागल है, तब से तमन्ना जगल बा की हमरो बेटौना के बेटौना को एक नौकरी मिले के चाही.


जिनका अबहीं आरक्षण मिलत है सब, मेरा दावा है कि हमार बिरादरी से ज्यादा आगे हैं, अडवांस हैं. उ ससुरे अपनी बहन बेटियन के ख्याल रखेंले. हमरे खानदान में लौन्डियन को बहुतै टाईट रखे के पडत है. अलबत्ता तो हम लौन्डियन को पैदई नहीं होवे देत हैं और गलती से हुई जाये तो ओका निपटाई दिन्ह जात है. हमार बिटइयवा तो पढ़ गइल पर हमार बाबू के सपना टूट गइल. सो हम अपनी बिटइयवा के शादी के बाद से सूरतो नहीं देखली. बिदाई के समे समझा देहली कि बेटवा ही जनना वर्ना ससुराल वाले फूंके चाहे तापें हम कुछ नहीं करबे.  बिटइयवा हमार समझदार रहल दुई ठो बेटवा जनिस. ओकरे बेट्वन कि भी हमें अब चिंता होत है. रिजरवेशन जब मिले रहा है तो नातियन के बारे में सोचे भी तो हमरे काम है. पढ़े-लिखे हमार दुश्मन, हमका तो अईसन आरक्षण चाही जेमे सांड चारत-चरात ही लौंडे अफसर बन जायें.


हम्हन इस ब्रम्हांड क सबसे पिछड़े लोग हैं. अगर हमका आरक्षण नहीं मिला तो हमहू आन्दोलन करिबे. इ ट्रेन - बस तो का हम हवाई जहाज तक रोक सकत हैं. ओकर डैना तोड़ कर जहाज में वापस घुसेड सकत हैं. अब कम्पटीशनव़ा तो जहालत के बा. कौन कितना जाहिल है, दिखाए पडल है. सो हम गारेंटी के साथ कह सकत हैं कि हमसे जाहिल कौनो होय तो सबूत देवे, ओ भी कोर्ट मां. इ आन्दोलन -वान्दोलन की का जरूरत है. कौनो आदिवासी आपन बिटियव़ा के मार के दिखाए तो हम जानी कि ओ हमसे ज्यादा जाहिल है. हम भले दुसर जात कि लौंडिया से मज़ा लेलेवें पर का मजाल कि हमार बहु-बेटी पराई जात के चक्कर में पड़ जाये. या तो उसे देश छोड़े के पड़ी या दुनिया. है कौनो हमसे जाहिल? तो सरकार अगर बिना आन्दोलन के हमारी बात मान ले तो इससे अच्छी बात क्या होइबे.  वर्ना मजबूरन हम्हने के ट्रेन का चक्का जाम करे के पड़ी. सडकन का खोदे के पड़ी और एअरपोर्ट में साड़न का घुसेरे के पड़ी. जाहिलों में जाहिल हमार कौम. सांड हमरी पहचान है और हमरी शान है. हमरे अन्दर के सांड को जगावे कि कोशिश ना करो. अबहीं शराफत से कह रहेन हैं कि आरक्षण चाही, हमहू का.


- वाणभट्ट          

6 टिप्‍पणियां:

  1. सांड हमरी पहचान है और हमरी शान है.
    बहुत जबरदस्त ब्यंग| धन्यवाद|

    जवाब देंहटाएं
  2. सन्नाट...अब आंदोलन कर ही डालिये.

    जवाब देंहटाएं
  3. गज्ज़ब हो गुरुदेव, गज्ज़ब||
    ब्लॉग जगत में कई भारी भरकम मुद्दे चल रहे थे तो आज सोचा कि आप का ब्लॉग, जिसकी लेटेस्ट वाली तीन पोस्ट ही पढी थी अब तक, आज बांचा जाए| और मेहनत वसूल हो रही है|

    जवाब देंहटाएं
  4. ठेंठ भाषा मे मुख्य पात्र का जीवंत चित्रण और धमाकेदार व्यंग्य👌👌🙏🙏

    जवाब देंहटाएं

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...