शनिवार, 13 जुलाई 2024

नई वाली हिन्दी

मोटरसायकिल को साइड स्टैंड पर खड़ा करके वो न जाने कहां लपक लिया. पता नहीं क्या जल्दी पड़ी थी. वो स्टेशन तो था नहीं कि लगे उसे कोई ट्रेन पकडनी है.

लेकिन आजकल लोग हर कोई अमूमन इस बीमारी का शिकार है. जिसे देखो जल्दी में है. पता नहीं कहां जाना है और क्या करना है. इस इकलौते जीवन में बहुत कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश रखने वालों के लिए एक-एक मिनट कीमती है. ये बात अलग है कि वो एक-एक मिनट बचा कर अपने शौक पर घन्टों ख़र्च कर दे. जैसे पूंजी आपकी है, वैसे ही समय भी आपका है. चाहे सोच समझ के ख़र्च करो, चाहे उड़ा दो. जब हर चीज़ पर आप की निगाह बारीक़ हो जाए तो इसके दो मतलब हैं - या तो आपका तजुर्बा औरों से अधिक है, या आपको मान लेना चाहिए कि आप की उम्र बढ़ चली है. तजुर्बे और ज्ञान में यही फ़र्क है. ज्ञान कोई किसी भी उम्र में अर्जित कर सकता है. जबसे सूचना को ही ज्ञान मान लेने का चलन बढ़ा है, लोगों ने पोथियाँ रट मारीं हैं. बोलते हैं तो उनके श्री मुख से डाटा झड़ते हैं. परसेंटेज ही ज्ञान का आधार बन गया है. तजुर्बा तो उम्र के साथ ही आता है, वो भी धक्के खा-खा कर. लेकिन जब समय ही नहीं है, तो तजुर्बा लेने का रिस्क नहीं लिया जा सकता. इसलिए तरक्की का सबसे सीधा-सरल मार्ग है, अपने रोल मॉडल्स का अनुसरण करना. 

वेद-पुराणों में भी ये वर्णन है कि - महाजनो येन गतः स पन्था, अर्थात महान लोग जिस रास्ते पर चलते हैं, वही रास्ता है. पुराने ज़माने के महापुरुष भी महान टाइप के हुआ करते थे. सत्य, समर्पण और त्याग की प्रतिमूर्ति. उन्होने अपना जीवन, समाज और देश के लिए होम कर दिया. लेकिन यदि आपको नौकरी ही करनी है, और नौकरी में प्रमोशन ही आपका अन्तिम लक्ष्य है, तो इस तरह का आदर्शवाद आपका कैरियर ख़राब कर सकता है. इसके लिए आपको अपने विभाग के ही किसी मॉडल को पकड़ना होगा. जिस रास्ते पर वो चला हो बस उसी का अनुकरण करते चलिए. आपके सफल होने में किसी प्रकार का कोई संशय नहीं है. ये भी बहुत आसान नहीं है. इसके लिए बस बॉस और बॉस के बॉस को साधना है. लेकिन ये उतना कठिन भी नहीं है कि आपको ईश्वर चन्द्र 'विद्यासागर' की तरह दुश्वारियों का सामना करना पड़े. गलती से आप किसी पुराने ज़माने के महापुरुष को आदर्श मान कर ईमानदार और सत्यनिष्ठ बनने के प्रयास में लग गए तो आपके कैरियर का भगवान-अल्ला-वाहेगुरु-जीसस ही मालिक है. आदर्शों को फ़ॉलो करने का सिर्फ़ प्रयास ही हो सकता है. जब विभाग के महापुरुषों ने एक फ़रमा बना रखा है, तो आप के लिए कुछ सोचने-समझने की गुंजाईश कहां बचती है. आपको बस खांचे में फिट ही तो होना है. एक तो ज़िन्दगी में वैसे ही समय का टोटा है, उस पर तजुर्बा लेने में समय वेस्ट करना कहां की समझदारी है.    

वो तो मोटरसायकिल साइड स्टैण्ड पर लगा कर निकल गया. अब मेरा तजुर्बा बता रहा था कि बगल की चाय की दुकान पर कुछ लड़के आएंगे. वो इसकी मोटर सायकिल पर टिक के खड़े हो जाएंगे. हो सकता है कोई चढ़ कर बैठ भी जाए. इस प्रकार तो कुछ सालों में इसका स्टैण्ड ख़राब हो सकता है. युवा लड़का है, ये स्टैण्ड ही बदलवा देगा. मै होता तो वेल्डिंग करवा के काम चला लेता. कौन सा इसका पैसा लगा है. बाप ने ख़रीद के दी होगी या दहेज़ में मिली हो. तभी इसे कदर नहीं है. लेकिन आजकल दहेज़ में कार मिलती है. मोटरसायकिल की डिमांड तो हमारे ज़माने में हुआ करती थी. चाहे कुछ भी हो इसे साइड स्टैण्ड पर मोटरसायकिल नहीं खड़ी करनी चाहिए थी. फुटपाथ पर ज्यादा जगह घिर जाती है. यही लोग जब ऑफिस में स्टैण्ड पर स्कूटर या मोटरसायकिल खड़ी करते हैं तो एक अफ़रातफ़री सी दिखती है. जहां बीस दोपहिया खड़े हो जाएं, वहां बमुश्किल 12-15 ही लग पाते हैं. मेन स्टैण्ड पर दोपहिया खड़े करने का संस्कार ही समाप्त हो चला है. इतना सब कुछ सोच चुकने के बाद मुझे एहसास हुआ कि तजुर्बा और उम्र दोनों बढ़ चलें हैं. ऐसा तजुर्बा भी किस काम का जो किसी और के काम न आए. मुझे लगा कि अगले को इसके बारे में बताना चाहिए. ये सोच के मैंने एक चाय ली और उसकी मोटरसायकिल पर टिक के खड़ा हो गया.

उपरोक्त उद्धरण में आपको यदि कुछ अजीब नहीं लगा, तो आप नई पीढ़ी का प्रधिनिधित्व करते हैं. जिसने सम्भवतः अंग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण की है. या हिन्दी का अपभ्रंश रूप ही देखा है. हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ या तो प्रकाशित होना बंद हो गईं या उनकी जगह कम्प्यूटर और मोबाईल ने ले ली. हमारे घर में अंग्रेजी का एक अख़बार पिता जी सिर्फ़ इसलिए मंगवाते थे कि बच्चों की अंग्रेजी इम्प्रूव हो जाए. यही काम आज मुझे हिन्दी अखबार के लिए करना पड़ता है. ताकि इंग्लिश मीडियम में पढ़े बच्चों को ये एहसास रहे कि वो हिन्दी भाषी क्षेत्र में पैदा हुए हैं. लेकिन जब आज का अख़बार या हिन्दी समाचार के नीचे जो कैप्शंस चलते रहते हैं, उन्हें देख कर लगता है कि अंग्रेजी में सोचने और यूनिकोड से हिंदी लिखने और सॉफ्टवेयर की सहायता से अनुवाद करने वाली जेनरेशन ने हिन्दी सीखने-समझने के बजाय हिन्दी से समझौता कर लिया है, और उसे नई वाली हिन्दी का नाम दे दिया है. 

अब लेख के बोल्ड शब्दों पर गौर कीजिये. जहाँ-जहाँ 'बिन्दु' की मात्रा है, वहाँ-वहाँ 'चन्द्रबिन्दु' लगाइये. जहाँ-जहाँ 'ए' है वहाँ 'ये' लगाइये. जहाँ-जहाँ 'इ/ई' है वहाँ 'यि/यी' लगाइये. हो गयी पुरानी वाली हिन्दी.

भले मां और माँ के उच्चारण में अन्तर न हो, किन्तु मेरे लिये बिना चन्द्रबिंदु के माँ शब्द अधूरा है. हिन्दी भाषी क्षेत्र से होने के नाते मुझे डर है कि इस नयी हिन्दी के चक्कर में हिन्दी भाषा से 'चन्द्रबिन्दु' कहीं विलुप्त न हो जाये.

-वाणभट्ट  

1 टिप्पणी:

  1. पूर्णतः सहमत, हमें हिन्दी की सही वर्तनी का प्रयोग ही करना चाहिये

    जवाब देंहटाएं

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...