रविवार, 15 सितंबर 2024

इंजिनियर्स डे

साल में आने वाले अनेक दिवसों की तरह ही अभियन्ता दिवस मनाये जाने का रिवाज़ बन गया है. और रिवाज़ों का निर्वहन करना हमारी परम्परा से अधिक आदत सा बन चुका है.  साल में एक बार पितृ-मातृ-शिक्षक-मित्र-चिकित्सक-किसान-मजदूर ऐसे अनेकानेक दिवस आते हैं और चले जाते हैं. जब से सोशल मिडिया का अविर्भाव हुआ है, तब से और भी पता नहीं कौन-कौन से दिन जुड़ते चले गये. और ये अच्छा भी है कि इसी बहाने कम से कम एक बार तो समाज उनके प्रति कृताज्ञता व्यक्त कर लेता है, जिनका उन सभी के जीवन में कोई न कोई योगदान रहा है. 

वैसे तो ये जीवन उन सब लोगों और अनुभवों का सम-टोटल है, जिनसे हमारा सबाका पड़ा है. हमें तो उन सभी लोगों के प्रति प्रतिदिन कृतज्ञ महसूस करना चाहिये, जिन्होंने हमारे जीवन को वर्तमान स्वरुप दिया है. हमारे  सक्षम बनने में उनका अमूल्य योगदान रहा है. उन्हें व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद देने के चक्कर में लिस्ट के बहुत लम्बा हो जाने की सम्भावना है. जिस उन्नत समाज में आज हम रह रहे हैं, जहाँ जब सभी अपने को सेल्फमेड मैन सिद्ध करने में लगे हों, तो कोई कैसे किसी इंडिविजुअल या कुछ व्यक्ति विशेषों के प्रति अपना आभार व्यक्त कर दे. बकौल दुष्यंत कुमार-

हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही

ऐसे में सब के लिये एक-एक दिन मुकर्रर करके एक जनरल कृतज्ञता ज्ञापन कर देने का प्रचलन स्वागत योग्य है. व्यक्तिगत कृतज्ञता ज्ञापित करना तो हमने कब का छोड़ दिया है. नहीं तो लोगों को ये गुमान होना लाज़मी है कि आज हम जो कुछ भी हैं, उन्हीं की अनुकम्पा और वजह से हैं. फिर डर ये भी रहता है कि कहीं कोई अपने योगदान का मूल्य ना माँग ले. ज़माना इतना आगे बढ़ चुका है कि लोग अपने माँ-बाप से भी ये पूछने में गुरेज नहीं करते कि आपने मेरे लिये किया क्या है. और माँ-बाप को भी ज्यादा इमोशनल होने की ज़रूरत नहीं है. जो उन्होंने अपने माँ-बाप से लिया, वही बच्चों को लौटते हैं. सारा लेन-देन बराबर. इसीलिये बच्चों के लिये भी दुनिया की सारी माताओं और सारे पिताओं को धन्यवाद देना कतिपय आसान है, बनिसप्त अपने इकलौते माँ-बाप को. 

परसाई जी ने कहीं अपने लेखों में लिखा है कि दिवस हमेशा कमज़ोर लोगों का मनाया जाता है. कभी आपने प्रशासक दिवस या नेता दिवस या बॉस दिवस का ज़िक्र सुना है. बल्कि गौर करें तो ये ताकतवर लोग ही निर्णय लेते हैं कि किसका-किसका दिवस मनाया जाये. अमूमन उनका दिवस मानना जरूरी है जो हमसे कमज़ोर हैं क्योंकि हमें उनसे काम भी कराना है. दीन-हीन लोगों की कमी होती है कि कोई उन्हें थोड़ी इज्ज़त दे-दे तो वो अपना काम दिल-औ-जान से करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. जबकि समझदार मैनेजर टाईप के लोग निष्काम भाव से डिटैच रूप से आत्मउत्थान और व्यक्तिगत लाभ के लिये कार्य करते हैं. मैनेजमेन्ट का शायद यही तरीका बन गया है. काम निकालना हो तो थोडा चढ़ा दो, थोड़ी पीठ थपथपा दो. और कोई ज्यादा चढ़ जाये तो उसे उसकी औकात दिखा दो. देख भाई तू नौकरी कर रहा है, जिसकी तनख्वाह भी लेता है. प्रशासन के लिये सबसे बड़ी चुनौती होते हैं हाइली क्वालीलिफाईड लोगों से डील करना. लेकिन तुर्रा ये है कि भले ही तू ज्ञान-विज्ञान में हमसे आगे है लेकिन ये मत भूलना कि रहना हमारे अंडर ही है. यही सब देखते हुये बहुत से इंजीनियर्स और डॉक्टर्स अब प्रशासनिक सेवाओं की ओर रुख़ कर रहे हैं. 

इतने ज़्यादा दिवस मनाये जाने लगे हैं कि हर दिवस एक फॉर्मेलिटी सा बन के रह गया है. अभी कल ही हिन्दी दिवस हो के बीता है. आजकल इसका पखवाड़ा मनाया जाता है. हिन्दी पखवाड़ा और स्वच्छता पखवाड़ा लगभग साथ-साथ ही मनाया जाता है. अगर दोनों के पोस्टर भी कहीं साथ लग जायें तो लोग-बाग कन्फ्यूज हो जायें कि किसकी सफाई की बात हो रही है. ग्लोबल विलेज़ के युग में हिन्दी की बात करना आत्म गौरव की बात है. लेकिन यही आत्म गौरव सभी प्रादेशिक और आँचलिक भाषायें भी महसूस करना चाहती हैं. हमारे देश में चूँकि प्रजातंत्र हमेशा से अपने चरम उत्कर्ष पर रहा है इसलिये हम लोगों को जात-पात-सम्प्रदाय के आधार पर विभाजित करना आसान रहा है. भाषा को लेकर भी ऐसा ही विभाजन हमेशा से रहा है. सम्भवतः विश्व पटल पर ये बात सबको पता थी कि धरती पर भारत भूमि एक ऐसी जगह है जहाँ के लोगों में फूट डाल कर आसानी से राज किया जा सकता है. ऐसे ही नहीं हर कोई ऐरा-गैरा सर उठाये यहीं आक्रमण करने चला आया. 

वर्तमान परिपेक्ष्य में भी ये साफ़ परिलक्षित होता है कि आज भी सत्ता के लिये पक्ष और विपक्ष देश को दाँव पर लगाने से बाज नहीं आते. जब सबके अपने-अपने व्यक्तिगत लाभ के एजेंडे और महत्वआकांक्षायें हों तो क्या देश, क्या दफ़्तर, क्या समाज, सब को तोडना आसान है. यदि समाज किसी भी सर्वमान्य कारण से संगठित हो गया, तो सत्ता में भागीदारी माँगता है. जो कोई भी शासक नहीं चाहेगा. क्षेत्र, भाषा और जाति, सबसे ज्वलनशील मुद्दे रहे हैं. आज़ादी के सत्तर साल बाद भी ये जंग छिड़ी हुयी है कि कौन ज्यादा पिछड़ा है. हम या तुम. गोया देश-दुनिया में सभी इंसान बराबर करने के बाद ही हमारे जातिगत नेता दम लेंगे. हर जाति-सम्प्रदाय में नेताओं ने बराबरी के अधिकार दिलाने के लिये जन्म ले लिया है. और जल्द ही ये व्यवस्था न सिर्फ भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर लागू कराना, इनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य है. लेकिन इनकी पूँजी जिस दर से बढ़ती है, उस का कोई हिसाब नहीं है और इन सब के पीछे इनका व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध होता ही दिखता है. इनका मूल उद्देश्य अपनी जाति के लोगों को विकसित या उन्नत बनाना नहीं रहा. जातिगत भावनाओं को उभार कर अपनी नेतागिरी चमकाना और जिसकी परिणति अन्ततः किसी शक्तिशाली सम्मानजनक पद सुरक्षित करने के रूप में होती है.  

ऐसे माहौल में इंजीनियरिंग ही एक ऐसा प्रोफेशन है जो देश के विकास के लिये आरम्भ से प्रतिबद्ध रहा है. हर युग में मानव जीवन को सुगम बनाने के प्रयास होते रहे हैं. तब भले अभियांत्रिकी में डिग्री न मिलती रही हो लेकिन दिनों-दिन ऐसी खोजें और अविष्कार होते रहे जिसने धरती पर मनुष्य के जीवन को आरामदायक और आसन बनाने में अपना योगदान दिया है. यदि आपको विश्वास न हो तो अपनी गर्दन 360 डिग्री घुमा कर देख लीजिये. जो भी मानव निर्मित चीजें आप देख पा रहे हैं, उसके पीछे किसी तकनीकी व्यक्ति का हाथ अवश्य होगा. इन चीजों के हम इतने अभ्यस्त हो चले हैं कि इनका होना हम सहज मान लेते हैं. आखिर इन सुविधाओं (कार-टीवी-फ्रिज़-एसी आदि) के पीछे वर्षों का शोध और सुधार के पश्चात् ही हम दिन प्रतिदिन उन्नत हुए मॉडल्स का प्रयोग कर पा रहे हैं. इंजीनियर्स के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का दिन निश्चय ही सराहनीय है. भारत के महानतम अभियन्ताओं में श्री मोक्षगुंडम विश्वेसरैया जी की जयन्ती के कारण इंजीनियर्स डे के लिये सितम्बर 15 का चयन बहुत आसान हो गया. देश और समाज की अधिकान्श वृहद् समस्याओं का वृहद् स्तर पर समाधान आज भी इंजीनियरिंग के माध्यम से सम्भव है.

आज ही सवेरे अख़बार में भ्रष्टाचार की एक कलंक कथा छपी है. जिसमें तकरीबन दस अभियंताओं को भ्रष्टाचार के आरोप में निलम्बित कर दिया गया. कुछ आश्चर्यजनक नहीं लगता? पूरे प्रकरण में वित्त और प्रशासन के किसी भी व्यक्ति का कहीं कोई नाम नहीं है. हो सकता है विभागीय कार्यवाही उन्हीं के द्वारा की गयी हो. जिसे भी सरकारी कार्य पद्यति की थोड़ी भी जानकारी हो उसे पता होगा कि गलत काम कितनी पारदर्शिता से होता है. वातानुकूलित कमरों में बैठ कर फाइल-फाइल खेलने वाले अधिकतर प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार से दूर ही रहते हैं और ठीकरा किसी काम करने वाले पर ही फोडा जाता है. हर बिल के निस्तारण पर मलाई काटने वाला प्रशासन अभियन्ताओं को भ्रष्ट बताने में किसी प्रकार की हीला-हवाली नहीं करता. हर सफल काम के आगे प्रशासन का नाम होता है जबकि हर बिगड़े काम के पीछे जिम्मेदार कोई न कोई तकनीकी व्यक्ति या अभियन्ता ही निकलेगा. निर्णय करते समय प्रशासन आगे होता है और अभियन्ता को निर्देशित करता है. जब बजट आता है तो प्लानिंग पर विचार-विमर्श को अधिक समय देना चाहिये, लेकिन प्रशासन के पास योजनाओं के कार्यन्वयन के लिये सदैव समय का अभाव होता है. जब प्लानिंग किसी और को और एग्जीक्यूट किसी और को करना ही तो एडमिनिस्ट्रेटर को तो बस जादू की छड़ी ही घुमानी है. अमूमन प्रशासन का लक्ष्य जल्दी से जल्दी बजट युटिलाइज़ (कंज्यूम) करना होता है. और सभी को पता है कि जल्दी का काम किसका होता है. 

-वाणभट्ट 

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