रविवार, 22 जून 2025

विलेन

प्रिंसिपल साहब जब भी उसके सामने पड़ जाते, उसकी आदत थी कि पूरी विनम्रता और आदर के साथ हाथ जोड़ कर अभिवादन करना. वैसे वो सत्ता और शक्ति से दूर रहना पसन्द करता था. 

भाषा कोई भी हो, किस्सागोई का मज़ा जाता रहता, यदि कहानियों में विलेन न होते. किस्से-कहानियाँ हमेशा से मानव साहित्य का अभिन्न अंग रहे हैं. जब मनोरंजन के साधनों की कमी थी, तब भी कवियों-लेखकों का टोटा रहा हो, ऐसा नहीं लगता. लोगों में साहित्यिक सृजनशीलता और रचनात्मकता न होती तो, भारत में शायद वेद-पुराण-उपनिषद-धर्मग्रंथ न लिखे गये होते. अधिकतर भाष्य तो इसीलिये लिखे गये कि बड़े भाग्य से यदि मानव जीवन मिल ही गया है तो उसे जीना कैसे है. सही और सन्तुलित जीवनचर्या का पालन कर मानव स्वयं कैसे भगवानतुल्य जीवन जी सकता है. और विपरीत आचार-विचार पर चलने से वही मानव अमानुषिक व्यवहार कर दानव भी बन सकता है. किस्से-कहानियों में मानव और दानव के स्पष्ट अन्तर को दर्शाने के लिये, मानव को सद्गुणों, तो दानव को अवगुणों की प्रतिमूर्ति बना दिया जाता है. ताकि लोग बुराई के मार्ग पर चलने वाले का दुख:द अंत देख कर भलाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा लें. रामायण हो या महाभारत, एक तरफ़ महामानव था तो दूसरी तरफ़ महादानव. दोनों बराबर के शक्तिशाली, लेकिन एक सत्य और न्याय के पक्ष में तो दूसरा असत्य और अन्याय के. ये स्पष्ट विरोधाभास इसलिये भी किया जाता था कि लोग समझ सकें कि दुर्जन व्यक्ति दुर्जन ही रहता है और सज्जन अपनी सज्जनता का त्याग नहीं करते. अंत में चाहे कुछ भी हो जाये, विजय सदा सत्य और न्याय की होती है. 

जब से फिल्मों ने मानव जीवन में प्रवेश किया, किस्सा पढ़ने-सुनने-सुनाने वालों को एक नयी विधा मिल गयी. मुंशी प्रेमचन्द हों या शरत चन्द्र, उनके पात्रों को जीवन्त स्वरूप मिल गये. जिनके लिये पठन-पाठन थोडा दुष्कर कार्य था, उनके लिये 'बूढी काकी' को विज़ुअलाइज़ करना कठिन भी हुआ करता था. 'ईदगाह' पढ़ कर हामिद और उसकी दादी के दर्द का एहसास कराने के लिये चाहे लेखक ने कितना भी कलम तोड़ विस्तृत वर्णन किया हो, पाठक बिना कनेक्ट हुये उसका अनुभव नहीं कर सकता था. कहानी के मर्म को महसूस करने के लिये पात्रों की साइकोलॉजी में गहरे घुसना पड़ता था. तब जा कर कोई टैगोर-प्रेमचन्द-शरत-दोस्तवोस्की-टालस्टाय-गोर्की का मूल्याङ्कन कर पाता था. तब चलचित्र का प्रचलन कम था. किताबें ही आमोद-प्रमोद का साधन थीं. मूवी पिक्चर्स के आने के बाद पुस्तकों का उपयोग घटता गया. और आज ओटीटी और रील्स के आ जाने के बाद तो किताबों की ओर कोई देखना भी पसन्द नहीं कर रहा. लेकिन लिखने वाले हैं कि लिखने से बाज नहीं आ रहे. यदि कुछ नहीं बदला तो वो है, कहानियों के पात्रों का चरित्र. बिना हीरो, हिरोइन और विलेन के कहानी की कल्पना करना कठिन है. चाहे क्राइम थ्रिलर हो या लव स्टोरी, हीरो-हिरोइन के बाद सबसे मुख्य किरदार विलेन का ही होता है. बाकि सब को कैरेक्टर आर्टिस्ट और कॉमेडियन की श्रेणी में बाँट दिया जाता है. जो फिलर की तरह बीच बीच में अपना रोल निभाने आ जाते हैं. लेकिन वो मुख्य कहानी को प्रभावित नहीं करते. 

किस्सों और कहानियों के विलेन घोषित दुष्ट होते थे. कंस-दुर्योधन-रावण, सबको पता था कि वो गलत हैं, लेकिन यदि लेखक उन्हें बीच स्टोरी आत्मज्ञान से रियलाइज़ करा देता और वो सुधर जाते, तो ग्रन्थ लिखने का कोई औचित्य न रह जाता. इसलिये ये ऐसे पात्र थे, जो हारी हुयी बाज़ी को अंत तक निभाते गये क्योंकि कहानी में उनका किरदार ही ऐसा था. 

कमोबेश फिल्मों ने भी कहानियों के इस क्रम को बनाये रखा. प्राण-अजित-प्रेम चोपड़ा को फुल टाइम विलेन बना दिया गया. लोग हीरो-हिरोइन के नाम के साथ विलेन का नाम भी पता करके फिल्में देखने जाते. इन फिल्मों में सस्पेंस की कोई गुंजाइश न थी. कहानी भी दर्शकों को पहले से मालूम होती थी. जब सब कुछ सही चल रहा होगा, तभी विलेन की एंट्री होगी और वो सब कुछ तहस-नहस कर डालेगा, लेकिन कहानी का अन्त हीरो की विजय के साथ ही होगा. जब तक अंत सुखान्त न हो जाये, फ़िल्म ख़त्म नहीं होती थी. इसी चक्कर में कई बार फिल्में तीन घन्टे के ऊपर निकल जाया करती थीं. पब्लिक भी क्या करती, वास्तविक जीवन में सत्य, अहिन्सा और न्याय की विजय देख रही होती, तो निश्चय ही फिल्मों में अपना समय बर्बाद नहीं करती. उसकी कल्पनाओं को साकार कर-कर के देश में कितने स्टार-सुपरस्टार और मेगास्टार बन गये. अकेला आदमी जब दुष्टों के गिरोह को ख़त्म कर देता है, तो शोषित और असहाय लोगों को लगता है कि हीरो ने उनका बदला ले लिया. सीटी और तालियों से हॉल गूँज जाता. तीन घन्टे के लिये ही सही दर्शक अपने दुःख-दर्द भूल जाता. फ़िल्मों का एक निश्चित फॉर्मेट था. कुछ सीरियस, कुछ हास्य, कुछ करुणा, कुछ हिंसा के बीच आठ से दस गाने. उनमें वो अश्लील वाले गाने भी होते थे, जिन्हें कैबरे कहा जाता था. जिन फिल्मों में वैसे गाने नहीं होते थे, उन्हें पारिवारिक फिल्म बता कर प्रचार किया जाता था. जिस तरह वर्तमान में गानों का पिक्चराइज़ेशन होता है, उन्हें देख के लगता है कि अतीत के कैबरे भी बहुत शालीन हुआ करते थे.      

मसाला फिल्में देखते-देखते भी आदमी जल्दी ही बोर हो गया. उसको लगने लगा कि ये यथार्थ से कोसों दूर हैं. दर्शकों के इस ज्ञान के बाद, एक-एक कर के सभी स्टार फ्लॉप होते चले गये. साथ ही फिल्मों के कथानक और कलाकार अधिक वास्तविक होने लगे. एक दौर ऐसा आया जब ऐसी फ़िल्मों को आर्ट फ़िल्म या पैरलल सिनेमा तक घोषित कर दिया. इस युग ने बॉलीवुड में ऐसे-ऐसे हीरो-हिरोइन दिये, जिन्हें देख के लगता था कि ये हमारे पास-पड़ोस के चरित्र हैं. सब आम आदमी. रोल की अधिकता के हिसाब से किसी को हीरो मान लिया जाये तो मान लिया जाये, वरना उनका प्रयास होता था कि आम आदमी की जद्दो-जहद को उभारा जाये. आदमी कभी एक्सट्रीम का जीवन नहीं जीता. उसमें हीरो भी होता है और विलेन भी. गुण और अवगुण से मिल के बना है, आम आदमी. जो पुण्य भी करता है और पाप भी कर सकता है. क्योंकि वो आदमी है, कोई अवतार नहीं. आर्ट फ़िल्में अधिक रियलिस्टिक थीं. जिस आदमी को आप देवता की तरह मानते थे, वो ही कुछ ऐसा कर देता है कि आपको विलेन लगने लगता है. जबकि वो विलेन नहीं है, बस उसने अपने उद्देश्य या दृष्टिकोण की पूर्ति के लिये जो किया, वो आपके लाभ और लक्ष्य के विरुद्ध था. सिर्फ़ इसलिये उसे विलेन मान लेना भी उचित नहीं है. दूसरे के जूते में पैर रख कर देखेंगे तो विलेन भी इंसान लगेगा, जिसका विशेष परिस्थितियों में आपके लाभ की ओर ध्यान नहीं गया.   

इन फ़िल्मों के बदले भी बदले जैसे नहीं लगते थे. पुरानी फिल्में होतीं तो बन्दा जब तक विलेन को ठोंक-पीट के अपना प्रतिशोध पूरा न कर ले, दर्शकों को आनन्द नहीं आता था. अब के हीरो को मालूम है कि विलेन के पास पद है, शक्ति है, सत्ता है. जिसका दुरूपयोग करना उसका अधिकार इसलिये है कि वही उसका सत्य है. वो उसी सत्य को देख कर और उसी सत्य के लिये आगे बढ़ा है. सबके सच उनके अपने हैं. हमारा और दूसरे का दृष्टिकोण अलग इसलिये है कि हम एक ही तस्वीर को अलग-अलग कोण से देख रहे हैं. न कोई सही है, न गलत. सब सही हैं, अपनी-अपनी जगह. किसी के लिये हीरो, विलेन है तो किसी के लिये विलेन, हीरो. एक बॉस जब तक कुर्सी पर काबिज थे, रावण और दुर्योधन को जस्टिफ़ाई करते फिरते थे कि उसकी बहन और पिता के साथ अन्याय हुआ था. लेकिन जब कुर्सी से उतरे, तो रातों-रात गाँधी उनके आदर्श बन चुके थे. हमारा देश और धर्म, सभी को सुधरने के पर्याप्त मौके देता है. जब भी जग जाओ, आपका सवेरा आरम्भ. आपका दूसरे के जागने या सोने से कोई प्रयोजन नहीं है. सारा का सारा ज्ञान आपके स्वयं को जगाने के लिये है.

पद प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करने में प्रधानाचार्य की विवशता ये थी कि उन्हें, उन्हें लाभान्वित करना होता था, जो निरन्तर उनकी सेवा-टहल में लगे रहते थे. उसने उस प्रोजेक्ट को बनाने में बहुत मेहनत की थी. लेकिन प्रोजेक्ट आने के बाद प्रधानाचार्य महोदय ने उसे अपने एक विश्वासपात्र को पकड़ाना उचित समझा. ईश्वरीय न्याय का उन्हें भय होता तो वे ऐसा कदापि न करते. उसे भी यदि ईश्वरीय न्याय पर भरोसा होता तो वो इस बात का बुरा न मानता. अब जब प्रधानाचार्य महोदय कभी सामने पड़ जाते तो वैसे ही हाथ जोड़ कर अभिवादन करता, बस उसमें विनम्रता और आदर का भाव नदारद होता. 

आज की रियल लाइफ़ में विलेन और हीरो शायद ऐसे ही होते हैं.

-वाणभट्ट

पुनश्च: यदि मौका लगे तो नसीरुद्दीन शाह अभिनीत 'आधारशिला' देखने का प्रयास कीजियेगा. 

रविवार, 1 जून 2025

विकसित भारत - एक संकल्पना

गाँव अगर मैंने देखा है तो वो है, हमारे फूफा जी का गाँव-गोधना, मीरजापुर में. गर्मी की छुट्टियों में आम के पेड़ों की छाँव में पानी भरी बाल्टी में डूबे देसी 'चुसना' आम को बिना गिने चूसना, ठण्ड में गरम ताजा गुड़, पम्प पर नहाना, पुआल पर सोना और सुबह-सुबह खेतों में तीतर-बटेर लडाना, गाँव के नाम पर बस इतनी सी यादें थीं, मेरे जीवन में.

बाबा की असमय मृत्यु के बाद पिता जी आगे की पढाई के लिये बनारस और फिर इलाहाबाद पढने आ गये. हाईस्कूल से ही उन्होंने शहर के बंगलों के आउट हॉउसों में रह कर और बंगलों के बच्चों को पढ़ा कर, अपनी पढाई जारी रखी. इलाहाबाद विश्विद्यालय से बी.एससी. करने के बाद, पहले रेलवे में गुड्स क्लर्क और बाद में एजी यूपी में बाबू बनने का सफ़र आसान तो नहीं रहा होगा. दुश्वारियों पहले के लोगों के जीवन का हिस्सा थीं, जिसे वे निरपेक्ष भाव से जीते चले जाते थे. तब सम्भवतः दूसरों के सुख से तुलना करने का प्रचलन उतना न रहा हो जितना अब है. पर शायद ही उन्होंने कभी हम लोगों से अपने कठिन दौर ज़िक्र किया हो. मुझे याद नहीं कि कभी उन्होंने उस काल को कठिन दौर की तरह देखा या हमें दिखाया हो. बल्कि उस पर उन्हें गर्व था. हमें दिखाते - 'देखो, मैं लाउदर रोड के इस बंगले और लिडल रोड के उस बंगले के पीछे के सर्वेंट क्वाटर में रह कर पढता था. उनके पुराने शिष्य रास्ते में मिल जाते तो मास्साब को दण्डवत हो जाते.  

नौकरी लगने के बाद पापा, अपने सभी भाई और बहनों को पढ़ने-पढ़ाने के उद्देश्य से इलाहाबाद ले आये. थोडा सा सपोर्ट और अपनी  मेहनत से सभी अपने पैरों पर खड़े हो गये. पापा ने कभी इस बात का क्रेडिट भी नहीं लिया. क्योंकि तब कोई अपनी-अपनी नहीं सोचता था. परिवार का अर्थ समावेशी परिवार होता था. बाबा के बाद छ: बेटे और दो बेटियों का सम्मिलित परिवार, दादी की सबसे बड़ी पूँजी और ताक़त था. 

सबके सेटल होने के बाद दादी भी इलाहाबाद आ गयीं. और हम लोगों का जौनपुर के केराकत तहसील के डोभी ब्लाक के बोदरी गाँव से नाता ख़त्म सा हो गया. हम लोगों का जन्म प्रयागराज, तत्कालीन इलाहाबाद में हुआ जरुर था, लेकिन जौनपुर के नाम पर कुछ अपनापन अभी भी जरुर लगता है. पापा को कभी अपने संघर्ष के दिनों से कोई शिकायत रही हो, ऐसा मुझे कभी नहीं लगा. अलबत्ता जब कभी मै किशोर का - कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन - गाने का प्रयास करता तो हँसते हुये टोक देते - कोई न लौटाये मेरे बीते हुये दिन. उनका मूल सिद्धान्त था - न रो ऐ दिल, कहीं रोने से तकदीरें बदलती हैं. 

दादी के बाद तो हम लोगों का गाँव से सम्पर्क धीरे-धीरे ख़त्म होता गया. खेती की जो थोड़ी बहुत जमीन थी उसे बेचने का सभी भाइयों ने निर्णय लिया. जमीन बिकने के बाद हम लोग भी शहरी लैंडलेस लेबर में शुमार हो चुके थे. दुलारी फुआ और गाँव की कुछ महिलायें माघ मेले में संगम नहाने आती रहीं. धीरे-धीरे उनका आना कम होता गया. उनकी उम्र भी दादी के आस-पास ही रही होगी. अभी भी याद है माघ के भयंकर जाड़े में फुआ और गाँव की महिलायें बिना ब्लाउज के, सूती साड़ी में बोरसी के पास बैठ कर दादी से गाँव की पंचायत बतियाती थीं. उस समय न हमें उनके पिछड़ेपन का एहसास होता था, न ही उन्हें किसी प्रकार का संकोच. फुआ अपना खाना खुद बनाती थीं, आँगन के कोने में. ठसक उनकी भी दादी की तरह सास वाली रहती और मम्मी को उनके सारे इंतजाम करने होते. शहर में रह रहे हम और हमारे पड़ोसियों के बच्चे हर साल गुड में पगे बाजरे, जोंधरी और लइया के लड्डुओं के लिये फुआ के आने की बात जोहते. 

हमारी पूरी शिक्षा-दीक्षा शहर में हुयी. दैव योग से मेरा ग्रेजुएशन कृषि अभियान्त्रिकी में हुआ. खेती-बाड़ी में अभियान्त्रिकी का उपयोग की इस ब्रांच का मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य है - खेती की लागत को कम करना, उत्पादन-उत्पादकता को बढ़ाना और कृषि कार्यों की समयबद्धता. आईआईटी और मोतीलाल में इंजीनियरिंग पढने की तमन्ना पाले बच्चों के लिये कृषि अभियान्त्रिकी में प्रवेश किसी दु:स्वप्न से कम नहीं था. कमोबेश यही स्थिति कृषि स्नातकों की होती है, जो मेडिकल की पढायी कर डॉक्टर बनने के प्रयास करते थे. कृषि अभियान्त्रिकी में बेसिक कृषि के साथ अभियान्त्रिकी के सभी मुख्य विषयों, जैसे सिविल, इलेक्ट्रिकल, मेंकैनिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि से अवगत कराया जाता है. सॉइल-वाटर, इरिगेशन, ड्रेनेज, फार्म मशीनरी, पावर और प्रसंस्करण के विषय में विस्तार से पढाया जाता है. एग्रीकल्चर इंजिनियर एक ऐसा इंजिनियर है, जिसे इंजीनियरिंग की सभी ब्रान्चेज़ की कुछ न कुछ जानकारी है. ताकि ये गाँव के स्तर पर होने वाली अभियान्त्रिकी समस्या को समझ सके, अपने स्तर पर उसे सुलझाने का प्रयास करे और न कर पाये तो विषय विशेषज्ञ को समस्या से अवगत करा उसका निराकरण करा सके. किसी को मोटे तौर पर समझाना हो तो समझ लीजिये ये ब्रांच, अभियान्त्रिकी की सभी विधाओं का सम्मिश्रण है या यूँ कह लीजिये कि इंजीनियरिंग का एमबीबीएस है. 

लगभग चालीस साल कृषि अभियान्त्रिकी में व्यतीत करने के बाद मुझे आपने प्रोफेशन पर गर्व अनुभव होता है, शायद कृषि अभियन्ता ही कृषि समस्याओं को अधिक समग्रता से देख सकता है और उनके सहज समाधान की योग्यता भी रखता है. कृषि विशेषज्ञ और कृषि अभियंता यदि साथ मिल कर काम करें तो वर्षों से पोषित समस्याओं का निराकरण और प्रबन्धन आसानी से हो सकता है. परास्नातक खाद्य प्रसन्स्करण में करने के बाद मेरी नौकरी की शुरुआत एक प्राईवेट लिमिटेड फ़ूड प्रोसेसिंग कंपनी से हुयी. कालान्तर में यही मेरे शोध का मुख्य विषय बना. कटाई-मड़ाई के बाद ही फसल से सामना होता. बोआई-कटाई से मेरा साबका बस फर्स्ट इयर में पड़ा था. हालाँकि प्रसंस्करण के लिये फसल की एकरूपता और गुणवत्ता की अहम भूमिका होती है. मेरा काम प्रसंस्करण लैब और मिल तक ही सीमित रहा. मुझ जैसे लैंडलेस शहरी लेबर के लिये खेती और किसानी एक दिवास्वप्न सा है. लहलहाती फसलों के बीच खड़ा खुशहाल किसान. जो अपने उत्पादित अनाज का प्रसंस्करण कर अधिक लाभ उठा रहा है. जो कृषक महिला और पुरुष हमारी लैब तक आते थे, सम्भवतः वो अपने सबसे सम्भ्रांत रूप में आते हों. जो मेरे मन मस्तिष्क में कहीं एक सम्पन्न ग्राम्य जीवन की परिकल्पना को साकार करते प्रतीत होते थे. 

जब भी सरकारें बदलती हैं तो कुछ नये नारे और स्लोगन देती हैं. पिछले साल जब विकसित भारत 2047 की बात उठी तो मुझे लगा ये भी एक स्लोगन बन कर न रह जाये. कानपुर 2047 जैसी मीटिंग्स हर शहर में प्रबुद्ध और गण्यमान जनों व विभिन्न संस्थाओं से सुझाव माँगे गये. तब पहली बार लगा है कि सरकार नारों को मूर्तरूप देने के लिये कृतसंकल्प लग रही है. इसके लिये शायद सरकार जनता की साझेदारी की अपेक्षा भी रखती है. सरकार से ज़्यादा ज़िम्मेदारी जनता की है कि उसे निर्णय करना है कि आज से पच्चीस साल बाद वो स्वयं को, अपने शहर को और अपने देश को कहाँ देखना चाहती है.  

मेरे एक मित्र ऑस्ट्रेलिया में रह रहे हैं. वो कुछ दिन पूर्व अपने दस वर्षीय पुत्र के साथ आये. मुझे बाज़ार जाना था, सोचा चलो बच्चे के भी घुमा लायें. मेरी मारुती 800 की बायीं सीट पर बैठते ही बच्चे ने सबसे पहले सीट बेल्ट लगा ली. मैंने मजाक में कहा पास ही जा रहे हैं बेल्ट की क्या ज़रूरत. बच्चे का जवाब मुझे शर्मसार करने वाला था - अंकल इट्स टेन इयर्स ओल्ड हैबिट. मजबूरन मुझे भी बेल्ट लगानी पड़ गयी. जब घर से चला तो वो बच्चा च्युइंग गम चबा रहा था. बाज़ार से लौटते हुये हमें दो घन्टे हो चुके थे. मुझे लगा ये लड़का अब तो कहीं न कहीं च्युइंग गम का निस्तारण करेगा. लेकिन बच्चे ने जेब से उसका रैपर निकाला और उसी में गम निकाल कर हाथ में रखे रहा. घर पहुँचने के बाद भाई साहब ने उसे डस्ट बिन में फेंक कर ही दम लिया. मैंने थोडा अभिभूत होते हुये उसके पापा और अपने मित्र से बच्चे की महानता का बखान किया तो उसने बताया भाई इन बच्चों से बच कर रहना. जब ये ढाई साल के थे तो इनके चक्कर में पिता जी का चालान कट गया था. हार्बर ब्रिज पर खड़े होकर पिता जी ने पैटीज़ का कागज़ बाक़ायदा गोली बना कर समुंदर में फेंक दिया, तो इन महाशय ने चीख़ चीख़ कर तूफ़ान उठा दिया - पापा, बाबा हैज़ लिटर्ड, पापा, बाबा हैज़ लिटर्ड. बाबा का तो क्या होता मेरा चालान कट गया. पता नहीं मुझे क्यों लगा कि बच्चों को सिखाने का सही समय है ढाई से पाँच साल. छोटे बच्चों को तो सही गलत बताया जा सकता है, पचीस साल के युवा को समझा पाना सरल न होगा. 

जब ये आदेश आया कि विकसित भारत का लक्ष्य ले कर सभी सरकारी कर्मचारियों को गाँव-गाँव जा कर सरकारी नीतियों के बारे में ग्रामीण भाइयों और बहनों को बताना होगा. एसी में रहने वाले और पीसी पर काम करने वाले अपने अन्य सहयोगियों की तरह मुझे भी लगा कि ये क्या बला है. गर्मी अपने चरम पर है, कुछ दिन रुक जाते तो अच्छा होता. लेकिन आदेश में इफ़ बट की गुंजाईश तो होती नहीं. सो हफ्ते भर तक रोज गाँव-गाँव जाना पड़ा. ये तो समझ आ गया कि इसके पीछे मन्शा क्या है. ये यात्रा शहर के साधन सम्पन्न लोगों को ग्रामीण वस्तुस्थिति से अवगत करने के लिये है. कुछ ऐसी ही कहानी में नासा में काम करने वाले मोहन भार्गव की है, जो अपनी बूढी आया, कावेरी अम्मा की खोज में चरनपुर गाँव पहुँच जाता है. जहाँ वो गाँव की परिस्थितियों से दो-चार होता है और गाँव वालों को मिल-जुल कर उन्हें खुशहाल और समृद्ध बनने के लिये प्रेरित करता है.   

हाइवे-सुपरफास्ट ट्रेन-स्काई स्क्रेपर-हाई स्पीड इन्टरनेट ये सब भले ही लोगों के लिये विकसित भारत की पहचान हैं, लेकिन ये सब संरचनात्मक प्रगति तब तक अधूरी हैं जब तक देश के अन्नदाता और देश की पचास प्रतिशत ग्रामीण जनसँख्या की प्रगति सुनिश्चित नहीं होती. आज़ादी के पचहत्तर साल बाद भी गाँवों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव साफ़ दिखता है. शायद आर्थिक तरक्की की होड़ में हमारे नागरिक देश-समाज के प्रति अपने दायित्वों पर खरे नहीं उतर सके. इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश शार्ट टर्म गेन हैं. लॉन्ग टर्म गेन के लिये ज़रूरी है, निवेश ढाई साल के बच्चे पर ताकि पच्चीस साल बाद वो एक बेहतर नागरिक बन सके.

-वाणभट्ट 

विलेन

प्रिंसिपल साहब जब भी उसके सामने पड़ जाते, उसकी आदत थी कि पूरी विनम्रता और आदर के साथ हाथ जोड़ कर अभिवादन करना. वैसे वो सत्ता और शक्ति से दूर र...