गुरुवार, 15 मई 2025

आई नाइन जेन चौदह

उसने सब्जी वाला झोला ला कर मेज पर रख दिया और ऑफ़िस की सफाई में लग गया. ऑफ़िस दस बजे शुरू होता था. लेकिन उसे आधे-एक घण्टे पहले आना पड़ता था. ऐसी ही उसकी ड्यूटी थी. सबसे पहले आना और सबसे बाद में जाना. सतवीर का काम ही था, सुबह-सुबह ऑफ़िस खोलना, सभी अफसरों की मेज साफ़ करना, और उनके आने से पहले स्वीपर से झाड़ू लगवाना. सुबह के एक घण्टे वो काफी व्यस्त रहता. शाम को ऑफ़िस बन्द करके जब लौटेगा तो इसी झोले में सब्जी लेता जायेगा. ये उसकी सीधी-साधी नियमित दिनचर्या थी. 

साहब का आते ही आते पारा चढ़ गया. ये झोला यहाँ क्यों रखा है. साफ़ सफ़ाई के चक्कर में वो आज झोला उस मेज से उठाना भूल गया था जिस पर हफ्ते भर पहले एक पर्सनल कम्प्यूटर इंस्टाल हुआ था. विभाग का पहला कम्प्यूटर था इसलिये बॉस के कमरे में उसे पूरे विधि-विधान के साथ स्थापित किया गया था. सतिया लगा कर पूजा अर्चना भी की गयी. तब राफ़ेल का ज़माना नहीं था, नहीं तो नीबू-मिर्ची भी लटका देते ताकि बुरी नज़र से हमारा कम्प्यूटर बचा रहे. 

बात सन् चौरानबे की है. बॉस अपने अट्ठावन्वे वसंत में चल रहे थे. रिटायरमेंट बस दो साल दूर था. उन्हें कम्प्यूटर का क-ख-ग नहीं पता था, लेकिन ये पता था कि कम्प्यूटर एक मँहगी मशीन है, जो बहुत उन्नत है और कुछ भी कर सकती है. इसलिये उसे बॉस के कमरे में ही एक अलग मेज पर इंस्टाल किया गया था. उसी मेज पर सतवीर झोला रख के भूल गया था. बॉस का गुस्सा सही था, इतने मँहगे कम्प्यूटर के पास मैला-कुचैला झोला रखना सही नहीं था. लेकिन उनका कनसर्न उससे भी आगे था. उन्हें डर था कि कहीं सब्जी का वायरस उनके कम्प्यूटर में घुस कर उसे खराब न कर दे. सतवीर ने अपनी गलती मानते हुये दोबारा ऐसा न होने का आश्वासन दे दिया.

तब पीसी यानि पर्सनल कम्प्यूटर का चलन अपने शुरुआती दौर में था. डॉस प्रोम्पट पर जा कर विन लिखना पड़ता था, तब विण्डोज़ आरम्भ होता था. एमएस-ऑफ़िस में तब भी वही प्रोग्राम्स हुआ करते थे, जो आज हैं - वर्ड, पावरपॉइंट, एक्सेल, एक्सेस आदि. हर प्रोग्राम के लिये ऑफ़िस के मोटे-मोटे प्रिंटेड मैनुअल्स भी आते थे, यदि आपने जेन्यूइन सॉफ्टवेयर खरीदा हो. इनमें से शुरू के तीन प्रोग्राम्स से अधिकांश कम्प्यूटर उपयोगकर्ता के काम चल जाते थे. कम्प्यूटर का दाम जितना ज़्यादा था, उतना ही लोगों को उसका फोबिया भी था. किसी ने ज़्यादा यूज़ तो किया नहीं था. डर लगा रहता था कि कहीं ख़राब न हो जाये. इसी समय ग्राफिक यूज़र इंटरफ़ेस से लोगों का सामना हुआ था. हम लोगों ने मास्टर प्रोग्राम में कंप्यूटर के नाम पर फोर्ट्रान में कुछ प्रोग्रामिंग और कुछ स्टैटिस्टिकल एनालिसिस की थी, वो भी मेन फ़्रेम कम्प्यूटर के टर्मिनल पर बैठ कर. 

विंडोज़-95 जब मार्केट में आया, तब पहली बार कम्प्यूटर को सीधे विंडोज़ पर खुलते देखा. विंडोज़ 95, 1.44 एमबी की 3.5 इंच की अट्ठारह फ्लॉपीज़ में आता था. लोड करने के लिये एक के बाद एक फ्लॉपी को लगाना पड़ता था. विंडोज़ इंस्टाल करना भी एक काम हो जाता था. फिर तो एक परिवर्तन सा आ गया. डेस्कटॉप पर्सनल कंप्यूटर्स हर किसी की मेज की शोभा बढ़ाने लगे. जब प्रोग्राम्स सीडी और डीवीडी पर आने लगे तो 1.44 एमबी की फ्लॉपीज़ का सबसे मुफ़ीद उपयोग चाय के कोस्टर्स की जगह होने लगा. अब तो सीधे इंटरनेट से प्रोग्राम्स डाउनलोड होते हैं. 

कम्प्यूटर ख़रीदना एक बात है, उसका बँटना या मिलना दूसरी. बँटवारे का तरीका वही पुराना वाला था. बन्दर बाँट वाला. अन्धे की रेवड़ी वाला. उपर से बँटना शुरू होता, नीचे हम लोगों का नम्बर आते-आते खत्म हो जाता. अब चूँकि उपर वालों के हाथ कम्प्यूटर में तंग थे, सो उसे ऑपरेट नये लोग ही करते, लेकिन वो लगता था उपर वालों के चेम्बर में ही. उपर वाले भी खुश और नीचे वाले भी.

सरकार ने मानवश्रम को और प्रॉडक्टिव बनाने के लिये धीरे धीरे सभी को पीसी मोहय्या करा दिया. ऑफिस के बाबू से लेकर विभागाध्यक्ष तक सबको व्यक्तिगत कम्प्यूटर उपलब्ध हो गये. विंडोज़ और एमएस ऑफिस सुविधा से लैस पीसी चलाना हर वो व्यक्ति सीख गया, जिसने सिंगल और डबल क्लिक करना सीख लिया. जल्द ही टाइप राइटर पुराने जमाने की बात हो गये. प्रेसेंटेशन्स के लिये ट्रांस्पेरेंसी का उपयोग लोग भूल लगे. सबको पीसी मिला, सबके दिन फिर गये. तब इंटरनेट भी अपने विकास के दौर में था, इसलिये कम्प्यूटर पर सिर्फ़ काम ही कर सकते थे. मल्टीमीडिया पीसी आने के बाद आप गाने सुनते हुये काम कर सकते थे. ऑफ़िस के खाली समय में गेम खेल सकते थे, सीडी ड्राइव में मूवी लगा कर पिक्चर्स देख सकते थे. ऑफ़िस में मल्टीमीडिया पीसी एक स्टेटस सिम्बल बन गया. लेकिन बन्दर बाँट में पर्चेज़ ऑफिस के बाबुओं ने स्वयं को और हेड को तो मल्टीमीडिया पीसी दिला दिया और बाकी लोगों को बिना मल्टीमीडिया का पीसी. इसका उद्देश्य ये था कि लोग समझ सकें कि ऑफिस-ऑफिस के खेल में कौन कितना दमदार है. अब पावर ये थी कि किसके कम्प्यूटर का कनफिगरेशन लेटेस्ट है. 

इंटरनेट आने के बाद तो कम्प्यूटर के पंख लग गये. सूचना क्रांति आ गयी. शीघ्र ही इंफॉर्मेशन रिवोल्युशन कब इंफॉर्मेशन एक्सप्लोज़न में बदल गया, पता ही नहीं चला. सूचना का ओवरफ्लो जो शुरू हुआ तो ये समझना मुश्किल हो गया कि कौन सी सूचना सही और विश्वसनीय है. यहीं से हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर कम्पनियों ने अपना खेला शुरू कर दिया. एक से एक सॉफ्टवेयर विकसित होने लगे और उन्हें चलाने के लिये कम्प्यूटर का हार्डवेयर उन्नत करना मजबूरी बनता गया. जब तक आप एक सॉफ्टवेयर में पूरी तरह पारंगत हो पाते, तब तक उसका अगला वर्ज़न आ जाता. अब चूँकि मामला स्टेटस से जुड़ गया था तो हर किसी की ख्वाहिश होती की मेरी मेज पर लेटेस्ट मॉडल हो. लेकिन बँटने का सिलसिला वही रहा, पहले बाबू फिर कोई और. बड़े-बड़े अफ़सर टापते रह जाते और उनके इंडेंट पर आया लेटेस्ट कंफिग्रेशन का कम्प्यूटर बाबू की मेज की शोभा बढ़ाता. पीसी का असली मज़ा तो एसी आने के बाद मिला. किसी ने टर्म ही गढ़ दिया एसीपीसी. ऑफ़िस आइये, एसी और पीसी (विथ इंटरनेट) ऑन कीजिये और दीन-दुनिया भूल कर लग जाइये काम पर. 

अब चूँकि हम लोग न कम्प्यूटर फील्ड के थे ना ही आईटी के, तो हम लोगों का काम तो सिम्पल कम्प्यूटर से भी चल जाता था. लेकिन हर नये प्रोसेसर के साथ कम्प्यूटर बदलना, एक फ़ैशन सा बन गया. उसके पीछे लॉजिक यही था कि टेक्नोलॉजी को हमेशा अपग्रेड करते रहना चाहिये. सभी के काम ऑफिस के पुराने वर्ज़न्स से चल जाते थे लेकिन बिल बाबा को तो चुल्ल लगी थी, मार्केट में रोज रोज नया ऑफिस झेल देते. उसके चक्कर में किसी को कम्प्यूटर बदलना पड़े तो उनकी बला से. सन् चौरानबे से लेकर अब तक मेरा तजुर्बा यही रहा है कि कम्प्यूटर की स्पीड मेरे लिये कभी कोई बाधा नहीं रही. सीमा तो सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरी स्वयं की स्पीड की थी. चाहे वो वर्ड पर काम करना रहा हो या एक्सेल या पीपीटी पर. चुनांचे थ्रीडी गेम्स खेलने के लिये आपको सिस्टम अपग्रेड करना मजबूरी हो सकता है. लेकिन ऑफ़िस में गेम्स का कोई ज्यादा तुक बनता नहीं. 

ख़ुदा गवाह है कि बिल बाबू का बिजनेस बढ़ाने के लिये मैंने कभी हार्डवेयर अपग्रेड नहीं किया. और कोई भी कम्प्यूटर दस साल से पहले नहीं बदला. मुझे अपनी सीमाओं का भली-भाँति ज्ञान था. कोई भी आसानी से पुरतनपंथी का तमगा दे सकता है लेकिन टेक्नोलॉजी के लिये प्रोडक्ट बदलने से मेरा परहेज अभी भी बना हुआ है. पुराने प्रोडक्ट को मेंटेन रखना मेरी हॉबी है. वो भी तब तक ही जब तक मैंटेनेंस की कीमत नये प्रोडक्ट से कम रहे. प्रोसेसर की स्पीड, रैम और हार्डडिस्क बढ़ती गयी और जनता हर नये अपग्रेड को हाथों हाथ लेती रही. इसका मुनाफ़ा हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर कंपनियाँ कमाती रहीं और हम स्टेटस के चक्कर में वही पुराने काम नये प्लैटफॉर्मस् पर करते रहे. 

हाल ही में एक बाबू ने अपना ऑफ़िस कम्प्यूटर बदल दिया. क्योंकि हाल ही में आई सेवन के उपर आई नाइन जेन चौदह प्रोसेसर आया था. मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया कि भाई आई थ्री से जब तुम्हारे ऑफ़िस के सब काम हो जाते हैं तो आई नाइन ले कर क्या फ़ायदा. उसने एक राज से परदा उठाते हुये बताया कि काम तो चल ही जाता था, लेकिन शाम को जब घर जाने की जल्दी होती है, तो आई थ्री बन्द होने में बहुत टाइम लेता था. नये मॉडल जो हैं ना वो फ़टाक से बन्द हो जाते हैं. मुझे लगा बात तो इसकी भी जायज़ ही है. 

 -वाणभट्ट

विलेन

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