बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

जालिम जमाना

आजकल लोग बाग कुछ ज्यादा सेंटीमेंटल और इमोशनल होते जा रहे हैं. होना भी चाहिये. पे कमीशन्स लगने के बाद सब आत्म निर्भर जो हो गये हैं. और इसीलिये अलग-थलग भी. जब सब प्रैक्टिकल होने की जुगत में लगे हैं, तो कौन किसके अहम का तुष्टिकरण करे. किसी को कोई चुनाव-वुनाव लड़ना हो तो भले गधेे को बाप बना ले. वर्ना किसी को आपके इमोशन में भला क्या दिलचस्पी हो सकती है. हाँ लेखक और कवि ऐसे प्राणी हैं, जिन्हें यहीं से मसाला खोजना होता है. तो भाई साहब, हमने सोशल मीडिया की किसी विधा या किसी ग्रूप को पकड़ा, तो फिर छोड़ा नहीं.

हर समय तरक्की और विकास की बात करने वाले बिज़ी टाइप के लोग अपना रीड रिसिप्ट ऑफ़ रखते हैं ताकि लोगों को गलतफ़हमी बनी रहे कि बन्दा बहुत व्यस्त है. बीच में मुझे लगा कि लोग मुझे एकदम खलिहर समझ रहे हैं, कि जब देखो तब ऑनलाइन रहता है. तो मैने भी इस सुविधा का उपयोग करने का निश्चय किया. अब मुझमें कुछ-कुछ मिस्टर इंडिया वाली शक्तियाँ आ गयीं थीं. मै ऑनलाइन रहता, और लोग पूछते भाई कहाँ व्यस्त हो आजकल वॉट्सएप्प भी नहीं देखते. फ़ेसबुक पर अपना कोई भी सुराग़ नहीं छोड़ता था. न कोई लाइक, न कोई कमेंट. आदमी परेशान हो जाता है. व्यूज़ तो हज़ार के उपर, पर कमेंट और लाइक दो-चार. नाज़ुक मिजाज़ होने के कारण मुझे दूसरों के दर्द का एहसास बहुत आसानी से हो जाता है. बताईये किसी ने इतनी मेहनत-जतन से पोस्ट या स्टेटस लगाया, और किसी ने उसको तवज्जोह नहीं दी. ऐसे में अच्छे भले आदमी के दिल का टूटना लाज़मी है. मुझे अपने उपर गिल्टी कॉन्शस होने लगा. बताओ किसी का दिल दुखाने का भला मेरा क्या अख़्तियार है. आदमी को कम से कम अपनी नज़र में तो सही होना ही चाहिये. 

अपनी नज़रों में गुनाहगार न होते क्यूँ कर

दिल ही दुश्मन है मुखालिफ़ के गवाहों की तरह 

- सुदर्शन फ़ाकिर

सिर्फ़ और सिर्फ़ इसी उद्देश्य से मैने रीड रिसिप्ट को पुन: ऑन कर दिया. 

अब इसमें और भी बड़ा लफड़ा ये है कि किसी ने दर्द भरा स्टेट्स लगाया और आपने पलट के हाल नहीं पूछा तो उसके दिल की तो वो जाने, आपका दिल, आपकी अंतरात्मा, आपको कचोटना शुरू कर देती है. लगता है बन्दे ने कुछ उट-पटांग कर लिया, तो समाज कल्याण या सुधारक होने का जो दम्भ पाले बैठे हैं, उसका क्या होगा. कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि कॉल किया तो बन्दा खुशमिजाज़ मूड में मिला. बोला डायलॉग अच्छा लगा सो चेप दिया. सबसे ज़्यादा दिक़्क़त तब है जब बन्दा वाकई लो फील कर रहा हो. डर रहता है कि यदि आपने फोन पर उसे पैसिफ़ाइ करने का प्रयास किया तो घण्टे दो घण्टे गये. ऐसा नहीं है कि यार-दोस्तों-रिश्तेदारों के लिये मै इतना समय दान नहीं कर सकता, लेकिन अफ़सोस की बात है कि ये इतने नाशुक्रे टाइप के लोग हैं कि बाद में आप ही के लिये कहते घूमते हैं कि खाली आदमी है, इसे कोई काम नहीं है. फोन लगाता है तो दो घण्टे बरबाद कर देता है. कवि और लेखक होने का एक नुकसान ये भी है कि आपके दिल में तो सारे जहाँ का दर्द है लेकिन ये भाई लोग बड़े प्रैक्टिकल हैं. इन्हें ऐसा बन्दा चाहिये जो इनकी व्यथा सुन के इन्हें हल्का तो कर दे, लेकिन इनकी बात पचा जाये, किसी से कुछ ना कहे. 

बॉस से पीड़ित लोग अक्सर गिरते-पड़ते मुझ नाचीज़ के पास ही आ कर टपकते हैं. उन्हें मालूम है कि कविवर घायल साहब ही उनके उद्गार झेल सकते हैं. उन्हें सांत्वना देने के चक्कर में मुझे भी मजबूरी में संवेदना के दो-चार शब्द कहने पड़ जाते हैं. बॉस को कहे कुछ सम्पुट उनकी घायल आत्मा पर फ़ाहे का काम करते हैं. अब जब रिटायरमेंट की कगार पर हूँ, तब समझ आया कि मेरा अच्छे से अच्छा दोस्त जब मेरा बॉस बनता है तो मुझे ही क्यों सुधारने में लग जाता है. हल्के होने के बाद जब इनका टूटा-फूटा आत्मविश्वास लौट आता है, तो ये ही जा कर बॉस को प्रेषित उन्हीं सम्बोधनों को मेरे नाम से ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर आते हैं. पता नहीं बॉस भी ऐसे लोगों को कैसे टॉलरेट करते हैं. मै तो कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता. उन्हें कमरे से बाहर निकाल दूँ. यदि कभी गलती से मै बॉस बन गया तो ऐसे लोगों की एंट्री ही बैन करवा दूँगा. लेकिन सहृदय लोगों के बॉस बन पाने की सम्भावना नगण्य होती है. उस पर एक दर्द ये भी है कि ऐसे लोग अपने ग़मों से उबरने के बाद पार्टी करते हैं तो हमें ही नहीं बुलाते. कभी-कभी तो लगता है कि इनकी पार्टी में जाने के लिये खाना-पीना शुरू कर दूँ, क्योंकि इनकी शिकायत रहती है कि तुम्हें क्या बुलाना, न खाते हो, न पीते. 

ऐसे लोगों की खासियत ये भी होती है कि इनके पास किसी और के दुखड़े सुनने का न समय है, न जज़्बा. गलती से किसी ने इनके आगे बीन बजानी शुरू कर दी तो यही लोग पॉज़िटिव एटिट्युड पर एक लम्बा लेक्चर पेल देंगे. यदि बन्दा गलती से इनके पास पहुँच जाये, और इनकी सुनने बैठ जाये, तो अपनी शान में इतने कसीदे काढ देंगे कि यकीन मानिये उस बन्दे को डिप्रेशन में जाने से स्वयं ब्रह्मा भी नहीं रोक सकते.

जिन बन्दों के नेटवर्क में मेरे जैसे लोग नहीं हैं, वो जालिम जमाने वाले स्टेटस ऐसे डालते हैं जैसे उन्होंने जमाने के लिये पता नहीं कितना त्याग किया है, लेकिन जमाना उनके किसी काम नहीं आया. बस उन्हें प्रताड़ित करने में लगा है. ऐसे लोगों को मेरी बिना माँगे वाली राय ये है कि पहले आप जमाने के काम आना शुरू कीजिये, फिर स्टेटस भी लगा लीजियेगा. तब वो आपका अधिकार होगा. दूसरा ऑपशन ये है कि मुझ जैसों को अपना दोस्त बनाईये. आपको आपके दर्द का एक साझीदार मिलेगा, और मुझ जैसों को एक कहानी का किरदार. 

- वाणभट्ट

शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

अन्तरात्मा

नौकरी की शुरुआत से ही मुझे ऑफिशियल क्वार्टर्स में रहने का सौभाग्य मिला. हर जगह कैंपस की लाइफ़ एकदम स्टैण्डर्ड सी होती है. ऑफिस से निकले तो घर आ गया और घर से निकले तो ऑफिस. कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो ऑफिस की बात जब तक घर पर बता न लें उन्हें बदहजमी बनी रहती है. ऑफिस में भले ही उनकी चूं न निकलती हो, लेकिन बीवी को उनकी अफ़सरी पर कोई शक न हो इसलिये शाम को चाय पर ऑफ़िस की छोटी-बड़ी सब बातें बता के ही दम लेते हैं. अपनी लकीर लम्बी करने में बहुत मेहनत है, इसके बनिस्पत दूसरे की लकीर छोटी करना कहीं आसान है. दिन भर मोहल्ले की पंचायत से बोर बीवी भी कुछ चटपटा सुनना चाहती है. आज बॉस ने किसी पडोसी की क्लास ली हो तो उससे अधिक इम्पोर्टेन्ट भला क्या बात हो सकती है. उसकी सोचिये जिसकी उस दिन क्लास लगी हो. उस शाम या तो बन्दा टहलने नहीं निकलता, और यदि निकल जाये तो उसे लगता है कि पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा उसके हाल से वाक़िफ़ है. हमारे यूपी में भाभी जी लोगों का आलम ये है कि भाईसाहब के साथ हों तो भले लम्बी-लम्बी हाँक लें. लेकिन अगर कभी अकेले में आमना-सामना हो जाये पहचानने से भी इंकार कर दें. ऐसे माहौल में यदि पड़ोस की भाभी जी ने बाई मिस्टेक गल्ती से स्माइल फेंक दी तो कसम से आदमी को डिप्रेशन का शिकार होने में देर नहीं लगती. 

कैम्पस मतलब शहर के अन्दर एक शहर. जो शहर में हो कर भी शहर से बाहर होता है. कभी कभी तो ये एहसास होता था कि कैम्पस देश और दुनिया के भी बाहर है. वहाँ की ख़बरें भी आन्तरिक होती हैं, जिनका बाहर की दुनिया से कोई मतलब नहीं. किसने किसका क्या काम लगाया और किसने किसको क्या सबक सिखाया, ये सब को पता होता है. जो ऑफिस में डिस्कस होता है, वही किटी में और जो किटी में डिस्कस होता है, उस पर ऑफिस में चर्चा होती है. कुछ लोगों को लगता है कि कैम्पस में रहने से आपकी प्राइवेसी नहीं रहती. लेकिन नये अनजाने शहर में पचास लोग जानने वाले हों, ये भी कोई कम नेमत नहीं है. सारी प्राइवेसी में खलल के बाद भी मुझे कैम्पस लाइफ़ इसीलिये अच्छी लगती थी कि मिलने वाला कोई ये नहीं कह सकता कि मैं इन्हें नहीं जानता या पहचानता. ये बात अलग है कि पहचाने या ना पहचाने. जो पहचान ले समझ लो उसे कुछ आपसे काम पड़ने वाला है. और जो न पहचाने उसका निकट भविष्य में आपसे कोई काम नहीं पड़ने वाला. सीधा हिसाब है. ऑफिस की दोस्ती फटे की यारी है. किस्मत ने साथ कर दिया तो निभाना ही पड़ेगा, किसी तरह का कोई वादा नहीं है. इसीलिये ऑफिस के रिश्ते मोहल्ले और मोहल्ले के रिश्ते ऑफिस पहुँच ही जाते. जो कुछ भी एक जॉइंट फैमिली में हो सकता है, सब यहाँ होता है. कौन सा ऐसा परिवार है, जहाँ सब बराबर हों, सबमें एका हो और किसी प्रकार की कोई खटपट न हो. हमारे यहाँ तो केन्द्र सरकार का विभाग होने के कारण सम्पूर्ण भारतीय संस्कृतियों के दर्शन हो जाते हैं. जो इस भावना की पुष्टि करते हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है.

कैम्पस की लाइफ़ में हम और हमारा परिवार रच-बस गया था. शायद ही कभी हमने कैम्पस से बाहर निकलने की सोची हो. दिन अच्छे भले कट रहे थे. सब एक दूसरे से खुल के मिलते थे क्योंकि क्या घर क्या ऑफिस सबको सबके बारे में सब पता था. लेकिन आदमी की फितरत ही ऐसी है कि जब सब कुछ सही-सही चल रहा हो तो उसे कुछ नया करने का मन करता है. बस मोनोटोनी से बचने के लिये. ऐसे में किसी ने राय दे दी कि इनकम टैक्स में रियायत पानी है तो होम लोन ले लो. जब आदमी नौकरी खोज रहा होता है तो उसे आजीविका के लिये एक अदद नौकरी की तलाश होती है. और जब पहली बार इनकम टैक्स देना पड़ता है तो उसे लगता है कि सरकार उसे चूस रही है. उसने कोई पूरे देश का ठेका तो उठा नहीं रखा है. तो जनाब टैक्स बचाने के लिए वो जितने हथकण्डे अपना सकता है, सब अपनाता है. सरकार को भी मालूम है नौकरीपेशा लोगों की ये मानसिकता. सो एक हाथ देती है और दूसरे हाथ ऐसी स्कीमें ले आती हैं जो टैक्सफ्री हैं ताकि जनता उनमें निवेश करे और सरकार का पैसा सरकार के पास ही रहे. देश की अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिये पैसे का सर्कुलेशन में रहना भी ज़रूरी है, वरना भारत का मिडिल क्लास तो इसीलिये बदनाम था कि साढ़े सात परसेंट के मुनाफ़े पर वो सारी बचत-पूँजी पीपीएफ और जीपीएफ में झोंक दे. 

टैक्स बचाने के उद्देश्य से मेरे मन में भी 'एक बंगला बने न्यारा' वाली तमन्ना कुलाँचे मारने लगी. सहगल साहब के ज़माने से अब तक में बहुत परिवर्तन आ चुका था. मिडल और सर्विस क्लास के लिये बँगले अब सपनों में ही रह गये थे. एलआईजी, एमआईजी और एचआईजी जो आप के बजट को सूट करे, वही चुन लीजिये और बंगले का स्वप्न भूल जाइये. सन 2000-05 तक फ्लैट्स की अवधारणा आ चुकी थी लेकिन अपने दस फुटा लॉन में सुबह की चाय और जाड़े में अपनी छत पर चटाई बिछा के धूप सेंकने की इच्छा ख़त्म नहीं हुयी थी. मिडल क्लास की खुशियाँ भी कितनी छोटी होती थीं, उन दिनों. शुभ कार्य को शीघ्र ही किया जाना चाहिये. वैसे तो हम लोग अपने कैम्पस जीवन से पूरी तरह सन्तुष्ट थे, किन्तु टैक्स बचाने के एक मात्र उद्देश्य से मैंने होम लोन लेने का निश्चय लिया. ये भी निर्णय हुआ कि मकान ले लेते हैं पर रहेंगे कैम्पस में ही.  

शुरुआत प्राइवेट बिल्डर्स के यहाँ से की क्योंकि सरकारी लोगों को पता नहीं क्यों लगता है कि प्राइवेट बिल्डर्स बेटर प्लानिंग करते हैं और अधिक सुविधायें देते हैं. ये तो बाद में पता चलता है कि उनकी मार्केटिंग ही उत्कृष्ट होती है, सुविधायें नहीं. कैम्पस में रहते-रहते हम लोग दुनिया से बाहर हो चुके थे. दुनिया कहाँ कितने आगे निकल गयी पता ही नहीं चला. बिल्डर ने पहले ही बता दिया कि 60 प्रतिशत श्वेत और बाकी 40 प्रतिशत श्याम में पेमेंट करना होगा. मै साईट मैनेजर की ओर देखता रह गया. भाई जितना कहोगे उतना अपनी बचत और लोन लेकर हम पूरा सफ़ेद धन दे सकते हैं, काली कमाई का तो एक धेला नहीं है हमारे पास. उसने कहा भाई साहब आप किस दुनिया में रहते हैं. जिसने भी मकान या फ़्लैट ख़रीदा हो पहले उससे मिलें वो बतायेगा कि मकान कैसे ख़रीदा जाता है. परम मित्र गर्ग साहब ने बताया कि महाजनो येन गत: स पन्था:. विभाग के मूर्धन्य लोगों ने यूँ ही सरकारी कॉलोनियों को आशियाना नहीं बनाया है. इसके लिये आपको पूरा लोन आसानी से मिल सकता है. इसीलिये हमारे सीनियर्स ने पास की एक शहरी प्राधिकरण कॉलोनी में अपना रैन-बसेरा बसाया हुआ है, तुम भी वहीं के लिये प्रयास करो.    

जब जागो तभी सवेरा. साहब हम भी ले आये एक फॉर्म कॉलोनी में मकान आवंटन के लिये. जैसा कि हमने पहले बताया था कि हम लोग अब तक ज़माने से बाहर का जीवन जी रहे थे. मकान की लॉटरी से लेकर रजिस्ट्री तक की प्रक्रिया में शामिल हर आदमी मुँह बाये खड़ा था. कोई फिक्स्ड रेट नहीं था और जो था वो भी अनाप-शनाप. तुर्रा ये कि जनाब दस्तूर है, चढ़ावे का. और बिना चढ़ावे के पत्ता तक नहीं खिसकता. बड़े-बड़े लोगों ने छोटे-छोटे लोगों को इस काम पर लगा रखा है. आप शिकायत भी करेंगे तो किसकी, किससे. जिस देश में व्यक्तिगत स्वार्थ सर चढ़ के बोलता हो वहाँ ईमानदारी की बात करने वाला भी अकेला हो जाता है. मकान आवंटन की इस पूरी प्रकिया में मुझे उन उन लोगों से मिलना पड़ा जिनसे शायद कोई कभी दोबारा मिलना न चाहे. बहुतों की कलई खुलते देखी और उनके रुआब का कारण भी समझ आया. सीधी सी बात है, अगर वो जनता की सहायता करने के उद्देश्य से काम करेंगे तो जनता को दुहेंगे कैसे. 

अब सेमी फिनिश्ड मकान को फिनिश कराना भी एक चुनौती से कम नहीं था. लेकिन अब तक ऑफिशियल डीलिंग की कुछ-कुछ आदत सी पड़ गयी थी. ऊपर वाले दिखाने को कट्टर ईमानदार टाइप के लोग होते हैं. उनका काम है नीचे वालों को संरक्षण देना. बात नीचे वालों से ही बनती है और उनके नखरे उठाना हर किसी की मज़बूरी बन जाता है. उसे ही वो अपनी ताकत समझ कर गौरवान्वित होते रहते हैं. 

जब बिजली के कनेक्शन के लिये सबस्टेशन पहुँचा तो अन्दर घुसने से पहले ही जुगाड़ तलाशने लगा. किसी ने बताया फॉर्म विभाग के एक साहब के झोले में रहता है लेकिन देते हैं वो किसी चाय की दुकान पर बैठने वाले दलाल के माध्यम से ही हैं. पता नहीं क्यों मुझे दलाल शब्द से घोर आपत्ति है. आपको उन्हें सेवा प्रदाता कहना चाहिये. एक से एक दुरूह काम को वो अपने नेटवर्क की वजह से चुटकी बजाते ही कर और करवा सकते हैं. चाय की दुकान पर बहुत भीड़ थी. कुछ लोग चाय भी पी रहे थे. कुछ चाय पी कर बैठे हुये थे. कुछ चाय के आने का इन्तजार कर रहे थे. भगोने पर चाय औटाई जा रही थी. बिना किसी को सम्बोधित किये मैंने हवा में जुमला उछाला - बिजली का कनेक्शन लेना था. कुछ मुस्कुराते चेहरों को मैंने अपनी ओर देखता पाया. फ़रेब के धन्धे पूरी ईमानदारी से होते हैं. दो बन्दे मेरी तरफ बढ़ लिये. किनारे ले जाकर उन्होंने पूरी कागज़ी फोर्मैलिटी और ईमानदारी से फिक्स्ड रेट भी बता दिया. ये भी बता दिया कि ज्यादा जुगाड़ के चक्कर में पड़ेंगे तो चक्कर ही काटते रह जायेंगे. अब तक के तजुर्बों से मुझे इस बात पर विश्वास  हो चला था कि तुलसी बाबा जी ने भी निर्विघ्न मानस लिखने से पहले दुष्टों की पूजा अर्चना क्यों की होगी.

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएं| जे बिनु काज दाहिनेहु बाएं||

पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें| उजरें हरष बिषाद बसेरें|| ||

कुछ लोग निहायत ही दुष्ट प्रवृत्ति के होते हैं. उन्हें निष्प्रयोजन ही दूसरों की को परेशान करने में आनन्द आता है. अर्थात आप ये भी मान सकते हैं कि दुष्टों का धरती पर सदा से वास रहा है और बिना उनकी स्तुति-वन्दन के महान से महान लोगों के लिये महान कार्यों का निष्पादन कर सकना असम्भव रहा है. सम्भवतः ये देश इसी कारण से आज भी विकासशील राष्ट्र है क्योंकि ये दुष्टों के सही हो जाने की उम्मीद पाले बैठा रहा. इनकी सेन्स वैल्यू हो या न हो लेकिन न्यूसेंस वैल्यू बहुत है. अब चूँकि न्यूसेंस कोई अपराध तो है नहीं कि इन्हें कोई सजा दी जा सके. अक्सर ये लोग संगठित तरीके से गिरोह बना कर काम करते हैं. इनका पूरा इको सिस्टम होता है. और अच्छे लोग तो हमेशा माइनोरिटी में ही रहे हैं. इनके बस दो ही इलाज़ हैं. या तो सही जगह पर सही तरह से लट्ठ बजे या इनके अहम् की तुष्टि की जाये. पहले में रिस्क ये है कि उनकी संख्या ज्यादा है. दूसरा कोई भी शरीफ़ व्यक्ति उतना नहीं गिर सकता, जहाँ ये लोट रहे हैं. इगो को सन्तुष्ट करना एक सबसे सेफ़ तरीका है लेकिन इसके लिये आपको अपनी इगो की तिलांजलि देनी पड़ती है. काश ये बात पहले समझ आ जाती तो हम भी इस जीवन में कुछ महान काम कर गुजरते. अपनी इसी मूढ़ता के चलते अपने कितने ही महान विचारों को मूर्त रूप नहीं दे पाया. अब तो कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है कि ये जीवन तो व्यर्थ चला गया, अगले जनम में देखा जायेगा.

अपने इगो को दरकिनार करते हुये उनके सामने चाय की पेशकश की लेकिन बन्दों ने गुटखे की डिमांड रख दी. जिसके लिये बस पाँच रुपये से उन्होंने संतोष कर लिया. मुझे ले कर वो सबस्टेशन में घुस गये और एक चपरासीनुमा अफ़सर (श्री श्रीलाल शुक्ल जी के कॉपीराइट से साभार चुराया हुआ) के सामने मुझे प्रस्तुत कर दिया. अफ़सर ने उन्हें देखते ही आग बबूला होने का स्वांग किया. यहाँ ले कर क्यों आ गये और उन्हें डाँटते हुये वो उनके साथ कमरे के बाहर निकल गया. जब कि उन दिनों मोबाईल फोन वाला ज़माना नहीं था कि कोई कुछ रिकॉर्ड कर सके. लेकिन पेन वाले स्पाईकैम आ चुके थे. 

अब मेरा ध्यान कमरे की दरो-दीवार पर गया. सरकारी दीवारों पर एक ही रंग होता है जो मेरे स्टाफ़ क्वार्टर का भी था पीला क्रीम. कमरा छोटा था. अफसर की मेज-कुर्सी के बाद बमुश्किल विजिटर चेयर की गुंजाईश थी. जिसकी शोभा नाचीज़ उस समय बढ़ा रहा था. उनमें एक दरवाज़ा था जिससे मै अन्दर आया था या वो बाहर गये थे. एक खिड़की थी जो मेज के ठीक सामने थी, मेरी पीठ के पीछे. मेज की बायीं ओर एक सीमेंट की ढली हुयी अलमारी थी, जिस पर पल्ले लगने बाकी थे. उस अलमारी में एक फोटो फ्रेम रखा था. वो भी उल्टा यानि बोर्ड वाला हिस्सा सामने था, फोटो वाला पीछे. हो सकता है फोटो का शीशा टूट गया हो. मेरे मन में किसकी फोटो है, ये जानने की प्रबल जिज्ञासा उठ खड़ी हुयी. जब तक मै ये देख पाता की तस्वीर किसकी है, तीनों गुटका चबाते हुये वापस आ गये.

सेवा प्रदाता के हाथ में एक फॉर्म था. उसने कहाँ-कहाँ हस्ताक्षर करने हैं और क्या-क्या कागज़ लगाने हैं, इसकी संक्षिप्त हिदायत दी और साथ में ये भी जोड़ दिया कि फॉर्म गलत हो गया तो फिर पूरी फोर्मैलिटी करनी पड़ेगी. फ़ीस के साथ उसने शीघ्र आने के लिये भी कहा. आ कर चाय कि दुकान पर हमसे मिल लीजियेगा, आपका काम हो जायेगा. तय रेट के अनुसार मैंने शर्ट की उपरी जेब में रखे रुपये साहब जी की ओर बढ़ा दिया. उसने चढ़ावा सेवा प्रदाताओं को अर्पित करने का इशारा किया. मैंने वैसा ही किया. तीनों पैसा लेकर फॉर्म सहित पुनः कमरे से बाहर चले गये. शायद पैसा गिनने या देखने कि कहीं कटा फटा नोट तो नहीं पकड़ा दिया. उनके अपने तरीके हैं ठोंक बजा के काम करने के. इस बीच मुझे हाथ बढ़ा कर फोटो देखने का मौका मिल गया. 

फोटो गाँधी जी की थी. मुझे लगा कि कम से कम उस अफ़सर की अंतरात्मा इतनी जाग्रत तो थी कि हमारे महापुरुष के सामने गलत करने से वो कतरा रहा था. अन्य विभागों में उनके चित्र सामने लोग सरेआम हर वो काम कर रहे हैं जो उन्हें नहीं करने चाहिये. गाँधी जी का चित्र भला किसी को कुछ भी सही या गलत करने से कैसे रोक सकता था. जहाँ लोग भगवान के सामने भी गलत करने से न घबराते हों, वहाँ इस व्यक्ति का राष्ट्रपिता के प्रति इतना आदर भाव देख कर मै भाव विह्वल हो गया. हर विभाग का अपना दस्तूर होता है वर्ना देश में भले लोगों की कमी नहीं है. मेरा मन उस अफ़सर के प्रति श्रद्धा और आदर से भर गया.

-वाणभट्ट 

मुर्गीदाना

किसी भी भाषा में यदि किसी मुहावरे की रचना हुयी है तो उसके पीछे देश-समाज का वर्षों का अनुभव निहित होता है. तभी तो मुहावरे एकदम टाइम टेस्टेड उ...