मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के विभिन्न पहलू इस विषय का मुख्य आधार होते थे. लेखक प्रायः समाज में व्याप्त विषमताओं को रेखांकित करते हुये, एक काल्पनिक समाज की परिकल्पना करता था, और लेख मानव मात्र के कल्याण के भाव से समाप्त होता था. इस विषय पर यदि मंचन होता तो तालियाँ बजती थीं और यदि फिल्म बन जाये तो उसके हिट होने की प्रबल सम्भावना होती थी. कारण भी यूँ ही नहीं था, यथार्थ सदैव आदर्शवादी कल्पनाओं से कोसों दूर होता है. जब मन मोहन देसाई की फिल्मों में अमिताभ समाज के असामाजिक तत्वों को ठिकाने लगता था तो हॉल सीटियों से गूँज जाता था. कुछ घंटों के लिए ही सही, आम आदमी अपने ऊपर हुये अन्याय पर प्रतीकात्मक विजय से खुश हो लेता था.
मूल रूप देखा जाये तो मनुष्य के सामाजिक जीवन का आरम्भ भी कृषि के विकास के साथ ही हुआ होगा. उसके पहले तो वो भी अन्य वन्य जीवों की तरह भोजन की खोज में इधर-उधर घूमता रहता था. बुद्धि तो पहले भी अन्य प्राणियों से अधिक थी, इसलिये उनको अपना भोज्य बना लेना सबसे सरल और सहज था. पाषाण युग में पत्थरों के अस्त्र बना कर उनका शिकार करना भी सीखा होगा. सम्भवतः आरम्भ में मांसाहार ही उसका मुख्य ऊर्जा स्रोत रहा हो. निरंतर प्रकृति के सानिध्य में रहने के कारण धीरे-धीरे उसके वनस्पति ज्ञान में वृद्धि हुयी हो और फल-फूल उसके भोजन में सम्मिलित हुये होंगे. समय के साथ उसने घुमन्तू जीवन से त्रस्त होकर स्थायी निवास का निर्णय लिया हो. इसीलिये कृषि को सबसे पुराना उद्यम माना जा सकता है. जंगल काट कर खेत बनाये गये होंगे. पानी के बिना कृषि संभव नहीं है, इसीलिए अधिकांश सभ्यताओं की स्थापना नदियों के किनारे ही हुयी. कृषि किसी भी समाज की मुख्य धुरी रही होगी और उसी के आस पास समाज बना होगा। समाज है तो उसके कुछ अनुशासन, कुछ रीति, रिवाज और मान्यतायें बनी होंगी. हज़ारों साल के मानव इतिहास का आरम्भ समाज से ही हुआ होगा. उसके बाद का इतिहास एक सभ्यता का दूसरी सभ्यता पर श्रेष्ठता और नियंत्रण स्थापित करने का इतिहास है. समाज है तो उसकी वर्जनायें भी अवश्य रही होंगी. एक-दूसरे पर अधिपत्य और अधिकार का प्रयास जो आज देखने को मिलता है, वो पहले भी रहा होगा. मुखिया और पंचों, नियम और कानून, पुरस्कार और दण्ड की आवश्यकता ही न होती, यदि समाज में समानता, समरसता और सद्भावना होती.
पहले योग्यता के आधार पर राजा का चयन होता रहा होगा, बाद में वो परिवारवाद में परिवर्तित हो गया हो. राजा का बेटा राजा. परिवर्तन जीवंत समाज का लक्षण है. राजशाही का जब बोझ प्रजा की सहनशक्ति की सीमा के बाहर हो गया होगा, तब लोकतंत्र और प्रजातंत्र की ओर समाज का ध्यान गया होगा. जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिये. मुख्य बात ये है कि राजशाही रही हो या प्रजातंत्र, दोनों में ही वर्चस्व की लड़ाई है. पहले जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत थी. लाठी तो अब भी काम आती है, बस उसके प्रयोग का तरीका बदलता गया है. एक समय ऐसा भी आया जब मजबूत लाठी वाले ज़्यादा से ज़्यादा भैंस को हाँक ले जाते थे. फिर लाठी का जोर जब कम होने लगा तो उन्हीं लठैतों ने समाजवाद का चोला पहन कर भैंसों को चारा डालना शुरू कर दिया. हालात ये हैं कि चारे के चक्कर में भैंसों को आज भी पता नहीं कि उन्हें दुह कौन रहा है.
भैंसों और आदमी के समाज में अंतर है. भैंसों को सिर्फ़ चारे से मतलब है, उनके लिये जाति-धर्म का कोई मलतब नहीं है. लेकिन आदमी के मामले में ऐसा नहीं है. उसका रंग और नस्ल और धर्म और जाति के आधार पर वर्गीकरण किया जा सकता है. अब चूँकि आदमी सोच भी सकता है, तो उसे हर समय इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि उसका व्यक्तिगत लाभ किधर है. इस प्रक्रिया में न उसे देश का ध्यान रहता है, न समाज का. यदि पक्ष और विपक्ष दोनों ही देश कल्याण की कामना करते हैं, जब दोनों का उद्देश्य समाज सेवा ही है, तो उनकी कार्य पद्यति में इतना विरोधाभास और अन्तर क्यों देखने को मिलता है. राजनीति कोई व्यवसाय तो है नहीं कि उसी से रोजी-रोटी चले. सेवा करने का ऐसा जज़्बा और जूनून देश के नेताओं में ही देखने को मिलता है कि लगता है इन्हें सेवा का अवसर नहीं मिला तो ये बेचारे करेंगे क्या. भारत में नेतागिरी और राजनीति फ़ुल टाइम जॉब है. एक बार विदेश से कोई डेलिगेशन आया. उसमें वहाँ के किसी मंत्री ने हमारे मंत्री जी से पूछा आप करते क्या हैं. उनका इंस्टैंट जवाब था - नेता हैं, और क्या करना है. फिर उस विदेशी नेता को स्पेसिफ़िकली पूछना पड़ा कि जीवीकोपार्जन के लिये क्या करते हैं, तो उनका जवाब था - नेतागिरी.
आज लोकतंत्र जब अपने चरम पर है तो समाज का वही राजशाही स्वरूप देखने को मिल रहा है. पक्ष हो या विपक्ष सभी नेता दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहे हैं. उद्योगपति और नौकरशाह सब चकित-व्यथित हैं कि बिना हर्र और फिटकरी के मात्र समाज सेवा से कैसे धनकुबेर बना जा सकता है. वो ये भूल जाते हैं कि हमारे पूर्वजों ने पहले ही बता रखा है कि सेवा करोगे तो मेवा मिलेगा. सम्भवतः ये उन्होंने अपने बच्चों के लिये कहा हो कि यदि जायजाद में हिस्सा चाहिये तो सेवा करते रहना. उनकी सोच एक परिवार तक सीमित थी. हमारे नेता पूरे देश को एक परिवार मानते हैं. पूरे देश की संपत्ति उनकी अपनी है, इसलिये वो समस्त देश की सेवा करने को तत्पर रहते हैं. और इनके लिये देश की जनता ही माई-बाप है. अतः उनकी सेवा करना इनका जन्मसिद्ध अधिकार है और अपने अधिकार का पालन करने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता.
लेकिन 'चैरिटी बिगिन्स ऐट होम' के यूनिवर्सल लॉ को मानने वाले पहले अपना, फिर अपने परिवार के उद्धार में लग जाते हैं. फिर उन्हें चिन्ता होती है, अपनी बिरादरी, अपने समाज की. समाज भी देखता है कि जिसमें लंपटइ के सारे गुण हैं वो ही नेता बन कर उनका कल्याण कर सकता है. नेता उन्हें समझाता है कि बिना पद के नेतागिरी बस इंवेस्टमेंट है, कर कुछ नहीं सकते. इसलिये संगठित रहना आवश्यक ताकि कोई बड़ी पार्टी उन्हें टिकट दे. बड़ी पार्टी भी समाज पर उसकी पकड़ और संख्याबल देख कर ही नेता पर दाँव लगाती है. नतीजा जितने समाज, जितनी जाति, उतने नेता. हर नेता अपने अपनों के उत्थान के लिये प्रतिबद्ध. अपने समाज के पिछड़े, शोषितों और वंचितों के लिये न्याय की लड़ाई लड़ते-लड़ते कब वो धनपतियों (धनपशुओं) की श्रेणी में आ जाते हैं, उन्हें स्वयं पता नहीं चलता. इस प्रक्रिया में समाज का भला होता है या नहीं, ये तो पता नहीं, लेकिन देश का नुकसान अवश्य हो जाता है. समाजों में बँटे लोग न अपने भले की सोच पाते हैं, न देश के. इस मामले में भैंसों का सिक्स्थ सेंस मनुष्यों से बेहतर है, क्योंकि वहाँ जातिगत विद्वेष नहीं है. न ही किसी की किसी के उपर राज करने की इच्छा. शायद इसीलिये आदमी अन्य जीवों से अलग है. किन्तु दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के प्रयास में आदमी-आदमी से अगल होता चला जाता है. फिर नेता लोग उन्हें जोड़ने में लग जाते हैं ताकि लोग जुड़े या न जुडें उनका वोट बैंक जुड़ा रहना चाहिये.
आज जब समाज इतने हिस्सों में बँट गया है कि कभी-कभी लगने लगता है कि मनुष्य में समाजिकता के ह्रास यही मुख्य कारण है. यदि इन्सान का इन्सान से भाईचारा हो तो किसी और चारे की आदमी को ज़रूरत नहीं है. समाज में जब लोगों के सम्बंधों का आधार जाति और संप्रदाय तक सीमित हो गया है, तो आज़ादी के पचहत्तर साल बाद जिस भारत का स्वप्न हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देखा होगा, वैसा भारत नहीं दिखता. ये निश्चय ही चिंतन का विषय है. पहले बुद्धिबल की श्रेष्ठता से मनुष्य, मनुष्य पर राज करता था, आज उस पर धन-समृद्धि का तड़का भी लग चुका है. समृद्धता के तड़के ने समाज को जोड़ने से अधिक तोड़ने का काम किया है. समृद्धि के पीछे निश्चय ही लोगों के व्यक्तिगत प्रयास से रहे हों, किन्तु पहले ये समृद्धता परिवार की होती थी, समाज की होती थी, आज ये व्यक्तिगत हो गयी है. अहं और मै तत्व इतना हावी है कि लोग भूल जाते हैं कि उनके बनने-बनाने में उस समाज का भी कुछ न कुछ योगदान रहा है, जिसमें वो पला-बढ़ा है.
आज लोग सामाजिक, चारित्रिक और राजनैतिक पतन की ऐसे बात करते हैं, जैसे वो स्वयं समाज से अलग हैं. नेता भी समाज से आते हैं और जैसा समाज होगा, वैसे ही लोगों को अपना नेता चुनेगा. जब सब तरफ समाज में गिरावट देखने को मिल रही है, तो ऐसे में लम्पट, स्वार्थी और निरंकुश नेताओं से समाज सुधार की आशा करना कहाँ की समझदारी है. किन्तु दुनिया आशा पर ही टिकी है. सबकी उम्मीद है कि कुछ भी हो अपना नेता अपने लोगों का ख्याल तो रखेगा ही. उसे ये किंचित भान नहीं है कि वो जिस नेता के पीछे चल रहा है, उसका मूल उद्देश्य अपने और अपने परिवार-खानदान की बेहतरी पहले है. आज यदि समाज पर लेख लिखा जाये तो बहुत सम्भावना है कि छात्र लिखें कि मनुष्य एक व्यक्तिगत प्राणी है, और मौका पा कर अपने स्वार्थ या लाभ के लिये कभी-कभी सामाजिक हो जाता है. विशेष रूप से मनुष्य जब सफलता के शीर्ष पर जब पहुँच जाता है तो एकदम से व्यक्तिगत हो जाता है. और किसी प्रकार की समस्या आने पर पुन: सामाजिक बनने का प्रयास करता है. संयोग से समाज में अभी भी सहृदय लोगों की कमी नहीं है, वो इनकी सहायता को तत्पर रहते हैं. समस्या के निकलते ही बन्दा पुन: व्यक्तिगत हो जाता है. कई बार तो उसे ये भी कहते सुना जा सकता है कि उसने समस्या को कैसे स्मार्टली मैनेज किया. ऐसा नहीं है कि समाज में अच्छे लोगों या स्वार्थरहित समाजसेवियों की कमी है, लेकिन अमूमन ये लोग नेपथ्य में रह कर अपना कार्य करते रहते हैं. ऐसे लोग प्रायः राजनीति से दूर भी रहते हैं.
मनुष्य चाहे कितनी भी भौतिक प्रगति कर ले, लेकिन मूलरूप से है तो सामाजिक तो प्राणी ही. अपने सुख और दुःख को साझा किये बिना उसे भला चैन कहाँ. मजबूरी ये है कि जो समाज अगल-बगल रहता है, उससे तो वो जाति-धर्म-आर्थिक-राजनैतिक अंतरों के कारण कट गया है. अब चूँकि सभी सक्षम और समृद्ध हैं, तो किसे फुरसत है कि दूसरे के सुख-दुःख की परवाह करे. पहले पूरा मोहल्ला चाचा-मामा-ताऊ-बाबा होता था. कभी-कभी लगता है कि हममें जो थोड़ी बहुत संस्कार नाम की चीज़ बची है, उसमें घर वालों से ज्यादा पड़ोसियों का योगदान है. चूँकि पड़ोस एक परिवार की तरह था, तो पड़ोसी भी अभिवावक की तरह ही व्यवहार करते थे. जितना पड़ोस के चाचा जी लोगों ने कूटा होगा उतना तो पिता जी ने टोका भी नहीं होगा. अब न पड़ोसी का बच्चा चाचा मानता है, न चाचा बच्चे को टोकने की हिम्मत कर पाते हैं. हमारी पीढी ने तकनीक के कारण लोगों को अलग अलग होते देखा है. टीवी के आने से पहले, पिता जी लोग शाम को किसी न किसी के यहाँ जाते थे या कोई न कोई हमारे घर आता था. मोहल्ले में जब पहला टेलीफोन या टीवी आया तो वो पूरे मोहल्ले का था. जिसके यहाँ लगता तथा वो दूसरों को बुलाये बिना न चित्रहार देखता था, न रामायण. सबके यहाँ साइकिल थी, सबके सपने स्कूटर तक ही सीमित थे.
जब से तकनीक ने घर में प्रवेश किया, तो लोगों का घर से निकलना कम से कमतर होता गया. आज घर में जितने सदस्य उतने टीवी हैं, और उससे कहीं ज्यादा टीवी चॅनेल्स और ओटीटी प्लेटफ़ॉर्मस् हैं. चूँकि कुछ भी फ़्री नहीं है इसलिये पैसा वसूलने के उद्देश्य से आपको टीवी पर समय बिताना मजबूरी बन चुकी है. मोबाइल डाटा का भी पैसा लगता है. इसलिये आदमी की विवशता है कि उसका भी उपयोग करे. अब डाटा और टॉक टाइम तो अनलिमिटेड है लेकिन बात करने के मुद्दे ख़त्म से होते जा रहे हैं. शुरुआत में जब टॉक टाइम फ्री हुआ था तो लोग दिन में दस बार यार-दोस्तों-सम्बन्धियों के हाल लेते थे. अब लगता है कि ज्यादा आत्मीयता दिखायी तो अगला पूरा वेला (खलिहर) न समझ ले. इसलिये व्यस्त रहने से ज्यादा व्यस्त दिखाना ज़रूरी है. लोगों ने कॉल करना छोड़ दिया. एक समय था जब टेलीमार्केटिंग वालों ने जीना मुहाल कर रखा था. दिन में पचासों फोन आते थे कि ये ले लीजिये, वो ले लीजिये. हमने परेशान हो कर ऐसे नम्बरों पर डीएनडी (डू नॉट डिस्टर्ब) लगा दिया. अब स्थिति ये है कि दिन और महीने गुजर जाते हैं, किसी का काम हो तो ही कोई फोन आता है. हम भी ये सोच कर फोन नहीं करते कि अगला व्यस्त है तो क्या डिस्टर्ब करना. सोच रहा हूँ कि फिर से डीएनडी हटा दूँ ताकि दिन में दो-चार बार आदमी की आवाज़ सुन सकूँ.
कुछ दिन सभी को सोशल मिडिया का शौक चर्राया. फिर यहाँ भी पैमाने बनने लगे. देखो कितना खाली है दिन भर सोशल मीडिया पर लगा रहता है. वाट्सएप्प वालों को तो यूजर्स चाहिये, सो उन्होंने भी नये-नये प्रावधान कर दिये. ताकि लोग बिना किसी आत्मग्लानि, संशय और संकोच के उसका उपयोग कर सकें. सो इसमें रीड रिसिप्ट और लास्ट लॉग इन डिसेबल के ऑप्शंस भी जोड़ दिये गये. लोगों ने इन फीचर्स को हाथों हाथ लिया. अब आपको पता नहीं चलेगा कि हमने आपकी पोस्ट देखी या स्टेटस देखा है या नहीं. कुछ ऐसा ही हाल फेसबुक का है. लोग आते हैं और फेसबुक पर आपका वीडियो देख कर निकल जाते हैं. नतीज़ा व्यूज़ तो सैकड़ों में होते हैं लेकिन लाइक और कमेन्ट दस भी पहुँच जायें तो आप अपने आप को सोशल मान सकते हैं. आजकल जिसे देखो वो इन्स्टा(ग्राम) का उपयोग कर रहा है, शायद वहाँ प्राइवेसी अधिक है. हमने आपकी पोस्ट देखी भी और आपको पता ही नहीं चला कि हमने देखी. आपको तो ये ही लगेगा कि बंदा इतना बिज़ी है कि सोशल मिडिया पर भी सामाजिक होने का समय नहीं है तो फिर वो फिज़िकली होली और दिवाली मिलने आपके घर कैसे आ सकता है. वो आता है और पूरी प्राइवेसी के साथ आपकी पोस्ट-स्टेट्स देखता है और बिना कोई निशान छोड़े निकल लेता है. ऐसे ही लोगों के लिये ग़ालिब ने शेर लिखा था-
अंदाज़ अपने देखते हैं आईने में वो
और ये भी देखते हैं कोई देखता न हो
मुझे मालूम है कि ये शेर ग़ालिब का नहीं है. लेकिन जब लोग कमेन्ट में बतायेंगे कि ये शेर ग़ालिब का नहीं है तो मुझे पता चल जायेगा कि कौन-कौन इतना वेला है कि इतनी लम्बी वाहियात पोस्ट पढ़ गया और किसने-किसने मेरी पोस्ट देख ली है.
-वाणभट्ट