हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म योग सिखाता हो, वहाँ यम-नियम के नाम से ही बड़े-बड़ों की हवा निकल जाती है. इसलिये वो कर्म काण्ड को लक्ष्य करके मूल धर्म पर आघात करने से नहीं चूकते. समाज में सदियों से व्याप्त जड़ता, अंधविश्वास और कुप्रथाओं को हिन्दू धर्म से जोड़ कर शिक्षित लोग-बाग स्वयं को नास्तिक कहलाना अधिक पसन्द करते हैं. कर्म के आधार पर बनी गतिशील जातिगत व्यवस्था को नवशिक्षित लोगों ने जड़ मान कर धर्म परिवर्तन का आधार बना लिया. विश्व में हिन्दू ही ऐसा एक मात्र धर्म है, जिसमें कर्म के अनुसार वर्ग-वर्ण-जाति बदलने की व्यवस्था है. लेकिन कर्म करना कठिन, श्रमसाध्य और दुष्कर है. इसकी अपेक्षा व्यवस्था को दोष देकर धर्म बदलना बहुत आसान है. उसके पीछे कहीं न कहीं मानव जीवन को भोग-विलास के लिये उपयोग करना मूल कारण दिखायी देता है. बड़े भाग्य से मानव जीवन मिला है तो क्यों न थोड़ा भोग-विलास कर लिया जाये. स्वर्ग में जा कर तो हवन-पूजन करना ही है. बाकि सबके लिये इस और उस जीवन में ऐश की सम्भावना है. मूल रूप से भारत में विकसित सभी धर्म करुणा और त्याग पर आधारित हैं. वैसे संप्रदायों को धर्म मनाना भी एक हिसाब से गलत ही है. धर्म बदला नहीं जा सकता. सम्प्रदाय कितने भी बदल लीजिये. धर्म शाश्वत, सार्वभौमिक और अपरिवर्तनीय है.
ज्ञान की प्राप्ति के लिये भारत वर्ष में ब्रह्मचर्य और अनुशासन पर बहुत बल दिया गया है. तभी हमारे पूर्वज, ऋषि-मुनि, गणित या ग्रह-नक्षत्रों की गणना में विश्व में अग्रणी रहे. ये बात अलग है कि हमारे ही अँग्रेजी में साइंस पढ़े लोग उन्हें वैज्ञानिक मनाने को तैयार नहीं हैं. विज्ञान की किसी भी आधुनिक विधा का आप नाम लीजिये, उसका वर्णन वेद और पुराणों में मिल जाता है. हमारा भू, हमेशा से गोल रहा है. किसी प्रकार का कोई संशय नहीं कि धरती गोल है या चपटी. 'यथा पिण्डे, तथा ब्रह्मंडे'. उनका ज्ञान परमाणु की संरचना से लेकर ब्रह्मांडीय गतिविधियों से अनभिज्ञ न था. शायद इसलिये पश्चिमी देशों में हुयी अधिकांश खोजें अंग्रेजों के भारत में पदार्पण के बाद हुयी. लुटेरे मुग़ल का ध्यान बस ख़जाना लूटने तक सीमित रहा. अंग्रेज़ों ने बौद्धिक सम्पदा पर डाका डाला. उन्होंने ही पेपर पब्लिश करने और पेटेंट-कॉपीराइट जैसी लफ्फाज़ी में हमें उलझा दिया. वरना हमारे देश में विज्ञान तो जनकल्याण के लिये था. जब से मार्केट में मुनाफ़ा कमाने का चलन बढ़ा है, तब से सब अपना-अपना शोध सीने से चिपकाये घूम रहे हैं, कि पेटेंट कराएंगे और लाभ कमाएंगे. आजकल तो किसी को राय भी देनी हो तो आईडिया स्टैम्प पेपर पर लिखवा कर साइन करवा लीजिये. वरना आप का आईडिया वो अपने नाम पर पेटेंट करवा सकता है. अब न पुरातन काल का सतयुग बचा, न वर्तमान काल की एथिक्स बची है.
सारी बातों का लब्बोलुआब ये है कि ज्ञानीजन का ज्ञान बहते झरने की तरह सबको सहज उपलब्ध है, और विज्ञानीजन अपने लाभ और प्रमोशन तक सीमित हो गये हैं. उसमें भी दो तरह का विज्ञान है. एक सरकारी और एक असरकारी यानि प्राइवेट. प्राइवेट का विज्ञान लाभ को प्रोत्साहित करता है. जहाँ ब्रैंड, पैकेजिंग और मार्केटिंग स्ट्रेटीज़ के दम पर हर माल मुनाफ़े पर निकाल दिया जाता है. सरकारी का हाल भी कुछ अजीब है. पीएचडी-डीएससी करते-करते यदि आईएएस/पीसीएस/तहसीलदार नहीं बन पाये, तो इज़्ज़त से जीवन-यापन करने की एक सरकारी स्कीम है, अध्यापन और शोध. इसमें भी अमूमन वो ही आगे जा पाता है, जिसमें एक अच्छे प्रशासक या प्रबंधक के गुण हों. यही गुण तब और मुखरित हो कर निखरते हैं, जब उन्हें कोई प्रशासनिक पद मिल जाता है. सुयोग से यदि किसी कमेटी के चेयरमैन भी बन गये, तब इनकी प्रतिभा के नये रंग सामने आते हैं. वरना ये निरीह प्राणी की तरह कुंडली मारे पड़े रहते हैं.
अब चूँकि ये नौकरी है, तो नौकरी की तरह ही करनी होगी. एग्जाम होगा, प्रमोशन होगा और प्रमोशन के लिये एक आदर्श पथ होगा. जिस पथ पर चल के आपके विभाग के लोग उच्च पदों पर आसीन हुये. उन्हें ये अच्छी तरह मालूम होता है कि उन्हें क्या करना चाहिये था, लेकिन उन्होंने नहीं किया. अब वही काम दूसरों से करवाना है. सबसे बड़ा काम तो मातहतों से टाइम का पालन करवाना है. बिना सीएल/ईएल के पूरा मकान बनवा लेने वाले जानते हैं कि उनका मकान बन चुका है और जूनीयर्स को बनवाना है. उनके बच्चे पढ़ चुके हैं, जूनीयर्स को पेरेंट मीटिंग में जाना है. आठ घंटे कोई लैब में रहेगा तो कब तक यूरेका नहीं कहेगा. लिखायी-पढ़ायी करेगा तो पेपर छपेंगे, पेपर छपेंगे तो मार्गदर्शन का श्रेय उन्हें भी मिलेगा. जो रिटायमेंट के बाद एक्स्टेंशन में काम आयेगा. सेवा विस्तार नहीं भी मिला तो विद्वतजनों के लिये बहुत सी कमेटियाँ हैं. जहाँ वो यथा योग्यता, यथा कांटैक्ट अपना योगदान दे सकते हैं.
श्लोक 'न ब्रूयात सत्यम अप्रियं' सत्यवादी हरिश्चन्द्र और सत्य के प्रयोग करने वाले गाँधी के देश में कुछ अटपटा सा लगता है. हमारे पूर्वज 'सत्यमेव जयते' के अनुपालक थे, और हम असत्य को महिमामंडित करने में लगे हैं. जिसने भी इस विचार का प्रतिपादन किया होगा, वो या तो राज पुरोहित रहा होगा या भविष्यवक्ता, जो बुरी से बुरी बातों पर मुलम्मा चढ़ा कर उन्हें कर्णप्रिय बनाने का हुनर रखते थे. कतिपय सम्भव है वो राजा-महाराजा के दरबार में चारण या भाट रहा हो. जबकि उन्हें भली-भाँति मालूम था कि इस देश में शाश्वत सत्य तो राम नाम ही है.
-वाणभट्ट
विचारणीय पोस्ट, धर्म के मूल को न जानकर केवल कर्मकांड को धर्म समझने वाले लोग अपने जीवन में कोई परिवर्तन नहीं ला पाते तब अन्य लोगों का विश्वास भी धर्म से उठ जाता है, धर्म सनातन है, उसके पालन करने का अर्थ है स्वयं के स्रोत से एक होना और उन मूल्यों को धारण करना जो सनातन हैं
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