रविवार, 27 अक्टूबर 2024

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म योग सिखाता हो, वहाँ यम-नियम के नाम से ही बड़े-बड़ों की हवा निकल जाती है. इसलिये वो कर्म काण्ड को लक्ष्य करके मूल धर्म पर आघात करने से नहीं चूकते. समाज में सदियों से व्याप्त जड़ता, अंधविश्वास और कुप्रथाओं को हिन्दू धर्म से जोड़ कर शिक्षित लोग-बाग स्वयं को नास्तिक कहलाना अधिक पसन्द करते हैं. कर्म के आधार पर बनी गतिशील जातिगत व्यवस्था को नवशिक्षित लोगों ने जड़ मान कर धर्म परिवर्तन का आधार बना लिया. विश्व में हिन्दू ही ऐसा एक मात्र धर्म है, जिसमें कर्म के अनुसार वर्ग-वर्ण-जाति बदलने की व्यवस्था है. लेकिन कर्म करना कठिन, श्रमसाध्य और दुष्कर है. इसकी अपेक्षा व्यवस्था को दोष देकर धर्म बदलना बहुत आसान है. उसके पीछे कहीं न कहीं मानव जीवन को भोग-विलास के लिये उपयोग करना मूल कारण दिखायी देता है. बड़े भाग्य से मानव जीवन मिला है तो क्यों न थोड़ा भोग-विलास कर लिया जाये. स्वर्ग में जा कर तो हवन-पूजन करना ही है. बाकि सबके लिये इस और उस जीवन में ऐश की सम्भावना है. मूल रूप से भारत में विकसित सभी धर्म करुणा और त्याग पर आधारित हैं. वैसे संप्रदायों को धर्म मनाना भी एक हिसाब से गलत ही है. धर्म बदला नहीं जा सकता. सम्प्रदाय कितने भी बदल लीजिये. धर्म शाश्वत, सार्वभौमिक और अपरिवर्तनीय है. 

ज्ञान की प्राप्ति के लिये भारत वर्ष में ब्रह्मचर्य और अनुशासन पर बहुत बल दिया गया है. तभी हमारे पूर्वज, ऋषि-मुनि, गणित या ग्रह-नक्षत्रों की गणना में विश्व में अग्रणी रहे. ये बात अलग है कि हमारे ही अँग्रेजी में साइंस पढ़े लोग उन्हें वैज्ञानिक मनाने को तैयार नहीं हैं. विज्ञान की किसी भी आधुनिक विधा का आप नाम लीजिये, उसका वर्णन वेद और पुराणों में मिल जाता है. हमारा भू, हमेशा से गोल रहा है. किसी प्रकार का कोई संशय नहीं कि धरती गोल है या चपटी. 'यथा पिण्डे, तथा ब्रह्मंडे'. उनका ज्ञान परमाणु की संरचना से लेकर ब्रह्मांडीय गतिविधियों से अनभिज्ञ न था. शायद इसलिये पश्चिमी देशों में हुयी अधिकांश खोजें अंग्रेजों के भारत में पदार्पण के बाद हुयी. लुटेरे मुग़ल का ध्यान बस ख़जाना लूटने तक सीमित रहा. अंग्रेज़ों ने बौद्धिक सम्पदा पर डाका डाला. उन्होंने ही पेपर पब्लिश करने और पेटेंट-कॉपीराइट जैसी लफ्फाज़ी में हमें उलझा दिया. वरना हमारे देश में विज्ञान तो जनकल्याण के लिये था. जब से मार्केट में मुनाफ़ा कमाने का चलन बढ़ा है, तब से सब अपना-अपना शोध सीने से चिपकाये घूम रहे हैं, कि पेटेंट कराएंगे और लाभ कमाएंगे. आजकल तो किसी को राय भी देनी हो तो आईडिया स्टैम्प पेपर पर लिखवा कर साइन करवा लीजिये. वरना आप का आईडिया वो अपने नाम पर पेटेंट करवा सकता है. अब न पुरातन काल का सतयुग बचा, न वर्तमान काल की एथिक्स बची है. 

सारी बातों का लब्बोलुआब ये है कि ज्ञानीजन का ज्ञान बहते झरने की तरह सबको सहज उपलब्ध है, और विज्ञानीजन अपने लाभ और प्रमोशन तक सीमित हो गये हैं. उसमें भी दो तरह का विज्ञान है. एक सरकारी और एक असरकारी यानि प्राइवेट. प्राइवेट का विज्ञान लाभ को प्रोत्साहित करता है. जहाँ ब्रैंड, पैकेजिंग और मार्केटिंग स्ट्रेटीज़ के दम पर हर माल मुनाफ़े पर निकाल दिया जाता है. सरकारी का हाल भी कुछ अजीब है. पीएचडी-डीएससी करते-करते यदि आईएएस/पीसीएस/तहसीलदार नहीं बन पाये, तो इज़्ज़त से जीवन-यापन करने की एक सरकारी स्कीम है, अध्यापन और शोध. इसमें भी अमूमन वो ही आगे जा पाता है, जिसमें एक अच्छे प्रशासक या प्रबंधक के गुण हों. यही गुण तब और मुखरित हो कर निखरते हैं, जब उन्हें कोई प्रशासनिक पद मिल जाता है. सुयोग से यदि किसी कमेटी के चेयरमैन भी बन गये, तब इनकी प्रतिभा के नये रंग सामने आते हैं. वरना ये निरीह प्राणी की तरह कुंडली मारे पड़े रहते हैं. 

अब चूँकि ये नौकरी है, तो नौकरी की तरह ही करनी होगी. एग्जाम होगा, प्रमोशन होगा और प्रमोशन के लिये एक आदर्श पथ होगा. जिस पथ पर चल के आपके विभाग के लोग उच्च पदों पर आसीन हुये. उन्हें ये अच्छी तरह मालूम होता है कि उन्हें क्या करना चाहिये था, लेकिन उन्होंने नहीं किया. अब वही काम दूसरों से करवाना है. सबसे बड़ा काम तो मातहतों से टाइम का पालन करवाना है. बिना सीएल/ईएल के पूरा मकान बनवा लेने वाले जानते हैं कि उनका मकान बन चुका है और जूनीयर्स को बनवाना है. उनके बच्चे पढ़ चुके हैं, जूनीयर्स को पेरेंट मीटिंग में जाना है. आठ घंटे कोई लैब में रहेगा तो कब तक यूरेका नहीं कहेगा. लिखायी-पढ़ायी करेगा तो पेपर छपेंगे, पेपर छपेंगे तो मार्गदर्शन का श्रेय उन्हें भी मिलेगा. जो रिटायमेंट के बाद एक्स्टेंशन में काम आयेगा. सेवा विस्तार नहीं भी मिला तो विद्वतजनों के लिये बहुत सी कमेटियाँ हैं. जहाँ वो यथा योग्यता, यथा कांटैक्ट पना योगदान दे सकते हैं. 

श्लोक 'न ब्रूयात सत्यम अप्रियं' सत्यवादी हरिश्चन्द्र और सत्य के प्रयोग करने वाले गाँधी के देश में कुछ अटपटा सा लगता है. हमारे पूर्वज 'सत्यमेव जयते' के अनुपालक थे, और हम असत्य को महिमामंडित करने में लगे हैं. जिसने भी इस विचार का प्रतिपादन किया होगा, वो या तो राज पुरोहित रहा होगा या भविष्यवक्ता, जो बुरी से बुरी बातों पर मुलम्मा चढ़ा कर उन्हें कर्णप्रिय बनाने का हुनर रखते थे. कतिपय सम्भव है वो राजा-महाराजा के दरबार में चारण या भाट रहा हो. जबकि उन्हें भली-भाँति मालूम था कि इस देश में शाश्वत सत्य तो राम नाम ही है. 

-वाणभट्ट

रविवार, 13 अक्टूबर 2024

पंख

एक्सलरेटर को हल्का सा ऐंठा ही था कि स्कूटर हवा से बातें करने लगा. फोर स्ट्रोक वाली हीरो-होण्डा चलाने वाले को पिकअप से संतोष करना ही पड़ता है. लेकिन होण्डा एक्टिवा की बात कुछ और है. हेलमेट लगा हो तो कब ये साठ पार कर जाती है, पता ही नहीं लगता. जब तक मैंने स्वयं एक्टिवा नहीं चलायी थी, मुझे लगता था कि लोग-बाग़ ख़ामख्वाह उड़े जा रहे हैं. आज की पीढ़ी या तो स्पीड चाहती है या टशन. बुलेट अगर डिमांड में है और धुआँधार बिक रही है तो उसके पीछे टेक्नोलॉजी से ज़्यादा स्टाइल स्टेटमेंट वाली बात है. 

पंख होते तो उड़ आती रे या पंछी बनूँ उड़ती फिरूँ मस्त गगन में आदि-इत्यादि गीतों की भावनायें इंसान की मूल रूप से स्वतंत्र रहने की प्रवृत्ति को दर्शाती है. पैदल जाने में आस-पड़ोस, घर-परिवार के द्वारा गंतव्य तक पहुँचने से पहले पकड़े जाने की सम्भावना अधिक रहती है. उड़ने में समय भी कम लगता है. फुर्र से उड़े और पहुँच गये. जिससे मिलना है मिले, और उसी तरह फुर्र से किसी को हवा लगने से पहले वापस हो लिये. 

जब पहली बार सन् सत्तासी में हीरो-होण्डा भारत में इंट्रोड्यूस हुयी थी, तो मार्केट में स्कूटर 'हमारा बजाज' का बोलबाला था. बजाज को स्टार्ट करने से पहले उसकी आरती उतारने का एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर था. स्कूटर को तीन बार इंजन की ओर झुकाओ, तभी पेट्रोल कार्बोरेटर तक पहुँचता था. बजाज स्कूटर के मालिक को छोटा-मोटा मेकैनिक होना पड़ता था. कभी भी आपको स्पार्क प्लग साफ़ करना पड़ सकता था. एक-दो क्लच वायर तो स्कूटर की डिक्की में पड़े ही रहते थे, जिसे बदलना, कोई भी ओनर जल्दी ही सीख जाता था. संतोष धन से समृद्ध हम लोग एक लीटर में अस्सी किलोमीटर चलने वाली हीरो-होण्डा के उपर तीस किलोमीटर चलने वाले बजाज से मात्र इसलिये संतुष्ट थे कि उसकी रिसेल वैल्यू थी, और तब तक किसी को हीरो-होण्डा के रीसेल की नौबत नहीं आयी थी. दोनों के दाम में भी दुगने का अंतर था. जड़त्व के मामले में हम लोगों का कोई सानी नहीं है. काफी समय तक बजाज सिर्फ़ अपने स्थापित नाम और विज्ञापनों पर ही चलता रहा. 'यू जस्ट कांट बीट अ बजाज'. आज भी बहुत सी ऑब्सलीट हो चुकी पॉलिटिकल पार्टीज़ और एजेंडों को बस इसलिये ढोये जा रहे हैं क्योंकि वो पुरानी पार्टीयाँ और पुराने मुद्दे हैं. कुछ पुराने लीडर्स के प्रति हम स्वयं को प्रतिबद्ध समझते हैं. 

उसी समय सबसे पहली ऑटोमेटिक गियर वाली स्कूटर काईनेटिक होण्डा ने भी इंडियन मार्केट में एंट्री मारी. टेक्नोलॉजिकली सुपीरियर इन गाड़ियों ने भारत के टू-व्हीलर सेगमेंट को अभूतपूर्व रूप से प्रभावित किया. नतीजन मार्केट में जापानी तकनीक वाली कावासाकी-बजाज और इंड-सुज़ुकी जैसी गाडीयाँ भी लॉन्च हुयीं. लेकिन मार्केट में हीरो होण्डा और काईनेटिक होण्डा का वर्चस्व बना रहा. इन भारतीय कंपनियों के माध्यम से होण्डा ने भारत के मार्केट पोटेंशियल का अध्ययन कर लिया. सन् सत्तासी में ही मैंने आँकलन कर लिया था कि जिस दिन होण्डा ने डायरेक्ट अपना प्रोडक्ट लॉन्च कर दिया, इन भारतीय कम्पनियों के लिये समस्या आ सकती है. कभी लूना और स्पार्क जैसी गाडियाँ देने वाली मार्केट लीडर रही काईनेटिक गायब हो गयी. हीरो और बजाज भी मार्केट में बने रहने के लिये निरंतर नये-नये मॉडल्स निकाल रहे हैं. 

निसंदेह एक्टिवा के नये-नये मॉडल्स ने युवाओं को पंख दे दिये हैं. कल्पना तो कल्पना होती है. लेकिन किसी भी कल्पना का आधार कहीं से ली गयी प्रेरणा होती है. जब होंडा वालों ने अपने टू-व्हीलर सेगमेंट के लिये पंख का सिम्बल चुना तब मुझे शक़ नहीं हुआ कि इनका इरादा क्या है. इनका टू-व्हीलर आपको गति प्रदान करेगा और वो भी ऐसी वैसी नहीं. उड़ने के माफ़िक. आपको लगेगा कि पंख निकल आये हों. जिसे देखो भड़भड़ाया उड़ा जा रहा है. स्पीड इतनी की स्पीड ब्रेकर भी हैरान हो जाता है कि हम ख़ामख्वाह लेटे पड़े हैं. आज गति ही विकास है. विकास और परिवर्तन हमेशा आगे ही जाता है, लेकिन 'पाथ ऑफ़ नो रिटर्न' पर. 

स्पीड की खोज में जुटे युवाओं के लिये इस गाड़ी में मुझे व्यक्तिगत तौर पर बस दो कमियाँ लगीं. १. चौड़े इंजन को कवर करने के लिये इन्होंने उतनी ही चौड़ी सीट लगा रखी है. इससे पिलीयन सीट पर बैठने वाले को हमेशा ये डर बना रहता है कि चढ़ते-उतरते कहीं उसकी तशरीफ़ का टोकरा पब्लिक दर्शन के लिये खुल न जाये. २. इसका फुटरेस्ट स्कूटर की बॉडी से बाहर काफ़ी निकला सा लगता है. बाक़ी हवा में उड़ने वालों के लिये इससे मुफ़ीद टू-व्हीलर फ़िलहाल तो मार्केट में नहीं दिखता. 

अमूमन मोहल्ला मार्केटिंग के लिये कंधे का झोला मेरे ड्रेस कोड में शामिल है. उस दिन शाम को टहल के लौट रहा था, जब घर से फ़रमाइश आयी कि लौटते हुये माज़ा की दो लीटर की बोतल लिये आना. लिहाज़ा मुझे पॉलीथीन बैग लेना पड़ गया. जब से मार्केट का विस्तार हुआ है, तब से लगता है दुकानों ने पूरा फुटपाथ निगल लिया है. पैदल चलने वालों के लिये सड़क पर चलने की विवशता है. ख़रामा- ख़रामा मै सड़क पर अपनी बायीं साइड लिये घर की ओर चल दिया. तभी एक मोहतरमा सनसनाती हुयी मेरे बगल से एक्टिवा से गुजरीं. हेलमेट पहनने के बाद अधिकांश लोगों को लगता है उनकी गर्दन सामने की ओर फ़िक्स हो गयी है. ग़लती से कोई अगर मोड़ पर सर दायें-बाँयें घुमा लें, तो समझिये ड्राइविंग टेस्ट दे कर ही लाइसेंस बना है. 

उनके पंख खुले हुये थे. पंख से एक सॉफ्ट फीलिंग आती है. एक्टिवा के फुटरेस्ट को डैने की संज्ञा देना अधिक उचित होगा. सशक्त पक्षियों जैसे गिद्ध, चील और बाज के डैनों को पंख कहना सही नहीं है. नयी पीढ़ी इतनी जल्दी में होती है कि इनको फुटरेस्ट खोलने का समय भले मिल जाये, लेकिन इसे बन्द करने की किसके पास फुरसत है. ये उसे बन्द इसलिये भी नहीं करते कि बार-बार क्या खोलना-बन्द करना. जापान में विकसित होण्डा एक्टिवा के निर्माताओं ने ये सोच कर की ड्राइविंग के बेसिक्स तो लोगों को पता होंगे, फुट रेस्ट बंद रखने का क्लाज मैनुअल में नहीं डाला. ना ही किसी ने इन्हें बताया कि जब फुटरेस्ट उपयोग में न हो तो बन्द कर देना चाहिये. सारे एक्टिवा वाले शार्प चाकू जैसा फुटरेस्ट लिये खुले-आम घूम रहे हैं. बाकी गाड़ियों के यूज़र्स का भी यही हाल है. लेकिन उनके फुटरेस्ट संभवतः हैंडल की चौड़ाई के भीतर आ जाते हों. 

उनका फुटरेस्ट मेरे पैर पर भी लग सकता था, यदि मेरे दाहिने हाथ के पॉलीथीन में माज़ा की बोतल न लटक रही होती. पॉलीथीन का लिफ़ाफ़ा फट चुका था और माज़ा की बोतल सड़क पर रोल होते हुये पीछे से आती कार के ठीक सामने थी. कार वाला शाम को मार्केट में बढ़ती चहल-पहल के चलते नियन्त्रित स्पीड पर चल रहा था. उसने ब्रेक मार कर माज़ा को शहीद होने से बचा लिया. 

बोतल की जगह यदि मेरा पैर चपेट में आ जाता तो स्थिति का अंदाज़ आसानी से लगाया जा सकता है. उधर उन मोहतरमा को पता भी नहीं लगा कि उनकी पीठ के पीछे मेरा काम लगते-लगते रह गया. यहाँ ये बताना भी ज़रूरी है कि अधिकांश लोग स्कूटर का बैक मिरर अपने चेहरे पर फ़ोकस रखते हैं ताकि हैंड्स फ़्री पर बात करते हुये अपनी भाव-भंगिमा निहार सकें. पब्लिक की सेफ़्टी के मद्देनज़र कम्पनी को मेरा सुझाव है कि भाई जब इतनी अच्छी और मॉडर्न स्कूटर बना ही दी है तो एक बटन ऐसा भी लगा दो कि जिसे दबाते ही फुटरेस्ट खुल और बन्द हो सकें. मेन स्टैंड का उपयोग न जानने वाली और हमेशा साइड स्टैंड पर टू-व्हीलर खड़ा करने वाली युवा पीढ़ी के पास समय का सर्वथा अभाव है और रहेगा.  

-वाणभट्ट

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...