रविवार, 3 मार्च 2024

संस्कार

संस्कार शब्द जब भी कान में पड़ता है तो हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का ही ख़्याल आता है. भारत में विशेष रूप से हिन्दुओं के संदर्भ में संस्कार का बहुत महत्व है. गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक संस्कार हिन्दुओं के साथ-साथ चलते हैं. अमूमन लोग इसका अर्थ तमीज़, तहज़ीब या मैनर्स समझ लेते हैं. लेकिन ये इन सबसे अलग है. संस्कार वो हैं जो बचपन से घुट्टी की तरह पिलाया जाता है. खास बात तो ये है कि संस्कार कोई किसी को सिखाता नहीं है. बल्कि इनको बच्चे अपने घर में अपने बड़ों के आचरण से सीखते हैं. समय और जगह के साथ-साथ संस्कार भी बदल जाते हैं. हालात तो ये हैं कि हर घर के अपने संस्कार होते हैं.

यहाँ पर सबसे बड़ा संस्कार बड़ों का आदर करना है. बड़े भी बस यही ताक लगाये देखते रहते हैं कि बच्चों में संस्कार नाम की चीज़ है भी या नहीं. लेकिन अक्सर ये बात दूसरों के बच्चों पर लागू होती है. हर व्यक्ति ये मान कर चलता है कि उसने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिये हैं. लेकिन तौलने का तराजू तो दूसरों के हाथ में होता है. 

ग्रेजुऐशन में जब पहली बार जीन्स खरीदी तो लगा रोज-रोज धुलाई से आज़ादी मिल गयी. एक जीन्स को हफ़्ते भर न रगड़ लो तो संतोष नहीं होता. उस पर गोल या बोट नेक वाली टी-शर्ट जब पहनता था तो लगता था कि कहीं न कहीं बात बन जायेगी. ये तो बहुत बाद में पता चला कि लड़कियाँ सिक्योर्ड फ्यूचर देखती हैं. एक से एक कैंटीन में चाय पिलवाने वाले स्मार्ट लड़के टापते रह गये. लड़कियाँ टॉपर्स के साथ नोट्स एक्सचेंज करते-करते सेट हो गयीं. वो तो भला हो कि नौकरी मिल गयी नहीं तो शादी के भी लाले पड़ जाते. 

ऐसे ही जीन्स और बोट नेक वाली टी-शर्ट पहने जब मैं कॉलेज से लौटा तो घर में फूफा जी ड्राइंगरूम में सोफ़े पर बैठे हुये थे. चरण-स्पर्श करने के इरादे से झुका तो उन्होंने घम्म से एक घूँसा पीठ पर मारा. पिता जी से बोले ये क्या संस्कार दे रखा है, बेटा भिखारियों जैसे कपड़े पहने घूम रहा है. अब उन्हें कौन समझाये की जीन्स को फेड कराने के लिये कितने जतन किये गये हैं. ऐसे ही जब पोस्ट ग्रेजुऐशन में थीसिस के दौरान हर बच्चा दाढ़ी बढ़ाये घूम रहा था, जीजा जी का पत्र आया कि कभी लखनऊ घूम जाओ. जब दाढ़ी बढ़ ही गयी थी तो सोचा कबीर बेदी की तरह सेट करवा लिया जाये. मौका निकाल के जब जीजा जी के पास पहुँचा तो उनका पहला रिऐक्शन यही था कि ये क्या लफंगों जैसी शक्ल बना रखी है. क्लीन शेव्ड (मूँछ मुंडे) जीजा ने मेरी दाढ़ी कटवा के ही दम लिया. संस्कार के नाम पर हम फूफा और जीजा जैसे मान्य लोगों की बात भला कैसे टाल सकते थे. तब फोन या मोबाइल तो थे नहीं कि बहन बता दे कि घर पर फूफा या जीजा आये हैं. इस डर से जीन्स-टीशर्ट-दाढ़ी सिर्फ़ हॉस्टल तक ही सीमित रही. घर जाता तो ओरिजिनल गोलमाल फ़िल्म के राम प्रसाद की तरह बालों में तेल चुपड़ कर ही घुसता.

कॉलेज के अपने संस्कार हुआ करते थे, जो रैगिंग के दौरान सीनियर्स ठोंक-पीट के सिखा देते. हॉस्टल पहुँचते ही बाल रंगरूटों की तरह कटवा दिये जाते. पैंट-शर्ट-बेल्ट-टाई ये फ्रेशर्स की ड्रेस हुआ करती थी. उस पर भी शर्त ये थी कि शर्ट लाइट कलर की और पैंट डार्क. सीनियर्स से बात करनी है तो अपनी शर्ट की तीसरी बटन देख कर. सीनियर्स के असाइनमेंट्स चाहे वर्कशॉप के हों या इंजीनियरिंग ड्राइंग के, बिना हुज्जत के निपटाना जूनियर्स का ही काम होता. सीनियर्स के सामने हँसना तो दूर मुस्कुराना भी गुनाह था. ये बात नौकरी के बाद समझ आयी कि यदि आप ज़्यादा खुश दिखोगे तो बॉस आपका काम लगा देगा. इसलिये मनहूस चेहरा बनाये रखिये ताकि उसे ग़लतफ़हमी रहे कि उसका इस्तक़बाल बुलन्द है. 

जमाना क्या बदला रैगिंग बैन हो गयी. नतीजा ये निकला कि जूनियर्स सीनियर्स को टी-ली-ली करके चिढ़ाया करते और सीनियर्स मन-मसोस के देखते रहते. सीनियर्स और जूनियर्स का सम्बन्ध भी समय के साथ कम होता गया. पहले जूनियर्स तीन साल सीनियर्स और सीनियर्स तीन साल जूनियर्स को जानते थे. अब एक बैच के बच्चे भी एक-दूसरे को पहचान लें तो बड़ी बात है. ये पौध जब डिग्री-विग्री ले कर बाहर आयी तो सीनियर-जूनियर का कॉन्सेप्ट खत्म हो चला था. आज जब ये नौकरी में आ गये तो रैगिंग जनित संस्कार की विहीनता हर तरफ़ परिलक्षित होती है. सीनियर अपनी इज़्ज़त अपने हाथ मान कर जूनियर्स से उचित दूरी बनाये रखते हैं. इसमें इनका दोष भी नहीं है. चूँकि इन्होंने बड़ों का बड़प्पन तो देखा नहीं है इसलिये उसको एप्रीशिएट करना इनके बस की बात नहीं है. सीनियर अगर कैंटीन में बैठा है तो जूनियर को पर्स नहीं निकालना. सारी किताबें और नोट्स पिछले बैच से अगले बैच तक ट्रांसफर होते रहते. सीनियर्स भी लोकल गार्जियन की तरह ख़्याल रखते. 

वो जब मेरे कमरे में आया तो मेज के दूसरी तरफ़ बिन्दास अन्दाज़ में विज़िटर चेयर खींच कर बैठ गया. ठीक भी है, कुर्सी बैठने के लिये ही तो होती है. उसे नौकरी जॉइन किये दो-एक साल हो चुके थे. लेकिन उसका मुझसे कोई काम नहीं पड़ा तो मेरे कमरे में उसका आना नहीं हुआ. लड़का बिन्दास था. उसके लहजे में ग़ज़ब का कॉन्फिडेंस था. अच्छा लगता है आत्मविश्वास से लबरेज़ युवाओं से मिल कर. मेरा अपना मानना है कि हर आने वाली पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी से ज़्यादा श्रेष्ठ होती है. ये कोई जबरदस्ती का जेनेटिक इम्प्रूवमेन्ट नहीं नेचुरल इवोल्यूशन है. हमारे समय में बच्चे को मालिश करके काला टीका लगा कर पालने पर झूला दो, तो बड़े आराम से झूलता रहता था. आज का बच्चा मोबाइल और कार्टून नेटवर्क से नीचे मानने को तैयार नहीं है. बात ख़त्म होने के बाद वो जिस अन्दाज़ में कुर्सी खींच के बैठा था, उसी अन्दाज़ में कुर्सी धकेल के उठ खड़ा हुआ. कुर्सी पैंतालीस डिग्री का आर्क बनाते हुये स्थिर हो गयी. बन्दा पलट के धड़धड़ाता हुआ निकल गया. बेतरतीब चीज़ें अखरती हैं, इसलिये उसके जाते ही मैने उस कुर्सी को यथावत अगले आगन्तुक के लिये ठीक से रख दिया. 

आजकल किसी को समझने-समझाने का ज़माना तो रहा नहीं. वैसे भी जब से घर में पेरेन्ट्स और स्कूल में टीचर्स ने कुटाई करना बन्द कर दिया है, तो नये बच्चों (जिसमें अपने बच्चे भी शामिल हैं) से संस्कार की उम्मीद रखना सही नहीं लगता है. मुझे लगता है कि जब समाज का कोई दबाव नहीं होता तो बच्चे खुल के जीते हैं. हम लोगों की तो उम्र ही इसी में निकल गयी कि लोग क्या कहेंगे और कहीं कोई इष्ट-मित्र बुरा न मान जाये. ये पीढ़ी इन मान्यताओं से मुक्त है. जीजा और फूफा का मज़ाक इन दिनों इतना बन गया है कि दोनों अपने चाह कर भी पुराने मोड में नहीं जा पा रहे हैं. अच्छा लगता है ये देख कर कि इन बच्चों में अपनी ज़िन्दगी जीने की ललक है. समय बदलता है तो उसे स्वीकार भी करना पड़ता है. 

कुछ दिन बाद किसी काम से हेड साहब के कमरे में जाना हुआ. जब मैं पहुँचा तो वो ही बन्दा हेड के सामने बैठा हुआ था. मैं भी एक कुर्सी पर विराजमान हो गया. मेरे आते ही बन्दे ने हेड से रुख़सत माँगी और उठ खड़ा हुआ. उसके अन्दाज़ से आज बिन्दासपन गायब था. बहुत ही सलीके से खड़ा हुआ. कुर्सी को धीरे से धकेला और उठ कर वापस कुर्सी को करीने से लगा दी. अब हम लोगों की आँखें मिलीं. मुस्कुराया मैं भी और मुस्कराया वो भी. मुझे अच्छा लगा कि कम से कम पहचान तो गया. आजकल काम न हो तो कौन किसको पहचानता है. आहिस्ते से वो कमरे के बाहर निकल गया. तब मुझे लगा कि बात संस्कार की नहीं, सीआर (कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट) की है.

-वाणभट्ट

2 टिप्‍पणियां:

  1. वर्तमान पीढ़ी के व्यवहार पर सटीक लेख,पढ़ने के दौरान रोचकता बनी रही।अपनी पीढ़ी की बहन,जीजा फूफा की भूमिका और युवा मन की भावनाओं को प्रस्तुत करने में कामयाब रहे।बधाई👍💐

    जवाब देंहटाएं
  2. संस्कार जैसे महत्वपूर्ण विषय पर लिखा रोचक आलेख

    जवाब देंहटाएं

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म य...