रविवार, 24 मार्च 2024

ऑर्गेनिक जीवन

मेडिकल साइंस का और कुछ लाभ हुआ हो न हुआ हो, आदमी का इलाज जन्म के पहले से शुरू होता है और जन्म के बाद मरने तक चलता रहता है. तुर्रा ये है कि मेडिकल साइन्स ने बेइन्तहा तरक्की कर ली है और आदमी की आयु बढ़ा दी है. प्रेग्नेन्सी का पता चलते ही दवाईयों और टेस्ट का एक लम्बा सिलसिला शुरू हो जाता है. सिजेरियन डिलीवरी में जच्चा-बच्चा दोनों सुरक्षित होते हैं. लेकिन नार्मल डिलीवरी में असह्य दर्द का सामना करना पड़ सकता है और ख़तरे की सम्भावना होती है, सो अलग से. दवा कम्पनियाँ जो अपने शोध से, नये-नये फ़ॉर्मूले और मॉलिक्यूल्स  खोज रही हैं, उनकी वसूली तभी हो सकती है, जब अधिक से अधिक लोग ये महसूस करते रहें कि कहीं न कहीं उनमें कोई कमी है, जो दवा के बिना ठीक नहीं होगी. पुराने वैद्य जी के पास कोई जाये तो वो बता दें कि क्या खाओ और क्या न खाओ. लेकिन उनकी शिक्षा न तो अँग्रेज़ी में हुयी है, न उनकी फीस इतनी है कि आदमी को जेब ढीली करने का दर्द हो, तो उन्हें भला कौन दिखाये. लिहाजा डॉक्टर और दवाई की दुकानों पर परचून की दुकान से ज़्यादा भीड़ है. लगता है स्वास्थ्य यहीं बिक रहा है. 

मकान क्या बनवाया सीमेन्ट और धूल से लगभग साल भर लगातार सामना होता रहा. मकान बन के तैयार हो गया, लेकिन एरिया तो डेवलपिंग ही रहा. अगल-बगल के मकान भी बन रहे थे. नये इलाकों में सड़क नाम की चीज़ को गड्ढों के बीच खोजना पड़ता था. स्थिति ये थी कि घर के सामने से एक स्कूटर निकल जाये तो एक किलो धूल घर पर आक्रमण कर दे. शीशे-जाली-परदे होने के बाद भी सुबह तक घर के हर समान-फ़र्नीचर पर धूल की एक मोटी परत जम जाती थी. ऐसे में डस्ट से एलर्जी विकसित हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी. सभी को ऐसा हुआ हो ज़रूरी नहीं, लेकिन जिसकी भी इम्युनिटी थोड़ी कमज़ोर थी, वो चपेट में आ गया. दुर्योग से मेरे रेस्पिरेटरी सिस्टम में दिक्क़त आ गयी. महीना-दो महीना मुलेठी चूसने और च्यवनप्राश खाने के बाद विचार बना कि किसी डॉक्टर को दिखा लिया जाये. अमूमन नयी कॉलोनी शहर के बाहर ही विकसित होती है. इसलिये इलाके के एक एमबीबीएस डॉक्टर से शुरुआत की. जब भी हल्का बुखार-जुकाम-खाँसी होती तो उनके इलाज से आराम मिल जाता. ऐसे ही दो-तीन साल निकल गये. तब विचार बना कि रोज-रोज की खिच-खिच से अच्छा है किसी बड़े डॉक्टर को दिखा लिया जाये. डॉक्टर के बड़प्पन की पहचान उसकी फीस से होती है. हमारे डॉक्टर साहब की फीस तब मात्र दस रुपये थी. अधिक मरीज़ देखने के कारण उनकी डायग्नोसिस का पूरा इलाक़ा कायल था और आज भी क़ायल है. अब करीब बीस सालों में उनकी फीस बढ़-बढ़ा कर सौ रुपये पहुँची है.

एक स्वनाम धन्य अस्पताल के स्वनाम धन्य विशेषज्ञ डॉक्टर के यहाँ एपोइंटमेंट ले लिया गया. उस समय उनकी फीस तीन सौ हुआ करती थी. जितना बड़ा डॉक्टर उतनी बड़ी फ़ीस. उतना ही कम समय पेशेन्ट के लिये. पाँच मिनट में मरीज़ को इतना डरा दो कि बन्दा कुछ समझने से पहले ही इलाज में जुट जाये. चेहरे की भाव-भंगिमा ऐसी कि सालों से मुस्कुराया न हो. उसने बहुत सीरियसली आला लगाया, बीपी नापा, और पर्चे पर कुछ लिखने लग गया. जब उसने सर उठाया तो छः दवाईयों के नाम वो लिख चुका था. कुछ सुबह खानी थीं, कुछ शाम, कुछ सुबह-शाम, कुछ रात सोने से पहले. मुझे एहसास हुआ कि सही समय पर सही जगह आ गया वर्ना मोहल्ले का एमबीबीएस डॉक्टर तो मुझे मार ही देता.

पर्चे की लगभग सभी दवायें पास के केमिस्ट के यहाँ मिल गयीं. बस एक दवा को छोड़ कर. उस दवा को खोजने के लिये शहर का चप्पा-चप्पा छान मारा. लेकिन सबने ये ही कहा कि दवा उनके पास नहीं है. डॉक्टर का रुतबा और नाम इतना बड़ा था कि किसी ने ये कहने की हिमाक़त नहीं की कि दवा का नाम गलत लिखा है. थक-हार कर मैं वापस उनके पास पहुँचा. तो दवा का नाम देखते ही उनके हाव-भाव बदल गये लेकिन मुँह से निकल ही गया - अरे गलत लिख गया. उसके बाद उन्होंने उस दवा का नाम इतना गोंच दिया कि अपठनीय हो जाये. फिर उन्होंने किसी और दवा का नाम लिख दिया जो बाहर ही केमिस्ट के यहाँ मिल गयी. 

तीन सौ रुपये फ़ीस और हज़ार रुपये की दवा खरीदने के बाद मैने भी ठीक से दवाई खाने के लिये कृतसंकल्प हो गया. अमूमन मैं दवा खाने में कोताही कर जाता हूँ. लेकिन इस बार पूरी ईमानदारी के साथ इलाज करना ज़रूरी था ताकि आगे का जीवन अच्छे से कट सके. उस समय तक उम्र ने चालीसवाँ बसन्त छुआ नहीं था. लग रहा था, अभी न चेते तो आगे परेशानी हो सकती है. तीन-चार महीने के ईलाज में हर पन्द्रह दिन पर चेकअप के लिये जाना पड़ता. हर बार कुछ दवाईयाँ बढ़ती, कुछ घटती. आराम तो था लेकिन बीमारी बनी हुयी थी. डॉक्टर मुस्कुराता तो था नहीं, बस आला लगाता और बीपी नापता. ऐसी-ऐसी शक्ल बनाता कि मुझे लगता पता नहीं कल हो न हो. 

आस्था चैनेल पर बाबा को मै काफी सालों से फॉलो तो कर रहा था, लेकिन योगासन और प्राणायाम बहुत शिद्दत से नहीं करता था. सोचा जब इलाज चल ही रहा है तो बाबा के साथ थोडा योगा भी कर लिया जाये. इस उद्देश्य से मैने टीवी के सामने ही अपनी योगा मैट लगा ली. बाबा जी सवेरे पाँच से सात जो-जो बोलते-करते, मै भी वही करता. योगासन और प्राणायाम को उन्होंने पैकेज बना कर अच्छे से नयी दुनिया के सामने रखा था. हफ़्ते-दस दिन में ही मेरा भरोसा बाबा पर बढ़ गया. डॉक्टर का इलाज भी चलता रहता यदि एक दिन मेरी तबियत ज़्यादा ख़राब न होती. मुझसे उठा नहीं जा रहा था. कुछ समझ भी नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है. सो अपने पुराने डॉक्टर के यहाँ पत्नी जी किसी तरह ले कर पहुँची. हमारे इन डॉक्टर महोदय का चेहरा ही मुस्कुराता हुआ है. आज भी यदि जाना पड़ता तो अक्सर उनको देख कर मैं अपनी बीमारी के लक्षण भूल जाता हूँ. बीपी नापा तो वो बहुत कम था. बड़े डॉक्टर का पर्चा उन्हें दिखाया तो उन्होंने कहा कुछ नहीं लेकिन बीपी की दवा एक टाइम कर दी. डॉक्टर प्रोफेशन में इतनी एकता है कि कोई किसी की गलती नहीं निकालता या बताता. 

अब तक मुझे बाबा जी के साथ टीवी के सामने नियमित योग करते दस-पन्द्रह दिन हो चुके थे और बहुत सामान्य महसूस करने लगा था. दो-एक दिन बड़े डॉक्टर की दवाई स्किप कर के भी देख लिया. अगली डेट पर पुन: बड़े अस्पताल के बड़े डॉक्टर के यहाँ लगी लाइन में लग गया. डेढ़-दो घन्टे बाद नम्बर आया तो डॉक्टर की स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखा. बिना मुस्कुराये आला लगाया, बीपी चेक किया और पर्चे पर दवाइयाँ लिखने से पहले गुरु-गम्भीर आवाज़ में बोला - 'अब तेरी दवा रेगुलर चलेगी. तेरे को बीपी की दवा और इन्हेलर दिन में दो टाइम लेना ही पड़ेगा'. तीन-चार महीने हो गये थे उनका इलाज करते. मै इस बार पहले से ही आर-पार के मूड से आया था. मैंने कहा - 'मैं तेरे पास इलाज कराने आया हूँ या ज़िन्दगी भर दवाई खाने. आज से तेरा इलाज बन्द और मै तेरी सारी दवाईयाँ केमिस्ट को लौटा रहा हूँ'. जब मै उसके चेम्बर से निकल रहा था तो पीछे से उसने आवाज़ दे कर कहा - 'तेरा जाड़ा नहीं कटेगा'. जब आत्मा आहत होती है तो लोगों के पास श्राप देने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता. मैंने पलट कर उसे देखा. उसका चेहरा लाल था. उसके एलोपैथी के चिकित्सकीय ज्ञान को सम्भवतः किसी ने चुनौती न दी थी अब तक.  

बीस साल होने को आये. बाबा जी के फ्री में उपलब्ध योग, घरेलू नुस्खों और आयुर्वेद के ज्ञान का मै आज भी लाभ ले रहा हूँ. जीवन के अट्ठावन वसन्त पार करके मुझे इस बात का संतोष है कि मैंने जीवन के बड़े हिस्से को दवाईयों  से बचा लिया है. ऐसा नहीं है कि कोई भी शारीरिक समस्या नहीं हुयी या है. अधिकतर तो बाबा जी के प्रवचन में ही मुझे अपनी बीमारी का निदान मिल जाता. लेकिन जब बाबा जी का समाधान काम नहीं आता तो अपने मुस्कुराते डॉक्टर तो हैं ही. भगवान जब तक बड़े डॉक्टरों से बचाये रखें तब तक गनीमत है. यदि सुई से काम चल जाये तलवार क्यों उठानी. 

बाबा को आधुनिक चिकित्सा शास्त्र के पुरोधाओं ने कटघरे में खड़ा कर रखा है. भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्यति के प्रसार और एलोपैथी के मिथक को तोड़ने के उद्देश्य से ये आवश्यक हो जाता है कि बाबा अपनी बात अधिक मुखरता और प्रमाणिकता से कहें. कभी-कभी उसकें अतिरेक हो जाना स्वाभाविक है. पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग तथा आयुर्वेद और योग आधारित चिकित्सा के प्रति बाबा ने जो जनजागरण अभियान छेड़ रखा है, उसका विरोध तो होना ही था. यदि चिरायता पी कर काम चल जाता हो तो पैरासिटामौल क्यों खानी. चूँकि आधुनिक एलोपैथी चिकित्सा शास्त्र में न तो यम-नियम-संयम के बारे में बताया जाता है, न चरक-सुश्रुत-धनवंतरी का ज्ञान पढ़ाया जाता है, इसलिये इन्होने जिस भाषा में जो पढ़ा है, वही तो करेंगे-बोलेंगे. गलत ये नहीं हैं लेकिन इनकी बिलियन डॉलर इंडस्ट्री पर कोई प्रहार करेगा तो इनकी सभी संस्थायें अंग्रेजी ज्ञान ज़रूर पेलेंगी. न्यायपालिका भी कब स्वतः संज्ञान लेगी कब नहीं ये उसकी विश एंड विम्प्स पर निर्भर है. एलोपैथी के अलावा शायद सभी चिकित्सा प्रणाली नीम-हकीम वाली श्रेणी में रखी गयी है. 

फ़िलहाल बाबा ने कोर्ट ने भ्रामक विज्ञापन के लिये माफ़ी माँग ली है. देखना है, बहुत सी मल्टीनेशनल कम्पनियाँ जो स्वास्थ्य सप्लीमेंट्स और सौंदर्य उत्पाद बेच रही हैं, उनको कब कोर्ट में बुलाया जाता है. योग-प्राणायाम-आयुर्वेद के प्रसार से जितने लोग लाभान्वित हुये हैं, उनकी संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. आधुनिक चिकित्सा पद्यति को चाहिये कि यदि उन्हें भारत के पुरातन और परम्परागत चिकित्सा विज्ञान को आधुनिक ज्ञान की कसौटी पर जाँचे और परखें, और यदि उचित लगे तो अपनायें भी. कोरोना के दौर में कोई ऐसा डॉक्टर  नहीं बचा होगा जिसने काढ़ा नहीं पिया होगा. एलोपैथी-होम्योपैथी-आयुर्वेदिक उपचारों का संयोजन सम्भवतः मानवता को समुचित, समग्र और सम्पूर्ण स्वास्थ्य और चिकित्सा प्रदान करने में सक्षम हो. विभिन्न चिकित्सा पद्यतियों द्वारा बीमारियों का प्रबन्धन निश्चित रूप से उनके निवारण से ज्यादा सस्ता और कारगर उपाय सिद्ध हो सकता है.  

इन्शा अल्ला अगर भगवान ने चाहा तो वाणभट्ट, जो भी है, जितना भी है, जीवन ऑर्गेनिक तरीके से गुजारना चाहेगा. बाबा जी के साथ तो पूरा देश खड़ा है.

-वाणभट्ट

रविवार, 3 मार्च 2024

संस्कार

संस्कार शब्द जब भी कान में पड़ता है तो हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का ही ख़्याल आता है. भारत में विशेष रूप से हिन्दुओं के संदर्भ में संस्कार का बहुत महत्व है. गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक संस्कार हिन्दुओं के साथ-साथ चलते हैं. अमूमन लोग इसका अर्थ तमीज़, तहज़ीब या मैनर्स समझ लेते हैं. लेकिन ये इन सबसे अलग है. संस्कार वो हैं जो बचपन से घुट्टी की तरह पिलाया जाता है. खास बात तो ये है कि संस्कार कोई किसी को सिखाता नहीं है. बल्कि इनको बच्चे अपने घर में अपने बड़ों के आचरण से सीखते हैं. समय और जगह के साथ-साथ संस्कार भी बदल जाते हैं. हालात तो ये हैं कि हर घर के अपने संस्कार होते हैं.

यहाँ पर सबसे बड़ा संस्कार बड़ों का आदर करना है. बड़े भी बस यही ताक लगाये देखते रहते हैं कि बच्चों में संस्कार नाम की चीज़ है भी या नहीं. लेकिन अक्सर ये बात दूसरों के बच्चों पर लागू होती है. हर व्यक्ति ये मान कर चलता है कि उसने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिये हैं. लेकिन तौलने का तराजू तो दूसरों के हाथ में होता है. 

ग्रेजुऐशन में जब पहली बार जीन्स खरीदी तो लगा रोज-रोज धुलाई से आज़ादी मिल गयी. एक जीन्स को हफ़्ते भर न रगड़ लो तो संतोष नहीं होता. उस पर गोल या बोट नेक वाली टी-शर्ट जब पहनता था तो लगता था कि कहीं न कहीं बात बन जायेगी. ये तो बहुत बाद में पता चला कि लड़कियाँ सिक्योर्ड फ्यूचर देखती हैं. एक से एक कैंटीन में चाय पिलवाने वाले स्मार्ट लड़के टापते रह गये. लड़कियाँ टॉपर्स के साथ नोट्स एक्सचेंज करते-करते सेट हो गयीं. वो तो भला हो कि नौकरी मिल गयी नहीं तो शादी के भी लाले पड़ जाते. 

ऐसे ही जीन्स और बोट नेक वाली टी-शर्ट पहने जब मैं कॉलेज से लौटा तो घर में फूफा जी ड्राइंगरूम में सोफ़े पर बैठे हुये थे. चरण-स्पर्श करने के इरादे से झुका तो उन्होंने घम्म से एक घूँसा पीठ पर मारा. पिता जी से बोले ये क्या संस्कार दे रखा है, बेटा भिखारियों जैसे कपड़े पहने घूम रहा है. अब उन्हें कौन समझाये की जीन्स को फेड कराने के लिये कितने जतन किये गये हैं. ऐसे ही जब पोस्ट ग्रेजुऐशन में थीसिस के दौरान हर बच्चा दाढ़ी बढ़ाये घूम रहा था, जीजा जी का पत्र आया कि कभी लखनऊ घूम जाओ. जब दाढ़ी बढ़ ही गयी थी तो सोचा कबीर बेदी की तरह सेट करवा लिया जाये. मौका निकाल के जब जीजा जी के पास पहुँचा तो उनका पहला रिऐक्शन यही था कि ये क्या लफंगों जैसी शक्ल बना रखी है. क्लीन शेव्ड (मूँछ मुंडे) जीजा ने मेरी दाढ़ी कटवा के ही दम लिया. संस्कार के नाम पर हम फूफा और जीजा जैसे मान्य लोगों की बात भला कैसे टाल सकते थे. तब फोन या मोबाइल तो थे नहीं कि बहन बता दे कि घर पर फूफा या जीजा आये हैं. इस डर से जीन्स-टीशर्ट-दाढ़ी सिर्फ़ हॉस्टल तक ही सीमित रही. घर जाता तो ओरिजिनल गोलमाल फ़िल्म के राम प्रसाद की तरह बालों में तेल चुपड़ कर ही घुसता.

कॉलेज के अपने संस्कार हुआ करते थे, जो रैगिंग के दौरान सीनियर्स ठोंक-पीट के सिखा देते. हॉस्टल पहुँचते ही बाल रंगरूटों की तरह कटवा दिये जाते. पैंट-शर्ट-बेल्ट-टाई ये फ्रेशर्स की ड्रेस हुआ करती थी. उस पर भी शर्त ये थी कि शर्ट लाइट कलर की और पैंट डार्क. सीनियर्स से बात करनी है तो अपनी शर्ट की तीसरी बटन देख कर. सीनियर्स के असाइनमेंट्स चाहे वर्कशॉप के हों या इंजीनियरिंग ड्राइंग के, बिना हुज्जत के निपटाना जूनियर्स का ही काम होता. सीनियर्स के सामने हँसना तो दूर मुस्कुराना भी गुनाह था. ये बात नौकरी के बाद समझ आयी कि यदि आप ज़्यादा खुश दिखोगे तो बॉस आपका काम लगा देगा. इसलिये मनहूस चेहरा बनाये रखिये ताकि उसे ग़लतफ़हमी रहे कि उसका इस्तक़बाल बुलन्द है. 

जमाना क्या बदला रैगिंग बैन हो गयी. नतीजा ये निकला कि जूनियर्स सीनियर्स को टी-ली-ली करके चिढ़ाया करते और सीनियर्स मन-मसोस के देखते रहते. सीनियर्स और जूनियर्स का सम्बन्ध भी समय के साथ कम होता गया. पहले जूनियर्स तीन साल सीनियर्स और सीनियर्स तीन साल जूनियर्स को जानते थे. अब एक बैच के बच्चे भी एक-दूसरे को पहचान लें तो बड़ी बात है. ये पौध जब डिग्री-विग्री ले कर बाहर आयी तो सीनियर-जूनियर का कॉन्सेप्ट खत्म हो चला था. आज जब ये नौकरी में आ गये तो रैगिंग जनित संस्कार की विहीनता हर तरफ़ परिलक्षित होती है. सीनियर अपनी इज़्ज़त अपने हाथ मान कर जूनियर्स से उचित दूरी बनाये रखते हैं. इसमें इनका दोष भी नहीं है. चूँकि इन्होंने बड़ों का बड़प्पन तो देखा नहीं है इसलिये उसको एप्रीशिएट करना इनके बस की बात नहीं है. सीनियर अगर कैंटीन में बैठा है तो जूनियर को पर्स नहीं निकालना. सारी किताबें और नोट्स पिछले बैच से अगले बैच तक ट्रांसफर होते रहते. सीनियर्स भी लोकल गार्जियन की तरह ख़्याल रखते. 

वो जब मेरे कमरे में आया तो मेज के दूसरी तरफ़ बिन्दास अन्दाज़ में विज़िटर चेयर खींच कर बैठ गया. ठीक भी है, कुर्सी बैठने के लिये ही तो होती है. उसे नौकरी जॉइन किये दो-एक साल हो चुके थे. लेकिन उसका मुझसे कोई काम नहीं पड़ा तो मेरे कमरे में उसका आना नहीं हुआ. लड़का बिन्दास था. उसके लहजे में ग़ज़ब का कॉन्फिडेंस था. अच्छा लगता है आत्मविश्वास से लबरेज़ युवाओं से मिल कर. मेरा अपना मानना है कि हर आने वाली पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी से ज़्यादा श्रेष्ठ होती है. ये कोई जबरदस्ती का जेनेटिक इम्प्रूवमेन्ट नहीं नेचुरल इवोल्यूशन है. हमारे समय में बच्चे को मालिश करके काला टीका लगा कर पालने पर झूला दो, तो बड़े आराम से झूलता रहता था. आज का बच्चा मोबाइल और कार्टून नेटवर्क से नीचे मानने को तैयार नहीं है. बात ख़त्म होने के बाद वो जिस अन्दाज़ में कुर्सी खींच के बैठा था, उसी अन्दाज़ में कुर्सी धकेल के उठ खड़ा हुआ. कुर्सी पैंतालीस डिग्री का आर्क बनाते हुये स्थिर हो गयी. बन्दा पलट के धड़धड़ाता हुआ निकल गया. बेतरतीब चीज़ें अखरती हैं, इसलिये उसके जाते ही मैने उस कुर्सी को यथावत अगले आगन्तुक के लिये ठीक से रख दिया. 

आजकल किसी को समझने-समझाने का ज़माना तो रहा नहीं. वैसे भी जब से घर में पेरेन्ट्स और स्कूल में टीचर्स ने कुटाई करना बन्द कर दिया है, तो नये बच्चों (जिसमें अपने बच्चे भी शामिल हैं) से संस्कार की उम्मीद रखना सही नहीं लगता है. मुझे लगता है कि जब समाज का कोई दबाव नहीं होता तो बच्चे खुल के जीते हैं. हम लोगों की तो उम्र ही इसी में निकल गयी कि लोग क्या कहेंगे और कहीं कोई इष्ट-मित्र बुरा न मान जाये. ये पीढ़ी इन मान्यताओं से मुक्त है. जीजा और फूफा का मज़ाक इन दिनों इतना बन गया है कि दोनों अपने चाह कर भी पुराने मोड में नहीं जा पा रहे हैं. अच्छा लगता है ये देख कर कि इन बच्चों में अपनी ज़िन्दगी जीने की ललक है. समय बदलता है तो उसे स्वीकार भी करना पड़ता है. 

कुछ दिन बाद किसी काम से हेड साहब के कमरे में जाना हुआ. जब मैं पहुँचा तो वो ही बन्दा हेड के सामने बैठा हुआ था. मैं भी एक कुर्सी पर विराजमान हो गया. मेरे आते ही बन्दे ने हेड से रुख़सत माँगी और उठ खड़ा हुआ. उसके अन्दाज़ से आज बिन्दासपन गायब था. बहुत ही सलीके से खड़ा हुआ. कुर्सी को धीरे से धकेला और उठ कर वापस कुर्सी को करीने से लगा दी. अब हम लोगों की आँखें मिलीं. मुस्कुराया मैं भी और मुस्कराया वो भी. मुझे अच्छा लगा कि कम से कम पहचान तो गया. आजकल काम न हो तो कौन किसको पहचानता है. आहिस्ते से वो कमरे के बाहर निकल गया. तब मुझे लगा कि बात संस्कार की नहीं, सीआर (कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट) की है.

-वाणभट्ट

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...