शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

तीसरी कसम

सेंटेड रबर मार्केट में तब नया-नया आया था. मँहगा था इसलिये हर किसी के लिये उसे खरीद पाना संभव न था. कक्षा तीन की क्लास थी. को-एड स्कूल था वरना सिर्फ़ लड़कों के स्कूल में किसी को चॉकलेट की महक वाले रबर, जिसे अब इरेज़र कहा जाता है, लाने की क्या जरूरत थी. बताने वाले बताते हैं कि अजय ने पिता जी के गल्ले से अठन्नी पार करके अनिता को गिफ्ट दिया था. मिलने के बाद अनिता ने उसे पूरी क्लास के सामने ऐसे पेश किया जैसे उसे उसके पेरेंट्स ने दिलाया है. पूरे क्लास ने उस रबर को छुआ और सूँघा भी. एकदम कैडबरी की महक वाली उस रबर को चबा जाने का मन करता था. अनिता भी पेन्सिल से लिखे को मिटाने के लिये सैन्डो रबर का ही उपयोग करती. लेकिन चॉकलेट वाली रबर हमेशा हाथ में रखती जिसे बीच-बीच में सूँघती रहती. बहुत से बच्चों को उस रबर को देख कर रश्क होता लेकिन उनके पेरेंट्स किसी प्रकार की फ़िजूलखर्ची के खिलाफ़ थे. एक दिन लंच के बाद लौट के सब आये तो हाहाकार मचा हुआ था. अनीता ज़ार-ज़ार रो रही थी. उसके ज्योमेट्री बॉक्स से चॉकलेटी रबर गायब थी. टीचर ने पूरी क्लास को वार्निंग दी - जिसने भी लिया हो चुपचाप निकाल के दे दे. वर्ना यदि चेकिंग में निकला तो समझ लेना ख़ैर नहीं है. मै बड़े मज़े से इस तमाशे को देख रहा था. देखें किसका नम्बर लगता है. एक-एक करके सभी के बस्ते चेक हो रहे थे. लेकिन मुझे क्या पता था कि उस रबर को तो निकलना था मेरे ही बस्ते से. किसी ने शैतानी में उसकी रबर निकाल कर मेरे बस्ते में रख दी थी. अब टीचर ने मुझे रंगे हाथ पकड़ लिया, तो मेरे पास सफ़ायी देने का कोई चारा नहीं बचा था. मैंने पूरी ईमानदारी से कहा - मैम किसी ने मेरे बस्ते में ये रबर डाल दी है. मुझे कुछ नहीं पता. विद्या कसम. टीचर भी मेरी बाल-सुलभ मासूमियत देख मुस्कुरा कर रह गयी.

आठवीं तक पहुँचते-पहुँचते बच्चों को और कुछ पता चले न चले, लड़का और लड़की का अन्तर समझ आने लगता है. को-एड स्कूलों में तो लड़के किसी न किसी को मेरी वाली तेरी वाली करने लगते हैं. हालाँकि ये बात उस लड़की को शायद ही पता होती हो. एक दिन छुट्टी के बाद स्कूल से बाहर निकला तो अजय ने पीछे से कॉलर पकड़ लिया. पकड़ने का तरीके में यारी-दोस्ती वाला टच नहीं था. मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. मै भी भिड़ गया. अजय की पर्सनाल्टी मुझसे बीस ही थी लेकिन तब अपने हिसाब ख़ुद ही बराबर करने का रिवाज़ था. भिड़ गया तो भिड़ गया. बाकी दोस्तों ने छुड़ाने की कोशिश न करके हमारी ज़ोर आजमाइश का आनन्द लेना पसन्द किया. थोड़ी देर लड़-भिड़ के हम नॉर्मल हो गये. आख़िर थे तो हम दोस्त ही. उस समय बच्चों का लड़ लेना, गुत्थम-गुत्था हो जाना, कोई अनहोनी बात नहीं थी. हफ़्ते-दस दिन में हम लोग लड़-भिड़ न लें तो खाना ठीक से नहीं पचता था. और कुछ ही देर में फिर दोस्त बन जाते. जब हम गले में हाथ डाले घर की ओर लौटने लगे तो मैंने पूछा ही लिया कि क्यों लड़ने का मन कर रहा था. उसने बताया कि उसे लगता है कि मैं उसकी अनिता के चक्कर में हूँ. मैंने उसे भरोसा दिया कि भाई ऐसी कोई बात नहीं है, माँ कसम. और उसने बिना किसी शक़-शुबहे के मान भी लिया.

वो सब तो बचपन की बातें थीं. अब स्कूल की पुरानी बातें बस जीवन का सुखद हिस्सा और किस्सा भर थीं. धीरे-धीरे हम सब बड़े होते चले गये. पता चला कस्मे और वादे तो बस फ़िल्मी बातें हैं. कस्में खाने के लिये बनीं हैं, तो वादे तोड़ने के लिये. शादी भी हुयी. पण्डित जी ने सात फेरों में पता नहीं कौन-कौन सी शर्तें रख दीं. लेकिन अगर बात शादी तक पहुँच ही गयी हो, तो शर्तों में ना करने की गुंजाइश कहाँ बचती है. सात जनम तक साथ निभाने की जो कसम उस दिन खायी थी, उनको युवावस्था की भूल समझ के भूल जाना ही बेहतर है. उन्हें कसम की कैटेगरी में रखना किसी तरह से उचित नहीं है.  

जब नये शहर में वो आ कर गिरे तो उस शहर में रहते मुझे 4-5 साल हो चुके थे. चूँकि हम भी उस स्टेट के नहीं थे, तो हर दूसरे स्टेट से आने वाले की मदद करना हमारा धर्म बन जाता है और कर्तव्य भी. वो हमारे सीनियर थे और फ़िलहाल अपने परिवार को बच्चों के बोर्ड एग्जाम तक डिस्टर्ब नहीं करना चाहते थे. उन चार-छः महीनों में वो पूरी तरह फोर्स्ड बैचलर थे. शादी के इतने दिनों बाद उन्हें जो आज़ादी मिली थी, वो उसका एक-एक लम्हा वसूलना चाहते थे. चूँकि हमारा ऑफ़िस यूनिवर्सिटी कैम्पस में ही था इसलिये सम्भव है कि उन्हें अपने कॉलेज के दिन याद आ गये हों. जीन्स-टी शर्ट की अपनी पसंदीदा फिटिंग वो शाहरुख़ ख़ान बने घूमते. लेकिन घूमने-घुमाने के लिये न उनके पास बाइक थी न कार. सो उन्हें मिली एक लीटर में 80 किलोमीटर चलने वाली मेरी हीरो-होंडा की पिछली सीट. हम लोग में भी यूपी का भैयापन इस कदर हावी रहता है कि मालूम रहता है कि अगला उसका बेजा फ़ायदा उठा रहा है लेकिन हम अपने 'अतिथि देवो/धूर्तो भव' के अंतर्द्वंद से बाहर नहीं निकल पाते. लगा नये शहर में नया दोस्त या बड़ा भाई मिल गया है. सो साहब जब भी भाई साहब कोई काम बताते छोटा भाई मोटरसाइकिल लिये तैयार रहता. 

घर की खोज से लेकर, उनका किचन सेट कराने से लेकर, उनके परिवार के आने तक, के उनके हर सुख-दुःख का हम और हमारा परिवार साक्षी बना. पत्नी को तो पहले ही लगता था कि वो बहुत बड़ा चेपी है लेकिन मुझे लगता नयी जगह पर अगर हम उनका ख़्याल नहीं रखेंगे तो और कौन रखेगा. उनकी फैमिली आने के बाद वो कुछ आत्मनिर्भर हो गये. कार और स्कूटर भी आ गये थे. सो हमारा मिलना ऑफ़िस में ही हो पाता. सीनियर वो थे ही और कालचक्र ने उन्हें वहीं मेरा बॉस बना लिखा था. मुझे लगा बड़े भैया हैं, तो थोड़ा ख़्याल भी रखेंगे. लेकिन भगवान किसी दोस्त को पड़ोसी या बॉस न बनाये. तजुर्बे बताते हैं कि दोस्त के दुश्मन बनने में देर नहीं लगती. जल्द ही मुझे एहसास हो गया कि भाई दूसरों पर टाइट होने की प्रैक्टिस मुझसे ही शुरू करना चाहते थे. वो जानते थे कि यूपी का भैया जल्दी प्रतिक्रिया नहीं देगा. एग्ज़ाम्पल सेट करने के चक्कर में वो पजामे के बाहर ही रहने लगे. लेकिन वो ये नहीं जानते थे कि दिल से जुड़ने वाले आधे-अधूरे नहीं मिलते. ऑफ़िस की दोस्ती और फटे की यारी एक समान है. दैव योग से साथ फँस गये हैं, तो वर्किंग (काम चलाऊ) दोस्ती निभानी ही पड़ेगी. लेकिन उसे स्कूल या कॉलेज की दोस्ती समझना ग़लतफ़हमी होगी. तब ये निर्णय लिया - ऑफ़िस कलीग्स से दोस्ती कभी नहीं. ये मेरी तीसरी कसम थी. 

देखें अभी ज़िन्दगी और क्या-क्या सिखाना चाहती है.

-वाणभट्ट

1 टिप्पणी:

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