शनिवार, 7 अक्टूबर 2023

नेतागिरी

नेतागिरी

दरवाज़ा उढ़का हुआ था. खटखटाते ही बिना आवाज़ के खुल गया. अन्दर का दृश्य कम से कम मेरी कल्पना के परे था. कमरे में मेज, कुर्सी और बक्से के बाद जमीन पर जितनी जगह बाकी थी, वहाँ कोई न कोई सो रहा था. लगभग 8-10 लोग तो रहे होंगे. मैं असमंजस में पड़ गया. नेता जी को मैं पहचानता नहीं था. मेरे कज़िन को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी छोड़े कई साल हो गये थे. कुछ छात्रवृत्ति फँसी हुयी थी. वो इंटरनेट और ईमेल का ज़माना तो था नहीं कि बिना हिले कोई अपनी दिक्क़तें शीर्ष अधिकारी तक पहुँचा सकें. ऐसी परिस्थितियों में जहाँ आप के पास चक्कर लगाने का समय न हो तो आप जुगाड़ की तलाश में लग जाते हैं. किसी ने इन छात्र नेता का पता बता दिया. साथ ही शर्त लगा दी कि सुबह छः साढ़े छः बजे के पहले पहुँचना, तभी नेता जी मिलने की प्रबल संभावना होती है. गर्मी के दिन थे मैं शायद और जल्दी पहुँच गया. कमरे में सोता पड़ा हुआ था. मैं उहापोह की स्थिति में था कि नेता जी को आवाज़ लगाऊँ या उनके उठने का इंतज़ार करूँ. तभी एक शरीर सहसा उठ के बैठ गया. उसके चेहरे पर नींद से एकाएक उठने या उठाये जाने का कोई भाव नहीं था. वो मुस्कुराते हुये कमरे के बाहर आ गया. कमरे में मेरे लिये जगह भी नहीं थी. वो नेता जी ही थे. 

मिलते ही उन्होंने ने मेरा नाम, पता और आने का कारण पूछ लिया. और 10 बजे सारे काग़ज़ लेकर यूनिवर्सिटी के यूनियन हॉल में मिलने को कहा क्योंकि तब तक विश्वविद्यालय के ऑफिस खुल जाते हैं. उन्होंने ये भी आश्वासन दिया कि यदि मेरी समस्या नियमानुसार है तो वो उसका निस्तारण करायेंगे. साथ ही उन्होंने एक वाक्य और जोड़ दिया कि मैं सदैव सही और सत्य के साथ हूँ, गलत काम मुझसे करवाने के लिये न कहियेगा. नेताओं पर आम आवाम जितना भरोसा करती थी, मुझे नेताओं पर उतना ही भरोसा था. सब बहुत स्वार्थी, चालाक और कमीशन खोर होते हैं.

दस बजे जब मैं यूनियन ऑफिस पहुँचा तो नेता जी को अपना इंतज़ार करते पाया. अब उन्होंने पूरे कागज़ात पर भरपूर नज़र डाली. बोले ये तो सही काम है. ये काम तो अपने आप हो जाना चाहिये था. बाबू लोग खामख्वाह स्टूडेंट्स को परेशान करते हैं. आप चलिये मेरे साथ, अभी आपका काम करवाता हूँ. और वो मुझे लेकर उचित विभाग में पहुँच गये. क्लर्क ने भी नेता जी को देख कर फ़टाफ़ट काम कर दिया. जैसी उम्मीद थी कि नेता जी अब कुछ चाय-पानी के लिये बोलेंगे. मैं भी मानसिक रूप से इसके लिये तैयार था. भाई ने ख़र्चा-पानी उठाने के लिये सहमति दे रखी थी. काम के बाद उन्होंने कहा - चलिये चाय पीते हैं. मैंने भी हामी भर दी. मुझे लगा सस्ते में निपट जायेंगे. लेकिन चाय की दुकान पर एक-एक करके नेता जी के दसियों दोस्त पहुँच गये. चाय पीने में मेरा मन नहीं लग रहा था, बस उनके दोस्त गिने जा रहा था. आख़िर बिल तो मुझे ही देना था. कुछ ने बिस्किट की फ़रमाइश की, कुछ ने मठरी की, कुछ ने पकौड़ी की. चाय तो दो रुपये की थी लेकिन चेलों की बढ़ती फरमाइशें मुझे पशोपेश में डाल रही थीं. मेरी जेब में पैसे तो थे लेकिन डर था कि कहीं कम न पड़ जाये. नेता जी कुछ माँग लेते तो सहर्ष दे देता किन्तु उनके चेलों का बिल भरने का दिल नहीं कर रहा था. सोच रहा था नेता जी ऐसे ही मुर्गा पकड़ते होंगे और चेले मुर्गे को हलाल करने पहुँच जाते होंगे. चाय खत्म होने के बाद मैं बिना कहे काउंटर की ओर बढ़ चला था. नेता जी ने मेरा पहला नाम लेकर पीछे से आवाज़ दी. कहाँ जा रहे हो. यहाँ मेरा खाता चलता है महीने का महीने. बिदाई से पहले उन्होंने स्नेह से हाथ मिलाया और सहज रूप से मेरा धन्यवाद स्वीकार किया. भविष्य में कभी भी किसी भी काम के लिये निमंत्रण भी दे दिया. इतनी सदाशयता और सहृदयता की उम्मीद नहीं थी. मन ही मन ये शंका बनी हुयी थी कि नेता है तो कभी न कभी सूद-ब्याज सहित वसूलेगा. जिस बात ने सबसे ज़्यादा मुझे प्रभावित किया वो थी सुबह-सुबह नाम पूछा था. जब सारी दुनिया वर्मा-शर्मा-मिश्रा से काम चला रही हो तो मुझे पूरी उम्मीद थी कि उन्हें मेरा उपनाम सिर्फ़ वर्मा याद रह जाये तो ही बहुत है. लेकिन बन्दे को मेरा पहला नाम भी याद था. इस पूरे प्रकरण में नेता जी के व्यवहार में जो निश्छलता और स्वच्छंदता देखने को मिली, उसने मुझे उनका कायल बना दिया.

इलाहाबाद मेरी जन्मस्थली है इसलिये वहाँ अक्सर जाना होता रहता है. उसके बाद कोई ऐसा काम नहीं पड़ा कि नेता जी से मिलने का संयोग बने. चूँकि नेता जी की डेलीगेसी हमारे ही मोहल्ले में पड़ती थी, इसलिये मार्केट में गाहे-बगाहे वो दिख जाते थे. लेकिन कभी भी उन्होंने मुझे वर्मा कह कर नहीं बुलाया. हमेशा मुझे पहले नाम के साथ जी लगा के ही सम्बोधित किया. इंसानी स्वार्थीपन की इन्तेहा देखिये कि मैं नेता जी का नाम भूल गया. मुझे उपनाम ही याद रह गया. अब पुनः पूछने में बहुत शर्मिंदगी महसूस होती है. तब से अब तक समय चक्र बहुत आगे निकल गया है. इस घटना को सालों बीत चुके हैं. नौकरी के चलते मेरा इलाहाबाद छूट गया. लेकिन महीने दो महीने पर जाना हो जाता है. नेता जी जब तक यूनिवर्सिटी में बने रह सकते थे, बने रहे. बीए, एमए, लॉ और न जाने क्या-क्या कर डाला. उम्मीद थी कि कोई न कोई पार्टी उन्हें ज़रूर खोज लेगी. लेकिन शायद किसी दल को ईमानदार नेता की ज़रूरत ही न हो. जब यूनिवर्सिटी में पढ़ने की अन्तिम आयु भी निकल गयी तो उन्होंने हाईकोर्ट में वक़ालत शुरू कर दी थी. जब कहीं मुलाक़ात होती है तो नेता जी का मेरा पहला नाम लेकर बुलाना मुझे हतप्रभ कर देता है. अब भी वो उतनी ही आत्मीयता से मिलते हैं, जितनी आत्मीयता से पहली बार मिले थे. मुझे लगा सामाजिक रूप से सक्रिय लोग ऐसे ही होते होंगे. सदैव समाजसेवा को तत्पर.

नेता लोगों को हम दूर से देखते हैं. लगता है सब बहुत चालाक और धूर्त होते हैं. बस अपने लाभ के लिये जनता को चूना लगाने में व्यस्त रहते हैं. यदि गौर से देखिये तो अन्य प्रोफ़ेशन्स की तरह नेतागिरी भी एक प्रोफ़ेशन है. जैसे हम हर प्रोफ़ेशन में ग्रोथ चाहते हैं, नेताओं के भी एम्बिशन्स होते होंगे. वो भी अपने क्षेत्र में अपना उत्थान करने में लगे रहते हैं. हमारी सारी की सारी पढ़ायी-लिखायी-मेहनत सिर्फ़ अपने लिये होती है. अपने लाभ के लिये हमारे पास अपनों के लिये ही समय नहीं है. देश-समाज के लिये कुछ सोचने-समझने के लिये न समय है, न इच्छा. समाजसेवा का तो प्रश्न ही नहीं उठता. और एक नेता है जो हर समय हर किसी के लिये उपलब्ध है. पब्लिक भी उन्हीं नेताओं को जान पाती है जो कुछ हद तक सफल हो जाते हैं. नेताओं के जिस रूप को समाज देखता है, वो उनकी कड़ी मेहनत और अथक प्रयासों का नतीजा है. नेता कहीं समाज के बाहर से नहीं आते. जैसा समाज होगा वैसा ही लीडर खोजेगा. हम भी उसी नेता का चयन चाहते हैं जो हमारे गलत से गलत काम में सहयोग देने को तैयार हो. फिर वो उसकी कीमत भी तो वसूलेगा. समाज ने यदि सही-गलत के फ़र्क को मिटा दिया है तो नेता के भी पथभ्रष्ट होने की पर्याप्त सम्भावना है. ये सब मैं इसलिये लिख रहा हूँ कि देश में हर कोई समाज सेवा करना चाहता है और उसकी आड़ में उसकी नज़र मेवे (फण्ड) पर लगी रहती है. यदि सब नेता ख़राब होते तो देश उत्तरोत्तर पीछे जाता लेकिन हम निरन्तर आगे बढ़ रहे हैं तो इसमें नेताओं का योगदान तो होता ही है. अगली बार जब हम किसी नेता के बारे में बुरा बोलें या सोचें तो ये भी सोचें कि हमने समाज सेवा में कितना समय दान दिया. हमने जहाँ समय लगाया, उसका फल भी हमें वहीं मिला है. नेता ने समाज के लिये समय दिया है, तो वो वहीं तो बढ़ेगा. आजकल नेताओं के ख़िलाफ़ लोग कुछ भी बोल देते हैं. मुझे लगता है जब हमने समाज को समय देने से इन्कार कर दिया तो वो लोग सामने आये जिनमें समाज सेवा का हौसला था. जहाँ भी वित्तीय प्रावधान होते हैं, वहाँ सामान्य मानव के फिसलने की सम्भावना होती है. ये हर विभाग, हर क्षेत्र में देखने को मिलता है. भ्रष्ट से भ्रष्टतम नेता भी समाज को समय तो देता ही है. सब नेता भ्रष्ट हो ऐसा भी नहीं है. फिर भी वो आम आदमी से ज़्यादा समय दूसरों पर अर्पित कर देता है. यूनिवर्सिटी के एक सामान्य किन्तु ईमानदार नेता से न मिलता तो शायद मैं भी आम लोगों की तरह नेताओं से नफ़रत कर सकता था. 

भीड़ लेती है वक़्त रहनुमा परखने में

कारवान बनाने में कुछ देर तो लगती है - अमज़द

-वाणभट्ट

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...