सोमवार, 13 फ़रवरी 2023

 फ़नी सिंह

अगर वो कांफ्रेंस न होती और उसमें कुछ बैण्ड-बाजा-बारात टाइप की जिम्मेदारी न मिली होती तो फ़नी से मुलाक़ात न होती. 

बत्रा जी के पास सारे इवेन्ट को कराने का काम दिया गया था. लेकिन उनके बड़े-बड़े कामों में व्यस्त रहने के चलते, उनसे फोन पर भी बात कर पाना मुश्किल था. इवेन्ट की डेट्स करीब आती जा रही थी. बत्रा जी से जब भी बात होती तो जवाब का लब्बोलबाब होता - तुस्सी क्यों चिन्ता करते हो, असी हैं ना. जितनी हमारे दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं उतना ही बत्रा जी के आश्वासनों का कॉन्फिडेंस भी बढ़ता जा रहा था. बड़े-बड़े प्रोग्राम कराने का उनका रिकॉर्ड था. लेकिन इस क्षेत्र में मेरा तजुर्बा अपेक्षाकृत बहुत कम था. 

इस विषय में मेरा ज्ञान शादी-विवाह-छट्ठी-जन्मदिन आदि कार्यक्रमों में शामिल होने से ज़्यादा का नहीं था. और ये तो अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी थी. अपने सहज व्यवहारिक ज्ञान से ये भी ज्ञात था कि हर इवेन्ट येन-केन-प्रकारेण हो ही जाता है. फिर जिसकी जैसी श्रद्धा कार्यक्रम को सफल या असफ़ल घोषित करने में लग जाता. जब से लोगों में स्वयं को शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत दिखलाने का प्रचलन बढ़ा है, जीजा-फूफा प्रकृति के लोग लुप्त होते जा रहे हैं. जब से एक-दो बच्चों वाले छोटे और दुखी परिवारों की संख्या में वृद्धि हुयी है, तब से इन प्रजातियों को संरक्षित करने की आवश्यकता जान पड़ती है. सभी कोई जब सब कुछ अच्छा-अच्छा बताने लगेंगे, तो भला पारिवारिक आयोजनों में किसे मज़ा आयेगा. ये सोच कर कि "इनका तो काम है कहना", यदि आपने मान्य लोगों की परवाह करना छोड़ दिया गया तो यकीन मानिये भारतीय परम्पराओं से अगली पीढ़ी का विश्वास ही उठ जायेगा. इसलिये देश की खातिर यदि आप कुछ नहीं कर सकते तो परिवार में वैमनस्य बनाये व बढवाये रखने की ख़ातिर इनकी परवाह करते रहिये. 

दरिया की धार का अंदाज़ा किनारे पर बैठ के नहीं किया जा सकता. इस बार मुझे ये पता चला कि जिस काम को हम हो जाता है समझते थे, दरअसल उसे हुलवाना पड़ता है. और हुलवाने के लिये एड़ी-चोटी का जोर भी लगाना पड़ता है. जो कार्यक्रम दर्शक दीर्घा में बैठ के सहज दिखता है, उसमें बहुत से लोगों की बहुत सी मेहनत लगी होती है. मेरी कमेटी का काम ज़्यादा बड़ा नहीं था. बस कुछ झंडे-डंडे-पोस्टर-बैनर आदि लगवाने थे, ताकि माहौल बन जाये कि कुछ होने वाला है. इसी सिलसिले में बत्रा जी का नम्बर मिला. उनका नम्बर कम ही उठता था, सो उनसे पूछा कि कोई और संपर्क सूत्र दीजिये जिससे हम बात करके बता सकें कि हम लोगों की आवश्यकतायें क्या हैं. इस प्रक्रिया में वैभव का नम्बर मिला और प्रिन्स का भी. लेकिन जब डी-डे सर पर आ कर सर पर बैठ गया, तो दो दिन पहले पता चला कि सारा का सारा दारोमदार फ़नी पर है.      

फ़नी साहब को फोन लगाया गया तो उनका भी वही जवाब था - साहब ये हमारा रोज का काम है, आप कतई टेंशन न लो. पूछा कब आओगे, तो जवाब मिला कार्यक्रम से एक दिन पहले सुबह 10 बजे से काम शुरू कर देंगे, पूरी टीम लग जायेगी और शाम तक आपकी वेन्यू तैयार. बात में कॉन्फिडेंस इतना था कि मुझे ये एहसास हो गया कि तुम क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो जब फ़नी साथ है. शाम के चार बजे जब काम नहीं शुरू हुआ तो फ़नी जी को फोन लगाया गया. बाक़ी लोगों की तरह इन्होने कभी ऐसा नहीं किया कि फोन न उठाया हो. हर बार आश्वासन की इंटेंसिटी बढती जा रही थी, जिसका सीधा सम्बन्ध मेरी बढती पल्स बीट्स से था. लेकिन चिन्ता करने के अलावा हमारे पास करने के लिये कुछ भी नहीं था. चार बजे बताया कि शिंदे हॉल का काम खत्म होते ही मिलता हूँ. बाद में बताया कि अभी विज्ञान भवन में कार्यक्रम कर चल रहा है. रात दस बजे तक पहुँच जाउँगा. आप निश्चिन्त रहिये, सुबह आपको सब तैयार मिलेगा. 

रात साढ़े दस बजे कमेटी के मेम्बर्स ने बताया कि अभी तक फ़नी साहब की कोई गतिविधि आरम्भ नहीं हुयी है. मैंने 'हरे कृष्णा' को याद किया और बोला सब लोग सो जाओ सुबह पाँच का अलार्म लगा कर. अब बात हम लोगों के कंट्रोल से बाहर है, ऐसे में ऊपर वाले के अलावा सिर्फ़ फ़नी पर ही भरोसा किया जा सकता था. सुबह साढ़े पाँच बजे कमेटी के मेम्बर्स तैयार थे. जब हॉल की साइट पर पहुँचे तो युद्ध स्तर पर काम चालू था. फ़नी जी से तभी पहली मुलाक़ात हुयी. देख कर ही लग रहा था कि उनकी नींद से भरी आँखों में सोने की गुंजाइश नहीं थी. मेरा बीपी 100 जरूर पार कर गया था जब गेस्ट्स ने आना शुरू कर दिया था और फ़नी भाई दीप प्रज्जवलन के लिये बत्ती बना रहे थे. नौ बजे का प्रोग्राम था और आखिरी समय तक उनकी टीम ने सारा काम व्यवस्थित तरीक़े से कर दिया था. उन्होंने ये आश्वासन भी दिया कि जब तक आपका प्रोग्राम चल रहा है, आपको किसी चीज़ की चिन्ता नहीं करनी. बस उन्हें फोन करना है. धन्यवाद देने के लिये जब उनसे हाथ मिलाया तो हाथ का खुरदुरापन बता रहा था कि ग्राउंड ज़ीरो पर काम कौन करता है. 

जब थोड़ी फुर्सत मिली तो फ़नी जी से पूछा कि क्या आपका नाम यो-यो हनी सिंघ्ह से प्रभावित हो कर तो नहीं रखा गया है. तब उन्होंने बताया कि उनका नाम फणी सिंह प्रधान है. बंगाल के रहने वाले हैं और दिल्ली में बस गये हैं. और दिल्ली की पंजाबी मिश्रित हिन्दी में फणी का फ़नी हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है.

तीन दिन के कार्यक्रम में इनऔग्रल का पहला दिन सकुशल गुजर गया. आयोजनकर्ता - गुड बिगन इज़ हाफ़ डन - फ़ील कर रहे थे. 

अगले दिन सुबह ठीक से हुयी भी नहीं थी कि सोशल मीडिया पर एक वायरल चित्र मेरे फोन पर आ गया. जिसे चटखारे लेने के लिये साझा किया गया था. उसमें कॉन्फ्रेंस का बोर्ड उल्टा रखा दिखायी दे रहा था. प्रिमिसेज के बाहर का चित्र था, इसलिये उस पर हमारा ध्यान जाना सम्भव नहीं था. रात भर काम करने के चक्कर में सम्भव है कि गल्तियाँ हो जायें. ऐसा भी हो सकता है कि फ़नी की टीम उसे रख कर लगाना भूल गयी हो. जिस देश में डूबते आदमी को बचाने के बजाय लोग वीडियो बनाने में लग जायें, वहाँ इस प्रकार के वायरल मैसेजेज़ पर आश्चर्य नहीं किया जा सकता. 

तुरन्त वो फोटो फ़नी जी को फॉरवर्ड करके ठीक करने को कहा. काफी देर बाद जब चेक किया तो टिक ब्लू नहीं हुये थे. जिनके काम के पीछे काम लगा हो, उन्हें फोन करके बताना पड़ता है कि भाई मैसेज देख ले. कुछ देर बाद ही उनका सीधे बोर्ड के साथ फोटो मैसेज आया - कर दिया.     

मितभाषी फ़नी बाद में जब मिले तो उनके चेहरे का भाव कह रहा था  -  यो यो फ़नी सिंघ्ह - यानि आपका अपना फ़णी सिंह.

- वाणभट्ट 

पुनश्च: इस लेख में नाम काल्पनिक नहीं है. फ़णी सिंह का आभार व्यक्त करना इस लेख का मूल उद्देश्य है.  

   

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