बिजुरिया
अभी-अभी प्रकाशोत्सव का पर्व गुजरा है। पूरा का पूरा देश, प्रदेश, जिला, गली-मोहल्ला सब जगमगा रहा था। बड़ी-बड़ी लाइटें लगी थीं और छोटी-छोटी चीनी झालरों ने हर घर को रौशन कर दिया था। दिये भी जले थे, लेकिन शगुन के। जब झालर पर ख़र्च कर रहे हैं तो दिये की आवश्यकता सिर्फ़ पूजा के लिये ही बचती है। दिवाली है तो दिया तो जलेगा ही लेकिन मेरी दिवाली तुम्हारी दिवाली से ज्यादा रोशन तो तब ही होगी जब अमावस की रात भी कनफ्यूज हो जाये कि सूरज किस घर से उगने वाला है।
सबने प्रकाश के गीत गाये। अँधेरे का मातम मनाया। लक्ष्मी जी की पूजा की और राम जी को भूल गये। दीपावली पर दीप गायब थे, लेकिन रोशनी थी और बम-पटाकों का शोर भी था। लक्ष्मी जी को पाने के लिये श्रम करना पड़ता है। बहुत से ऐसे तरीक़े हैं, जहाँ भाग्य ने साथ दे दिया तो वारे-न्यारे हो जाते हैं। इसीलिये भाग्यवादी लोग दीपावली पर लक्ष्मी जी को जगाने के लिये द्यूत-क्रीड़ा का प्रयोग भी करते हैं। कितने का बोर्ड और कौन सा पत्ता, इसके लिये भी रोशनी की दरकार होती है। पूरे प्रकाश पर्व में जो सबसे गौण विषय रह जाता है, वो है बिजली की उपलब्धता। यदि किन्हीं कारणों से कोई फॉल्ट हो गया और, बिजली चली गयी, तो दिये और मोमबत्ती इतने तो होते नहीं कि आकाश में झिलमिलाते तारों से कम्पटीशन कर सकें। तब सबको ख़्याल आता है बिजली का। और लानत-मलानत भेजने लगते हैं बिजली विभाग पर कि बहुसंख्यकों के त्योहार पर ही इन्हें बिजली काटनी होती है। इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ, कम से कम हमारे इलाके में।
इन्सान की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि वो वस्तु या व्यक्ति का मूल्य तब तक नहीं समझता जब तक उसे खो नहीं देता। बिजली के साथ भी यही बात लागू होती है। जब तक रहती है, किसी को पता ही नहीं होता। जब लोग बाग सराउंड साउंड सिस्टम पर 80 इंच का टीवी देखते हैं, तो अनायास सीना 56 इंच फूल जाता है। टीवी तो इन्वर्टर से चल भी जाये लेकिन एसी-फ़्रिज के लिये जेनरेटर की ज़रूरत पड़ जाती है। इन्वर्टर और जेनरेटर भी बिजली ही देते हैं। लोग बिजली से चलने वाले तमाम यन्त्रों के पीछे तो भागते हैं लेकिन जो उन सबको चलाता है, उसके प्रति संवेदनशील नहीं होते। बिजली बचाना, बिजली उत्पादन से कम श्रेयस्कर नहीं है। बिजली बना नहीं सकते तो कम से कम बिजली बचा ही लीजिये।
जिस तरह किसी यूज़र का ध्यान बिजली की ओर तभी जाता है जब वो नहीं आती। या कोई अप्लायंस काम करना बन्द कर देता है। जिन लोगों ने प्रशासन, वित्त और लेखा में बड़े-बड़े काम और नाम कमा रखे हैं, उन्हें कतिपय ही ये आभास होगा कि वो लोग अपना काम कुशलता से कर सकें, इसके लिये कोई न कोई सर्विस यूनिट वाला लगा रहता है। जिनके ऊपर रौब गाँठने का कोई मौका छोड़ा नहीं जाता। ये जो कम्प्यूटर और इंटरनेट के उपयोग से जो ज्ञान का अंतर्जाल बुना जा रहा है, उसके पीछे भी बिजली की सुनिश्चित उपलब्धता का योगदान है। बिजली और बिल्डिंग का वही रिश्ता है जो आत्मा का शरीर से होता है। लोग भी आजकल शरीर के रंग-रोगन पर ज्यादा ध्यान देते हैं, आत्मा के विकास पर नहीं। आज के युग में बिजली का वही हाल है जैसा रहीम दास जी के समय में पानी का हुआ करता था -
रहिमन बिजली पाइये, बिन बिजली सब सून।
गीज़र बिन ना कटे दिसम्बर, न एसी बिन जून।।
ये नेता, अभिनेता, कलाकार, पत्रकार, बैंकर, डॉक्टर, ड्राइवर, लेखक, कुक, वैज्ञानिक या कोई भी, जो कुछ कर पा रहे हैं, उसके पीछे कहीं न कहीं किसी सर्विस देने वाले का कंट्रीब्यूशन जरूर होता है। ये काम अधिकतर इंजीनियर्स या टेक्निशियंस द्वारा संपादित किया जाता है। अपने चारों ओर नज़र घुमाइये जितनी भी चीजें आपको दिखायी दे रही हैं, उसे किसी न किसी तकनीकी व्यक्ति ने बनाया होगा। जब कोई पत्रकार पूरी बदतमीज़ी से बोलता है कि पुल के निर्माण में भ्रष्टाचार हुआ, तब वो भूल जाता है कि लोग फाइलों पर ही भ्रष्टाचार कर जाते हैं बिना कुछ डिलीवर किये। अक्सर ये वो लोग होते हैं जो अपने हाथ से एक पेंच भी नहीं कस सकते। जीके और इतिहास पढ़ के जो लोग केबीसी लायक होते हैं, वही लोग प्रशासनिक शक्तियों के दुरुपयोग की सारी सीमायें लाँघ जाते हैं। कहीं भी, कोई भी यंत्र या व्यवस्था अगर सुचारू रूप से चल रही हो, तो कोई तकनीकी व्यक्ति उसका रख-रखाव कर रहा होगा। नौ मन तेल होता है तभी राधायें नाचती हैं। ये बात राधाओं को समझ नहीं आती। ऐसा नहीं है कि उनकी प्रतिभायें काबिल-ए-तारीफ़ नहीं हैं। किन्तु स्टेज पर लाइट-साउंड उनकी प्रस्तुति पर चार चाँद लगा देता है। तालियाँ तो उसी को मिलती हैं या मिलनी चाहिये जिसने मंच पर प्रस्तुतिकरण किया है। लेकिन तकनीकी सहयोग को भी ड्यू सम्मान मिलना चाहिये। लोग बाग डॉक्टर और वकील के आगे तो बेबस-लाचार से दिखते हैं, लेकिन इंजीनियर को देख के चौड़े हो जाते हैं। सब लोग सर्विस सेक्टर के लोगों को सेवक ही मान लेते हैं। एक मिनट के लिये नेटवर्क चला जाता है, तो इंटरनेट जीवी त्राहिमाम-त्राहिमाम कर उठता है। यदि किसी दिन इंजीनियरों ने सेवा को रोका तो अनर्थ हो सकता है। निश्चय ही उनका काम सेवा देना है, किन्तु दो शब्द धन्यवाद या सम्वेदना के सुनना उनके हौसले को बढ़ाता है।
हमारे वरिष्ठ सहयोगी पाल साहब को दीपावली के तुरन्त बाद सेवा निवृत्त होना था, सो हो भी गये। वो चूँकि बिजली विभाग के प्रमुख थे और सीनियर मोस्ट थे, तो उनके रिटायरमेंट से एक निर्वात का होना अवश्यम्भावी है। कुर्सियाँ कभी खाली नहीं रहतीं। अगले व्यक्ति को चार्ज मिलना ही था लेकिन पाल साहब की कर्मठता और कार्य के प्रति समर्पण निश्चय ही अन्य लोगों को प्रेरित करेगा। पाल साहब ने संस्थान में बिजली व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये कभी घर-परिवार की परवाह नहीं की। दिन-रात एक किये रहते। रात दो बजे लाइट गयी नहीं कि उनका फ़ोन कोई न कोई घनघना ही देता था। इसके बाद उनका काम शुरू हो जाता था और तभी खत्म होता, जब तक बिजली न आ जाये। आवश्यक विभागों को जेनरेटर की सप्लाई देते रहना भी उनकी आवश्यक सेवा का हिस्सा था। जब कोरोना ने दस्तक दी तो पूरा देश हाइबरनेशन मोड में चला गया। लेकिन एसेंशियल सर्विसेज़ बदस्तूर जारी रहीं। इलेक्ट्रिकल इंचार्ज होने के नाते पाल साहब ने ड्यूटी में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरती। अगर अफ़सर अपनी ड्यूटी कर रहे हैं तो उन्हें एसी, कम्प्यूटर, नेट सब चलता हुआ चाहिये। चूँकि उन दिनों कोई किसी से मिलता-जुलता तो था नहीं, सब अपने-अपने कमरे से कार्य निष्पादित करने अपनी सुविधानुसार आते और जाते। लेकिन बिजली तो सबको चाहिये, आने और जाने के बीच। इस प्रकार पाल साहब और उनके सहयोगियों की ड्यूटी लगभग पूरे दिन की हो जाती। कोरोना पीरियड में जिसने भी ड्यूटी की, उसे कोरोना वारियर की संज्ञा से नवाज़ा गया। लेकिन क्या मजाल कि किसी का ध्यान बिजली की तरफ़ गया हो।
तीस से अधिक सालों से सेवा करते-करते कहीं से उन्हें ये लगने लगा कि आवश्यक सेवा में उनके योगदान को यथोचित मान्यता मिलेगी। वो कुछ दादा साहब फाल्के टाइप के वन्स इन लाइफ़ टाइम पुरस्कार से पुरस्कृत होंगे। उनके साथ जॉइन किये अन्य नॉन-टेक्निकल टाइप के टेक्निकल्स को संस्थान के बेस्ट वर्कर का आवर्ड मिल चुका था। फार्म इंचार्ज, सिक्योरिटी इंचार्ज, गेस्ट हाउस इंचार्ज और न जाने कितने प्रकार के इंचार्ज इस सम्मान से सम्मानित हो चुके थे। इलेक्ट्रिकल इंचार्ज की सेवाओं को मौखिक मान्यता तो सब देते रहे लेकिन वो अवार्ड में परिवर्तित नहीं हो पायी। आवश्यक सेवाओं की ये विडम्बना है कि सबको ख़ुश नहीं कर सकते। पाल साहब को बुरा तो ज़रूर लगा होगा लेकिन उन्होंने उसका ज़िक्र अपने रिटायरमेन्ट भाषण में करना उचित नहीं समझा।
पानी और हवा की तरह बिजली भी वर्तमान समय की एक आवश्यकता बन चुकी है। बिजली के बिना हमारे सारे संसाधन व्यर्थ प्रतीत होते हैं। नॉन-टेक्निकल लोग टेक्निकल लोगों द्वारा आवश्यक सेवायें मुहैया कराये जाने को अधिकार की तरह माँगते हैं लेकिन उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। लेखकों और शायरों ने भी कभी इंजीनियर्स के योगदान पर कुछ भी लिखने से परहेज किया है। विदाई समारोह के लिये इंटरनेट पर उपलब्ध सारा साहित्य पलट मारा (पहले की तरह अब लाइब्रेरी की अवधारणा बदल गयी है)। लेकिन क्या मजाल कि बिजली पर कोई शेर या बकरी मिल जाये। कहते हैं जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। लेकिन मूर्धन्य से मूर्धन्य साहित्यकार वहाँ तक नहीं पहुँच सके, जहाँ से आधुनिक चिराग़ (बल्ब) रौशन हैं। कुछ नये लोगों ने प्रयास किया लेकिन उनकी बिजुरिया में साहित्यिक एंगल तो हो सकता है लेकिन टेक्निकल नहीं। नतीजन 'वाणभट्ट' को लेखनी उठानी पड़ गयी।
बिजली है तो जीने के सारे सबब हैं,
ये एसी, ये ट्यूबलाइट, ये पंखे, ये टीवी, ये फ़्रिज हैं।
इक रूह सी है जो चलाये रखती है
वरना हम क्या हैं ज़नाब, एक फ़्यूज़ बल्ब हैं।
-वाणभट्ट