कर्मयोगी
साहब तौलिया लपेटे भड़भड़ाये हुये वरांडे में इधर-उधर घूम रहे थे। आदत भी बुरी चीज़ होती है। सुबह-सुबह नहाना उनकी ऐसी ही आदत में शुमार था। उनके कानों में बस एक बात घूम रही थी। इक्कीस दिन। बिना काम किये जिसका एक पल न कटता हो उसे इक्कीस दिन का बिन माँगा आराम। घनघोर अन्याय है। कोरोना ऐसी कौन सी बला आ गयी है। मास्क हैं, ग्लव्स हैं, सैनिटाइज़रर्स हैं, तो फिर ये घर से न निकलने और काम न करने की बात कहाँ से आ गयी। चूँकि अब जब वो साहब बन चुके हैं तो उनका मुख्य काम दूसरों से ज्यादा से ज्यादा काम करवाना होता है। नीचे वाले तो निकम्मे और निकृष्ट हैं। जब तक न हाँको काम ही नहीं चलता। दरअसल उनका काम ही था, मैनेजर वाला। अपनी मैनेजमेंट दक्षता के चलते ही वो अपनी संस्था के शीर्षस्थ पद को कृतार्थ कर रहे थे। उन्हें अपने काम की उतनी चिंता भी नहीं थी। ज़्यादा चिंता उन्हें मातहतों के आराम की थी। ये बात अलग है कि दहशत के इस माहौल में जब लोगों की हवा खराब है, कौन आराम से रह सकता है। लेकिन बॉस तो बॉस होता है। ऐसे कैसे कोई प्रधान सेवक मेरे मातहतों को मेरी मर्ज़ी के बिना काम करने से रोक सकता है, ये बात उन्हें अभी भी हज़म नहीं हो रही थी। यदि मातहत इक्कीस दिन काम नहीं करेंगे तो वो किस काम के रह जायेंगे। और उनके सारे श्रेय तो इसी बात पर निर्भर थे कि उन्होंने क्या-क्या करवा डाला। प्रतिदिन अपने ओजस्वी उद्बोधन द्वारा मातहतों का जो मार्गदर्शन वो किया करते हैं, उसे अब कौन सुनेगा। घर पर बीवी और बच्चे तो सुनने से रहे। सिर्फ़ फ़िक्र करने से ही काम नहीं चलता। ज़िक्र भी ज़रूरी है। और ज़िक्र करने के लिये मीटिंग से बढ़िया कोई दूसरी जगह नहीं हो सकती है।
भाइयों और बहनों, क्या आपको भी नहीं लगता कि अपने भारत वर्ष में एकाएक कर्मयोगियों की बाढ़ सी आ गयी है। जिन्हें लगता है कि पूरी दुनिया का दारोमदार उन्हीं के मज़बूत कन्धों पर टिका है। बाकी सब तो पैदायशी निकम्मे-निकृष्ट हैं। मातहत भी बेचारे क्या करें। बेरोजगारी के इस दौर में जिसे नौकरी मिल गयी है, वो वैसे ही खुद को भाग्यशाली मानते हैं। इसलिए बॉस की ख़ुशफ़हमी को बनाये रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। इसमें कोई ज़्यादा दिक्कत भी नहीं है। बस दोनों कान खुले रखने हैं।
भाइयों और बहनों, क्या आपको भी नहीं लगता कि अपने भारत वर्ष में एकाएक कर्मयोगियों की बाढ़ सी आ गयी है। जिन्हें लगता है कि पूरी दुनिया का दारोमदार उन्हीं के मज़बूत कन्धों पर टिका है। बाकी सब तो पैदायशी निकम्मे-निकृष्ट हैं। मातहत भी बेचारे क्या करें। बेरोजगारी के इस दौर में जिसे नौकरी मिल गयी है, वो वैसे ही खुद को भाग्यशाली मानते हैं। इसलिए बॉस की ख़ुशफ़हमी को बनाये रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। इसमें कोई ज़्यादा दिक्कत भी नहीं है। बस दोनों कान खुले रखने हैं।
जब द्वापर भगवान कृष्ण ने गीता में कर्मयोग का सिद्धान्त अर्जुन को दिया था, तब उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनकी बात को दूर-दराज़ के देशों में इतने संवेदनशीलता से समझा जायेगा। नतीजा हम सबके सामने है। सबसे पुरानी सभ्यता का दम्भ भरने वाला देश हज़ारों सालों की ग़ुलामी को झेलते-झेलते दासता का आदी हो गया। जब तक बॉस से दो-चार गाली न खा लें, उनका निकम्मेपन का एहसास जाता रहता है। लगता है - बॉस हो तो ऐसा, क्या गरियाता है। देश के अधिकांश लोग इसी में खुश है कि विकसित देश, उसे अभी भी विकासशील देश की श्रेणी में रखे हुये हैं। विकासशील शब्द को वो ऐसे गर्व से वहन करता है जैसे कोई गोल्ड मेडल हो, जिसे वो अपने गले से उतारने को तैयार न हो। जहाँ आज़ादी के सत्तर साल बाद भी लोग अपने को पिछड़ा घोषित रखने के लिये कर लालायित हों, वहाँ डेवलपिंग नेशन का सिद्धान्त उनके विक्टिम माइंड सेट को बहुत सूट करता है। इसके पीछे सांस्कृतिक, राजनितिक और आर्थिक कारण हो सकते हैं। लेकिन कोई भी ऐसा देश नहीं है, जिसे हम विकसित मानते हों, और उसे इन समस्याओं से जूझना न पड़ा होगा। कुछ देश तो विश्व युद्ध की भयंकर त्रासदी भोगने के बाद भी पुनः कुछ वर्षों में न सिर्फ़ आत्मनिर्भर बन गये बल्कि नित-निरन्तर विकास के नये प्रतिमान गढ़ रहे हैं। भारत में भले ही गीता का उद्भव हुआ हो, लेकिन उन देशों ने गीता को जीवन में उतारने का सार्थक प्रयास किया है। कृष्ण महाभारत का युद्ध स्वयं भी लड़ सकते थे। लेकिन तब कहानी में जो ट्विस्ट था, वो न रहता। अट्ठारह दिन के बजाय कुछ क्षणों में ही सब आर-पार हो गया होता। लेकिन इस बात से प्रभु श्री कृष्ण ने यह भी समझा दिया कि बेटा अर्जुन कर्म तो तुम्हें ही करना होगा। ये बात अलग है कि जिस देश में प्रभु ने सन्देश दिया वो यही समझता रहा कि वो प्रवचन सिर्फ़ अर्जुन के लिये था। हमारा क्या? हमें कौन सा राज-पाठ मिलना है। हमारी तो नियति में ही तुर्कों और फिरंगियों की ग़ुलामी लिखी थी। हमने तो गीता से सिर्फ़ उतना ही सार उठाया जितना हमारे लिये कनविनियेंट था। क्या ले कर आये थे और क्या लेकर जाना है। विनाशाय च दुष्कृताम सम्भवामि युगे-युगे। हमें क्या करना जब अवतारी पुरुष आयेगा तो सबसे निपट लेगा। भगत सिंह पडोसी के घर ही अच्छा। हमने कभी ये सोचने की जहमत नहीं उठायी कि अगली पीढ़ियों के लिये क्या छोड़ कर जाना है। जिन्होंने सोचा भी तो अपने पोते और पर-पोते के आगे नहीं सोच पाये।
भगवान के घर देर तो है लेकिन अन्धेर सिर्फ़ उन्हीं के घर है जिन्होंने अपनी अक्ल की खिड़की पर जहालत का परदा डाल रखा है। अंधकार से प्रकाश की ओर जाने को कहो तो कहेंगे कि अँधेरे में कोई लोड नहीं है, जब जाहे जागो - जब चाहे सो जाओ। बिजली की भी बचत। उजाले में तो जगना ही पड़ेगा। उलटी गंगा बहाने में का आनन्द, तुम क्या जानो। हम चाहे कितनी भी जहालत की न्यूनतम गहराइयों गोते लगा रहे हों, लेकिन भगवान निरन्तर कोशिश करते रहते हैं, हमें अंधकार से निकालने के लिये। वो हमेशा के लिये हमें पतन के मार्ग पर नहीं छोड़ सकते। इसीलिये हमारे बीच वो समय-समय पर महापुरुषों को भेजते रहते हैं। ये बात अलग है कि महापुरुषों का अनुसरण करने से कहीं आसान है, उनकी फोटो को ड्राइंगरूम में लटका लेना और साल में एक-आध बार (जन्म-मरण दिवस पर) उस फोटो पर माला टाँग देना। जब इतने से ही काम चल जाता है तो उनके सिद्धांतों पर कौन चले। उन महापुरुषों की किस्मत भी क़ाबिल-ए-ईर्ष्या है कि उनके युग में दूर-संचार के माध्यम कम थे। आज कल जब स्पॉन्सर्ड न्यूज़ छप सकती है तो उस ज़माने में भी मिडिया पर ताकतवर लोगों का प्रभाव अवश्य रहा होगा। सो जिसने भी ढंग से मिडिया मैनेज कर लिया, वो महान बन गया होगा, ऐसा कोई भी सहजता से समझ सकता है। असली चुनौती तो अब है, कोई महान से महान व्यक्ति महान बन कर दिखा दे। पचहत्तर अख़बार और न्यूज़ चैनल हैं। प्रेस मिडिया के युग में यदि कोई अवतार जन्म ले भी ले तो ये तत्व ज्ञानी लोग उसकी बधिया उधेड़ डालेंगे। वो भी सोचने पर मजबूर हो जायेगा कि किन जाहिलों से पाला पड़ा है। मरने दो इन्हें, हम किसी और देश निकल लें, तभी भला। शायद इसी विचार ने ब्रेन-ड्रेन को जन्म दिया। तमाम ज्ञानी जनों ने इसीलिये देश सेवा से ज़्यादा मानवता की सेवा को तरजीह दी और निकल लिये। यहाँ रहते तो किसी दफ्तर में बस कम्पेरेटिव स्टेटमेंट पर साइन कर रहे होते। जिस पर कोई छोटा सा बड़ा बाबू ऑब्जेक्शन लगा के कूड़े के ढेर में फेंक देता। कलियुग में प्रभु श्री कृष्ण यदि गीता का सन्देश देने साक्षात् स्वयं उतर आयें, तो मीडिया पर वर्चस्व जमाये अर्बन नक्सल उनकी विवेचना कर डालें। बतायें कि बाबा मार्क्स के विचारों से जो मेल नहीं खाता वो व्यक्ति भगवान कैसे बन सकता है। ये धर्म विशेष का प्रपोगेंडा है। भगवान भी ये सोचने को विवश हो जाते कि - अपना टाइम निकल चुका पता नहीं अब आयेगा भी या नहीं।
द्वापर का कर्मयोग का सन्देश शनै-शनै वाया अमरीका-जापान-यूरोप-सिंगापुर-ताइवान-कोरिया घूम-फिर कर वापस उसी धरती पर पहुँच गया जहाँ से इसका प्रदुर्भाव हुआ था। लेकिन अब जब आया तो इस यात्रा के पद चिन्ह उस पर प्रतिबिम्बित हैं। भौतिकवादी देशों से निकल कर इसका स्वरूप ही बदल गया है। बाकी बची खुची जो कमी रह गयी थी, उस पर कलियुग का मुलम्मा चढ़ गया है। करेला वो भी नीम चढ़ा। कर्म सिर्फ कर्म तक ही सीमित रहता तो गनीमत थी लेकिन काल के प्रभाव में फल की इच्छा इस कदर बलवती हो गयी है कि फल की इच्छा के बिना किसी कार्य के सम्पन्न होने की कल्पना कर पाना असंभव हो गया है। ये तो कुछ बुद्धिजीवी टाइप के लोग हैं जो निष्काम भाव से कागज़ काले किये जा रहे हैं। वो ये भली भाँति जानते हैं कि उनके इस पुनीत कर्म से न उनका भला होना है न किसी और का। लेकिन जैसा पहले भी लिख चुका हूँ, कर्म के ऊपर भी एक चीज़ है - आदत। जिस तरह कुछ लोगों की आदत कर्म करना पड़ गयी है। उसी तरह कुछ लोगों की आदत है बाल की खाल निकालना। होता ये है कि जिन्हें काम करने की लगन होती है उनके पास समय बहुत कम होता है। वो इसी जन्म में सब काम निपटाना चाहते हैं। क़्वालिटी के चक्कर में पड़ेंगे तो कोई दूसरा क्रेडिट ले उड़ेगा। सही या गलत कर्म का विभेद करने का न समय है, न दस्तूर। ये जो पत्रकार टाइप के लोग हैं, उनको सोचने और कलम घिसने की आदत पड़ गयी है। जब कर्म योगी सुधरने को राजी नहीं हैं, तो बेचारे ये क्यों सुधर जायें। ऐसे लोग अक्सर पत्रकार टाइप बिरादरी से सम्बन्धित होते हैं। और कलियुग के कर्मयोगियों को सबसे ज़्यादा दिक़्क़त इन्हीं लोगों से है। ये लिखा-पढ़ी करने वाले लोग न हों तो ये कर्मयोगी लोग धरती-पाताल एक कर दें। वो कुछ करना चाहते हैं, तो ये लेखन-योगी कोर्ट-कचहरी करने लगते हैं। ये लोग प्रेस और मीडिया में प्रश्न पूछने लगते हैं। ये एजी-सीएजी की रिपोर्टें चाट डालते हैं। इन्हें कुछ करना-धरना तो है नहीं, बस सवाल पूछना है। ये फ़र्क सिर्फ़ और सिर्फ़ नज़रिये का है। जब कोई रिपोर्टर चीख-चीख कर सिस्टम की नाकामी पर सवाल उठाता है, तो यक़ीन होता है कि इस आदमी ने अपने घर की टोंटी का वॉशर भी कभी अपने हाथ से नहीं बदला होगा। और तो और यहाँ राजनीतिज्ञों की एक ऐसी जमात है, जो कभी सत्ता में नहीं रही लेकिन सरकार के हर काम-काज की कमी ऐसे गिनाती है जैसे वो होते तो कद्दू में सटीक तीर मारने से दुनिया की कोई ताक़त उन्हें रोक नहीं पाती। कर्मयोगी इन्हें देश का दुश्मन मानते हैं और ये कर्मयोगियों को। गौर से देखा जाये तो दोनों ही देश प्रेम की भावना से ओत-प्रोत हैं। दैव-योग से दोनों अपना-अपना काम कर रहे हैं। लेकिन इस नज़रिये के लिये आपको राज-योग के लेवल तक आना होगा। तब पता चलेगा कि नियति ही सब कुछ चलाती है। हम नहीं चलाते। कर्मयोगी होना भी भाग्य की बात है और उसका फल भी आपकी झोली में ही गिरे, तो डबल भाग्य। अक्षय कुमार जैसा बड़ा कलाकार अपनी सफलता का 65% श्रेय भाग्य और 35% श्रेय कर्म को देता है। अमिताभ भी अपनी सभी उपलब्धियों को अत्यन्त विनम्र भाव से ऊपर वाले को समर्पित कर देते हैं। तो कर्मयोगियों का भी कर्तव्य है स्वयं को अकिंचन मान कर कुछ श्रेय ऊपर वाले से शेयर कर लें। लेकिन इतना ही तत्व ज्ञान इनके पास होता तो राजा हरिशचंद्र न बन जाते।
क्या मजाल कि वेस्टर्नाइज़्ड गीता के फॉलोअर अपनी उपलब्धियों का खज़ाना किसी से शेयर कर लें। सारी उपलब्धियाँ ये ख़ुद ओढ़ के बैठ जाते हैं। आई हैड बीन देयर, आई डिड दैट। ख़ुदा न ख़ास्ता यदि कहीं कोई प्रोजेक्ट बैकफायर कर गया, तो क्या मजाल कि इन पर आँच भी आ जाये। ये फोड़ने के लिये दो-चार ठीकरे भी तैयार रखते हैं। इनके पास एक नहीं तीन-तीन प्लान्स होते हैं - प्लान ए , प्लान बी और प्लान सी। और हर प्लान के केंद्र में ये स्वयं होते हैं या इनका स्वार्थ। द्वापर के कर्मयोगी से जो उम्मीद की गयी थी, इनसे करने की गलती कतई मत कीजियेगा। कलियुग के कर्मयोगियों की भी दो किस्में हैं। एक प्राइवेट वाली और एक पब्लिक वाली। प्राइवेट को तो सिर्फ़ मुनाफ़े से मतलब होता है। मानो शोले की बसन्ती - जब तक है जान, जाने जहान। क्योंकि वहाँ लाला का पैसा लगा होता है। वहाँ का कर्मयोग वैश्विक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का शिकार है। इसे हमारे प्रधान सेवक ने जॉब की संज्ञा दी है। लेकिन पब्लिक सेक्टर के कर्मयोगियों से उम्मीद की जाती है कि वो द्वापर के सिद्धांत का अमल करें। क्योंकि वो नौकरी कर रहे हैं। यहाँ देश के टैक्स पेयर्स का पैसा लगा है। जिसके सदुपयोग के लिये उन्हें नौकरी मिली है। लेकिन लाखों की भीड़ को चीर कर जिन्होंने ने कम्पटीशन के माध्यम से नौकरी पायी है, उनमें सेवा भाव से पहले अफसर भाव जागृत हो जाना स्वाभाविक है। आधे लोग तो सरकारी नौकरी सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि बचपन से ही उनमें देश-सेवा की भावना कूट-कूट के भरी थी। कुछ लोगों ने आरक्षण की व्यवस्था अन्यूज़ड न रह जाये, इसलिये इधर का रुख किया। प्रेस-मीडिया-राजनेता सदैव ये एहसास दिलाने के लिये तत्पर रहते हैं कि वो सरकारी नौकर हैं, लेकिन घर पर बीवी और ऑफ़िस में मातहत उन्हें याद दिलाते रहते हैं कि उनमें अफसरी के सारे गुण विद्यमान हैं। उसने भी तो इसी अफसरी के लिये प्राइवेट जॉब के मोटे पैकेज को तिलांजलि दी थी। कर्म करने का आनन्द भी तब ही है जब पूँजी किसी और की, और ज़िम्मेदारी किसी और की। तुर्रा ये कि अपन तो बस निष्काम भाव से कर्म कर रहे हैं। यहाँ एक ख़ास बात ये भी है कि हर कर्म के साथ वित्तीय प्रावधान जुड़ा होता है। अर्थात हर कर्म के साथ उसका फल भी जुड़ा होता है। प्रत्येक कर्म के फलस्वरूप जो प्रसाद मिल जाता है उससे अपना गुजारा आम आदमी से ज़्यादा अच्छी तरह हो जाता है। जब ऊपर वाले ने प्रसाद के लिये हमें ही चुना तो हम क्या प्रसाद ऐसे ही बाँट दें। यदि इनके कर्मफल पर भी टैक्स लग जाये तो गारंटी है, ये कर्मयोग छोड़ कर भक्ति मार्ग पर चल देंगे। सालों बाद एक ऐसी सरकार बनी है जो लोगों में देशभक्ति जगा कर काम कराना चाह रही है। लेकिन पुरानी आदतें तो जाते-जाते जातीं हैं।
इन कर्मयोगियों की कर्म करने की इच्छा में बजट एक उत्प्रेरक का काम करता है। ऐसा नहीं है कि देश में काम की कमी हो, लेकिन काम करने की इच्छा ही तब और बलवती हो जाती है जब उस कार्य के लिये बजट का निर्धारण कर दिया जाये। एक बार यदि बजट का प्रावधान हो गया तो इनकी वित्तीय दक्षता इस बात पर निर्भर करती है कि इन्होने कितनी सुगमता से इसे हिल्ले लगा दिया। जिसे ये लोग यूटिलाइजेशन बोलते हैं अक्सर वो कंज़म्प्शन से ज़्यादा नहीं होता। बजट रिलीज़ के बाद इनका समस्त फ़ोकस सिर्फ उसे निपटाने पर होता है। कई बार इस काम की इतनी जल्दी होती है कि उपयोग (युटीलिज़ेशन) और उपभोग (कंज़म्प्शन) का अंतर समाप्त हो जाता है। इकत्तीस मार्च अभी-अभी निकला है कमोबेश सभी विभागों द्वारा कोरोना लॉकडाउन के बाद भी बजट का 95 से 100 प्रतिशत तक निस्तारण कर लिया गया। काम की आवश्यकता तक के बारे में सोचने का समय नहीं था, तो उसकी गुणवत्ता के बारे में बात करना बेमानी है। स्थितियां भी कुछ ऐसी बन चुकी हैं कि या तो कर्म कर लो या सोच लो। नीचे वाले तो बैठे ही हैं अपने सर पर ठीकरा फुड़वाने के लिये। कभी-कभी लगता है कि काश भगवान ने कर्मयोगियों को कुछ समय सोचने के लिये भी दिया होता की आवश्यक और अनावश्यक कार्यों में वे भेद कर पाते। फिनलैंड नाम का एक छोटा सा देश है लेकिन इसकी कई कम्पनियाँ मल्टीनेशनल लेवल पर काम कर रही हैं। वहाँ जब डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार हो जाती है तो उस काम को कुछ सालों के लिये रिव्यू हेतु स्थगित कर दिया जाता है। दो-चार साल बाद भी यदि उस कार्य की उपयोगिता समझ आती है, तभी बजट रिलीज़ किया जाता है। यहाँ आज आइडिया आया नहीं कि कल दौलताबाद के लिये कूच कर देंगे।
लॉकडाउन ने ये बात तो भली भाँति समझा दी कि दुनिया में हर किया जा सकने वाला काम ज़रूरी नहीं है। इस अवधि ने लोगों को स्वाध्याय और रचनात्मकता की ओर प्रेरित किया है। अब ये अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि कैसे लंगोट पहन कर और कुटिया में रह कर हमारे ऋषियों-मनीषियों ने ग्रह-नक्षत्रों की चाल तक को भाँप लिया था। कारण कुछ भी हो, आप-धापी न होने से करने से ज़्यादा सोचने-मनन करने का समय मिल जाता था। कोरोना संकट काल में किसी को और कुछ समझ आया हो या न आया हो लेकिन ये समझ ज़रूर आ जाना चाहिये कि इच्छाओं की लम्बी फेहरिश्त में आवश्यकतायें बस दो वक्त की रोटी से ज़्यादा नहीं हैं। लॉकडाउन की खबर आते ही मार्केट से आटा सबसे पहले गायब हुआ। यदि मिला भी तो अधिक दाम पर। उसका मुनाफ़ा किसान तक पहुँच पायेगा या नहीं, ये तो समय बतायेगा। लेकिन इस समय ने ये बता दिया कि दूसरों को खाना खिलाना ही निस्वार्थ कर्म है। इस काम में या तो किसान लगे हैं या देश के जवान। सफाई कर्मियों के योगदान को अक्सर कम करके आँका जाता है। भला हो इस महामारी का कि जो बात प्रधान सेवक समझा-समझा कर थक गया, लोगों को स्वतः समझ आ गयी। भोजन के बाद यदि किसी चीज का महत्त्व है, तो हाइजीन और स्वच्छता का। अपनी जान को संकट में डाल कर दूसरों की जान बचाने वाले डॉक्टर्स भी आज कर्मयोगी के रूप में पहचान बनाने में सफल हुये हैं। इन सभी कर्मयोगियों को पूरा देश हृदय से धन्यवाद दे रहा है।
आज की परिस्थितियों में अत्यावश्यक कार्यों के अलावा लॉक डाउन का कठोरता से पालन ही सच्ची देशभक्ति है। लेकिन कर्मयोगियों के हालात विरहाग्नि में जलने वाले प्रेमियों जैसे हो रखे हैं - हम प्यार में जलने वालों को, चैन कहाँ, हाय, आराम कहाँ। अपने दिल की फ़िक्र का ज़िक्र करने के लिये सजने वाली महफिलें वीरान हो गयी हैं। हर वर्ष की भाँती इस बार भी बजट बँट गया है। ज़िंदगी हर दिन एक नयी जंग है। अब उसे हिल्ले लगाने की होड़ शुरू हो जायेगी। लॉक डाउन की ऐसी-गम-तैसी। एक वाइडली ट्रेवेल्ड मित्र ने बताया कि दुर्योग हम सिर्फ़ स्काईस्क्रैपर्स और मेट्रो को तरक्की की निशानी मान बैठे हैं। आदमी पर इन्वेस्ट करो। बहुत अच्छा लगता है, जब विदेश में लोग सॉरी और थैंक यू का बहुतायत से प्रयोग करते हैं। अच्छा नागरिक बनाओ, देश अपने आप अच्छा बन जायेगा। सरकारें नहीं, लोग देश बनाते और चलाते हैं। कोई भी और कैसी भी सरकार रही हो, देश आगे ही बढ़ा है और आगे ही बढ़ेगा। इसमें किसी शक़-शुबहे की गुंजाईश नहीं होनी चाहिये। जिस दिन हम फल की इच्छा को त्याग कर कर्म करने लगेंगे, देश की प्रगति को उत्तरोत्तर नयी गति मिलेगी और हमें विकसित होने से कोई नहीं रोक सकेगा। ये तभी संभव है जब बजट खर्च करने वाला नहीं बचाने वाले पुरस्कृत हो। उसी तरह जैसे मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। एक बड़े साहब अपने मातहत से इसीलिये रुष्ट हो गये कि उसने तीन करोड़ का काम तीन रुपये में करा लिया था। विकासशील देश है, बजट तो मिलता ही रहेगा, लेकिन उसको हिल्ले लगाने के उद्देश्य से काम करना कतई उचित नहीं है। लेकिन ये बात बजट ओरियेंटेड कर्मयोगियों की समझ से परे है। इनमें से अधिकांश ने काम ही तब किया है, जब बजट का आवंटन हो गया है। वर्ना कौन सा कर्म, कौन सा कर्मयोग।
कर्मयोग और भक्तियोग का अन्तर बहुत बारीक़ है। यदि आपको आपके मन का मिल गया तो आप कर्मयोगी बन जाते हैं। यदि नहीं मिला तो भगवान की मर्ज़ी कह कर निवृत हो लेते हैं। हारे को हरि नाम। कभी-कभी सोचता हूँ कि 130 करोड़ लोगों में यदि सब कर्मयोगी हो जाते तो इतना बजट देने के लिये तो वर्ल्ड बैंक भी हाथ खड़े कर देता। यदि वो बजट मिल जाता और उसे बराबर-बराबर 130 करोड़ लोगों में बाँट देते तो क्या देश विकसित देशों की कतार में न खड़ा हो जाता। स्काईस्क्रैपर्स नहीं तो क्या झोपड़ी ही वर्ल्ड क्लास हो जाती। बात सोचनीय है, सोचियेगा ज़रूर। नीति आयोग का गठन हर विभाग में होना चाहिये ताकि कर्मयोगियों की कर्मठता और बजट को देश हित में साधा जा सके।
दस बजने को आ रहा था। साहब की उत्तेजना बढती जा रही थी। प्रधान सेवक की बात उनके कानों में गूँज रही थी - इक्कीस दिन का टोटल लॉक-डाउन। उन्हें लगने लगा हो न हो ये चीन वालों की उनके प्रति साजिश हो।उन्होंने आउट हॉउस में रहने वाले ड्राइवर को आवाज़ दी - गाडी निकालो।सर्जिकल मास्क और ग्लव्स पहन कर वो अपने ऑफ़िस प्रदत्त तख़्त-ए -ताउस पर विराजमान हो गये। अन्यमनस्क भाव से मेज पर रखी फाइलों को पलटने लगे। अनायास हाथ घंटी पर भी चला गया। फिर ध्यान आया वो अकेले हैं। जब भी कोई बोर हो रहा हो तो सोशल मिडिया ही एक विकल्प बच जाता है टाइम पास का। मोबाईल निकाल कर वाट्सएप्प पर उंगली चलायी लेकिन वो नहीं चला। फिर ध्यान गया हाथ पर तो ग्लव्स चढ़े हैं। ये सब सेवायें समय काटने के लिये ही इज़ाद की गयी हैं। दस्ताने उतार कर व्हाट्सएप्प खोला तो किसी मित्र ने जोक भेज रखा था -
बॉसों के लिये हेल्पलाइन : लॉकडाउन का सबसे ज़्यादा असर बॉसों पर। कोरोना के कारण अधिकांश बॉस में डिप्रेशन में। घरों में बीवियों ने मातहतों की तरह बात मानने से इंकार। समझदार बॉस बर्तन और झाड़ू-पोछा करके डिप्रेशन से बचने की जुगत में। सरकार ने खोला एक हेल्पलाइन नम्बर। जिस पर प्रतिदिन 15 से 20 इंस्ट्रक्शंस दे कर बॉसगिरी दिखायी जा सकती है। उधर से बस एक ही आवाज़ आती है। यस सर...यस सर...यस सर...
बॉसों के लिये हेल्पलाइन : लॉकडाउन का सबसे ज़्यादा असर बॉसों पर। कोरोना के कारण अधिकांश बॉस में डिप्रेशन में। घरों में बीवियों ने मातहतों की तरह बात मानने से इंकार। समझदार बॉस बर्तन और झाड़ू-पोछा करके डिप्रेशन से बचने की जुगत में। सरकार ने खोला एक हेल्पलाइन नम्बर। जिस पर प्रतिदिन 15 से 20 इंस्ट्रक्शंस दे कर बॉसगिरी दिखायी जा सकती है। उधर से बस एक ही आवाज़ आती है। यस सर...यस सर...यस सर...
- वाणभट्ट