मंगलवार, 12 नवंबर 2019

कल चमन था

कल चमन था

आज कल फिल्म वालों के पास सब्जेक्ट ख़त्म हो गए हैं या कुछ नया कहने की चाह में कुछ भी कहे जा रहे हैं। ऐसी फिल्में बना किसके लिये रहे हैं। जिनके चमन उजड़ गये हैं, उनका दुनिया कम मज़ाक बनाती है, जो फिल्म वाले भी उन पर पिल पड़े हैं। एक नहीं दो-दो फिल्में। भाई जिसे आप मज़ाक समझ रहे हो वो मेरे लिये गंजे लोगों का मखौल उड़ाने से कम नहीं है। दुनिया में लगभग 10 प्रतिशत लोग 50 की उम्र आते-आते गंजेपन का शिकार हो जाते हैं। भारत, जहाँ हर व्यक्ति एक भयंकर इमोशनल ज़िन्दगी जी रहा हो, वहाँ गंजे होने की सम्भावना और भी बढ़ जाती है। भारतीय पुरुषों में गंजे हो जाने का आँकलन लगभग 60 प्रतिशत है। ऐसे में किसी बदनसीब के उजड़े चमन पर हँसने से पहले ये अवश्य सोच लीजियेगा कहीं ये आप की भी मंज़िल-ए-मक़सूद तो नहीं है। ऐसे देश में ऐसे विषय को चुनना बहुत नाइन्साफ़ी है उन लोगों के प्रति जो कभी लहलहाती खेती से अब महरूम हो चुके हैं। बहरहाल फिल्म बनाने से पहले कोई पब्लिक ओपिनियन तो ली नहीं जाती वर्ना डेमोक्रेसी के मक्के हिन्दुस्तान में ये कहानी फिल्म बनने से पहले ही दफ़न हो जाती। लेकिन अब ये फिल्में बन भी गयी हैं और सिनेमा हॉल्स में चल भी रही हैं, तो क्या किया जा सकता है। इसे गंजों की शराफ़त कहें या किसी एसोशिएशन का न होना कहा जाये, इस वाहियात विषय वाली फिल्मों के विरोध में न कोई धरना हुआ न प्रदर्शन, न कोई स्वर उठा, न थियेटरों में आगजनी। और तो और गंजे ख़ुद अपने ऊपर बनी फिल्मों को देखने जा रहे हैं। 

ये बाला जो सुपर-डूपर हिट होने की कगार पर खड़ी है, उसमें गंजों के योगदान के लिये निर्माता-निर्देशकों को अपनी कमाई से एक हेयर ट्रान्सप्लांट का ट्रस्ट बनाना चाहिये, जो देश भर के उन गंजों को सुविधा मुफ़्त दे, जो इसका खर्च वहन कर सकने में असमर्थ हों। बल्कि यदि मुनाफ़े की राशि का २५% भी इस ट्रस्ट को देने का विचार अपने प्रचार माध्यमों से प्रसारित करे तो मैं ये गारंटी लेता हूँ कि शोले के सफलता को बीट नहीं लेकिन रिपीट तो किया जा सकता है। गंजों के बिहाफ़ पर मैं इसलिये बोलने का हक़ रखता हूँ कि क़ुदरत ने उम्र के साथ मुझे भी बालों के नायाब उपहार से वंचित कर दिया है। फिल्मों के नायकों से अलग मेरे लिये बालों का झड़ना चुनौती नहीं बना क्योंकि ये प्रक्रिया विवाहोपरान्त आरम्भ हुयी। कथित रूप से पुरुष प्रधान समाज में इसका श्रेय अनुवांशिकता से अधिक धर्मपत्नी को दिया जा सकता है। शायद इसीलिये श्रीमती जी ने भी बढ़ती टमी की तरह झड़ते बालों पर कभी कोई आपत्ति भी नहीं की। उन्हें भी ये भली भाँति पता है कि पुरुषों को बाँधे रखने का यह नुस्ख़ा वर्षों से आज़माया जाता रहा है। तभी तो कहते हैं पुरुष के हृदय का रास्ता पेट से हो कर गुज़रता है। इन टोटकों के बाद उन्हें वैवाहिक असुरक्षा का डर हमेशा के लिये समाप्त हो जाता है। गौर करने वाली बात ये है कि जो पुरुष अपने लुक्स पर ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान देते हैं, वो अपना मोबाईल कभी भी बिना पासवर्ड के नहीं रखते। अपना क्या, जैसे बाहर वैसे अन्दर। किसी ने वाट्सएपिया ज्ञान भेजा था कि आज के ज़माने में वही व्यक्ति ट्रस्टवर्दी (वफ़ादार) है जिसके मोबाईल पर पासवर्ड न हो। तब मुझे लगा इससे बड़ा कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट किसी ने आजतक नहीं दिया होगा। अब सम्हलने की बारी उन महिलाओं की है जिनके बीएफ या हबी अपने बालों पर कुछ ज़्यादा कंघी किया करते हैं या टमी अन्दर करने के लिये जिम जाने को उद्दत रहते हों। यदि उनके मोबाईल पासवर्ड प्रोटेक्टेड हों तो शक़-शुबहे की कोई गुंजाईश नहीं बचती है। वो चाहें तो प्राइवेट डिटेक्टिव भी लगा सकती हैं। बाद में ये गऊ (गधे-उल्लू का कॉम्बिनेशन), सीधी-साधी, भोली-भाली होने की बात न कहना। (एक गंजा अगर अपनी पर उतर आये तो किसी के हरे-भरे चमन को वीरान करवाने का माद्दा भी रखता है।)  

जब से पीवीआर हॉल्स के किरायों में अतिशय वृद्धि हुयी है पिक्चर्स का बचा-खुचा क्रेज़ भी कम हो गया है। चूँकि ये फिल्में मेरी दुखती रग के करीब थीं, सो इन्हें देखने का निर्णय लिया गया। शादी पहले हुये गंजों की व्यथा समझने के लिये इन फिल्मों का देखना मेरे लिए ज़रूरी था। कौन सी फिल्म चलनी है, इस पर जब श्रीमती जी ने आयुष्मान खुराना वाली फिल्म का नाम लिया तो सच बतायें कसम से रोम-रोम सुलग गया। उन्होंने बहुत ही सहज तरीके से मुझे मेरे गंजे हो जाने का एहसास करा दिया। आज जब ये फिल्म हिट बतायी जा रही है तो मेरा सीना भी फ़क्र से चौड़ा हुआ जा रहा है कि मेरा भी तुच्छ योगदान है इस फिल्म के हिट होने में। यदि ये लेख मै कलाकारों की लाज़वाब एक्टिंग, डायलॉग्स, फिल्म की स्क्रिप्ट राइटिंग, एडिटिंग, सोशल मेस्सेज, बैकग्राउण्ड म्यूज़िक और मधुर गीतों की तारीफ करने के लिये लिख रहा होता, तो मेरे पास शब्द कम पड़ जाते। लेकिन मै ये लिख रहा हूँ, उनके लिये जिनके लिये इस समस्या को उठाया गया है। 

बात उन दिनों की है जब ये तो पता था कि पढ़ायी से ज़रूरी कुछ भी नहीं है लेकिन पढ़ायी में मन लगाना कठिन था। बताने वाले बताते हैं कि इसमें इंसान का कम और उम्र का दोष ज़्यादा होता है। साथ में भाँती-भाँती के लोग थे, डिग्री की रैट रेस में। जो लोग अपने लुक्स के प्रति कॉन्शस थे, दिन-रात आइना तोड़े पड़े रहते थे। एक कंघी हर समय जेब में पड़ी रहती थी। जब जरा मौका मिला या कहीं आइना दिखा, बाल संवारना चालू। (ख़ुदा गवाह है कि बन्दे ने न तब कंघी रखी, न आज रखता है। सुबह के बाद चेहरे को शायद ही कभी दुबारा देखता हो। पर्पज़ली तो कतई नहीं।)  उन फैशन परस्त तब के युवाओं के बाल आज पचासवें बसन्त के बाद भी बरकरार हैं। घोड़ों की खरहरा प्रक्रिया के बारे में तो पता ही होगा। आयरन ब्रिसल्स वाले ब्रशों से खरहरा किया जाता है ताकि उनकी त्वचा पर ब्लड सर्कुलेशन सुचारु रूप से बना रहे। जितना खरहरा उतनी चमकते बाल और त्वचा। कंघी भी एक प्रकार से उसी खरहरे का काम करती है। दूसरों की गलती से जो सीख ले वो बुद्धिमान होता है। काश कि किसी ने खरहरे पर पहले ज्ञान दिया तो आज भी चमन बरक़रार रहता। 

उन्हीं दिनों हमारे साथ एक सहपाठी थे वत्सल। जिन्हें बाकी बच्चे केएलपीडी के नाम से बुलाते थे - काला-लम्बा-पतला-दुबला। अपने लुक्स पर ध्यान न देने की वजह से उसका पढ़ाई पर ध्यान औरों की अपेक्षा ज़्यादा रहता था। इसी चक्कर में भाई को खरहरा करने का ख्याल कदाचित आता हो। शरीर में सर के बाल ही सबसे बेवफ़ा हिस्सा हैं, सबसे पहले साथ छोड़ने को आमादा रहते हैं। वत्सल की मेधा के सब कायल थे लेकिन अपने लुक्स के कारण किसी मिक्स्ड ग्रुप का हिस्सा नहीं बन पाता था। कक्षा में अव्वल और गेड़ा काटने में सबसे पीछे। काफी समय तक तो उसे ये ही पता था की शादी में सही विधि से मन्तर न पढ़े जायें तो बच्चे ही नहीं पैदा होते। भला हो छात्रावास के ज्ञानियों का जिन्होंने उसे इस ब्रह्म ज्ञान से वंचित नहीं रहने दिया। बहरहाल जब उसने २२ साल की आयु में अपने पहले प्रयास में राष्ट्रीय स्तर की सेवा स्थान बनाया। तो उसने उसी कन्या को अपनी जीवनसंगिनी चुना जिसके पीछे गेड़ा काटने में बाकि अपना समय बर्बाद कर चुके थे। कहीं से कोई विरोध के स्वर उठे हों ऐसा मुझे नहीं पता। 

बाला एक बेहतरीन फिल्म है ऐसा मै कहूंगा तो लोग कहेंगे कि गंजा सिम्पैथी चाह रहा है। लुक्स के लिये कभी ध्यान नहीं दिया। हाँ अब कभी-कभी ये लगता है कि काश बाल होते तो ठण्ड से थोड़ा बचाव हो जाता। बारिश का पानी चश्मे पर कुछ छन के आता। दूसरों को देख कर रंग न पाने की गुंजाइश का मलाल भी कभी-कभी होता है। चूँकि मेरी ये स्थिति शादी के बाद आयी थी, इसलिये विवाह से पूर्व गंजे हो जाने के दर्द को समझने के लिये इस फिल्म को देखना लाज़मी था। जिसे इस फिल्म ने खूबसूरती से दिखाया है। एक मिडल क्लास कनपुरिया इससे आगे कहाँ सोच सकता है। एक नौकरी-एक शादी। बस इतनी सी ख्वाहिश वाली ज़िन्दगी। 

स्वानुभूति से मै ये कह सकता हूँ कि खरहरे से बढ़िया कुछ भी नहीं। इसलिए खरहरा करते रहिये जब भी मौका मिले। कहीं शीशा मिल जाये तो अपने अक्स को देखने से कतई गुरेज़ न कीजिये। असलियत से कभी कोई समझौता नहीं कीजिये हर किसी के लिये कहीं न कहीं कोई न कोई बना हुआ है। इंतज़ार कीजिये अपने समय का। असलियत छुपा कर के आप, अपने आप को कष्ट देंगे। जिस समाज में लोग अपने से ज़्यादा दूसरे में इंटरेस्ट रखते हों, वहाँ वो चीज़ सबसे पहले उजागर होती है, जिसे आप छुपाना चाहते हैं। इसलिये नथिंग बेटर दैन ओरिजिनल। और हाँ वत्सल की तरह अपने पे-पैकेज पर काम कीजिये। ये एक शर्तिया इलाज है किसी भी प्रकार के कमी को छिपाने के लिये। 

मेरे लिखने से यदि एक भी बन्दा या बन्दी यदि हॉल की सीट तक पहुँच गया या गयी तो समझूँगा मेरा लेखन बेकार नहीं गया। कृपया मुझे सूचित करना न भूलियेगा। गंजों के लिए फ्री हेयर ट्रांसप्लांट का प्रोजेक्ट चलने के लिये सम्बल मिलेगा। 

देखने वालों ने देखा है धुआँ, 
किसने देखा दिल मेरा जलता हुआ, 
कल चमन था 



तब और अब 


- वाणभट्ट 

10 टिप्‍पणियां:

  1. दुनिया में निश्चित रूप से 25-30% पुरुष इस बीमारी से ग्रसित हैं, हेयर ट्रास्पलान्ट एक अच्छा विकल्प है। लेखक ने बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है।

    जवाब देंहटाएं
  2. फिल्म अभी देखि नही पर इतना तो समझा गया की एक गंजा दुसरे गंजे को सलाह/चेतावनी/सुझाव दे रहा है तो पूरा जरूर करना चाहिए ... मामला सेंसटिव है ... एक्टिंग/डायरेक्शन में क्या रक्खा है वो तो और भी कई फाइलों में अच्छी है ...
    लाजवाब पोस्ट ... रोचक पोस्ट ...
    कंघी से ज्यादा पॉकेट भरी हो वत्सल की इस बात का ख्याल सच में रखना जरूरी है ... असलियत छुपाई जा सकती है लगता नहीं ... गंज कहीं न कहीं से दिख ही जाती है ... इस बिमारी जो अब महामारी बन रही है ... इसका इलाज जरूरी है ... बाकी फिल्म हम भी देखेंगे जरूर ...

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही सुन्दर सरल चित्रण एक आम होती समस्या का।
    मजा आ गया। मैं गंजा तो नहीं, फिल्मों में भी बहुत
    रुचि नहीं है परन्तु तमाम गंजे मित्रों के लिए फिल्म
    देखने का प्रयास करूँगा।

    जवाब देंहटाएं
  4. मुझे भी लग रहा है कि आपके रास्ते पर हम भी आगे बढ़ रहे हैं शायद। अतिसुंदर लेखन।

    जवाब देंहटाएं
  5. प्रभावशाली लेखन

    जवाब देंहटाएं
  6. भाई, आज ही आपका ये ब्लॉग पढ़ने का संयोग बना। मेरे बाल सखा, और वर्तमान में मेरे दर्पण, तुम्हें देख कर मैं अपना दर्द भूल जाता था। किन्तु आज ज्ञात हुआ कि तुम तो दुख के अनंत सागर में डूबे हुए हो। मेरी पूरी सहानुभूति हैं , ऐ दोस्त।
    चलो मिलकर एक ऐसा जहां बनाये, जिसमें सिर्फ गंजे ही नजर आएं।
    न कोई किसी लहलहाती खेतों को हसरतों से ताके,
    और जहां न किसी उजड़े चमन पर किसी हसीना की हिकारत भरी नज़रे फिरें।
    👌👏👍

    जवाब देंहटाएं
  7. बेहतरीन और सच्चाई के अत्यंत करीब लेख।गंजा होना भी अनावृत होना ही है पर इसमें अश्लीलता नहीं है।ये लेख मेरी भी आत्मकथा है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय मित्र, आज इस पृष्ठ पर पुनः आया तो तुम्हारी टिप्पणी पढ़ी जिसमें गंजेपन को कोई अश्लीलता न होना कहा गया था। मित्र मैं तुम्हारा दर्द समझ सकता हूँ पर अश्लीलता का भाव भी आना उचित नहीं है। अश्लीलता वस्त्रों या वाह्य गुणों से न होकर वैचारिक वृत्ति का मापक है। कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से दिगमबरित होकर भी शालीनता का प्रतिबिंब हो सकता है और कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से शानदार परिधानों से ढका होकर भी निर्वस्त्र एवं निर्लज्ज हो सकता है।

      हटाएं

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...