रविवार, 30 जून 2019

ठीकरा

ठीकरा

यदि आप के पास समाधान नहीं है तो आप समस्या का हिस्सा हैं। लेकिन आज के युग में ये भी सच है कि यदि आपने किसी सही समस्या को चुन लिया और कस कर जकड़ लिया तो आपका जीवन तर गया समझिये। बाकी दुनिया के लिये आपने जिस समस्या को पैदा कर दिया वो उसी में उलझ के रह जायेगी। यदि आपको देश-दुनिया में आगे बढ़ना है और नाम कमाना है तो आप का काम है एक समस्या को आइडेंटिफाई करना। फिर अपने विचारों-लेखों-व्याख्यानों द्वारा उसके आयाम को इतना विस्तारित करना कि वो समस्या समस्त विश्व की समस्या बन जाये। यदि आप स्वयं समस्या बनाने की क्षमता न रखते हों तो बहुत से ऐसे ग्रूप्स हैं, जिनका काम ही है समस्या खड़ी करना। उनमें शामिल हो जाइये, आपका भव-सागर पार। हर व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है, अपनी आजीविका की व्यवस्था करना। जब चिंता करना ही आजीविका का साधन बन जाये तो समस्या के समाधान में भला किसकी दिलचस्पी हो सकती है। बात चाहे ग्लोबल वार्मिंग की हो या क्लाइमेट चेंज की। एशिआ-अफ्रीका की बढ़ती जनसंख्या की हो या अतिवंचितों के अधिकार संरक्षण की। गंगा सफाई की हो या शहरों से निकलने वाले कचरे की। ये सब ऐसे मुद्दे हैं जो जग-जाहिर हैं। 

दर्द दो प्रकार के होते हैं - आम और खास। आम दर्द और ख़ास दर्द में बड़ा अंतर होता है। आम दर्द आपका अपना होता है, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ आपको दर्द देता है। जिसके लिये तथाकथित हमदर्द च-च-च करके आनन्दित हो लेते हैं। लेकिन यदि आप अपने दुःख का आयाम बड़ा करने में सफल हो गये तो समझ लीजिये आपने अपनी तरक्की का जैकपॉट हिट कर दिया है। आपकी श्वास समस्या आपकी अपनी समस्या हो सकती है लेकिन उसे वायु प्रदूषण-पर्यावरण से लिंक करके आप उस समस्या को क्षेत्रीय, राष्ट्रीय या वैश्विक बना सकते हैं। समस्या का दर्द इस कदर होना चाहिये कि वो आपकी शख़्सियत से चिपक जाये। लोग देखते ही समझ जायें कि अलां बन्दा वॉटर-सॉयल कंजर्वेशन मैन है या फलां ग्राउंड-वॉटर रिचार्ज के लिए तन-मन से समर्पित है। धन की आवश्यकता न होती तो शायद कोई समस्या भी न होती। दर्द का परिमाण इतना व्यापक होना चाहिये कि आप गर्व से कह सकें  - 

खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर 
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है 

अमूमन ऐसा हर समस्या के साथ होता है। समस्या पर आप जितना ध्यान लगाते हैं वो समस्या उतनी ही बड़ी और विकराल होने लगती। समस्या जितनी बड़ी होगी नीति-नियन्ताओं का उतना ही अधिक ध्यान खींचेगी। ये एक अन्तहीन विशियस सर्किल की तरह है। वो समस्या कभी बड़ी नहीं हो सकती जिसका समाधान हो। यदि समस्या का समाधान हो गया तो बेरोज़गारी, जो अभी भी कम नहीं है, सारे रिकॉर्ड तोड़ डालेगी। समस्याओं पर चिन्ता करने से बड़ा कोई रोज़गार नहीं हो सकता। ज़िन्दगी बहुत बड़ी है। यदि समाधान निकाल लिया तो नयी समस्या पैदा करनी पड़ेगी। ऐक्सपर्टाइज़ हासिल करने में जब उम्र जाया हो गयी तो नयी समस्या भला हम क्यों खोजें। नये लोग भी अपनी रोजी-रोटी के लिये नयी समस्या की खोज करें या हमारे पिछलग्गू बन कर अपनी गुजर-बसर का इंतज़ाम करें। कोई आपकी विशेज्ञता को चुनौती न दे दे इसलिये कुछ आधे-अधूरे समाधान आपकी पोटली में होने चाहिये। लेकिन उतना ही जो कुछ आशा की किरण तो दिखाते हों लेकिन पूर्ण समाधान नहीं। यदि आप थोड़ी बहुत पूजा करते हैं तो अपने पूजाघर में ऐसे महापुरुषों के चित्र ज़रूर लगाइये जो ताउम्र समस्या को कलेजे से लगाये, सीने पर चिपकाये जीते रहे और जिस दिन रिटायर हुये अपना सारा रिव्यू ऑफ़ लिटरेचर अलमारियों में भरा छोड़ कर निकल लिये। और तुर्रा ये कि आने वाली नस्लों के लिये जैसे कोई धरोहर छोड़ के जा रहे हों। इनके उत्तराधिकारी समझ नहीं पा रहे हैं उस कबाड़ का करें क्या। इनके इलाज़ करने के तरीक़े का आलम कुछ इस प्रकार रहा -

मरीज़-ए -इश्क़ पर रहमत ख़ुदा की 
मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की 

इस धरती पर एक जीव ऐसा भी है जिसे इंजीनियर कहा जाता है। जब से फ़र्जी कॉलेजों की भरमार हो गयी है हर सड़क चलता व्यक्ति इंजीनियर का मज़ाक उड़ा सकता है। लेकिन यदि दुनिया में कहीं भी कोई समस्या है तो उस समस्या के समाधान के अन्त में अमूमन कहीं न कहीं कोई न कोई टेक्निकल या इन्जीनियर बन्दा खड़ा मिलेगा। दुर्योग से पेट्रीडिश समाधानों के शोध तो हाई रेटिंग इम्पैक्ट फैक्टर वाले जर्नल्स में छप जाते हैं, लार्ज स्केल पर समस्या का निराकरण करने वाले कामों को शायद ही कभी अख़बारों की हेडलाइन नसीब होती हो। प्रॉब्लम खोजुओं का काम है समस्या को उठाना और उठाये रहना। जब कि इन्जीनियर सोल्यूशन ओरिएंटेड होता है। कारण समझ कर उसका निवारण करने के प्रयास में सदैव तत्पर। वो भी सिर्फ़ प्रयोगशाला स्तर पर नहीं। गौर से देखा जाये तो गौर करने वाली बात ये है कि वर्षों से समस्यायें वही की वही हैं, समस्या के समाधान खोजने के तरीक़े आधुनिक होते जा रहे हैं। आधुनिक भी इसलिए हो रहे हैं कि विकसित देशों ने शोध के लिये बहुत से प्रायोगिक उपकरणों का विकास कर लिया है। उनसे टक्कर लेने के लिये वैसे ही उपकरण चाहिये नहीं तो विदेशी शोध पत्रिकाओं में शोधपत्र कैसे छपेगा। जो काम पहले सिर्फ माइक्रोस्कोप से हो लिये उनके लिये अब इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप की ज़रूरत पड़ती है। कभी लोग हरकतों से बेटे का बाप पहचान लेते थे अब उसके लिये डीएनए फ़िंगर प्रिन्टिंग कराने की सुविधा है। इन बातों का लब्बोलबाब ये है कि आज भी हमें विकसित देशों का बाज़ार बनना स्वीकार्य है। चाहे वो उन्नत यन्त्र-उपकरण का इम्पोर्ट हो या अपने शोध का विदेशी शोध पत्रिकाओं में प्रकाशन (अक्सर मुद्रा खर्च करके भी)। 

एलार्म की आवाज़ साथ सुबह होने से पहले उठ जाना तापस की आदत सी बन गयी थी। ब्रश करते हुये प्रत्यक्ष रूप से दर्पण में अपनी भाव-भंगिमायें निहार रहा था। लेकिन वास्तविकता में वो अल्ट्राथिन सुपर सॉफ्ट ब्रिसल्स वाले टूथब्रश बनाने की मशीन के बारे में सोच रहा था। इंजीनियर होने के नाते उसकी दिलचस्पी मानव निर्मित हर उस चीज़ में थी जिसने मानव के जीवन को आसान बना दिया हो। आविष्कारों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिसे देखने के लिये सिर्फ़ अपनी दृष्टि को 360 डिग्री घुमाना होगा। एक बार नज़र घुमा कर देखिये, जितनी भी चीज़ दिखेंगी उसमें किसी न किसी इंजीनियर का योगदान अवश्य होगा। यदि सभी चीज़ें ठीक काम कर रही हैं तो भी उसके पीछे कोई न कोई इंजीनियर खड़ा नज़र आयेगा। जहाँ बाकि सब समस्याओं का सलीब उठाये घूम रहे हों वहाँ इंजीनियर ही एक ऐसा प्राणी है जो समस्या से  ज़्यादा समाधान की बात करता है। बॉक्स के अन्दर-बाहर दोनों बातें सोच सकता है।  

कहने को तो तापस एक शोध संस्थान में अभियांत्रिकी वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत था, लेकिन उसकी योग्यता का अधिकतम उपयोग सिविल-इलेक्ट्रिकल-मेकैनिकल कार्यों के लिये किया जा रहा था। आउट ऑफ़ बॉक्स थिंकिंग, जिसका ज्ञान आज का हर मैनेजर दिन में चार बार देता है, तापस में कूट-कूट के भरा था। हर चिरंजीवी समस्या के लिये उसके पास कुछ न कुछ समाधान भी रहता था, लेकिन जब लोगों की समाधान से ज़्यादा समस्या फायदेमन्द हो तो उनके लिये उसका उपयोग सिर्फ़ खिड़की-दरवाज़ा-पाइप-सीवर-लाइट-फैन-एसी रिपेयर कराने से ज़्यादा नहीं था। 

जब तक नौ मन तेल नहीं होता राधाओं की परफॉर्मेंस बिगड़ जाती है। वातानुकूलित कमरों में ही उच्च गुणवत्ता के शोध संभव हैं। कम्प्यूटर और इंटरनेट आज इन्फॉर्मेशन का सबसे बड़ा स्रोत बन चुका है। दैवयोग से अधिकतर आधुनिक उपकरणों को बिजली की आवश्यकता होती है। जिसे मुहैया कराने के लिये बिजली बोर्ड की सप्लाई थी और बैकअप लिये जनरेटर भी लगा था। बिजली एक ऐसा तेल था जो अनेक प्रयोजनों के बाद भी कभी न कभी साथ छोड़ सकता है। जैसे इंजन को ठण्डा लिये कूलेंट की दरकार होती है, वैसे ही ग्लोबल वार्मिंग के ज़माने में दिमाग़ को ठण्डा रखने के लिये एसी की रिक्वॉयरमेंट होती है। दिमाग़ के लिये रूरी है इसका ठण्डा रहना। नहीं तो गर्मी निकालने के लिये लोग जो करेंगे उससे उनके सहकर्मियों लिये नयी समस्या खड़ी हो सकती है। इंजीनियर की ज़रूरत सभी को है लेकिन एक सपोर्टिंग रोल में। एक सहयोगी की तरह नहीं, एक तुरन्त हुक़्म मानने वाले जिन्न की तरह। पे-कमीशनों से समृद्धि इस कदर बढ़ गयी हो कि लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि पैसा म्युचुअल फंड में डालें या जीपीएफ में या कोई ज़मीन ही खरीद डालें। इस चक्कर में पूरा घर गैजेट्स से भर चुका है। पुनः इनको मेंटेन करने के लिये टेक्निकल आवश्यकतायें होंगी। जो लोग जीवनदायक डॉक्टरों की इज़्ज़त नहीं कर सकता वो भला इंजीनियर को क्या भाव देगा। डॉक्टर-इंजीनियर से कर्तव्य निर्वहन की उम्मीद रखना गलत नहीं है। लेकिन गुज़ारिश कुछ अदद इज़्ज़त की है। डॉक्टर को तो इज़्ज़त फिर भी मिल जाती है क्योंकि बीमारियों और दवाइयों के नाम बड़े कठिन और टेढ़े होते हैं। लेकिन हिन्दुस्तान का हर बन्दा पैदायशी इंजीनियर होता है। सड़क-पुल-बिजली-मकान हर चीज़ पर इंजीनियर को राय दे सकता है। कुछ लोग तो एक मकान बनवा कर ही सिविल इंजीनियर से ज़्यादा जान गये। कुछ कार की सर्विसिंग करा कर ही ऑटो एक्सपर्ट बन गये। लेकिन यकीन मानिये यदि इंजीनियर एक दिन की हड़ताल कर दे तो स्थिति डॉक्टरों की हड़ताल से भी बदतर हो जाये। पैसों से सुख-सुविधाओं के जितने टंटे इकठ्ठा कर रखे हैं सब घंटा हो जायेंगे।  

अपनी पीएचडी के विषय को लेकर तापस अपने एक सीनियर शर्मा जी से मिला। इंजीनियर बन्दा सोच भी क्या सकता है। एक समस्या और उस समस्या के समाधान हेतु मशीन बनाने की बात थी। सीनियर ने जता दिया कि उसके बाल धूप की वजह से नहीं झड़े हैं, कुछ तजुर्बा भी हासिल किया है। वे बोले - "देख भई मशीन बनायेगा तो दो बातें होंगी। या मशीन चलेगी या नहीं चलेगी। चल गयी तो ठीक, लेकिन यदि नहीं चली तो तेरी पीएचडी लटक जायेगी। कुछ ऐसी प्रॉब्लम उठाओ जो सार्वभौमिक टाइप की हो। सारी दुनिया उसी समस्या पर लगी पड़ी हो। तुम भी उसी पर लग जाओ। वो सारे मिल कर इतने सालों से कद्दू में तीर नहीं मार पाये तो तुम क्या ख़ाक तीर मारोगे। बस पीएचडी हो जायेगी। शोध के लिये तो ज़िन्दगी पड़ी है। ग्लोबल वार्मिंग मेरा एक पसंदीदा मुद्दा है। जिसका समाधान एक न एक दिन शायद प्रकृति से ही निकल कर आयेगा। जब तक ये मुद्दा ज़िन्दा रहेगा हमारे शोधपत्र 10-12 रेटिंग के जरनल में छपते रहेंगे, पीएचडियाँ होती रहेंगी और इस मिशन में जुटे लोग वैश्विक स्तर पर चिंता की अभिव्यक्ति के लिये देश-दुनिया के खूबसूरत शहरों के खूबसूरत रिसॉर्ट्स में सेमीनार और सिम्पोजियाज़ के बाद ख़ुशनुमा शाम के लिये मिलते-जुलते रहेंगे। तुम्हें भी कुछ इस प्रकार की समस्या लेनी चाहिये। थोड़ी मैथेमैटिकल मॉडलिंग लगा देना, काम हो गया। अर्जुन ने जिस तरह मछली की आँख पर निशाना साधा था, तुम्हारा ध्यान बस पीएचडी पर होना चाहिये। बाकि होइहैं वही जो राम रची राखा।" आखिरी वाक्य ने वैज्ञानिक सोच पर आध्यात्मिकता का जामा चढ़ा दिया। विज्ञान चाहे कहीं पहुँच जाये भगवान के बिना यहाँ कुछ नहीं हो सकता। भला बताइये ऐसी महान सोच रखने वाले महापुरुषों के प्रति कोई ख़ुद को साष्टांग दण्डवत करने से कैसे रोक सकता है। 

इस विषय पर शोध करते-करते तापस को इतना तो पता चल गया था कि ये मानव निर्मित समस्या है और इसका निदान भी इंसान के हाथ में है। ग्लोबली चिन्ता करना छोड़ कर कुछ-कुछ लोकली एक्ट करना पड़ेगा और सबको करना पड़ेगा। ईटिंग-मीटिंग-चीटिंग से कुछ होने वाला नहीं। क्लाइमेट चेंज पर आप अनुसन्धान कर सकते हैं, पेपर छाप सकते हैं लेकिन समाधान के लिये हक़ीक़त की जमीन पर कुछ करना पड़ेगा। पेड़ लगाना, वॉटर कन्ज़र्वेशन, रेन वाटर हार्वेस्टिंग, ग्रांउड वॉटर रिचार्ज, हरनेसिंग रिवर वॉटर आदि सोल्यूशन सबको मालूम हैं लेकिन अमल में लाने को हर कोई तैयार नहीं है। यदि आपने पानी समुचित संरक्षण कर लिया तो समझिये ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ आपने एक बड़ी जंग जीत ली। पानी की उपलब्धता से प्रकति के कोप को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। कम से कम जो लोग इस विषय के प्रति सजग हैं उन्हें तो अनुकरणीय उदाहरण पेश करना चाहिये। 

अनुभवी सीनियर शर्मा जी ने अक्सर मुलाकातें हो जाया करती थीं। एक दिन उन्होंने सूचित किया - भाई अपना रिटायरमेंट अब नज़दीक है, सो जितनी कॉन्फ्रेंस ग्लोबल वार्मिंग या क्लाइमेट चेंज पर होनी हैं उनमें मेरी सहभागिता ज़रूरी है। बाद में अपना योगदान देने का पुनीत अवसर मिले न मिले। तुम्हें तो अभी बहुत नौकरी करनी है तब तक शायद मौसम अपना सायकिल पूरा करके वापस लौट आये। हो सकता है एक बार फिर आइस-एज आ जाये बस पृथ्वी के अक्ष में हल्का टिल्ट चाहिये। वैसे अपने प्रयास जारी रखने में कोई बुराई नहीं है। कुछ पेपर आ जायेंगे तो प्रमोशन में फायदा ही देंगे। हाल ही में मुझे एक प्रोजेक्ट मिल गया है। कुछ ऐसी प्रजातियों का विकास करेंगे जिन पर ग्लोबल वार्मिंग का असर न हो। चाहो तो तुम भी इसमें शामिल हो जाओ। 

तापस को ये भली भाँति मालूम है कि यदि इन्वेस्टमेंट पानी और भूमि के संरक्षण पर किया जाये तो ग्लोबल वार्मिंग से तो नहीं लेकिन उसके प्रभाव से जरूर बचा जा सकता है। बहुत से प्रैक्टिकल सोल्यूशंस हैं। कुछ तथाकथित रूप से पिछड़े देशों ने बिजली की खपत कम करने और डे लाइट का अधिक उपयोग करने के लिये ऑफिस का टाइम ही बदल कर सुबह सात बजे का कर दिया। चाहे कोई कितनी भी उन्नत प्रजाति विकसित कर ले, बिना जल और मृदा प्रबन्धन के उनका भविष्य व्यक्तिगत उपलब्धियों तक ही सीमित है। लेकिन एकांगी सोच ने पूरे शोध की दिशा ही पलट रखी है। हर कोई अपनी-अपनी विशेषज्ञता लिये घूम रहा है। एक मेज़ पर बैठने का न तो किस के पास समय है, न मौका, न दस्तूर। सबको अपनी-अपनी पड़ी है। तुर्रा ये है कि बढ़ती आबादी को खाना खिलाना है, वो भी कम पैसे में। साथ ही किसान की आय को भी बढ़ाना है। बिना माँगे राय देना भी इंजीनियरों की एक बीमारी ही है। तापस ने राय दी कि सर आपका ये काम अत्यंत महत्वपूर्ण है इसलिये आप अपना एक इंडिपेंडेंट पावर बैकअप रखिये। ताकि बिजली की समस्या न हो। स्टेट बोर्ड की बिजली या सेंट्रल जनरेटर पर कुछ हद तक तो निर्भर किया जा सकता है लेकिन डबल अश्योर के लिये अपनी लैब के लिये भी एक जनरेटर होना चाहिये। 

तापस के पास समस्या को गहरे देखने की क्षमता थी। उसका ध्यान समस्या से ज़्यादा समाधान की ओर लगा रहता था। उसके अधिकारियों, जिनका मुख्य ध्येय बजट को हिल्ले लगाना होता था, के लिये ये एक बड़ी समस्या थी। उन्हें राय देने वाले इंजीनियर कतई पसंद नहीं। इंजीनियर का उपयोग वहीं तक ठीक है जब तक वो हुक़्म बजाता रहे। वर्ना ये फील्ड इतनी विस्तृत और अप्प्लाईड है कि किसी भी कारण से किसी को फेल सिद्ध किया जा सकता है। शोध बिजली की कमी से बाधित हो सकता है, मुख्य वक्ता के अभिभाषण वक़्त ऑडिटोरियम का पीए सिस्टम दग़ा दे सकता है। ऐसे कोई भी कारक काफी हैं। हर कोई समाधान की खोज में लगा है बगैर इंजीनियर के। ख़ास बात ये है कि शोध की समस्याओं का समाधान इंजीनियरिंग के बिना असंभव है, लेकिन इतिहास गवाह है, इंजीनियर कभी भी किसी भी मौलिक शोध का हिस्सा नहीं होता है। उसका काम है बस बाकी शोधकर्ताओं के लिए नौ मन तेल का इंतज़ाम करना।  

शर्मा जी ने मुखर होते हुये कहा - बेटा तापस कुछ सुधर जाओ। जब तीस साल में कुछ नहीं निकला तो अब तीन साल में क्या ख़ाक निकलेगा। अभी का टारगेट है प्रोजेक्ट का बजट कन्ज़्यूम करना। कुछ टूर-वूर करने हैं। देश-दुनिया में क्या हो रहा है इसकी जानकारी लेते-लेते तीन साल भी निकले समझो। यदि सहयोगियों की सहायता से कुछ शोध हो गया तो दो बातें होंगी। या तो कुछ कंक्रीट निकल के आयेगा या नहीं निकलेगा। निकल गया तो ठीक। नहीं निकला तो कुछ न कुछ तो होना चाहिये ठीकरा  फोड़ने के लिये। लैब के जेनरेटर के बारे में सोचना भी मत। बिजली से अच्छा कोई ठीकरा है भला हमारे प्रदेश में?

- वाणभट्ट  

3 टिप्‍पणियां:

  1. दिल से लिखा है बिल्कुल दिल की गहराइयों से। आज के दौर में प्रासंगिक भी है।

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  2. गज़ब ...सच में गज़ब ...
    कहाँ से शुरू हो कर बात कहाँ तक जा सकती है औ फिर ऐसी बात जिसका आदि तो है पर अंत इतनी जल्दी तो हो नहीं सकता ... समस्या उठाओ जिसका समाधान हो ही नहीं ... फिर खींचो इतना की बजट ख़त्म हो जाये ...
    अच्छा लगा आपकी पोस्ट पर आना और हाँ सच है की ज्यादातर ब्लोगेर फेसबुक पे आ गए ... हम भी आये पर ब्लॉग ... छूटता नहीं ...

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  3. बहुत खूब।समाधान में ही समस्या का विस्तारीकरण करना कोई नीतिनियन्ताओं से सीखे।सिर्फ बजट बढ़ाने और बनाय रखने के लिए समस्या का समाधान न खोजना इक्षाशक्ति की कमी और नीति नियति में खोट को ही दर्शाता है।--👍👍👍शिशिर

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