रविवार, 6 मई 2018

बेरोज़गारी

बेरोज़गारी 

2019 का चुनाव क्या आ रहा है, सारा का सारा विपक्ष विकास ओरिएंटेड हो गया। अब हर कोई पूछ रहा है विकास कहाँ है। कोई विकास को पागल बता रहा है कोई ग़ुमशुदा। सब ये याद दिलाने में लगे हैं की एक ज़माना था जब विकास की नदियाँ दिन दहाड़े बहा करतीं थीं। आलम ये है कि हर विपक्षी कोई चीख़ - चीख़ के गा रहा है " कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन"। और पक्ष कह रहा है "छोडो कल की बातें कल की बात पुरानी"।     

लेकिन कालचक्र का काम है आगे बढ़ना। हाँ यदि सत्ता विरोधियों के बस चले तो घड़ी को एंटीक्लॉकवाइज़ घुमा दें। क्योंकि आजकल उनका एन्टी शब्द से प्रेम उफान पर है। उनका काम है सरकार के हर काम के एंटी चलना या एंटी बोलना। चाहे सरकार सर के बल खड़ी हो जाये। चुनाव सर पर है इसलिये फूफा और जीजा टाइप के लोगों का विरोध चरम पर है। घर में तो कोई पूछ नहीं रहा है तो देश की चिंता ही कर ली जाये। अगर थोड़ा ढीले पड़े तो 2019 भी हाथ से गया समझो। और अगर दस साल मिल गये तो शायद सरकार का विकास देश को दिखने भी लगे। तब किस बात से देश की धर्म-सम्प्रदाय-जातियों में बँटी जनता को भड़काया पायेंगे। 

दरअसल विकास तो सिर्फ बहाना है चूँकि सोशल मीडिया पर जाति या धर्म के आधार पर बरगलाना अशिक्षित और पिछड़ेपन की निशानी है इसलिए विकास और बेरोज़गारी ही ऐसे मुद्दे हैं जो धर्मनिरपेक्ष टाइप लगते है। हालाँकि यहाँ भी एक संप्रदाय या कुछ जातियों के विकास/बेरोजगारी की ही प्रमुखता है। एक विपक्षी मित्र से रहा नहीं गया बोले किस टाइप के वर्मा हो अगर ये सरकार चल गयी तो मनुवादी फिर हावी हो जायेंगे। मैंने कहा की उसमें बुराई ही क्या है। मनुस्मृति कहती है - "जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते" अर्थात "जन्म से सब शूद्र होते हैं और कर्म से पण्डित बनते हैं"। और चिंता की क्या बात है। देश तो संविधान से चलता है न की मनुस्मृति से। हमारे घर के पूजाघरों में गीता-रामायण तो हैं लेकिन मनुस्मृति शायद ही किसी के घर मिले। फिर इस पुस्तक का इतना विरोध क्यों। बहुत सी किताबें हमने नहीं पढ़ीं हैं, बहुत सी बैन हैं। जिन्हें जो पढ़ना है पढ़े, जिन्हें जो मानना है माने, मेरा क्या। फिर उन्होंने दार्शनिक अंदाज़ में फ़रमाया - आप नहीं समझेंगे आपने उस प्रताड़ना को नहीं भुगता है जिन्हें उनके पुरखे युगों से भुगतते आये हैं। इसमें कोई शक नहीं शहर में रहने के कारण संभवतः समाज के इस विद्रूप रूप को हमें करीब से देखने का मौका न मिला हो। जाते-जाते साहब ने आखिरी तीर मारा - ये साम्प्रदायिक लोग हैं देश के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे। शायद उन्हें याद नहीं कि एक समय ऐसा था जब लोग मंदिर-मंदिर और मठ-मठ नहीं घूमते थे। इमाम साहब के दरबार में उनके गुर्दे सहलाये जाते थे कि वो धर्म निरपेक्ष राजनितिक पार्टी के पक्ष में फ़तवा निकाल दें। आजकल वो बेचारे कहाँ झख मार रहे हैं इस बात में मीडिया चैनलों की दिलचस्पी होनी चाहिये।  

वैसे मुझे लगा इनकी बात में वाकई दम है। यदि कर्म से ही सब पण्डित बनते तो चलती का नाम गाडी सरीखे युग में पण्डितों की संख्या भी विलुप्तप्राय प्राणियों जैसी हो गयी होती। ये वाकई गलत है कि लोग जातियों से चिपक के रह गये। इसलिए जो जहाँ था वहीँ ठहर गया। पंडित बिना कर्म किये भी पंडित बना रहा और अन्य कर्म कर के भी पंडित न बन पाये। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से इतना फर्क तो पड़ा है ज्ञान किसी वर्ग विशेष तक सिमित नहीं रह गया। इस युग में कोई भी ज्ञानार्जन कर सकता है। लेकिन ज्ञान पाने के लिये आदमी को जिज्ञासु होना चाहिये। लेकिन उस ज्ञान का क्या करेंगे जो दो जून की रोटी भी मुहैया न कर सके। इसलिये नौकरी का प्रावधान किया गया। अब नौकरी है तो  कुछ योग्यताएं भी होनी चाहिये इसलिये इम्तहान भी होने लगे प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक। यहीं से कर्महीन व्यवस्था ने अपनी जड़ें फैलानी शुरू कर दीं। चूँकि नौकरी में न्यूनतम शिक्षा की दरकार होती है इसलिए ऐन-केन-प्रकारेण डिग्री हासिल करने की कवायद बढ़ गयी। पढ़-लिख कर पास होना हमेशा कठिन रहा है। इसलिये पाथ ऑफ़ लीस्ट रेसिस्टेंस के अनुगामियों ने सीधा-सुन्दर-सस्ता तरीका अपनाया। एग्जाम फिक्स करने का। "जहाँ सच न चले वहाँ झूठ सही जहाँ हक़ न मिले वहाँ लूट सही" साहिर साहब बहुत पहले ही फ़रमा गये हैं। हमारी एक खूबी तो है कर्म करके पंडित बनने की बात हमें भले न समझ आती हो लेकिन झूठ और लूट की बातें सजह स्वीकार्य हो जातीं हैं। एक वैज्ञानिक गोष्टी के सबसे आकर्षक प्रोग्राम, लंच, की लम्बी लाइन में खाली प्लेट-चम्मच लिए खड़ा था जब एक पीएचडी याफ़्ता सीनियर मोहतरमा अपनी टीन एज बेटी के साथ बीच में घुस गयीं। उनके किसी मित्र ने टोका मैडम प्लीज़ फॉलो द रूल्स। मोहतरमा ने बिना समय गँवाये अपनी वाक्पटुता का परिचय दे दिया "रूल्स आर फॉर फूल्स"। यकीन मानिये उस दिन से कुछ दिनों के लिये शिक्षा व्यवस्था से विश्वास उठ सा गया था। लेकिन जब दिनोंदिन कठिन होते जा रहे कम्पटीशन्स के सफल अभ्यर्थियों के विश्वास से दमकते चेहरे देखता हूँ तो पुनः विश्वास हो जाता है ज्ञान की खोज अभी भी जारी है। जातियों से हट के पाण्डित्य का आविर्भाव सतत होता रहता है और होता रहेगा।  

अब बात करते हैं बेरोजगारी की। ये एक वृहद् समस्या बन चुकी है। उसके पीछे जॉब्स की घटती सँख्या शायद उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी सरकारी नौकरी की उम्मीदें। सर्वशिक्षा अभियान के तहत शिक्षा तो दी जा सकती है ज्ञान नहीं। ज्ञान को तो अर्जित करना पड़ता है। लेकिन एग्जाम पास करने की हड़बड़ी में शिक्षा और ज्ञान दोनों से हमारी पीढ़ियाँ वंचित रह गयीं। अपने हाईस्कूल और इण्टर के दौरान (80 के दशक में) भी लोग गेस पेपर और पेपर आउट करने की फ़िराक़ में रहते थे। एग्जामिनेशन सेन्टर के बाहर अभिभावकों की भीड़ बता देती थी की बोर्ड परीक्षाएं शुरू हो गयीं हैं। कुछ लोग रिमोट स्कूलों से फॉर्म भरते थे। ठेका प्रथा उन्हें पास करने की गारंटी लेती थी। गुनी लोग बोर्ड ऑफिस से कॉपियां ट्रैक करके एग्जामिनर तक पहुँच जाते थे। समय के साथ कल का घाव आज नासूर बन चुका है। अब जब कोई नक़ल रोकने की बात करता है तो उसे छात्र विरोधी करार दे दिया जाता है। डिग्री कॉलेज में लड़कियों ने फ़्लाइंग स्क्वॉड में गए प्रोफेसरों को पीट दिया। हर जगह नक़ल हो रही है तो हमें ही रोकने क्यों आ गये। एक कॉलेज में लड़के नक़ल कराने के लिए आंदोलित हो गये। बोले अभी तक यहाँ बोल-बोल के नक़ल करायी जाती थी। पास कराने के लिए पैसा ले लिया और अब नक़ल रोक रहे हैं। ये हिम्मत और जज़्बा कबील-ए -गौर है। ये मामला यहाँ तक बढ़ चुका है की मुन्ना भाई की अवधारणा हक़ीक़त बन गयी है। अब जब किसी प्रकार डिग्री मिल गयी है तो हम इतने शालीन भी नहीं हैं कि स्वीकार कर सकें की डिग्री तो मिल गयी लेकिन ज्ञान का गागर खाली ही रहा।

बेतहाशा बढ़ रही जनसंख्या के देश में शिक्षा एक उद्योग बन गया। स्कुल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों की बाढ़ सी आ गयी। उतने ही कोचिंग संस्थान खुल गए। स्कूलों में पढाई की फ़ीस और कोचिंग में ज्ञान बँटने लगा। आज आईआईटी से ले कर आईएएस तक हर चीज़ की कोचिंग है। प्राइमरी से ट्यूशंस की बात करना भी बेमानी लगता है। जो पार्टियाँ सत्ता में रहते हुये धड़ल्ले से नक़ल की पक्षधर थीं आज बेरोजगारी के मुद्दे को लेकर उतनी ही मुखर हैं। और सबके मूल में कहीं रोज़गार की बात नहीं है अलबत्ता सरकारी नौकरी की बात ज़रूर है। कम्पटीशन इतना टफ होता जा रहा है कि डिग्री की कलई खुलनी तय है। ऐसा नहीं है कि सब बच्चे नक़ल कर रहे हैं लेकिन सुविधा विहीन स्कूलों और कॉलेजों में भी छात्र एडमिशन ले रहे हैं और डिग्रियां हासिल कर रहे हैं। पार्टियाँ भी चुनावी माहौल में नौजवानों को नौकरी का प्रलोभन देने में पीछे नहीं रहतीं। एक से बढ़ कर एक वादे किये जाते हैं लेकिन बाद में इन्हें पूरा करना कठिन हो जाता है। 

शिक्षा का मूल उद्देश्य ही मनुष्य को प्रवृत्तियों से मुक्त करना है। पर क्या हम शिक्षा में उन मूल्यों को जोड़ पाए जो उन्हें अच्छा नागरिक बनाने के लिये आवश्यक हैं। शिक्षित व्यक्ति स्वाभाविक रूप से रूल और लॉ को मानने वाला होना चाहिये। ये वाँछित नहीं आवश्यक योग्यता है। बेरोजगारी के विरुद्ध आंदोलन कर रहे छात्रों का उग्र हो जाना, तोड़-फोड़ करना, मार-पीट करना शिक्षित होने के मानदण्डों को पूरा नहीं करता। बड़ी-बड़ी बातें तो कोई भी कर सकता है। आम जनता की छोटी-छोटी बातें देश की दिशा बतातीं हैं। रूल्स को सहज रूप से तोड़ने की प्रवृत्ति हमें अपने पूर्वजों से भी पीछे ढकेल देतीं हैं। बदतमीज़ी स्मार्टनेस का पर्याय बन चुकी है। केजी के बच्चे से तो हम गुड़ मॉर्निंग-थैंक्यू-सॉरी की उम्मीद करते हैं। उम्मीद करते हैं की वो कूड़ा डस्टबिन में डालेगा। पर डिग्रीधारक गुटखा-पान-ज़र्दा चबा कर चुल्लू भर फेचकुर कही भी उगल सकता है। चलती कार के दरवाज़ा खोल कर गुटखे का झाग इस तरह फेंकना कि अपनी कार न ख़राब हो, स्वाध्याय द्वारा कौशल विकास का उदाहरण है। एक मोटरसाइकिल पर तीन सवारी वो भी बिना हेलमेट के, गरदन झुका के मोबाईल पर बात करना और वाहन चलाना, चार लेन सड़क पर उल्टा चलना, कूड़े को निस्पृह भाव से बाहर फेंक देना आदि-इत्यादि कुछ बानगियाँ हैं हमारे शिक्षित समाज की। इनमें बेरोजगार और नौकरीशुदा सब शामिल हैं। तब लगता है सर्वशिक्षा अभियान शायद साक्षरता मिशन से ऊपर नहीं उठ पाया। शिक्षित व्यक्ति बस-ट्रक में आग लगायेगा। रेल रोकेगा पटरी उखड़ेगा। तो समय है रुक कर सोचने का। कुछ कमी हमारी उपब्रिंगिंग में भी हो सकती है। लेकिन शायद शिक्षा का उद्देश्य डिग्री बाँटने तक ही सीमित हो कर रह गया है। 

जिस देश में सब लोग राय देना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हों वहाँ एक राय चिटकाना मेरा भी फ़र्ज़ बनता है। भारत की इस पावन धरा पर जिसका भी जन्म हो उसे एक गुज़ारा-भत्ता देने का सरकार प्रावधान करे। सबको प्राइमरी-सेकेंडरी तक फ्री शिक्षा दे। जिसमें नागरिक शास्त्र अच्छी तरह से पढ़ाया जाए ताकि देश के प्रति कर्तव्य और अपने अधिकारों को सब समझ सकें। उसी योग्यता को जॉब्स का एंट्री लेवल रखा जाये। उच्च पदों पर जहाँ उच्च शिक्षा की दरकार हो उचित लोगों का चुनाव किया जाये। उच्च डिग्री लेकर कम क्षमता वाले पदों पर आवेदन करना नवजवानों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव डालता है। विद्वान लोगों की संख्या सदैव आम लोगों से कम रहेगी। सिर्फ संख्याबल के दम पर ये सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है कि सब इंसान बराबर हैं। इंसानियत के लिहाज़ ये यक़ीनन सब बराबर हैं लेकिन पद-प्रतिष्ठा-पैसे की दृष्टि से हमें अपना परिमार्जन करना ही होगा। और इसका कोई विकल्प भी नहीं है।  

- वाणभट्ट 

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...