सोमवार, 12 दिसंबर 2016

जड़त्व का सिद्धान्त

जड़त्व का सिद्धान्त 


दुनिया में गति विषयक नियमों के प्रतिपादन का सारा श्रेय न्यूटन महोदय को दिया जाता है। लेकिन भारत के ज्ञानी लोग जानते और मानते हैं कि विज्ञान के सभी विषयों का उद्दभव भारत में ही हुआ था। हम लोग तो ख़ुद अपने लोकल जर्नल्स, वेद और पुराण, लिखने में इतने बिज़ी थे कि अपने ज्ञान को किसी विश्व स्तरीय जर्नल में छापने की सोच भी नहीं पाये। अन्यथा भौतिक, रसायन और वनस्पति शास्त्र के सारे के सारे नियम हमारे खाते में ही आते। मियाँ न्यूटन जब सेब के पेड़ से गिरने का इंतज़ार कर रहे थे तब तक हम उन नियमों का अपने जीवन में आत्मसात कर चुके थे। अब हमें गुरुत्वाकर्षण और जड़त्व कोई क्या सिखायेगा। ऊपर से नीचे जाने और यथास्थिति को बनाये रखने में आजतक हमारा कोई सानी नहीं रहा। गंगा जी को जब आकाश से उतरना था तो कोई ऐसा व्यक्ति चाहिये था जो उस मोमेंट ऑफ़ इनर्शिया को ब्रेक कर सके। गंगा यदि शिव जी की जटाओं में न उतरतीं तो सीधे पाताल लोक पहुँच जातीं। जड़त्व को तो हमारे मौलिक अधिकारों की लिस्ट में सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिये था। लेकिन संविधान के लोगों में विज्ञान का ज्ञान कम होने के कारण यह नियम आजतक हमारे मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं हो पाया है। 



जड़ता हमारे देश के कण-कण में व्याप्त है। जब एक जगह अवस्थित होकर हम अपने भीतर ही आत्मसाक्षात्कार जैसे अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर सकते हैं तो भौतिक सुख-समृद्धि के लिये दुनिया को हिला डालना कहाँ की समझदारी है। ब्रम्हानंद और परमानन्द की खोज कोई और क्यों नहीं कर सका। क्योंकि किसी और को उनके गुरुओं ने स्थिर हो के बैठना सिखाया ही नहीं। दिमाग़ को हर रोज़ फॉरमैट करने का प्रावधान किसी और देश से नहीं आरम्भ हो सका। अब जब हम आनंद के अनंत सागर की कल्पना में जड़ हो ही गए तो कोई सिकन्दर आये या बाबर हमें क्या फर्क पड़ता है। हम तो राजा और रंक में भी विभेद नहीं रखते। तुम जग के राजा तो हम मन के राजा। बात बराबर। 



जीवन का सार हमें विरासत में दिया जाता है। क्या लेकर आये हो और क्या लेकर जाना है। जिन्हें ये नहीं पता वो अमरीका खोजें और भारत तक का समुद्री मार्ग तलाशें। हमारा क्या हम तो जिस विधि राखे राम उसी में खुश। इसीलिए हमारे यहाँ क्राँतियाँ नहीं होतीं। मुग़ल आये तो मुग़ल हमारे बादशाह अंग्रेज आये तो रानी हमारी विक्टोरिया। अमरीका में क्राँति होती है तो बीस साल में अंग्रेजों को खदेड़ दिया गया। यहाँ 1857 के बाद कोई क्राँति नहीं हुई। हाँ क्राँतिकारी अवश्य हुये। जिन्होंने अवाम में व्याप्त जड़ता को तोड़ने का प्रयास तो किया, लेकिन जनता में जड़त्व का प्रभुत्व इस कदर छाया रहा होगा कि उसे जन-आंदोलन का रूप नहीं मिल पाया।बल्कि कितने ही क्रांतिकारी देशप्रेम की अलख जगाते-जगाते शहीद की श्रेणी में पहुँच गये। हरित और सूचना क्राँति जन-चेतना का रूप हैं उन्हें आन्दोलन का नाम नहीं दिया जा सकता। आज भी यही जड़ता हर जगह परिलक्षित होती है। मुझे पूरी उम्मीद हैं कि तब और अब की स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आया होगा। तब भी सत्य-अहिंसा-न्याय की बात करने वाले अल्पसंख्यक थे। आज भी भगत सिंह पड़ोसी के घर ही अच्छे लगते हैं। ऐसे ही कोई देश सैकड़ों वर्ष की गुलामी नहीं ढोता। आज भी कोई बदलाव की बात करता है तो हम तुरंत उसे नकार देते हैं। कहते हैं भाई यहाँ तो ऐसा ही होता रहा है। घूस और दहेज़ भी हमारी परम्परा का हिस्सा बन चुके हैं। गन्दगी तो बाहर है हम मन साफ़ रखते हैं। खुले में शौच से कई लाभ हैं एक तो रिहायशी इलाकों से दूर जाने के चक्कर में टहलना हो जाता है और खेतों की मिट्टी को ख़ुराक़ मिल जाती है।   


गाँधी, सुभाष और शास्त्री जी में संभवतः वह नैतिक बल था कि उनके आवाह्न पर देश के लोग बड़े से बड़ा त्याग करने को उद्दत हो जाते थे। तब ज़माना मीडिया ट्रायल का नहीं था कि उनकी बातों की बाल की खाल निकाली जाती। ना तब जनता बयान देते नेता की भाव-भंगिमा देख पाती थी। अखबार में जो छप गया, लोगों ने अपनी-अपनी श्रद्धा के साथ ग्रहण कर लिया। अब नेता को देश कैमरे की आँखों से देखता है। देश से आँख मिला के बात कर पाने के लिये भी एक नैतिक बल चाहिये। जो अधिसंख्य तथाकथिक लीडरान में नहीं है। उनकी भाषा और चरित्र दोनों ही लिबलिबे हैं जिसे कैमरे से छिपा पाना असंभव हो जाता है। ये नेता लीड कम और लीद ज्यादा करते हैं। लेकिन फिर भी हमारी जड़ता की जड़ें इतने गहरे पैठीं हैं कि कोई आँखों-देखी पर भी भरोसा करने को राजी नहीं है। शक़ के बीज बो रही जड़ता की एक खूबी ये है कि वो बिना संशय के मान लेती है जो उसे बताया जाता है। आज भी लोग अपनी पसंद का अखबार या चैनल देखना पसंद करते हैं। सरकार के विपक्षी और विरोधी पत्रकार सरकारी योजनाओं की धज्जियाँ उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। और समर्थक उतनी ही शिद्दत से सरकार के पक्ष में पैरोकारी करते नज़र आते हैं। कोई तटस्थ तरीके से तथ्यों को नहीं रखता-देखता। यही हाल जनता का है। या तो सरकार के पक्ष में खड़ी होती है या विरोध में। कुछ तो सिर्फ इसलिए विरोध करते हैं कि इसी विरोध पर ही उनकी रोजी-रोटी टिकी है। गलत को गलत और सही को सही कहना हमेशा कठिन रहा है। चाहे घर हो या बाहर। बाप यहाँ बेटे में श्रवणकुमार ढूंढता है और गुरु एकलव्य। जब नयी पीढ़ी इन आदर्शों पर प्रश्न उठाती है, तो लोग ज़माने के ख़राब होने की दुहाई देने लगते हैं। 


मै "इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चल कर" सुन कर बड़े होने वालों की जमात से हूँ और मै अब ये दावे से कह सकता हूँ कि हम मानते हैं कि आदर्श और नीति सिर्फ बच्चों के लिए हैं। बड़ा कोई ऐसी बात करे तो बड़े आराम से कह देते हैं कि ये बच्चा ही रह गया। किसी को यदि देश अधोगति में जाता लगता है तो वो बच्चों की वजह से नहीं हमारी वजह से है। शायद हम उनके सामने उचित आदर्श प्रस्तुत करने में विफल रहे हैं। सबसे ज्यादा निराश करता है शिक्षित और संपन्न वर्ग। जो नियम-कानून का पालन करने से गुरेज़ करता है। मानता है रूल्स आर ओनली फॉर फूल्स। तथाकथिक पढ़े-लिखे लोग सही और गलत में अंतर न कर पाएं तो इस शिक्षा व्यवस्था पर संदेह होना लाज़मी है। आज जब स्वच्छता अभियान की बात होती है तो वो सड़क पर किलो भर थूक उगल के कहता है "सफाई अभियन्वा फेल हुई गवा"। स्वच्छता अभियान का मूल उद्देश्य सम्भवतः लोगों में जागरूकता पैदा करना था कि कम से कम वो कूड़ा फैलाना तो बंद कर दें। सफाई कर्मियों की कठिनाइयों और कर्तव्यों के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट करना रहा है। लेकिन लोग इसे सरकार की विफलता बता कर खुश हो रहे हैं। लेन में चलना हो या लाइन लगाना इन पढ़े-लिखे अनपढों से आप अधिक उम्मीद नहीं कर सकते।   

आजकल टीवी पर ऐसा ही एलान पूरी बेशर्मी से हो रहा है कि विमुद्रीकरण और कैशलेस अर्थव्यवस्था से कोई लाभ नहीं होने वाला। काला धन, घूस और भ्रष्टाचार को रोक पाना उन्हें असम्भव  लगता है। जितनी मेहनत वो सरकार के दावों की हवा निकालने में कर रहे हैं उतनी कोशिश कैशलेस अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में करते तो आम आदमी का संशय कुछ कम होता। लेकिन वे तो इस जागरूकता को बढ़ाने के बजाय उल्टे-पुल्टे बयान दे रहे हैं। दलील है कि भारत जैसे कम साक्षरता वाले देश में ये लागू नहीं हो सकता। इनमें वो लोग भी शामिल हैं जो अनपढ़ जनता को फ्री लैपटॉप और स्मार्ट फ़ोन बाँटने की वकालत करते हैं। दुकानदार मोबाईल बैंकिंग और स्वाइप मशीनें इसलिए लगाने को तैयार नहीं हैं कि उन्हें वाइट मुद्रा में काम करने की आदत नहीं है। एक मिठाई वाला लागत के दुगने मूल्य की मिठाई बेचता है और डिब्बे सहित तौल कर बिना बिल के पैसा वसूलता है। यही हाल लगभग कमोबेश सभी दुकानदारों का है। बिल और टैक्स देना तो इनके ख़्वाब में भी नहीं आता। जड़त्व का सिद्धान्त इस मामले में भी एक सार्वभौमिक सत्य के रूप में उभरा है। 



जड़ता के आलम का अंदाज़ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जनता बैंक और ए टी एम के आगे इसलिए लाइन लगाए खड़ी है ताकि मिठाई वाले को, दवाई वाले को, किराने वाले को, सब्जी वाले को, दूध वाले को पैसा कैश दे सके। एक मिठाई वाले को जब मैंने स्वाइप और मोबाईल बैंकिंग के लिये प्रेरित करने का प्रयास किया तो उसने सीधा प्रश्न किया कि "टैक्स कौन भरेगा। हम तो भैया कैश ही लेंगे। किसी को लेना हो तो ले न लेना हो तो न ले"। 



"क़त्ल की जब उसने दी धमकी मुझे, 
कह दिया मैंने भी देखा जायेगा"


उसी क्षण मैंने निर्णय लिया कि इनका व्यवसाय चमकाने में के लिये इनका साथ नहीं दूँगा। लाइन मै लगाऊँ ताकि आप रोकड़ा गिनें।शुरुआत में कुछ कष्ट हुआ। पर अब मैंने ऐसी दुकानों को छाँट लिया है जो मोबाईल या स्वाइप मशीनों का इस्तेमाल कर रहीं हैं। कैश का इस्तेमाल आपात स्थिति में तो ठीक है लेकिन उनका सहयोग करना मुश्किल लगता है जो अभी भी कैशलेस भुगतान के लिये तैयार नहीं हैं। कम से कम मेरे लिए तो ये संभव नहीं है। अब मै उसी दुकान से क्रय करूँगा जो व्यापार में लाभ के साथ-साथ टैक्स भरने की भी मंशा रखते हों। 



हर लेन-देन का हिसाब जिस दिन शुरू हो जायेगा मुझे लगता है चोरी-चकारी, घूसखोरी, दहेज़ प्रथा, काले धन, बेनामी सम्पत्ति, आदि-इत्यादि बुराइयों का समूल नाश हो जायेगा। जड़त्व को तोड़ने के लिए सबसे पहले जड़ को काटना आवश्यक है। ख़ुदा के लिये इस फ़ैसले की बुराई न कीजिये हो सकता है अच्छे दिन आ ही जायें। फिर आप क्या करोगे। हो सके तो आप भी ये संकल्प लीजिये कि अपने इर्द-गिर्द कैशलेस सेवा का प्रसार-प्रचार करेंगे। वर्ना आपके जड़त्व का फ़ायदा दुकानदार उठाएँगे वो भी डंके की चोट पर। शुरुआत तो उनसे होनी ही चाहिए जो स्वयं को शहरी और शिक्षित समझते हैं। यकीन मानिये अशिक्षित लोगों को यदि नियम-कानून का भान हो तो वो कदाचित ही इसके विपरीत जाते हैं। आज स्लीपर कोच में शायद ही कोई अशिक्षित व्यक्ति बिना उचित टिकट के सफर करता मिले। बैंकर और सीए नेटवर्क इस आंदोलन को फुस्स करने में लगा है। जज साहब को दंगे का अंदेशा होता है तो आयकर विभाग के अधिकारी साफ़गोई से नेशनल चैनेल पर इतने मामलों की तफ्तीश कर सकने की अपनी असमर्थता व्यक्त कर रहे हैं। शायद इन्हें ये नहीं मालूम कि प्राइमरी शिक्षा के लिए भी शिक्षकों की भारी कमी है। इसके बावज़ूद यहाँ ग्रेजुएट्स की संख्या में दिन-रात वृद्धि ही हुयी है और उसी की उत्पत्ति सम्वेदना और संस्कार विहीन लोग उच्च पदों की शोभा बढ़ा रहे हैं। 



सरकार ने एक-एक चूड़ी रोज़ कसने के बजाय पूरा पेंच कस दिया है। पूरा का पूरा डण्डा ही दे दिया है। इसे क्राँति कहने में भी विपक्षी भाई लोग कोताही कर रहे हैं। रोज नये-नये संदेह पैदा किये जा रहे हैं। सौ और हज़ार सालों में कुछ हो भी गया तो मेरे विचार से उसे क्राँति की संज्ञा देना उचित नहीं होगा। क्राँति तो वो है जो मात्र कुछ सालों में ही परिकल्पित, रूपांकित और क्रियान्वित हो जाये। ये कुछ ऐसा ही कदम है। सफलता या असफलता का आँकलन तो समय करेगा। फ़िलहाल अभी तो इस क्राँति में सहयोग दीजिये या तटस्थ हो कर इसका मज़ा लीजिये। आप चाहें या न चाहें बदलाव की बयार तो बह चली है। प्रतिरोध का मार्ग छोड़ कर इस बदलाव स्वीकार करने का जिगरा दिखाइये। वर्चुअल मोटरसाइकिल चल पड़ी है। जड़त्व को मारिये गोली। एक बार पूरे जोर से बोलिये - ढर्र-ढर्र, हर्र-हर्र, घर्र-घर्र, फर्र-फर्र। 

"करत-करत अभ्यास के जड़मति होय सुजान,
रसरी आवत जात के, सिल पर पडत निशान।" 
     
- वाणभट्ट 

आईने में वो

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. स्कूल में समाजशास्त्र सम्बन्धी विषय के निबन्धों की यह अमूमन पहली पंक्ति हुआ करती थी. सामाजिक उत्थान और पतन के व...