रोज़गार
कोषागार के सामने भीड़ लगी हुयी थी। नवम्बर के माह में प्रदेश सरकार से अवकाश प्राप्त वृद्ध लोगों को पेंशन हेतु अपने जीवित होने का प्रमाण देना पड़ता है। एक से एक वृद्ध महिला और पुरुष अपने बच्चों-नाती-पोतों के साथ इस वार्षिक मेले में शामिल थे। कुछ लोग खोया-पाया वाली स्थिति में अपने पुराने मित्रों से मिल के खुश थे। ये वो थे जिन्हें अवकाश प्राप्त किये सम्भवतः अधिक समय नहीं हुआ था। कुछ ख़ुशी और गम की मानवीय सम्वेदनाओं से ऊपर उठ चुके थे। उनके शरीर का सम्बन्ध मानो सिर्फ श्वांस-प्रश्वांस तक ही सीमित रह गया था। शून्य में ताकती आँखे लिये वो अपने नाते-रिश्तेदारों के लिये शायद एक नियमित आय का जरिया मात्र रह गए थे। कोई व्हील चेयर पर तो कोई गोद में। कोई स्ट्रेचर पर और कोई एम्बुलेंस में, सीधे अस्पताल से। हँसते-मुस्कुराते अधिकांश बुजुर्गों के ऊपर हावी बीमार और लाचार लोगों की बेबसी से ये रेला-मेला कुछ बोझिल सा लग रहा था।
अपनी माता जी को लेकर जैसे ही प्रांगण में घुसा, एक युवा ने स्वतः सहायता अर्पित कर दी - "भाईसाहब वहां कोने में फॉर्म मिल रहा है"। देखा तो जैसे पुराने ज़माने में फर्स्ट-डे, फर्स्ट-शो का टिकट निकलता था, वैसे ही भीड़ लगी हुयी थी। लाइन लगाना इस स्वतंत्र देश में परतंत्रता का लक्षण है, सो लोग सूर्य-किरणों की भाँति एक मेज़ को घेरे खड़े थे। मै भी उस भीड़ में लग गया और धीरे-धीरे मेज़ के करीब भी पहुँच गया। जो बन्दा फॉर्म बाँट रहा था, उसे चेहरे पर व्याप्त शान्ति को देख कर लग रहा था, लोग नाहक ध्यान-धारणा के लिये हिमालय की ओर पलायन करते हैं। यदि चित्त शांत हो तो आप कभी भी, कहीं भी मेडिटेट कर सकते हैं। फॉर्म लेते हुये आदतन मैंने पूछ लिया - "भाई कोई सेवा"। उसने उसी शांत भाव से मुस्कुराते हुये नकारात्मक जवाब सर हिला के दे दिया। ऐसी स्वार्थ रहित सेवा पर यकीन करना मुश्किल है, लेकिन ऐसा हुआ।
फॉर्म ले कर लौटा तो वालेंटियर भाई ने बताया की सड़क के पार से पेन्शन कागज़ात की छायाप्रति भी निकाल लाइये। जबतक माँ उस फॉर्म को भरतीं मैं फोटोकॉपी निकलवा के आ गया। फोटोकॉपी वाले के यहाँ भी भीड़ लगी थी। उसने सामान्य से दुगना दाम लिया। अब भाई ने पूछा - "फोटो लाये हैं क्या"। माँ ने कहा - "फोटो पहले तो कभी लगी नहीं"। उसने बताया - "इस बार ज़रूरी है। नहीं है तो खिंच जायेगी, परेशान मत होइये। भैया आप बाहर फोटोग्राफर से बात कर लीजिये। माता जी को चलने में परेशानी है, वो खुद यहाँ आ जायेगा।" इतनी भीड़ के बावजूद वो फोटोग्राफर आया और तुरंता-विधि से फोटो खींच-खाँच के प्रिंट भी ले आया। इस सुविधा के लिये मात्र बीस रुपये लिये जो इस विषम परिस्थिति में मुझे कम ही लग रहे थे। सरकारी दफ्तरों के बाहर-अन्दर अगर थोड़ी सी साठ-गांठ हो जाये तो रोज़गार की समस्या का समाधान बिना किसी सरकारी निवेश के भी संभव है। और ऐसे कई सरकारी कार्यालय इस तथ्य के जीते-जागते प्रमाण हैं।
अब फोटो चिपकाने लिये गोंद तो थी नहीं हमारे पास। मैंने इर्द-गिर्द नज़र घुमाई की शायद किसी के पास गम स्टिक मिल जाये। तभी नीचे से एक बच्चे की आवाज़ आयी - "अंकल फोटो चिपकानी है क्या ? दो रुपये लगेंगे"। लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी बूटी मिलने पर शायद उतना हर्ष वैद्य सुषेण को नहीं हुआ होगा जितना मुझे उस पल में हुआ। मेरा दिमाग बस यही गणना कर रहा था कि आस-पास कोई दुकान तो है नहीं, माँ के बैठने को भी जगह नहीं थी, उन्हें छोड़ के कितनी दूर जाना पड़ेगा, कितना समय लगेगा, आदि-इत्यादि। मैंने नीचे देखा तो एक सात-आठ वर्षीय बालक बोरे पर गोंद की ट्यूब लिए बैठा था। उसके हाथ में पांच का सिक्का रखते हुये मुझे ख़ुशी हुयी और बच्चा भी खुश हो गया।
- वाणभट्ट