रविवार, 3 मई 2015

फकीरा चल चला चल

फकीरा चल चला चल

इस देश में कभी भी विचारकों की कमी नहीं रही होगी। जब बाकी दुनिया वैज्ञानिक प्रगति के लिए प्रयास कर रही थी, हम इह और उह लोक की गुत्थी सुलझाने में लगे थे। लेकिन विचारों का क्या है कब आये कब चला जाये। इसलिये इनको लिपिबद्ध करना आवश्यक है। इतने ग्रन्थ और पुराण ऐसे ही नहीं लिख गये। भाषा जितनी गूढ़ हो विचारक उतना ही महान। शायद इसीलिये ज्ञानी जनों ने संस्कृत को अपना माध्यम बनाया।आम आदमी व्याकरण की जटिलता और शब्दों की क्लिष्टता से ही विचारक ऑब्लिक लेखक को विद्वान मान लेता था। सूर-तुलसी-मीरा-रहीम-रसखान की सीधी सच्ची बातें हर किसी की समझ आ जातीं थीं, लिहाजा ये जन कवि बन गये। इनकी ज्ञान-गंगा सुनने-पढने वालों से सीधा सम्वाद करतीं थीं। इन्हें अपनी बात पाठकों तक पहुंचनी थी, अतः इन्होने भाषा का आडम्बर नहीं अपनाया। आज भी इनकी रचनाओं का घर-घर में पठन-पाठन होता है। पर तब भी ग्रन्थ-वेद-पुराण केसरिया कपड़ों में लिपटे पूजा स्थल की शोभा बढ़ाते रहे होंगे। इनको पढ़ पाना भी छोटे-मोटे विद्वानों के बस की ही बात रही होगी। नतीजा ये कि संस्कृत जानने वाला हर व्यक्ति पंडित-ज्ञानी बन गया।        

आज ज़माना बदल गया है। कलियुग के आसार तो भारतीय साहित्य के आरब्ध से ही परिलक्षित होने लगा था। आज वो अपने चरम पर है। मुगलों और अंग्रेजों की लम्बी गुलामी ने संस्कृत के मूल पर ही प्रहार किया। ज्ञानी पहले अरबी-फारसी को तवज्जो देने लगे बाद वही पदवी अन्ग्रेज़ी को सौंप दी गयी। अँगरेज़ तो चले गये पर अंग्रेजी के यहाँ से टलने के आसार कम ही दिख रहे हैं। आज संस्कृत के जानकार खोजे नहीं मिलते और जो मिलते हैं वो उसका सार काम-व्यापार की नीयत से ज़्यादा समझते हैं।ज्ञान कल भी आम आदमी की पहुँच से दूर था और आज भी दूर है। और यही गति रही तो कल भी रहेगा। 

संस्कृत की जगह अंग्रेजी ने ले ली है। पहले किताबी शिक्षा आश्रमों और गुरुकुलों में कुलीन परिवारों तक ही सीमित थी। भला हो अंग्रेज़ों का जिन्होंने क्लर्क तैयार करने के लिये स्कूली शिक्षा को बढ़ावा दिया। शिक्षा को रोजगार गारंटी स्कीम की तरह देखा जाने लगा। गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले, गाँव-गाँव पाठशालाएँ खुल गयीं। सब वन टू का फोर करने में लग गये। विचारकों के विचारों को चैलेंज किया जाने लगा। आज लोग सिर्फ इसलिए कि पुराणों में जो कुछ कहा गया है, वो मानने योग्य है, ये मानने को तैयार नहीं। देश काल के साथ ज्ञान को परिमार्जित होते रहना चाहिए। पर हम धर्म के नाम पर अपने-अपने ग्रंथों की परिपाटी को ढोने को विवश हैं। हज़ारों साल पहले कही चीज़ों को हर परिस्थिति में, सदैव मान्य, ब्रम्ह-वाक्य की तरह स्वीकार कर लिया गया है। इसमें कोई रद्दो-बदल की गुंजाईश देखने वाला नास्तिक करार दिया जा सकता है। मानवता, परम्परा और संस्कार की भले ही सबने तिलांजली दे दी हो। भौतिकतावादी युग में जीवन और आचरण सब बदल गया है। नहीं बदले हैं तो हमारे ग्रन्थ। आज सही-गलत में अंतर कर पाने की दुविधा संभवतः पहले से कहीं ज़्यादा है। और फेस बुकिया और व्हाट्सऐप्पिया ज्ञान का आलम ये है कि ज्ञानीजन अपने विचारों को चाणक्य और सुकरात के विचार बता कर चेप  रहे हैं। कोई ऑथेन्टिसिटी चेक तो है नहीं। किसी ने अपनी घटिया शायरी बच्चन जी के नाम से चेप दी। सैकड़ों लाइक भी मिल गये। आपत्ति करने पर जनाब फरमाते हैं कि आप कथ्य पर जाइये। किसने कहा है इससे क्या फर्क पड़ता है। अपने नाम से बंधु ने ठोंका होता तो मुमकिन है अपना मिला के दो लाइक भी न मिलते।

आज के युग में विचारकों ने अपने महान विचारों के लिये अंग्रेजी भाषा को पकड़ रखा है। कभी ये सौभाग्य संस्कृत को मिला हुआ था। अच्छा हुआ सूर-तुलसी-मीर-ग़ालिब आज नहीं पैदा हुए वर्ना फ्रस्ट्रेशन से मर जाते कि कितने जतन से हम अपनी बात कह रहे हैं और सुनने वाले हैं कि हिज़ मास्टर्स वॉइस के प्राणी की तरह कुछ और सुनने को राज़ी नहीं हैं। अच्छे विचारकों का शगल है कि दूसरों के विचारों से अवगत रहें। हिंदी या जनसामान्य की भाषा में जो कहा-सुना-लिखा जा रहा है वो निंदनीय है भर्त्सनीय है। अंग्रेजी अखबार, पत्रिका या चैनल जो भी कह रहा है उसे पढ़िये-सुनिये-गुनिये और उसे इस अंदाज़ में पुनः लिखिये-कहिये जैसे इस विचार की उद्गमस्थली आप ही हैं। इतनी विवेचना कर डालिये कि ओरिजिनल लेखक को भी शक होने लगे कि ये उसके नहीं आप के ही विचार हैं। वैसे भी कॉपीचोर समाज में कॉपीराइट के लिए लड़ने में समय व्यर्थ करना मूर्खता नहीं तो मूर्खता जैसा तो है ही। दूसरी भाषा में लिखिये और पहली भाषा को ज्यों का त्यों भी चेप दीजिये तो कोई माई का लाल ये नहीं कह सकता कि ओरिजिनल माल किसका है। एक राज़ आज आप सबसे बाँट रहा हूँ। किसी से कहना नहीं। चूँकि मैं हिंदी में लिखता हूँ इसलिये अंग्रेजी के दो-एक अखबार भी पलट लेता हूँ। अमूमन मसाला मिल जाता है जिसें हिंदी में चिटका देता हूँ। हिंदी वाले ज्ञानी भले न माने (क्योंकि हिंदी पत्रिका या ब्लॉग पढ़ना समय व्यर्थ करने के सामान समझा जाता है) पर  अंग्रेजी वालों को शक नहीं होता। खबर तो हिंदी में ही चटखारे ले ले के पढता हूँ पर मौका मिले तो अंग्रेजी एडिटोरियल पर नज़र मार लेता हूँ। यही वो जगह है जहाँ से आप ओरिजिनल विचारों का चोर्यीकरण कर सकते हैं। अंग्रेजी अख़बारों के विचारकों को जब देश के गण्यमान्य लोग ज़्यादा तरजीह देते हैं तो मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति को विचारों के लिए विभिन्न स्रोतों को तलाशना नितांत अनुचित है। कुछ जेब, कुछ समय अगर इज़ाजत दे देते तो शायद मै भी बैठकबाजी करके हिंदी के गण्यमान विचारकों में शामिल हो गया होता। कोई बात नहीं।

इस ग़रज़ से जब रविवार का एडिटोरियल पलटा तो पाया अंग्रेजी के एक ज्ञानी विचारक जी फरमा रहे हैं "डिप्रेशन इज़ मेन कॉज़ ऑफ़ फार्म सुसाइड।" इन महानुभाव ने लैंसेट जरनल में छपे एक शोध पत्र के आधार पर सांख्यकीय माध्यम से बहुत ही तर्कपूर्ण ढंग से ये समझाने का प्रयास किया था कि आत्महत्या की प्रवृत्ति एक मानसिक बीमारी है। जिसका मूल कारण अवसाद है। मानसिक तनाव है न कि वित्तीय तनाव। भारत में आत्महत्या की दर ११ प्रति एक लाख व्यक्ति है। जो विकसित देशों की तुलना में काफी कम है। ये भी माना गया है कि वास्तविक दर, प्रतिवेदित दर ३० से ४० प्रतिशत अधिक हो सकती है। वैश्विक आत्महत्या पैटर्न का खेती आत्महत्या से कोई सीधा सरोकार नहीं है। लैंसेट अध्ययन ने अनौपचारिक स्रोतों से बताया है कि किसान की संख्या गैर-खेती लोगों की तुलना में कम है। फार्म सुइसाइड्स की दर नॉन-फार्म की तुलना में घटी है। पढ़े-लिखे और संपन्न लोगों में आत्महत्या का प्रतिशत अधिक है। आक्षेप ये लगाया है कि प्रेस और मीडिया अपनी टी आर पी बढ़ाने के लिये फार्म सुइसाइड्स को बढ़ा-चढ़ा के दिखाता है। पत्रकार मेडल और अवार्ड की चाहत में इन खबरों को ज़रूरत से ज़्यादा हवा देते हैं। लेखक ने तो यहाँ तक कह दिया कि जेनेटिकली मॉडिफाइड क्रॉप्स का जो लोग विरोध कर रहे हैं वो वास्तव में आत्महत्या को बढ़ावा दे रहे हैं। 

देश-दुनिया में हज़ारों शोध हो रहे हैं, हज़ारों शोध पत्र छप रहे हैं। एक प्रतिवेदन के आधार पर समस्त पत्रकारिता को कटघरे में खड़ा करना कहाँ तक जायज है ये समझ से पर है। शोध से पूर्व ही शोधकर्ता एक परिकल्पना, एक अवधारणा बना कर प्राथमिक या द्वितीयक आँकड़े एकत्र करता है। रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इंडिया २००१-०३ तथा यू एन के २०१० के सर्वे पर आधारित है ये पत्र। जिस देश में एक लाख सत्तर हज़ार आत्महत्यायें दर्ज होतीं हों वहाँ इस प्रकार के अध्ययन का महत्त्व बढ़ जाता है। ये प्रयास अनूठा और सराहनीय है। लेकिन हर अध्ययन का सीधा-सपाट निष्कर्ष भ्रामक हो सकता है। इसको सूखे, बाढ़, बढ़ती खेती लागत और बढ़ते कृषि ऋण से जोड़ कर भी देखा जाना चाहिये। जिन वर्षों में प्राकृतिक आपदा आई उन वर्षों में कितने किसान प्रभावित हुये। 

जो लोग आत्महत्या करते हैं अमूमन उनके सपने, उनके यथार्थ से बड़े होते हैं। और ये बात पढ़े लिखे और अनपढ़ दोनों पर लागू होती है। चिंता का विषय ये है कि विकास के साथ-साथ आत्महत्या की प्रवृति भी पहले से अधिक विकसित हुयी है। एक ही जीवन में  भौतिक सुख के सभी साधन पा लेने के लिए आदमी बड़े-बड़े दांव खेलने से नहीं चूक रहा है। आसानी से उपलब्ध ऋण व्यवस्था लोगों को ज़मीन -जायजाद गिरवी रख कर क़र्ज़ लेने को प्रेरित करती है। शहरों और दूरदर्शन की चकाचौंध आम आदमी को वो सपने दिखाती है कि वो आर-पार की लड़ाई में कूद जाता है। चाहे वो क्रिकेट की दुनिया हो या फ़िल्मी सितारों की। जितना बड़ा जुआ उतना बड़ा लाभ। जो आदमी नहीं सीख पा रहा है वो है सब्र। विकेट पर खड़े रहना ही जीत है। एक आशा तो बनी रहती है। समाज का एक भी व्यक्ति यदि समाज को अपनी मर्ज़ी से त्यागता है तो ये समाज की मौत है उसकी नहीं। क्या फर्क है कि वो किसान है या नहीं। 

- वाणभट्ट               

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सही कहा आपने .... सार्थकता लिये सशक्‍त लेखन

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  2. विकास आत्मा का कहाँ हो रहा है ... बस भौतिक विकास हो रहा अहि जो विलासिता के लिए है ... और इस प्रवृति को बढाता है ... अच्छा आलेख ...

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  3. विकास के मायने बदल गए हैं , प्रसून भाई ! नींव की ईंट को कौन देखता है ?

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  4. तभी तो पह्ले मन्दिर गाँव के बाहर तालाब किनारे बनाये जाते थे. परन्तु आजकल सड़क के किनारे बनाये जाते हैं ताकि पडोसी या दूकान वाले अवैध कब्ज़ा जमा सके. सुसाइड तोह महानगर के लोग ही ज्यादा करते है क्योंकि उनका पेट मोटा होता है. बच्चे को बचपन से ही माँ-बाप पूछते है तुझे क्या बनना है? गाँव में तो बच्चे परवाह ही नहीं करते। आजकल कुछ वैज्ञानिक कहते है क्लाइमेट चेंज की वजह से ऊंट की आबादी घट रही है. जबकि मशीनीकरण की वजह से एवं खुले खेतों के सिखुड़ने से ऐसा हो रहा है. और रैबारी ही ऐसा क्यों करे ? उनके बच्चे भी तो स्कूल जाने चाहिए।फकीरा चल चला चल.............

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  5. Parasparik udaymita ki jagah pratispardha wo bhi yen ken prakaren avsad ka ek karan hai. Yantrik parichalan ne bhi manav se manav ke vyavhar ke tarike mein badlav ke saath sath suchna rupi vachalta evam kshadm mansik Vikas bhi awsad ka ek karan hai. Karm vritti ka abhav. Chah vriti ka prabhav badh gaya hai. Asantosh to hoga hi.

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  6. आंकड़ों पर गौर करने से समस्या की जड़ तक पहुंचा जा सकता है।

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

पंख

एक्सलरेटर को हल्का सा ऐंठा ही था कि स्कूटर हवा से बातें करने लगा. फोर स्ट्रोक वाली हीरो-होण्डा चलाने वाले को पिकअप से संतोष करना ही पड़ता है...