रविवार, 8 फ़रवरी 2015

केजरीवाल का होना

केजरीवाल का होना 

इस लेख को आज लिखा जाना ज़रूरी है। क्योंकि यहाँ कल क्या हो किसने जाना। बीजेपी का एग्जिट पोल को अतिविश्वास के साथ नकारना ईवीएम की विश्वसनीयता को कम कर रहा है। कोई भी बटन दबाओ और कमल खिलाओ। खैर आज तो आप के लिये जश्न का दिन है। 

बीजेपी की लहर में आप का ये प्रदर्शन कहीं न कहीं भारत में प्रबुद्ध होते प्रजातंत्र की ओर इशारा कर रहा है। जब वोट की बात हो तो सभी पार्टियों को भारत के मज़दूर-किसान याद आने लग जाते हैं। और चुनाव बीतते ही विकास का वो मॉडल दिखाया जाता है जो उद्योग और पूँजी पतियों के लिए ज़्यादा मुफ़ीद होता है। आम आदमी अपने को ठगा सा महसूस करता है। पूंजीवादी मॉडल में गरीब को उतना ही मिलता है जितना पूंजीवादी के हाथ में सिमट नहीं पाता। जैसे बाँध से छलकता पानी। स्थिति वही बनी रहती है क्या नहायें और क्या निचोड़ें। और पूंजीपति पांच सितारा होटलों में भारत की ग्रामीण-कृषि-सामाजिक अर्थव्यवस्था पर अपने उदगार व्यक्त करते नज़र आते हैं।  

इस देश में कांग्रेस से आज़ादी में अन्ना हज़ारे-रामदेव-केजरीवाल की तिकड़ी का बड़ा योगदान रहा है। कई साल इस तिकड़ी ने कांग्रेस के लिए ताबूत बनाने का काम किया। किन्तु अफ़सोस इस बात का है कि सत्ता में आने के बाद एक जोड़ी सारा क्रेडिट लूटने पर आमादा है। तत्कालीन पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को भी श्रेय देना होगा कि उन्होंने जनमानस और आरएसएस की इबारतों को पढ़ा-समझा। कठिन दौर था वो भी जब कांग्रेस सत्ता के मद में चूर थी। मोदी पर उनके व्यक्तिगत आक्षेप जितना बढे, मोदी का कद उतना ही बढ़ता गया। समीकरण कुछ ऐसे बने कि पार्टी एक मज़बूत सरकार बनाने में सफल हो गयी। परन्तु पार्टी ने जिस तरह गैर विचारधारा वालों के लिए अपने द्वार खोल दिये उससे तय हो गया मानो सत्ता पाने के लिए मूल्यों से समझौता ही एक मात्र विकल्प रह गया हो। भारतवर्ष में इकलौती दूसरी राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण लाभ ज़रूर मिला, जो पार्टी को जनता ने प्रचंड बहुमत से जिताया। ऐसा ही कुछ दिल्ली के चुनाव में होता नज़र आ रहा है। केजरी को लक्ष्य करके चलाये तीर बूमरैंग करते प्रतीत हो रहे हैं।

बी पॉजिटिव। हाँ जी, आज के ही नहीं, पूरे और पुराने भारत में भी इस देश का ब्रह्मवाक्य रहा होगा। अन्यथा इतने विशाल जनमानस वाला देश इतने लम्बे अरसे तक गुलाम न रहता। ये निगेटिव लोग ही थे जो हर बात पर पूछते रहते कि यूँ होता तो क्या होता। उन्होंने सत्ताओं को चुनौती दी। उन्होंने व्यवस्था में सुधार की गुंजाइशों को तलाशा। ये राइट टु इनफार्मेशन, राइट टु एजुकेशन, राइट टु वर्क, राइट टु फ़ूड इत्यादि-इत्यादि मुददे यूँ ही नहीं उछले। किसी ने थाली में परोस के नहीं दे दिया इनको। बहुतों ने इन विचारों के लिये आहुतियां दीं। उनके नाम हम जान पाएं या न जान पायें। पर निश्चय ही ये लोग पॉजिटिव एटीट्यूड लोग नहीं थे। यह वर्ग अंग्रेज़ों के समय उनका वफादार था और कांग्रेस के समय उसका। हमेशा सत्ता और पद के साथ। ये निगेटिव लोग ही थे जिन्होंने संस्था की कमियों की ओर इंगित किया। उन्हें इस धृष्टता का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। ये वो सनकी सोल्जर्स थे जो अपनी विचारधारा के प्रति कृतसंकल्प थे। हमारी पुरानी आदत है कि हम तभी प्रतिभा पहचान पाते हैं जब उसे ब्रूकर-मैग्सेसे-नोबल मिल जाता है। कैलाश सत्यार्थी के विचारों से सम्मत लोगों की संख्या में रातों-रात इज़ाफ़ा हो गया। नोबल ने उन्हें ही नहीं देश को भी एक नयी पहचान दी। लेकिन उनके संघर्ष की दास्ताँ रोंगटे खड़े कर देती है। बच गए सो नोबल मिला वर्ना नाते-रिश्तेदार भी यह कहते फिरते कि सर-फ़िरा था।  

ऐसा ही एक सिपहसालार है केजरी। अमिताभ की फिल्में में एक आदमी पूरी व्यवस्था पलटने का माद्दा रखता था। सत्ता और ताकत से लूटा-पिटा आम आदमी उसे हिट करा देता था। ऐसा ही कुछ भारतीय राजनीति में होने को है। यहाँ से ये भी तय होगा कि राजनीति मुद्दों पर होगी, व्यक्तियों पर नहीं। 

कुछ लोग थे कि वक़्त के साँचे में ढल गये 
कुछ लोग थे कि वक़्त के साँचे बदल गये
                                                                                          (मेरा नहीं है)

- वाणभट्ट 

            

12 टिप्‍पणियां:

  1. कॉग्रेस को तो जाना ही था , अन्ना और बाबा रामदेव के ऑदोलन से ज़्यादा प्रभाव जयप्रकाश नारायण के ऑदोलन का था जब उन्होंने खुले आम इन्दिरा गॉधी को चुनौती दी और कह दिया कि " सिंहासन खाली करो कि जनता आती है " पर हन्त कि जयप्रकाश बचे नहीं , पर जनता सब समझ रही थी क्योंकि ये पबलिक है सब जानती है । भाजपा निश्चित रूप से देश- हित में काम करेगी ,यह मेरा विश्वास है ।

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  2. पार्टी ने जिस तरह गैर विचारधारा वालों के लिए अपने द्वार खोल दिये उससे तय हो गया मानो सत्ता पाने के लिए मूल्यों से समझौता ही एक मात्र विकल्प रह गया हो

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  3. कांग्रेस का जाना और केजरीवाल का आना, मोदी जी और उनकी पार्टी के लिए खतरे की घंटी है। कांग्रेस जिस तरह देश से गायब सी हो गई है, उसके लिए खुद कांग्रेस ही जिम्‍मेदार है। कांग्रेस ने सत्‍ता भाजपा का थाली में परोसकर दी है। मंहगाई, भ्रष्‍टाचार के मामले में वर्तमान भाजपा सरकार बुरी तरह नाकाम साबित हुई है। हां केजरीवाल का दिल्‍ली में आना ठंडी हवा के खुशनुमा झाोंको जैसा है।

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  4. बहुत ही बेहतरीन लेख लिखा है जनाब.. सब बातें सच!
    खासकर "बच गए सो नोबल मिला वर्ना नाते-रिश्तेदार भी यह कहते फिरते कि सर-फ़िरा था".. इसपर कुछ समय पहले मैंने भी लिखा था कि समाज को बदलने के लिए उसके खिलाफ चलना पड़ता है.. सिरफिरा सा..

    खैर अब आशा है कि सकारात्मक सोच के साथ ही दिशा और दशा बदलेगी..

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  5. झाडू ने कमाल कर दिया प्रसून जी ! आपका आकलन सही निकला ।

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  6. कोई सिरफिरा ही वक़्त की धारा को बदल सकता है । जनता पारदर्शी और काम करने वाली सरकार चाहती है । दिल्ली को नया विकल्प मिला है । केजरीवाल से बहुत उम्मीद है । खरा उतरना होगा । मुझे लगता है कि दिल्ली में ईमानदारी से काम होगा और आम जनता को फायदा ।

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  7. शेर जिसका भी है सटीक और सामयिक है ...
    केजरीवाल ने ये दिखा दिया है की इमानदारी से चलना कठिन है पर चल सकते हैं ... अब आगे भी ऐसे ही चलें तो बात है ...

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  8. पोस्ट आज ही पढ़ पाया हूँ, नतीजों के बारे में आपका आकलन ठीक बैठा है। कुछ मुद्दों पर असहमत भी हूँ, कुछ लिमिटेशंस हैं जिनके कारण विस्तृत चर्चा करने में फ़िलहाल अक्षम हूँ। जल्दी ही चर्चा होगी।

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  9. सही कहा है हिंदुस्तान में नोबल पुरुष्कार पहले मिलता है उसके बाद भारत रत्न। केजरी की क़ुरबानी का फल मिला है।

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  10. आशा और आशंका दोनों होती हैं जब इस तरह के नतीज़े आते हैं.
    इस आशावादी माहौल को बिगाड़ना ठीक तो नहीं है लेकिन दुर्भाग्य यह है कि सत्ता मिलने के बाद अहंकार की बात करने वाले खुद अहंकारी हो जाते हैं और खुद को सेवक कहने वाले सेवा के अलावा सब कुछ करने लगते हैं इसलिए प्रजातंत्र के लिए खुश होते हुए भी डर लगता है.

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यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

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