रविवार, 21 सितंबर 2014

निज भाषा बनाम राष्ट्र भाषा

निज भाषा बनाम राष्ट्र भाषा  


पंडित जी ने हिकारत से अपनी टूटी चप्पल कल्लू मोची की ओर फेंक दी। 'रे कलुआ, जरा दू ठो टाँका मार दे।' कल्लू तन्मयता से कुछ काम कर रहा था। चप्पल धप्प से उसकी निहाई के बगल में  गिरी। उसने सर उठाया और गुस्से को पीते हुए पंडित को तरेरा। बोला कुछ नहीं। फिर घिसी-पिटी चप्पल को देखने लगा। बोला 'पंडित जी दू रुपया लागी।' पंडित जी के आग लग गयी। 'कस में अब हमहू का पैसा देबे के पड़ी।' 'तो फिर खुदै टाँक लो।' कह के कल्लू अपने काम में लग गया।



बिसेसर ने एक झटके से बाल्टी कुएं में डाल दी और पानी खींच रहा था जब किसी ने पीछे से उस पर लाठी का प्रहार किया। 'सरउ तुम्हार ई हिम्मत कि ठकुरन के कुआँ से पानी लेबो।' बिसेसर रस्सी-बाल्टी छोड़ के मारने वाले से भिड़ गया। 'तुम्हार कुल ठकुरई घुसेड़ देबै।' तब तक कुछ और लठैत आ गये। पीट-पीट के भुरकस भर दिया और हाते के बाहर फेंक दिया। लेकिन बिसेसर ने गाँव में चिंगारी सुलगा दी थी।



'लाला मेरे बाप के बाप ने ऐसा कौन सा कर्जा लिया था कि सूद चुकाते-चुकाते मेरा बाप निपट गया। अब भी मूल जस का तस है। मै कुछ नहीं देने वाला।' लाला तैश में आ गया। 'सूद तो तेरे फ़रिश्ते भी चुकायेंगे। जानता नहीं मेरा खाता यमराज का खाता है। मरने पर ही ख़त्म होता है।' घसीटे का हाथ लाला के गिरहबान तक पहुँच गया।'बोल कब पहुंचा दूँ यमराज के पास। काट मेरा नाम अपने खाते से।' युवा खौलता खून देख के लाला की आत्मा काँप गयी।



आज़ादी के अड़सठ वर्ष बाद हम अपनी उस स्वतंत्रता पर गर्व कर सकते हैं जो अंग्रेजों की गुलामी से मिली। लेकिन हज़ारों-लाखों ऐसी छोटी-बड़ी लड़ाईयाँ भी लड़ीं गयीं जिनकी कभी चर्चा तक नहीं हुयी। पर इन्ही लड़ाइयों ने भारतीय समाज को वो स्वरुप दिया जो आज हमारे सामने है। दीन और निर्धन व्यक्ति भी आज अपनी अस्मिता को लेकर जागरूक हो गया है। जो सपना भारत के नीति-नियंताओं ने देखा था उसने कब मूर्त रूप ले लिया पता ही नहीं चला। आज मज़दूर और कामगार के साथ भी लोग न्यूनतम शिष्टाचार का पालन करते हैं।उन्हें इस बात का भान है मात्र पैसे से आदमी को अब क्रय नहीं किया जा सकता। स्वतन्त्रता स्वतः नहीं मिलती। इसके लिये हर देश में हर पीढ़ी को मोल चुकाना होता है। बहुत से लोगों ने समाज में व्याप्त कुरीतियों-असमानता को दूर करने के लिये लम्बी लड़ाई लड़ी है। कहावत रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ था, हर देश-काल में सत्य सिद्ध हुयी है। आज हम जिस भी सामाजिक उन्नति को देख रहे हैं उसके लिए अनेकानेक उच्च-निम्न-निर्धन-धनाढ्य समाज सुधारकों का त्याग और बलिदान शामिल है। ये सूची अंतहीन है और इसी सूची में कल्लू-बिसेसर-घसीटे के नाम मिल जायेंगे। बहुत कुछ हो चुका लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। अभी भी सर्वत्र विषमताएं अनायास दीख पड़तीं हैं। किन्तु जिस दिशा में देश बढ़ चुका है, निसंदेह वो दिन अवश्य आएगा जब स्वतन्त्र भारत का प्रत्येक नागरिक वर्षों पुरानी सामाजिक विषमताओं से मुक्त होगा। नयी विषमताएं भी निर्मित हो सकतीं हैं, किन्तु कम से कम पुरानी से तो छुटकारा मिलेगा। 

प्रति वर्ष जब हिंदी पखवाड़े का शुभारम्भ होता है तो भारत की भाषायी स्थिति भी मुझे सामाजिक स्थिति से अलग नहीं दिखती। साल में पन्द्रह दिन तो हिंदी-प्रयोग के प्रोत्साहन हेतु कार्यक्रम होंगे, उसके बाद ठन-ठन गोपाल। विद्वत सभाओं में हिन्दी का मर्सिया पढ़ा जायेगा। कुछ केले और समोसे डकार के लोग फिर अंग्रेजी के गुणगान में लग जायेंगे। वही ढाक के तीन पात वाली बात। वर्षों की पराधीनता ने हिन्दी ही नहीं देश की समस्त भाषाओँ की नीँव को हिला के रख दिया है। हर कोई अंग्रेजी भक्त बना घूम रहा है। अंग्रेज़ी आज भी प्रशासन और राज-काज की भाषा बनी हुयी है। कभी हाथी माने एलिफैंट हुआ करता था अब एलिफैंट माने हाथी बताने पर अभिवावक तीन वर्षीय बालक को दिए अपने अंग्रेजी ज्ञान पर आत्म-विभोर हो जाते हैं। शिक्षा के लिए अभी भी हमारे छात्रों को विदेशी भाषा पर निर्भर रहना पड़ता है। विज्ञान और वैज्ञानिक उपलब्धियाँ अभी भी मान्यता प्राप्त करने के लिये पश्चिम की ओर देखने को विवश हैं। अधिकांश शोध जब विश्व बैंक द्वारा प्रदत्त ऋण पर निर्भर है तो शोधपत्रों का प्रकाशन तथा प्रतिवेदन भी अंग्रेजी भाषा पर ही तो निर्भर रहेगा। भारत उन्नति के जो स्वप्न आज विदेशी निवेश से देखे और दिखाए जा रहे हैं। वो हमारे ज्ञान और क्षमता पर प्रश्न चिन्ह खड़े करते हैं। हम अपने देश में स्वाधीनता के बीज बोना चाहते हैं विदेशी तकनीक और विदेशी ज्ञान के आधार पर। हमारी नयी पौध द्वारा हिन्दी के स्थान पर हिंग्लिश का प्रयोग एक सुखद अहसास तो देता है। परन्तु हम अंग्रेजी में पारंगत न हो सके और अपनी राजभाषा हिन्दी भी हाथ से जाती रही। स्थिति त्रिशंकु जैसी है। न घर के न घाट के। 



किन्तु हमारी मिटटी में कुछ बात तो अवश्य है कि परिस्थितियां कितनी भी विषम रहीं हों, अनेक प्रयासों के बाद भी कोई हमारी हस्ती को मिटा नहीं पाया। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए भी बहुत संघर्ष हुए हैं। तब जा कर हिन्दी को बहुत पहले सितम्बर १४, १९४९ राजभाषा का अधिकार मिला है। किन्तु तब से ये दिन हिन्दी दिवस के रूप में औपचारिकता बन के रह गया है। इस दिवस की घोषणा के लिए भी काम पापड़ नहीं बेले गए होंगे। जितने लोगों ने स्वतंत्रता के लिए झंडे गाड़े होंगे उतने ही लोग हिंदी के लिए समर्पित हुये होंगे। किसी ने हिंदी में शपथ ली होगी तो किसी ने हिन्दी के प्रोत्साहन के लिये पर्चे बाँटे होंगे। किसी हिन्दी में शोध-प्रतिवेदन लिख डाला तो किसी ने अंग्रेज़ी स्कूलों का बहिष्कार किया। किसी ने अंग्रेजी सभा में अंग्रेजी बोलने से मना कर दिया तो किसी ने हिन्दी भाषा में व्यावसायिक परीक्षा के प्रश्नों के उत्तर लिख डाले। हिंदी के लिए आंदोलन भी हुए और जलसे भी। तब जा कर बात पखवाड़े पर सहमति बनी होगी। हम अपनी बोल-चाल, चाल-ढाल, जाति-धर्म के प्रति इतने संवेदनशील हैं कि उसके लिए हम मरने-मारने-आंदोलन-फतवे-जिहाद सब के लिए तैयार हैं, किन्तु देश के लिये मरने का काम भगत सिंहों और चंद्रशेखर आज़ादों के लिये छोड़ रखा है। जितनी सम्वेदना अपनी भाषा को लेकर है उतनी यदि देश के प्रति होती तो अँगरेज़ कितने दिन यहाँ ठहर सकते थे। किन्तु उन्होंने हमारी विषमताओं को हवा दी। देश को भाषा-धर्म-जाति के आधार इस तरह बाँटा कि स्वतन्त्रता के अड़सठ साल में भी हम उन्हीं विवादों में अटके हुए हैं। अनेकता में एकता यदि है तो क्या देश हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान पर एक नहीं हो सकता। हिन्दू से मेरा अभिप्राय हिंदुस्तान के नागरिकों से है। किन्तु ये सहज बात भी विवाद बन जाती है। और यही बात हमारे देश-प्रेम पर प्रश्नचिन्ह खड़े करतीं है। हिन्दी पखवाड़ा कब हमारे जीवन को रूपांतरित करेगा, हर हिंदी प्रेमी उस दिन की उत्कंठा पूर्वक प्रतीक्षा कर रहा है।



स्थितियाँ कितनी भी विषम क्यों न हों, किन्तु बादलों के उजले किनारे चमक रहे हैं। सभी देशी और विदेशी भाषा साहित्य, और चलचित्र आज अनुवाद और डबिंग के माध्यम से हिन्दी भाषियों को सहज उपलब्ध है। सभी विदेशी कम्पनियाँ अपने उत्पादों का विज्ञापन हिन्दी भाषा में कर रही हैं। विदेशी खेल और समाचार चैनेल हिन्दी में कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। कारण व्यावसायिक हो सकते हैं किन्तु इन कंपनियों के विपणन सर्वेक्षण इन्हें हिन्दी में प्रचार-प्रसार के लिए बाध्य करते हैं। यह एक शुभ संकेत है। आशा के स्वर और भी मुखर हो जाते हैं जब देश के प्रधानमन्त्री और मन्त्री विदेशी भूमि पर अपनी बात बुलंदी के साथ हिन्दी में रखते हैं। हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी के उत्थान के लिये पखवाड़े मनाना कहाँ तक उचित है यह वाद-विवाद का विषय हो सकता है। किन्तु इन क्षेत्रों में गैर-हिंदी भाषी को प्रोत्साहित करना हिंदी दिवस मनाने का एक प्रयोजन अवश्य होना चाहिये। अहिन्दी-भाषी प्रदेशों में हिन्दी के विकास हेतु इस पखवाड़े का महत्त्व बढ़ जाता है। साल में मात्र पंद्रह दिन एक भाषा का प्रयोग करके हम एक भाषा में निपुण नहीं हो सकते, न ही उस भाषा से प्रेम कर सकते हैं। काश कि हम इन प्रदेशों में हिन्दी-वर्ष मनायें। देश के सभी महान विचारकों ने हिन्दी को भारत को जोड़ने वाली भाषा कहा है। थोड़े सरकारी सहयोग, प्रोत्साहन और जन-अभियान से वो दिन दूर नहीं जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद प्राप्त होगा।



सामाजिक सरोकारों के लिये जिस तरह कल्लू, बिसेसर और घसीटे जैसे अज्ञात लोगों ने छोटी-छोटी किन्तु निर्णायक लड़ाइयां लड़ीं। वैसी ही लड़ाईयां हिन्दी के लिए भी लड़ीं जा रहीं हैं। एक प्रश्न मैं सदैव पूछता हूँ कि यदि आज अँग्रेज़ों का राज होता तो हम किस तरफ होते। जिस दिन हम अपनी अस्मिता को भाषा और देश की अस्मिता से जोड़ देंगे हिन्दी विश्व-पटल पर राज करने के लिये सक्षम हो जायेगी। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा बनाने के लिये हमें क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठना होगा। एक राष्ट्र भाषा, जो विश्व-भाषा बनने का सामर्थ्य रखती हो, के लिये सम्पूर्ण देश को एकमत होना होगा। अन्यथा पखवाड़े का अंत भी वही होता रहेगा जैसा हमारे देवी-देवताओं का होता है। कुछ दिनों के लिये प्राण-प्रतिष्ठा फिर विसर्जन। 


भारतेंदु जी की पीड़ा इन शब्दों में सहज अभिव्यक्त होती है "निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल"। वो भी सन १८७० के आस-पास। संघर्ष जारी है और रहेगा, हिन्दी के हिन्द की जन-भाषा बनने तक। फिर इसे राष्ट्र-भाषा बनने से कोई रोक नहीं सकता। 



- वाणभट्ट      

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म य...