बुधवार, 11 सितंबर 2013

रेंड़ के पेंड़

रेंड़ के पेंड़

सावन के अंधे को हर तरफ हरा ही हरा दिखाई देता है। ये कहावत आजकल चरितार्थ होती दिख रही है। सावन ख़त्म हुए कई दिन हो गए हैं पर हरियाली का सर्वत्र वास है। घर के सामने बने गंगा बैराज के मैदान में पूरा का पूरा एक नेचुरल रेन फ़ॉरेस्ट ही तैयार हो गया है। वैसे तो यहाँ से मोहल्ले में पीने के पानी की आपूर्ति की जाती है। पर जब से वर्ल्ड बैंक ने इस परियोजना से अपना हाथ खींच लिया है, तब से जल विभाग के लिए इस प्रांगण की रख-रखाव कर पाना भी संभव नहीं रह गया है। भरी आबादी के बीचोंबीच जंगल का होना, सोशल फोरेस्ट्री का एक नायब नमूना है। निगम के महानुभावों ने शायद इस सन्दर्भ में सोचा नहीं होगा, नहीं तो एक सक्सेस स्टोरी तो छाप ही लेते। वो बेचारे तो बस बजट को हिल्ले लगाने की फिराक में लगे रहते हैं। उनकी इस प्रक्रिया में किसी का भला हो जाये तो हो जाये। 

छापाखाना के निर्वचनीय सुख का आनंद वो ही अनुभव कर सकता है जो करता कम है और छापता ज्यादा। दरअसल इस मामले में निगम का नजरिया वैज्ञानिक नहीं है। और उनके यहाँ प्रमोशन में छापने का कोई नम्बर भी नहीं है। थोडा प्रचार-प्रसार कर दें तो ये एक आइडियल मॉडल बन सकता है। हर मोहल्ले में एक मैदान खाली छोड़ दीजिये उसमें सारे पेड़-पौधे, खर-पतवार जो भी निकल आये उगने दीजिये। दो-चार साल में एक फारेस्ट तैयार हो जायेगा। देश में फ़ॉरेस्ट का रकबा भी बढ़ जायेगा, वो भी बिना कुछ किये। हर्र भी नहीं, फिटकरी भी नहीं, और रंग चोखा। शहरवासियों को शुद्ध हवा के लिए ज्यादा मशक्कत भी नहीं करनी पड़ेगी। खुले परिवेश में दिशा-मैदान जाने और सॉलिड वेस्ट के निस्तारण में जो सुविधा होगी वो एडिशनल बेनिफिट है।  

हाँ तो आजकल हर तरफ हरियाली ही हरियाली है। ग्रह-दशा अनुरूप इधर लखनऊ के चक्कर बढ़ गए हैं। कानपुर सेंट्रल से लेकर चारबाग़ तक हर जगह पूरी प्रकृति हरियाली की चादर ओढ़े हुए है। ऐसी ताबड़तोड़ हरियाली है जिस पर अब तक ध्यान देने का अवसर नहीं मिला था। ना-ना प्रकार की वनस्पतियों ने जैसे धरा का अधिग्रहण कर लिया हो। एक-एक चप्पे, एक-एक कोने पर प्रकृति की छटा रोम-रोम को मस्त कर देती है। भाँति-भाँति के खर-पतवार अपने पूरे शबाब पर हैं। सभी खर-पतवारों में सबसे खूबसूरत और आकर्षित करने वाला कोई पेंड़ है तो वो हैं रेंड़ के पेंड़। गर्व से उन्मत्त इसके लहलहाते-झूमते  बड़े-बड़े पत्ते बरबस आपको आकृष्ट कर लेंगे बशर्ते आप इनकी ओर नज़र डाल सकें। इन्हें देख कर जीवन की अदम्य इच्छाशक्ति परिलक्षित होती है। ये स्लम डॉग टाइप के पौधे हैं जिनके जीने-मरने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। पर ये इनकी जिजीविषा है कि बिना किसी पालन-पोषण के ये न सिर्फ पैदा होते हैं बल्कि फलते-फूलते भी हैं। इनके बीजों का डिसपर्शअन भी इतना सुव्यवस्थित है कि कानपुर से लखनऊ के बीच रेंड से वंचित स्थान खोजना कदाचित ही संभव हो।    

इस तरह की अनचाही हरियाली को विशेषज्ञों ने वीड्स यानि खर-पतवार की संज्ञा दे रक्खी है। मान ना मान मै तेरा मेहमान। एक तरफ पूरा विश्व अपनी और अपने पशुओं की खाद्य समस्या से जूझ रहा है। उपजाऊ ज़मीन का रकबा प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष घटता जा रहा है। और ये अवांछित वीड्स धरती पर ऐसे फैलते हैं जैसे कभी साहिर साहब ने फ़रमाया था :


चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्तान हमारा 
रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा

इनका बस चले तो कोई भी फसल पनप ही न सके। कृषि का अधिकतम श्रम इन खर-पतवारों को नियंत्रित करने में लग जाता है। खाद और पानी मिल जाये तो ये मुख्य फसल के ऊपर हावी होने का कोई मौका नहीं छोड़ते। इनकी जिजीविषा और परजीवी प्रवृत्ति इतनी सशक्त है कि ये फसलों का पोषण सोख लेते हैं। खेतों में इनका नियंत्रण एक वृहद् समस्या बन गया है।  रक्तबीज की तरह ये फैलते हैं और भस्मासुर की तरह सब नष्ट करने को आतुर। एक तरफ जहाँ फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए अरबों-खरबों खर्च किये जा रहे हैं, वहां वीड्स का अनियंत्रित स्वतः विकास और प्रसार सारे फसल सुधार शोध को चुनौती देते हुए प्रतीत होते हैं। अधिक उत्पादन वाली उन्नत प्रजातियों पर कितने संसाधन खर्च कर दिए गए और ये राशि दिन प्रति दिन बढ़ती ही जा रही है। पर वीड्स का उत्पादन, उत्पादकता और क्षेत्रफल बिना किसी शोध के दिन पर दिन उन्नत होता चला जा रहा है। एक तरफ ज्ञानियों-विज्ञानियों का विश्वव्यापी समूह और दूसरी तरफ निपट अनपढ़, गंवार, जंगली और जाहिल वीड्स। संभवत: इसे ही कहते हैं सेल्फ इम्प्रूवमेंट या स्वतः सुधार। और सेल्फ इम्प्रूवमेंट सदैव बाहर से थोपे सुधार से ज्यादा प्रभावी और शक्तिशाली होता है। वीड्स इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। 

एक फसल सुधारक मित्र का ध्यान मैंने इस ओर आकृष्ट करना चाहा। यार तुम लोग इतने रिसोर्सेज वैरायटी डेवलपमेंट में लगा देते हो और ये वीड्स देखो दिन पर दिन अपने आप इम्प्रूव हुए जा रहे हैं, बिना संसाधन के। भाई साहब संजीदा हो गए। बोले सदैव से प्रकृति में अच्छे-बुरे की जंग चल रही है। हम उत्पादन और उत्पादकता बढ़ने में लगे हैं। संसाधन कम हैं और ये खर-पतवार मुख्य फसलों का पोषण ले लेते हैं। ये ना तो पशुओं के काम आते हैं ना आदमी के। अच्छाई और बुराई की होड़ में अक्सर बुराई आगे निकल जाती है। बुराई को अगर छूट दे दो तो वो भलाई पर हावी हो जाती है। खर-पतवार अनचाहे उग आते हैं जबकि फसल को रोपना पड़ता है, संरक्षित और संवर्धित करना पड़ता है। तब जा कर हम आदमी और पशुओं का भरण-पोषण कर पाते हैं। उनकी बात में दम था और दर्द भी। उनकी बातें वनस्पति जगत के लिए ही नहीं प्राणी जगत के लिए भी सत्य जान पड़ीं। वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक परिपेक्ष्य में ये व्यवस्था मानव जाति  के लिए तो शत-प्रतिशत सही लगी। हर युग में द्वैत रहा है। बुराई के बिना अच्छाई की कद्र भी तो नहीं है।    

पर मै ये लेख तो रेंड़ के पेंड़ के फेवर में लिख रहा हूँ। आदमी जब हरियाली के क्षेत्र को दिन पर दिन कम करता जा रहा है। जंगल कटते जा रहे हैं। ग्रीन कवर घटता जा रहा है। आदमी और जानवरों की संख्या पृथ्वी पर बढ़ती ही जा रही है। सबको अपनी-अपनी ही पड़ी है। तो प्रकृति बेचारी क्या करे। हरियाली भी ज़रूरी है पर्यावरण संरक्षण के लिए। आदमी हो या जानवर, सब प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में लगे हैं। ये प्रकृति का सेल्फ-डिफेन्स मैकेनिज्म है कि ऐसे पेड़-पौधे पैदा करो जिसे कोई छू भी न सके। कुछ तो हवा बदलेगी। कुछ तो वातावरण साफ़ होगा। 

गर्व से लहलहाते, हरे-भरे और खूबसूरत  रेंड़ के पेंड़ों के प्रति मेरे मन में अनायास एक आभार का भाव तैर गया। मन में एक भाव ये भी आया की काश गेंहूँ और धान भी वीड्स की तरह बिना संसाधन के सर्वत्र फ़ैल जाते, फूलते-फलते तो खाद्यान्न समस्या कम हो जाती, शायद आदमी की भूख भी।  


अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला 
जिस दिये में जान होगी वो दिया रह जायेगा 
(मेरा नहीं है, बस यूँ ही चेप दिया) 



सोशल फॉरेस्ट्री का नायाब नमूना


रेंड़ के पेंड़

- वाणभट्ट  


14 टिप्‍पणियां:

  1. ये ध्रुव सत्य है जवाबदारी भी सबकी

    जवाब देंहटाएं
  2. इसके भी दिन कभी एलोवेरा की तरह बहुरेंगे(बाजार की नजर से)

    जवाब देंहटाएं
  3. भरी आबादी के बीचोंबीच जंगल का होना, सोशल फोरेस्ट्री का एक नायब नमूना है :)

    सभी खर-पतवारों में सबसे खूबसूरत और आकर्षित करने वाला कोई पेंड़ है तो वो हैं रेंड़ के पेंड़। - ज्ञानवर्धन हेतु एक ठो इस पौधे की फोटो भी चेंप देते..चलो, अलग से भेज देना!! :)

    अब ’समीर’ आकर करेगा रौशनी का फैसला
    जिस दिये में जान होगी वो दिया रह जायेगा ...हा हा!! अब तो ये मेरा ही कहायेगा!! :)

    सच कहा!! बहुत उम्दा!! सन्नाट आलेख!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हुज़ूर-ए-वाला आपके सौजन्य से दो ठो फोटो चेप रहा हूँ...

      हटाएं
    2. इसे मध्य प्रदेश में बेशरम की झाड़ी बुलाते हैं. :)

      हटाएं
  4. अबे जालिम रेंड तेरी कोशिका में कौनसा जीन हैं……ज़रा मेरी दलहन को भी लग जा !

    जवाब देंहटाएं
  5. " एक वृक्ष दस पूत समान ।" प्राञ्जल-प्रवाह-पूर्ण प्रशंसनीय प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  6. ये सत्य है जिसको सत्यापित करना होगा ... पर प्राकृति से जंग ... कब तक, कहां तक ...

    जवाब देंहटाएं
  7. बिल्कुल सच ...बहुत सार्थक प्रस्तुति...

    जवाब देंहटाएं
  8. ये सही लग रहा है कि मानव प्रवृति के खिलाफ,जो कि सिर्फ प्रकृति के दोहन में ही
    लगा रहता है,प्रकृति रेंड के पेड़ और जंगली झाड़ियों को स्वयं उगने,फलने-फूलने
    का वरदान देती है। सुंदर प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं

यूं ही लिख रहा हूँ...आपकी प्रतिक्रियाएं मिलें तो लिखने का मकसद मिल जाये...आपके शब्द हौसला देते हैं...विचारों से अवश्य अवगत कराएं...

न ब्रूयात सत्यम अप्रियं

हमारे हिन्दू बाहुल्य देश में धर्म का आधार बहुत ही अध्यात्मिक, नैतिक और आदर्शवादी रहा है. ऊँचे जीवन मूल्यों को जीना आसान नहीं होता. जो धर्म य...